बुधवार, 30 दिसंबर 2009

कब तक कराहती रहेगी देश की निरीह जनता

कब तक कराहती रहेगी देश की निरीह जनता

``रोजनामचा`` के बदल गए हैं मायने

(लिमटी खरे)


देश को आजाद हुए छ: दशक से अधिक का समय बीत चुका है। आम आदमी को मिलने वाली सुविधाएं आज भी नगण्य ही हैं। मंहगाई ने देश के आखिरी आदमी की कमर तोड रखी है, वहीं दूसरी ओर धनपति और अधिक संपत्ति के मालिक बनते जा रहे हैं। बाहुबली, अपराधी और धनाड्य वर्ग शासक की भूमिका में आ गया है। पिस रही है तो केवल निरीह रियाया। आज देश में पुलिस पर यह संगीन आरोप आम हो गया है कि उसे गरीबों की चीत्कार सुनने की रत्ती भर भी फुर्सत नहीं है। यह है आजादी के दीवाने सच्चे भारतीयों के समनों के भारत की वर्तमान तस्वीर।

यह बात आईने के मानिंद साफ है कि आजादी के उपरांत भारत गणराज्य की पुलिस को जिस तरह की कार्यप्रणाली को अंगीकार करना चाहिए था, वह उसने किया नहीं। सत्तर के दशक के उत्तरार्ध में जब देश में आपात काल (ईमरजेंसी) लगाई गई थी, तब से अब तक यह बात उभरकर सामने आई है कि भारत देश में प्रजातंत्र नहीं वरन पुलिस के बल पर हिटलरशाही चल रही है।


अमूमन पुलिस थाने में जाकर शिकायत करने पर पुलिस उसे तफ्तीश में ले लेती है। पुलिस जिन मामलों को अदालत की देहरी तक ले जाने की मंशा रखती है, उन्हें छोडकर अन्य मामलात में पुलिस भी प्रथम सूचना प्रतिवेदन (एफआईआर) दर्ज करना मुनासिब नहीं समझती है। जिलों में भी पुलिस कप्तान जब क्राईम मीटिंग लेते हैं तो इन्हीं एफआईआर की संख्या के हिसाब से ही कोतवाली या थानों में अपराधों के घटित होने की संख्या का अनुमान लगाया जाता है।

वर्तमान में फस्र्ट इंफरमेशन रिपोर्ट दर्ज करना या न करना पुलिस के विवेक पर ही माना जाता है। नई व्यवस्था में पुलिस के विवेक पर इसे नहीं छोडा जाएगा। अगर पुलिस ने अपने विवेक का इस्तेमाल भी किया तो उसे इसका पर्याप्त कारण देना होगा कि उसने एफआईआर दर्ज नहीं की तो क्यों और यह काम पुलिस के लिए काफी कठिन होगा।


प्रभावशाली व्यक्ति इन शिकायतों को ठण्डे बस्ते के हवाले करने या ठिकाने लगाने में कोई कोर कसर नहीं रख छोडते हैं। यही कारण है कि रूचिका गिरहोत्रा के मामले में एक पुलिस महानिरीक्षक स्तर के अधिकारी एसपीएस राठौर के खिलाफ शिकायत को एफआईआर में बदलने में एक दो माह नहीं वरन् पूरे नौ साल लग जाते हैं। पुलिस तो फिर भी एफआईआर दर्ज नहीं करती अगर उच्च न्यायालय ने स्वयं संज्ञान न लिया होता तो।

इन परिस्थितियों में देश के अनूठे गृह मंत्री पलनिअप्पन चिदम्बरम की पहल का खुले दिल से स्वागत किया जाना चाहिए जिसमें उन्होंने हर संगीन अपराध में शिकायत को ही एफआईआर मानने की मंशा जताई है। निश्चित तौर पर इसके लिए सीआरपीसी में आवश्यक संशोधन किया जाना होगा। यक्ष प्रश्न तब भी वहीं खडा होगा कि क्या चिदम्बरम की मंशा को देश की पुलिस ईमानदारी से अमली जामा पहना सकेगी।

देश में जहां अनेक सूबों में थानों से लेकर जिलों की बोली लगाई जाती हो वहां चिदम्बरम की मंशा लागू हो सके इसमें संदेह ही नजर आता है, और अगर धोखे से पुलिस ईमानदारी से अपना काम भी करना चाहे तो हमारे देश के ``जनसेवक`` उन्हें यह करने नहीं देंगे।

वैसे गृहमंत्री चिदम्बरम की सोच को देश की पुलिस अंगीकार करे इसमें संशय ही लगता है। इसका कारण इसके लागू करने में होने वाली व्यवहारिक कठिनाईयां हैं। एक तो देश में पुलिस के पास पर्याप्त पुलिस बल का अभाव है दूसरे इसे अगर लागू किया जाता है तो देश के पुलिस थानों में अपराधों की तादाद में रिकार्ड उछाल आने की आशंका है। फिर इन केसों के निष्पादन के लिए अदालतों की संख्या वैसे भी कम है। वर्तमान में देश में तीन करोड से ज्यादा मुकदमे पहले सही लंबित हैं।


देखा जाए तो पुलिस का दायित्व आम जनता की जान माल की हिफाजत के साथ समाज में भयमुक्त वातावरण निर्मित करना है। एसा नहीं कि देश की पुलिस ही भ्रष्ट, नाकारा, बेईमान है, दरअसल पुलिस के चंद मुलाजिमों के कारण देश में खाकी बदनाम हो रही है। पुलिस की साख गिराने के लिए एक अदद सिपाही (कांस्टेबल) से लेकर भारतीय प्रशासनिक सेवा के अफसरान भी जिम्मेदार हैं।

पुलिस के रोजनामचा के मायने दिनों दिन बदल गए हैं, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है। कल तक दिन भर की घटनाओं को अपने आप में समाहित करने वाले रोजनामचा में अब तो प्रभावशाली लोगों और पुलिस की मर्जी के प्रकरणों की सूची बनकर रह गया है यह रोजनामचा। कोई गरीब अगर किसी संगीन अपराध की एफआईआर दर्ज कराना भी चाहे तो पुलिस के अनगिनत सवालों के सामने वह टूट जाता है। फिर पुलिस के कारिंदे उसे डरा धमका कर वापस जाने पर मजबूर कर देते हैं। इसके बाद भी अगर वह जिद पर अडा रहा तो पुलिस उसे ही उल्टे मामले में फंसाने से नहीं चूकती है। एसे एक नहीं अनेकों उदहारण हमारे सामने हैं जिनमें पुलिस ने फरियादी को ही आरोपी बना दिया हो।


गृह मंत्री पी.चिदम्बरम काफी धीर गंभीर और नब्ज पर हाथ रखकर चलने वाले नेताओं में से हैं। इस बार उन्होंने अगर कोई बात सोची है तो इसके दूरगामी परिणाम निश्चित तौर पर राहत देने वाले होंगे। सरकार का आपराधिक दण्ड संहिता में संशोधन का प्रस्ताव स्वागत योग्य है, जिसमें दरोगा से यह स्पष्टीकरण मांगा जा सके कि उसने एफआईआर दर्ज नहीं की तो इसके पीछे क्या कारण थे।

सरकार को चाहिए कि इस तरह के जनता से सीधे जुडे मसले को लागू करने के पूर्व इसके अच्छे और बुरे दोनों प्रभावों के बारे में भली भांति विचार कर ले। यह सच है कि आज देश में दो तिहाई से ज्यादा लोग किसी न किसी तरह से न्याय के लिए भटकने पर मजबूर हैं।

भारत सरकार का गृह मंत्रालय अगर एक परिपत्र जारी कर दे और रातों रात देश की व्यवस्था सुधर जाए एसा प्रतीत नहीं होता है। सिर्फ आदेश जारी करने की रस्मअदायगी से कुछ हासिल नहीं होने वाला है। सरकार को यह भी सुनिश्चित करना होगा कि उसके आदेश की तामीली किस तरह हो रही है, वरना हुक्मरानों के फरमानों को देश के सरकारी मुलाजिम किस कदर हवा में उडाते आए हैं यह बात किसी से छिपी नहीं है।

अगर इसे लागू कर दिया जाता है तो आवश्यक्ता होगी इसकी समय समय पर समीक्षा की। इसके अलावा इससे जुडे हर पहलू जैसे न्यायालय, अभियोजन आदि के मामलों में भी ध्यान देना आवश्यक होगा। कुल मिलाकर सरकार को इस मसले से जुडे हर पहलू को चाक चौबंद बनाने के लिए त्वरित कार्यवाही की दरकार होगी।

आजादी मिलने के साठ सालों बाद भी देश की रियाया ब्रितानी हुकूमत से बुरी जिंदगी गुजर बसर करने पर मजबूर है। राजनेताओं ने पुलिस को अपने हाथों की लौंडी बनाकर रखा है, जिसका उपयोग वह अपने विरोधियों के शमन के लिए ज्यादा कर रहे हैं। देश में पुलिस की कार्यप्रणाली में व्यापक सुधार की दरकार काफी समय से महसूस भी की जा रही थी।

कोई टिप्पणी नहीं: