एआईआर में अपने हो गए पराए
ऑल इण्डिया रेडियो मानता है नेपाली को विदेशी भाषा
(लिमटी खरे)
आज के दौडते भागते युग में देश के बारे में बच्चों और युवा होती पीढी का सामान्य ज्ञान काफी हद तक कमजोर माना जा सकता है। देश में कितने राज्य और उनकी राजधानियों के बारे में सत्तर फीसदी लोगों को पूरी जानकारी न हो तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। किस सूबे की आधिकारिक भाषा क्या है, इस बात की जानकारी युवाओं को तो छोडिए भारत सरकार के सूचना और प्रसारण मन्त्रालय के आला अधिकारियों को भी नहीं है।
सििक्कम भारत देश का हिस्सा है। चीन भी इस बात तो स्वीकार कर चुका है, कि सििक्कम भारत गणराज्य का ही एक अंग है। भारत गणराज्य के सूचना प्रसारण मन्त्रालय और प्रसार भारती के अधीन काम करने वाला ऑल इण्डिया रेडियो (एआईआर) इस राय से इत्तेफाक रखता दिखाई नहीं देता है। एआईआर की विदेश प्रसारण सेवा में एआईआर को आज भी विदेशी भाषा का दर्जा दिया गया है, जबकि सििक्कम की आधिकारिक भाषा नेपाली ही है। इतना ही नहीं 1992 में संविधान की आठवीं अनुसूची में नेपाली को शामिल किया जा चुका है। एआईआर की हिम्मत तो देखिए इसकी अनदेखी कर एक तरह से एआईआर द्वारा संविधान की ही उपेक्षा की जा रही है।
भारत गणराज्य के गणतन्त्र की स्थापना के साथ ही 1950 में तत्कालीन प्रधानमन्त्री पण्डित जवाहर लाल नेहरू के कार्यकाल में विदेशों में कल्चर प्रोपोगण्डा करने की गरज से विदेश प्रसारण सेवा का श्रीगणेश किया गया था। इस सेवा का कूटनीतिक महत्व भी होता था, इसमें विदेश प्रसारण सेवा के तहत वहां बोली जाने वाली भाषा में प्रोग्राम का प्रसारण किया जाता था। एआईआर ने वहां की भाषा के जानकारों की अलग से नियुक्ति की थी।
मजे की बात तो यह है कि विदेश प्रसारण सेवा में काम करने वाले अधिकारियों कर्मचारियों के वेतन भत्ते और सेवा शतेंZ भारत में काम करने वाले कर्मचारियों से एकदम अलग ही होते हैं। 50 के दशक में जिन देशोें को विदेश प्रसारण सेवा के लिए चििन्हत किया था, उनमें पाकिस्तान, अफगानिस्तान, आस्ट्रेलिया, ईस्ट और वेस्ट आफ्रीका, न्यूजीलेण्ड, मारीशस, ब्रिटेन, ईस्ट और वेस्ट यूरोप, नार्थ ईस्ट, ईस्ट एण्ड साउथ ईस्ट एशिया, श्रीलंका, म्यामांर, बंग्लादेश आदि शामिल थे।
एआईआर द्वारा नेपाली भाषा को विदेशी भाषा का दर्जा दिए जाने के बावजूद भी अनियमित (केजुअल) अनुवादक और उद्घोषकों को भारतीय भाषा के अनुरूप भुगतान किया जा रहा है, जो समझ से परे ही है। बताते हैं कि कुछ समय पहले केजुअल अनुवादक और उद्घोषकों द्वारा भुगतान लेने से इंकार कर दिया गया था। बाद में समझाईश के बाद मामला शान्त हो सका था।
उधर पडोसी मुल्क नेपाल जहां की आधिकारिक भाषा नेपाली ही है, ने भारत के ऑल इण्डिया रेडियो के इस तरह के कदम पर एआईआर के मुंह पर एक जबर्दस्त तमाचा जड दिया है। नेपाल में उपराष्ट्रपति पद की शपथ परमानन्द झा द्वारा हिन्दी में लेकर एक नजीर पेश कर दी। इतना ही नहीं नेपाल सरकार ने एक असाधारण विधेयक पेश कर लोगों को चौंका दिया हैै। इस विधेयक में देश के महामहिम राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति पद की शपथ मातृभाषा में लिए जाने का प्रस्ताव दिया गया था।
अब सवाल यह उठता है कि 1992 में आठवीं अनुसूची में शामिल किए जाने के 18 साल बाद भी इस मामले को लंबित कर लापरवाही क्यों बरती जा रही है। यह अकेला एसा मामला नहीं है, जबकि हिन्दी को मुंह की खानी पडी हो। वैसे भी हिन्दी देश की भाषा है। लोगों के दिलोदिमाग में बसे महात्मा गांधी, पहले प्रधानमन्त्री जवाहर लाल नेहरू से लेकर आज तक के निजाम हिन्दी को प्रमोट करने के नारे लगाते आए हैं, पर हिन्दी अपनी दुर्दशा पर आज भी आंसू बहाने पर मजबूर है।
लोग कहते हैं कि दिल्ली हिन्दी नहीं अंग्रेजी में कही गई बात ही सुनती है। हिन्दी सहित भारतीय भाषाओं के प्रोत्साहन के लिए अब तक करोडों अरबोें रूपए खर्च किए जा चुके हैं, दूसरी ओर सरकारी तन्त्र द्वारा हिन्दी को ही हाशिए पर लाने से नहीं चूका जाता है। हिन्दी भाषी राज्यों में ही हिन्दी की कमर पूरी तरह टूट चुकी है। ईएसडी के प्रोग्राम में ``प्रेस रिव्यू`` नाम का प्रोग्राम होता है। इसमें भारतीय अखबारों में छपी खबरों और संपादकीय का जिकर किया जाता है। विडम्बना देखिए कि इसमें हिन्दी में छपे अखबरों को शामिल नहीं किया जाता है। यद्यपि एसा कोई नियम नहीं है कि इसमें सिर्फ आंग्ल भाषा में छपे अखबारों का ही उल्लेख किया जाए पर यह हिन्दुस्तान है मेरे भाई और यहां अफसरों की मुगलई चलती आई है, और आगे भी अफसरशाही के बेलगाम घोडे अनन्त गति से दौडते ही रहेंगे।
सििक्कम भारत देश का हिस्सा है। चीन भी इस बात तो स्वीकार कर चुका है, कि सििक्कम भारत गणराज्य का ही एक अंग है। भारत गणराज्य के सूचना प्रसारण मन्त्रालय और प्रसार भारती के अधीन काम करने वाला ऑल इण्डिया रेडियो (एआईआर) इस राय से इत्तेफाक रखता दिखाई नहीं देता है। एआईआर की विदेश प्रसारण सेवा में एआईआर को आज भी विदेशी भाषा का दर्जा दिया गया है, जबकि सििक्कम की आधिकारिक भाषा नेपाली ही है। इतना ही नहीं 1992 में संविधान की आठवीं अनुसूची में नेपाली को शामिल किया जा चुका है। एआईआर की हिम्मत तो देखिए इसकी अनदेखी कर एक तरह से एआईआर द्वारा संविधान की ही उपेक्षा की जा रही है।
भारत गणराज्य के गणतन्त्र की स्थापना के साथ ही 1950 में तत्कालीन प्रधानमन्त्री पण्डित जवाहर लाल नेहरू के कार्यकाल में विदेशों में कल्चर प्रोपोगण्डा करने की गरज से विदेश प्रसारण सेवा का श्रीगणेश किया गया था। इस सेवा का कूटनीतिक महत्व भी होता था, इसमें विदेश प्रसारण सेवा के तहत वहां बोली जाने वाली भाषा में प्रोग्राम का प्रसारण किया जाता था। एआईआर ने वहां की भाषा के जानकारों की अलग से नियुक्ति की थी।
मजे की बात तो यह है कि विदेश प्रसारण सेवा में काम करने वाले अधिकारियों कर्मचारियों के वेतन भत्ते और सेवा शतेंZ भारत में काम करने वाले कर्मचारियों से एकदम अलग ही होते हैं। 50 के दशक में जिन देशोें को विदेश प्रसारण सेवा के लिए चििन्हत किया था, उनमें पाकिस्तान, अफगानिस्तान, आस्ट्रेलिया, ईस्ट और वेस्ट आफ्रीका, न्यूजीलेण्ड, मारीशस, ब्रिटेन, ईस्ट और वेस्ट यूरोप, नार्थ ईस्ट, ईस्ट एण्ड साउथ ईस्ट एशिया, श्रीलंका, म्यामांर, बंग्लादेश आदि शामिल थे।
एआईआर द्वारा नेपाली भाषा को विदेशी भाषा का दर्जा दिए जाने के बावजूद भी अनियमित (केजुअल) अनुवादक और उद्घोषकों को भारतीय भाषा के अनुरूप भुगतान किया जा रहा है, जो समझ से परे ही है। बताते हैं कि कुछ समय पहले केजुअल अनुवादक और उद्घोषकों द्वारा भुगतान लेने से इंकार कर दिया गया था। बाद में समझाईश के बाद मामला शान्त हो सका था।
उधर पडोसी मुल्क नेपाल जहां की आधिकारिक भाषा नेपाली ही है, ने भारत के ऑल इण्डिया रेडियो के इस तरह के कदम पर एआईआर के मुंह पर एक जबर्दस्त तमाचा जड दिया है। नेपाल में उपराष्ट्रपति पद की शपथ परमानन्द झा द्वारा हिन्दी में लेकर एक नजीर पेश कर दी। इतना ही नहीं नेपाल सरकार ने एक असाधारण विधेयक पेश कर लोगों को चौंका दिया हैै। इस विधेयक में देश के महामहिम राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति पद की शपथ मातृभाषा में लिए जाने का प्रस्ताव दिया गया था।
अब सवाल यह उठता है कि 1992 में आठवीं अनुसूची में शामिल किए जाने के 18 साल बाद भी इस मामले को लंबित कर लापरवाही क्यों बरती जा रही है। यह अकेला एसा मामला नहीं है, जबकि हिन्दी को मुंह की खानी पडी हो। वैसे भी हिन्दी देश की भाषा है। लोगों के दिलोदिमाग में बसे महात्मा गांधी, पहले प्रधानमन्त्री जवाहर लाल नेहरू से लेकर आज तक के निजाम हिन्दी को प्रमोट करने के नारे लगाते आए हैं, पर हिन्दी अपनी दुर्दशा पर आज भी आंसू बहाने पर मजबूर है।
लोग कहते हैं कि दिल्ली हिन्दी नहीं अंग्रेजी में कही गई बात ही सुनती है। हिन्दी सहित भारतीय भाषाओं के प्रोत्साहन के लिए अब तक करोडों अरबोें रूपए खर्च किए जा चुके हैं, दूसरी ओर सरकारी तन्त्र द्वारा हिन्दी को ही हाशिए पर लाने से नहीं चूका जाता है। हिन्दी भाषी राज्यों में ही हिन्दी की कमर पूरी तरह टूट चुकी है। ईएसडी के प्रोग्राम में ``प्रेस रिव्यू`` नाम का प्रोग्राम होता है। इसमें भारतीय अखबारों में छपी खबरों और संपादकीय का जिकर किया जाता है। विडम्बना देखिए कि इसमें हिन्दी में छपे अखबरों को शामिल नहीं किया जाता है। यद्यपि एसा कोई नियम नहीं है कि इसमें सिर्फ आंग्ल भाषा में छपे अखबारों का ही उल्लेख किया जाए पर यह हिन्दुस्तान है मेरे भाई और यहां अफसरों की मुगलई चलती आई है, और आगे भी अफसरशाही के बेलगाम घोडे अनन्त गति से दौडते ही रहेंगे।
1 टिप्पणी:
Thank you for raising this issue. This is really, really very shameful indeed . The issue needs to be brought into focus once again in all Hindi papers.
एक टिप्पणी भेजें