बुधवार, 30 जून 2010

कहां गई बापू के सपनों की कांग्रेस

आदर्शों से भटकी बापू की कांग्रेस!

सोनिया को वेतन भत्ते अस्वीकार कर पेश करना होगा नजीर

लोकतंत्र में रियाया से अधिक खुद की सुख सुविधा की चिंता!

वेतन भत्तों में अटकी रहती है जनसेवकों की सांसे

(लिमटी खरे)

भारत गणराज्य में आज सुबह उठकर चाय पीने से रात के खाने तक हर मामले में भारत की जनता पर करारोपण इतना जबर्दस्त है कि वह चाहकर भी आजाद भारत में सांसे नहीं ले पा रही है। जनता जनार्दन के लिए अब जीना मुहाल ही हो चुका है, बावजूद इसके भारत गणराज्य में जनसेवक चाहे वे नौकरशाह हों, विधायक या सांसद, सभी अपने वेतन भत्तों में उत्तरोत्तर वृद्धि ही करवाते जा रहे हैं। भात गणराज्य में 1952 में संवैधानिक तौर पर संसद का गठन हुआ था, इसके दो साल बाद सांसदों को वेतन भत्ते देने का प्रावधान करने वाला कानून अस्तित्व में आया था। मजे की बात तो यह है कि तब से अब तक 25 मर्तबा संसद सदस्यों के वेतन भत्ते बढाने का काम किया गया है। जैसे जैसे मंहगाई का सूचकांक उपर उठता है, जनसेवक इसकी चपेट में खुद को घिरा महसूस करते हैं और अपने वेतन भत्तों में बेतहाशा इजाफा करने के मार्ग प्रशस्त कर लेते हैं। हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं कि जनसेवकों को आवाम ए हिन्द के दुख दर्द से कोई सरोकार नहीं है।

हाल ही में संसद की स्थाई समिति ने सांसदो के वेतन को एक दो नहीं वरन पांच गुना बढाने की सिफारिश की है। वर्तमान में कांग्रेसनीत संप्रग सरकार केंद्र पर काबिज है। कांग्रेस द्वारा समय समय पर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के नाम को भुनाया जाता रहा है, यह बात किसी से छिपी नहीं है, पर जब बापू के आदर्शों पर चलने की बारी आती है तो कांग्रेस के वर्तमान सरमायादार पल्ला झाडने से गुरेज भी नहीं करते हैं। इतिहास इस बात का साक्षी है कि महात्मा गांधी कभी भी सांसदों को वेतन भत्ते देने के पक्ष में नहीं रहे हैं। संविधान सभा सहित अनेक नेताओं ने आजादी के उपरांत देश के खाली खजाने को देखकर बिना वेतन ही काम करने का निर्णय लिया था, और उसे अमली जामा पहनाया भी।

संसद हो अथवा विधानसभा या विधान परिषद जब भी वेतन भत्ते बढाने की बात आती है, इसका स्वागत सभी सदस्य मेजें थपथपाकर करते हैं। सवाल यह उठता है कि खुद ही अपने वेतन का निर्धारण करना कहां की नैतिकता है। जब मंहगाई या करारोपण की बात आती है तब सांसद गरीब की थाली में से निवाले निकालने में गुरेज नहीं करते और अपनी जेब भरने की बारी आती है, तब वे संकोच नहीं करते। नौकरशाह, सरकारी कर्मचारी, सांसद, विधायक को तो एक तारीख को उनकी पगार मिल जाती है, पर जो नौकरी में नहीं हैं, खुद ही श्रम कर आजीवीकोपार्जन का काम करते हैं, उनका हिस्से में आखिर क्या आता है! उनके हिस्से में तो करों से लदा फदा मंहगा सामान ही आता है। आम आदमी के लिए क्या मोटी पगार पाने वाले जनसेवक कुछ सोचने की स्थिति में रहते हैं, जवाब नकारात्मक ही मिलता है इन सारी बातों का। फिर कैसे और कौन कह सकता है कि दुनिया के सबसे बडे प्रजातांत्रिक देश के निवासी हैं। यह तो हिटलरशाही की श्रेणी में ही आता है।

एक तरफ पेट्रोल, डीजल, केरोसिन, रसोई गैस के दाम बढाकर देश की जनता की कमर तोडने का कुत्सित प्रयास किया गया, तो दूसरी ओर जनता की सेवा का आडंबर रचने वाले जनता के चुने नुमाईंदों ने अपना वेतन बढाकर जनता को मुंह चिढाने का प्रयास भी किया है, जो निंदनीय ही कहा जाएगा। रीढ विहीन विपक्ष ने भी अपने निहित स्वार्थ के चलते वेतन भत्ते बढाने में हामी भरी है, सवाल यह उठता है कि इसके बाद सरकार के गलत कदमों का विरोध करने का नैतिक साहस क्या उनके पास बचेगा! कांग्रेस के कुशाग्र बुद्धि वाले रणनीतिकारों ने सांसदों के वेतन भत्तों को पांच गुना बढाने की जलेबी लटकाकर विपक्ष की विरोध की धार को पूरी तरह बोथरा ही किया है। अब क्या मुंह लेकर विपक्ष जनता के सामने जाकर मूल्यवृद्धि का विरोध करेगा। जनता जब उनसे पूछेगी कि अपने वेतन भत्तों में बढोत्तरी के लिए हां और मूल्य वृद्धि के लिए ना, यह कैसा तरीका है काम करने का। जनता जब उनसे पूछेगी कि आपके वेतन भत्ते इसलिए बढे क्योंकि मंहगाई का असर आप पर है, तब हम गरीब गुरबों पर क्या मंहगाई का असर नहीं होगा। जब माननीय सांसद खुद अपने और अपने परिवार को एक सहायक के साथ वातानुकूलित श्रेणी में यात्रा करवा सकते हैं सब कुछ निशुल्क पा सकते हैं तब फिर वेतन भत्ते बढाने का क्या ओचित्य! क्या इन सारे प्रश्नों के जवाब हैं माननीय सांसदों के पास।

मंहगाई का हवाला देकर वेतन भत्ते बढवाने में किसी को आपत्ति नहीं होना चाहिए पर जनता अपने चुने हुए माननीयों से यह सवाल करने का अधिकार अवश्य ही रखती है कि क्या कभी किसी माननीय ने संसद में इस बात को पुरजोर तरीके से उठाकर इस पर बहस करना चाहा है कि आखिर क्या वजह है कि मंहगाई सुरसा की तरह मुंह फाडती जा रही है। एक समय था जब राजनीति में नेतिकता का अहम स्थान था। उस वक्त के माननीय संसद में बहस इसलिए किया करते थे ताकि उसका कुछ परिणाम निकले, हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि आज संसद सदस्य बहस महज इसलिए करते हैं कि संसद के चलने के दौरान उनको मिलने वाले भत्तों में कमी न हो पाए।

याद पडता है कि भारत गणराज्य की स्थापना के उपरांत 1995 - 96 में जब सांसदों के वेतन को बढाया जा रहा था तब फारवर्ड ब्लाक के सांसद बसु ने इसके लिए लोकसभा का बहिष्कार किया था। क्या आज कांग्रेस की राजमाता श्रीमति सोनिया गांधी, करोडों की संपत्ति वाले कांग्रेस की नजर में भविष्य के प्रधानमंत्री राहुल गांधी, करोडपति सांसद लाल कृष्ण आडवाणी, नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज, राज्य सभा में विपक्ष के नेता अरूण जेतली सहित अन्य माननीय सांसदों में इतना माद्दा है कि वे जनता के हितों को देखते हुए बढे हुए वेतन भत्तों का विरोध कर सकें? किसी भी मामले में संसद में हंगामा न हो एसा हो ही नहीं सकता है, अनेकों मर्तबा तो संसद को स्थगित तक करने की नौबत आती है, किन्तु जब माननीयों के वेतन भत्ते बढाने की बारी आती है तो हंगामा शोर शराबा मानो थम जाता हो, मेजें थपथपाकर सभी एक स्वर से इसका स्वागत करते हैं, क्या यह आम जनता के साथ छल की श्रेणी में नहीं आता है।

आज भारत गणराज्य के वजीरे आजम एक रूपए वेतन लेकर एक नजीर पेश कर रहे हैं। क्या सोनिया गांधी, राहुल गांधी, एल.के.आडवाणी, सुषमा स्वराज, अरूण जेतली आदि में इतना माद्दा है कि वे भी अपने वेतन को एक रूपए के रूप में प्रतीकात्मक कर लें। अरे और तो छोडिए जब कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमति सोनिया गांधी ने सारे जनसेवकों से अपने वेतन का एक हिस्सा सूखा पीडितों के लिए दान देने का फरमान जारी किया तब सारे जनसेवक बगलें झांकने लगे। कांग्रेस के उद्दंड जनसेवकों ने अपनी ही राजमाता के फरमान की हुकुम उदली करने में जरा भी संकोच नहीं किया, मजबूरन सोनिया गांधी को अपने उस आदेश पर ज्यादा जोर देने के बजाए उसे ‘‘नाट प्रेस‘‘ अर्थात कोई कार्यवाही नहीं चाहते की श्रेणी में लाकर रख दिया। आज जनता मंहगाई के बोझ से दबी हुई है एसे में एक शेर कहना मुनासिब होगा


‘‘ये सारा जिस्म बोझ (मंहगाई) से झुककर दोहरा हुआ होगा!

मैं सजदे में नहीं था आपको धोखा हुआ होगा. . . !!

मुंह तो खोलिए सोनिया गांधी जी

सोमवार, 28 जून 2010

क्‍या इतना ही दर्द था भोपाल गैस कांड के लिए

कहां गया भोपाल गैस कांड का दर्द

मंहगाई के शोर में गुम गया गैस कांड

ध्यान भटकाने, केंद्र सरकार का नायाब तरीका

विपक्ष, मीडिया सभी ने साधा मौन

सब चिंतित पर आम आदमी की चिंता किसी को नहीं

(लिमटी खरे)

भोपाल गैस कांड का फैसला आने के उपरांत मीडिया ने इसे जिस तरह से पेश किया उससे देश भर में गैस पीडितों के प्रति सच्ची हमदर्दी उपजी थी। चहुं ओर से कांग्रेस सरकार को लानत मलानत भेजने का काम किया जा रहा था। गैस कांड के प्रमुख दोषी एवं यूनियन कार्बाईड के तत्कालीन प्रमुख वारेन एंडरसन को देश से भगाने और गैस पीडितों के लिए कम मुआवजा दिलवाने के लिए तत्कालीन राजीव गांधी के नेतृत्व वाली केंद्र और कंुवर अर्जुन सिंह के नेतृत्व वाली प्रदेश सरकार को दोषी माना जा रहा था। मीडिया की संजीदगी की वजह से मामला आग पकडने लगा था, लगने लगा था कि आने वाले दिनों में कहीं कांग्रेसनीत संप्रग सरकार को शर्मसार होकर गद्दी न छोडना पड जाए।

छब्बीस साल साल पुराने मामले में जैसे ही कांग्रेस ने अपने आप को घिरता महसूस किया, उसके प्रबंधको ने तत्काल अपनी राजमाता श्रीमति सोनिया गांधी के कान फूंके और मंहगाई कें जिन्न को बोतल से बाहर निकालने का मशविरा दे डाला। इतिहास साक्षी है जब जब सत्ताधारी दल किसी भी मुद्दे पर घिरने की स्थिति में आते हैं, वे सबसे पहले मंहगाई को बढाने का ही उपक्रम करते हैं, क्योंकि मंहगाई का सीधा सीधा संबंध आम जनता से होता है। आम जनता जैसे ही मंहगाई को बढता देखती है, उसे सारे मामलों से कोई लेना देना नहीं रह जाता है, फिर रियाया सिर्फ और सिर्फ अपने पेट के लिए ही फिकरमंद हो उठती है।

इस बार भी यही हुआ केंद्र सरकार ने प्रट्रोलियम पदार्थों की कीमत बढा दी। यद्यपि यह बात काफी समय से चली आ रही थी कि इसकी मूल्यवृद्धि अत्यावश्यक है, किन्तु मंहगाई से जुडे इस महत्वपूर्ण मामले में मूल्यवृद्धि को केंद्र सरकार ने इसलिए रोककर रखा था, कि वक्त आने पर यह ब्रम्हास्त्र चलाया जा सके। सरकार चाहे अपने कदम को न्यायोचित ठहराने के लिए जो जतन कर लें, पर यह सत्य है कि पेट्रोल, डीजल, रसोई गैस और मिट्टी के तेल के दाम बढाकर सरकार ने आम आदमी को जीवन यापन में और दुष्कर दिनों का आगाज करवा दिया है। लुटा पिटा आम आदमी अपने नसीब को कोसने के अलावा और कुछ करने की स्थिति मंे अपने आप को नहीं पा रहा है, क्योंकि आम आदमी के लिए लडने वाला विपक्ष भी रीढविहीन होकर सत्ताधारी दल के एजेंट की भांति ही कार्यकरता नजर आ रहा है।

सरकार इस बात से नावाकिफ हो यह संभव नहीं है कि डीजल की दरें बढाने का असर पिन टू प्लेन अर्थात हर एक चीज पर पडने वाला है। डीजल मंहगा होगा तो आवागमन मंहगा होगा, रेल बस का किराया बढेगा, माल ढुलाई बढेगी, जाहिर है बडी दरों की भरपाई कोई अपनी जेब से तो करने से रहा, तो इसकी भरपाई जनता का गला काटकर ही की जाएगी। जनसेवकों को इससे क्या लेना देना। जनसेवकों को तो ‘‘आना फ्री, जाना फ्री, रहना फ्री, बिजली फ्री, सब्सीडाईज्ड खाना, उपर से मोटी पगार और पेंशन‘‘ फिर भला उन्हें आम आदमी के दुख दर्द से क्या लेना देना।

आज सत्तर फीसदी जनता को दो जून की रोटी के लिए कितनी मशक्कत करनी पडती है, यह बात किसी जनसेवक को क्या और कैसे पता होगी। गरीब के घर का चूल्हा कैसे जलता है, गरीब अपने और अपने परिवार के लिए कैसे दो वक्त की रोटी का जुगाड कर पाता है, इस बात के बारे में तानाशाह शासक क्या जानें। वनों के राष्ट्रीयकरण के बाद चूल्हे के लिए लकडी जुगाडना कितना दुष्कर है, यह बात कोई गरीब से पूछे। इन परिस्थितियों में गैस कंपनियों के आताताई डीलर्स के पास से चार सौ रूपए का गैस सिलेंडर खरीदकर गरीब अपना चूल्हा जलाए तो कैसे। सरकारों चाहे वह केंद्र हो या राज्यों की, सभी को चाहिए कि पेट्रोलियम पदार्थों पर उन्होंने जो उपकर और कर लगाए हैं, उसे हटाएं सेस हटाएं, स्वर्णिम चतुर्भुज के लिए एक रूपए सेस, अस्सी के दशक में लगाया गया तीन रूपए का खाडी अधिभार, आदि अब तक जारी हैं, इन सबको तत्काल प्रभाव से अगर हटा लिया जाए तो भी आम जनता को पेट्रोल डीजल आज से सस्सा ही मिलेगा।

हम इस बात से सहमत हैं कि विपक्ष द्वारा धरना, प्रदर्शन, अनशन आदि के माध्यम से ही अपना विरोध दर्ज करा सकता है, किन्तु पिछले कुछ सालों में विपक्ष का विरोध प्रतीकात्मक ही रहा है। समय के साथ विपक्ष ने अपने विरोध की धार बोथरी कर सत्ताधारी दल के एजेंट की भूमिका ही निभाई है। नब्बे के दशक के आरंभ के उपरांत एसा कोई भी उदहारण नहीं मिलता है, जिसमें विपक्ष ने आम आदमी के लिए अहिंसा की जंग की हो। जब संसद या विधानसभा में उन्हें अपना पराक्रम दिखाने का मौका मिलता है तो वे सत्ताधारी दल के फेंकी गई रोटी के टुकडे से ‘‘मैनेज‘‘ हो जाते हैं।

आज के परिदृश्य को देखें तो सारी बातें साफ ही हो जाती हैं। कांग्रेस की राजमाता श्रीमति सोनिया गांधी को आपने पुत्र राहुल गांधी को कांग्रेस का सर्वेसर्वा बनाने की चिंता है, राहुल को उत्तर प्रदेश और बिहार पर कब्जा करने की चिंता है, उधर मायावती उत्तर प्रदेश में अपनी साख बचाने चिंतित हैं। मुलायम चिंतित हैं कि किस तरह यूपी से मायाराज को समाप्त किया जाए, अमर सिंह को चिंता सता रही है कि वे मुलायम से अपने अपमान का बदला कैसे लें, ममता बनर्जी को रेल मंत्रालय से ज्यादा चिंता पश्चिम बंगाल में सत्ता पाने की है, विपक्ष में बैठी भाजपा के नेताओं को चिंता है अपने खिसकते जनाधार की, सो वे पुराने नेताओं की घरवापसी के लिए चिंतित हैं, वहीं भाजपा का दूसरा धडा इसलिए चिंतित है कि कहीं भाजपा को पानी पी पी कर कोसने वाले नेताओं की घरवापसी न हो जाए। अब आप ही बताएं कि इस सबमें आम आदमी की चिंता किसे है! जाहिर है किसी को भी नहीं। इन परिस्थितियों में बस एक ही चारा रह जाता है कि आम आदमी को ही अब सडक पर उतरकर अपनी लडाई का परचम बुलंद करना होगा।

पेट्रोलियम पदार्थ की कीमतें बढाने के मामले में सरकार का कदम ठीक हो सकता है, पर हमारी नजर में यह समय किसी भी दृष्टि से उचित नहीं माना जा सकता है। सरकार को बिना किसी दबाव में इस निर्णय को वापस लेना चाहिए। देश में भोपाल गैस कांड के बारे में चल रही बहस को स्वस्थ्य और स्पोर्टिंग वे में लेना चाहिए। अगर कहीं कांग्रेस ने गल्ती भी की है तो उसे स्वीकारना होगा। अपनी गल्ति छिपाने के लिए तरह तरह के तर्क कुतर्क तो सभी दिया करते हैं, पर जिसके अंदर जरा भी नैतिकता होती है वह अपनी गल्ति को स्वीकारने में जरा भी नहीं हिचकता। कांग्रेस को नेतिकता दिखानी ही होगी, भले ही वह उसका प्रहसन करे। जब विपक्ष को कांग्रेस ने अपने घर की लौंडी बना लिया है, विपक्ष ज्वलंत मुद्दों पर कांग्रेस के साथ विरोध का स्वांग रचता है, देश की भोली भाली जनता सत्ता और विपक्ष में बैठे दलों के डमरू पर खुदको नचा रही हो, फिर कांग्रेस को ईमानदार होने का स्वांग रचने में भला क्या आपत्ति।

मंहगाई ने गायब कर दिया भोपाल गैस कांड का दर्द


ये है दिल्ली मेरी जान

(लिमटी खरे)

मंहगाई से दम तोडा ‘‘गैस कांड‘‘ ने
26 साल घिसटने के उपरांत भोपाल गैस कांड का जो फैसला आया उसने 2 और 3 दिसंबर 1984 को भोपाल में रिसी गैस से ज्यादा दम घोंटा है पीडितों और मृतकों के परिवारों का। जैसे तैसे इस मामले की आग को हवा मिली और यह पूरी तरह सुलगने लगा। मीडिया, स्वयंसेवी संगठनों ने इस मामले में सरकार विशेषकर तत्कालीन प्रधानमंत्री और वर्तमान कांग्रेस कमेटी की अध्यक्ष श्रीमति सोनिया गांधी के पति और कांग्रेस की नजर में भविष्य के प्रधानमंत्री राहुल गांधी के पिता स्व.राजीव गांधी को भी कटघरे में खडा कर दिया। ममला बिगडते देख कांग्रेस ने अपने चिरपरिचित अंदाज में लोगों का ध्यान इस ओर से हटाने की गरज से पेट्रोलियम पदार्थों के मूल्य बढा दिए। कल तक मीडिया की सुर्खी बन भोपाल गैस कांड को शुक्रवार को मीडिया की प्रमख खबरों में स्थान नहीं मिल सका। यह तो होना ही था। पेट्रोल पोने चार रूपए, डीजल 2 रूपए तो रसोई गैस को 35 रूपए बढा दिया गया है। इतिहास गवाह है कि जब कभी भी रियाया का ध्यान किसी मुद्दे से हटाना होता है, सरकार द्वारा उसी वक्त मंहगाई को बढा दिया जाता है। मंहगाई एक एसा मुद्दा है, जिसके बढने से आम आदमी का ध्यान बंटना स्वाभाविक ही है। आने वाले दिनों में भोपाल गैस कांड का मसला मंहगाई की मार के आगे दम तोड दे तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए, अलबत्ता इसमें कांग्रेस के चाणक्य माने जाने वाले कुंवर अर्जुन ंिसह और तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व.राजीव गांधी की छवि अवश्य ही धवल बनी रहेगी।
क्या इनके लिए मंहगाई मायने नहीं रखती!
सरकार चाहे कंेद्र की हो किसी सूबे की, हर माह किसी न किसी बहाने से तानाशाह शासकों द्वारा कोई न कोई कर को बढाकर या नया कर लादकर जनता की कमर बोझ से दबा दी जाती है। हाल ही में पेट्रोल डीजल और रसोई गैस की कीमतों को बढाकर सरकार ने एक बार फिर जनता जनार्दन के धैर्य की परीक्षा लेना चाहा है। केंद्र सरकार ने राज्य सरकारों से कहा है कि वे वेट कम करें ताकि पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतें कम हो सकें। सूबों की सरकारों ने अपने विधायकों के वेतन भत्ते इस कदर बढा दिए है कि विधायक भी सरकारों का विरोध करने की स्थिति में नहीं है। यही आलम केंद्र सरकार का है। आना फ्री, जाना फ्री, खाना फ्री, रहना फ्री, फोन फ्री, हवाई जहाज फ्री, इलाज फ्री, सब कुछ फ्री फिर अकूत वेतन और भत्तों की आवश्यक्ता समझ से परे ही है। इतना ही नहीं हाल ही में सरकार ने सांसदों के वेतन को दुगना करने का मन भी बना लिया है। सांसदों को संसद के सत्र के दौरान एक हजार के बजाए दो हजार रूपए रोज भत्ता, संसदीय क्षेत्र भत्ता बीस से बढाकर चालीस हजार, कार्यालय खर्च बीस से बढाकर चोंतीस, हजार करने का निर्णय लिया गया है। वर्तमान में प्रथम श्रेणी वातानुकूलित श्रेणी में निशुल्क यात्रा आदि की सुविधाएं मिल रही हैं। सवाल तो यह उठ रहा है कि जनसेवकों पर करोडों अरबों फूंककर जनता की जेब पर टेक्स बढाकर डाका डालना क्या शासकों को तानाशाह की श्रेणी में लाकर खडा नहीं कर रहा है।
यह है कांग्रेस का हाल सखे!
‘‘आदर्श, नैतिकता, इंसानियत, सही राह पर चलना, किसी को तकलीफ न देना, आदि‘‘, हैं सवा सौ साल पुरानी कांग्रेस की रीतियां नीतियां। क्या वास्तव में कांग्रेस इन पर चल रही है, जवाब नकारात्मक ही आने वाला है। अस्सी के दशक के आरंभ से ही कांग्रेस ने नैतिकता को अपने तन से दूर कर दिया था। इसके बाद भ्रष्टाचार, अनाचार, हिटलरशाही आदि इसके प्रमुख गुणधर्म बनकर रह गए। झारखण्ड में कांग्रेस ने एक नई नजीर पेश की है, जिससे देश पर आधी सदी से ज्यादा राज करने वाली कांग्रेस को खुद को शर्मसार महसूस करना चाहिए। दरअसल देश क पहले महामहिम राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद को झारखण्ड में दुमका में एक जमीन शिक्षण संस्था के निर्माण के लिए सत्तर साल पहले दान की गई थी। आज उस जमीन की कीमत पंद्रह करोड रूपए के लगभग है। चूंकि कांग्रेस द्वारा इतिहास पुरूषों को अपनी निजी संपत्ति माना जाता है इसी के चलते उसने राजेंद्र प्रसाद को दान में मिली जमीन को भी अपना मानकर इस पर कार्यालय बनाने के लिए शिलान्यास पत्थर तक लगवा दिया। मान गए सोनिया जी अपको, आपके मार्गदर्शन और निर्देशन में कांग्रेस इस तरह के कामों में तो बुलंदियों को छू ही लेगी।
युवराज अब ‘‘मिशन बिहार‘‘ पर
कांग्रेस की नजरों में भविष्य के प्रधानमंत्री राहुल गांधी ने अब बिहार में होने वाले विधानसभा चुनावों के रण हेतु अपने तरकश में तीर भरने आरंभ कर दिए हैं। कभी भी रणभेरी बज सकती है और कांग्रेस, भाजपा, जययू, राजद सहित सारे सियासी दल इसमें कूद पडेंगे। राहुल गांधी के विश्वस्त चालीस लोग बिहार के अंदरूनी इलाकों में जाकर सर्वे का काम आरंभ कर चुके हैं। चुनाव के मद्देनजर कांग्रेस के प्रबंधकों को डेमेज कंट्रोल में लगा दिया गया है। राहुल की चार माह पूर्व की बिहार यात्रा से कांग्रेस में कुछ उर्जा का संचार हुआ था, और सूबे में कांग्रेस के पक्ष में बयार बहना आरंभ हुआ था, इसके उपरांत राजद से कांग्रेस में आए पप्पू यादव और साधु यादव एवं शर्मा और टाईटलर के बीच हुई तकरारों ने कांग्रेस को फिर से पीछे धकेलना आरंभ कर दिया है। बिहार में चुनावों में डबल एम ही हावी होता है। अर्थात मनी पावर और मसल पावर दानों ही बिहार में हावी रहते हैं। युवराज राहुल गांधी का कहना है कि इस बार आपराधिक छवि वाले नेताओं को कांग्रेस बाहर का रास्ता दिखाएगी। युवराज को यह नहीं भूलना चाहिए कि वह बिहार के मामले में कुछ कह रहे हैं जहां डबल एम के बिना कुछ नहीं हो सकता है। कहीं एसा न हो कि बिहार में कांग्रेस की सूरत और सीरत बिगाडने के चक्कर में युवराज बिहार से कांग्रेस का नामोनिशान ही मिटा दें।
महाराष्ट्र या मद्यराष्ट्र!
महान राष्ट्र के तौर पर पहचाना जाता है महाराष्ट्र। इस सबू का देश की आजादी मंे योगदान किसी से छिपा नहीं है। इस सबूे के वर्तमान शासक यहां के लोगों को दो वक्त की रोटी तो मुहैया नहीं करवा सकते हैं, यद्यपि वे इस सूबे के लोगों को चोबीसों घंटे ‘‘टुल्ली‘‘ रखने की जुगत अवश्य ही लगा रहे हैं। यहां स्वर्णमहोत्सवी वर्ष में महाराष्ट्र अब पूरी तरह मद्यराष्ट्र बनने की राह पर अग्रसर है। पहले यहां अंगूर की फिर ज्वार की शराब बनाई जाती थी। कालांतर में काजू, जामुन और ज्वार ने भी लोगों को मदहोश करने के लिए अपने आप को शराब बनाने में झोंक दिया। अब महाराष्ट्र में लोगों को शराब के स्वाद में परिवर्तन के लिए पहाड की मैना कहे जाने वाले करोंदे का उपयोग करने की अनुमति दे दी गई है। इतना ही नहीं इस पर सरकार द्वारा अनुदान भी दिया जा रहा है। सच ही कहा है-,‘‘अच्छा हुआ अंगूर को बेटा न हुआ, जिसकी बेटी (शराब) ने उठा रखी सर पे दुनिया।‘‘
किन्नर अलग से चाहते हैं जनगणना!
जब जनगणना हो रही है तो स्त्री और पुरूषों के साथ ही साथ किन्नरों की जनगणना अलग से होनी चाहिए। सच है, ईश्वर ने इन्हें न पुरूष की श्रेणी में रखा है न ही महिला की। यह वर्ग समाज के हाशिए पर ही जीवनयापन करने पर मजबूर है। समाज में इन्हें प्रतिष्ठित स्थान नहीं मिल सका है। बीसवीं सदी के उत्तरार्ध तक किन्नरों को समाज में अच्छी नजरों से नहीं देखा जाता था। बाद में लोगों की सोच बदली और इन्हें कमोबेश बराबरी का दर्जा मिल ही गया। 2011 की जनगणना के लिए किन्नरों ने मांग कर दी है कि इनकी जनगणना पृथक से की जानी चाहिए। किन्नरों की बढती संख्या और वोट बैंक की चिंता को देखकर सियासी दलों ने भी किन्नरों की इस मांग पर मूक, स्पष्ट या फिर दबे छुपे समर्थन देना आरंभ कर दिया है। वैसे सच ही है हाशिए पर जीवन यापन करने वाले इस वर्ग को सभ्य समाज ने पूरी तरह ही भुला दिया है। कांग्रेस और भाजपा दोनों ही ने किन्नरों की मांग को उचित ठहराते हुए इसका समर्थन कर दिया है, तो लगता है केंद्र सरकार भी इस पर अपनी मुहर लगा ही देगा।
ममता दी की चप्पल!
साधारण घरेलू महिला की छवि वाली केंद्रीय रेल मंत्री ममता बनर्जी की सादगी के बारे में सभी बेहतर तरीके से जानते हैं कि आडम्बर ममता दीदी को कतई नहीं भाता है। वे सरकारी गाडी या मंहगी विलासिता वाली कार के बजाए मारूति मेक की अपनी छोटी सी कार में चलना ही पसंद करती हैं। ममता बनर्जी के पैरों में मध्य प्रदेश के पूर्व गैस राहत मंत्री आरिफ अकील की तरह ही स्लीपर हुआ करतीं है। वे चाहे जहां जाएं पर स्लीपर का मोह वे तज नहीं पातीं है। एक चप्पल निर्माता कंपनी ने ममता दी की शान में ध्धृष्टता कर मारी। कहते हैं उसने ममता की इजाजत के बिना ही उनकी चप्पल वाली फोटो अपने विज्ञापन में छाप दी। विपक्ष ने आरोप लगा दिया कि इस विज्ञापन के एवज में ममता ने कंपनी से पैसे लिए हैं। पश्चिम बंगाल में चुनाव करीब हैं, तो आरोप प्रत्यारोपों का अंतहीन सिलसिला तो जारी ही रहेगा। चूंकि मामला लाभ का बन रहा है तो ममता की पेशानी पर परेशानी झलकना स्वाभाविक ही है इसके पहले कांग्रेस की राजमाता श्रीमति सोनिया गांधी और जया बच्चन इसमें उलझ चुकीं हैं। अगर यह साबित हो गया तो ममता की सांसदी खतरे में पड सकती है। ममला पुलिस के पास है, देखते हैं विपक्ष किस स्तर तक ममता को घेरने में कामयाब हो पाता है।
मुखिया को ही नहीं पता कितने बच्चे हैं उसके!
क्या यह संभव है कि घर के मुखिया को इस बात का इल्म न हो कि उसके कुल कितने बच्चे हैं। जी हां भारत गणराज्य में यह बात साफ तौर पर उभरकर आई है कि मुखिया ही नहीं जानता कि उसकी कितनी शाखाएं हैं। देश के पंचायत राज मंत्रालय को ही नहीं पता है कि देश में कितनी पंचायतें हैं, है न आश्चर्य की बात। ग्रामीण विकास संबंधी संसद की स्थाई समिति ने पंचायती राज मंत्रालय संबंधी अपनी रिपोर्ट में कहा है कि यह आश्चर्यजनक है कि पंचायती राज मंत्रालय को ही नहीं पता की आज की तारीख में देश में कितनी जिला पंचायतें हैं। मंत्रालय कहता है कि देश में 608 जिले हैं जबकि समिति को पता चला है कि देश में 619 जिले हैं। अब आवाम ए हिन्द इस बात का अंदाजा सहज ही लगा सकती है कि भारत गणराज्य में तानाशाह शासक किस कदर मस्ती के मद में चूर होकर रियाया के साथ नाईंसाफी करने पर आमदा हैं। अब तो बस भगवान राम के अवतार ही का इंतजार है, जो आकर इन कंस, रावण, हिरणकश्यप रूपी आताताईयों से जनता को निजात दिलाए।
डाओ केमिकल पर फैसला क्यों नहीं!
भोपाल गैस कांड के लिए दोषी यूनियन कार्बाईड को खरीदने वाली डाओ केमिकल की जिम्मेदारी तय करने में कांग्रेसनीत केंद्र सरकार आखिर क्यांे हीला हवाला कर रही है। इससे संबंधित मामला अदालत में लंबित होने का हवाला देकर केंद्र सरकार भले ही अपना दामन बचाने का प्रयास कर रही हो पर वह रेत में गर्दन गडाए शतुर्मुग से अधिक कुछ और नहीं कर पा रही है। पूर्व में डाओ केमिकल के साथ जो 47 करोड डालर का फैसला हुआ था, उसे बढाने के मामले में भी कोई फैसला नहीं लिया जा सका है। आश्चर्य तो इस बात पर है कि मंत्रीमण्डल की पांच बैठकों के बाद भी यह मामला निरूत्तरित ही है। सबसे अधिक आश्चर्य तो इस बात पर हो रहा है कि भोपाल गैस कांड के बाद 26 सालों के उपरांत आए लचर फैसले से देश भर में गुस्सा चरम पर है, और केंद्र सरकार है कि ठीक उसी तरह चैन की बंसी बजा रही है जिस तरह जलते रोम देश के दौरान वहां का शासक नीरो चैन की बंसी बजा रहा था।
महिलाएं अबला या ‘‘आ बला‘‘!
दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा दी गई व्यवस्था से समूचा पुरूष समाज सकते में आ गया है। दिल्ली में दहेज उत्पीडन मामले में पत्नि सहित ससुराल पक्ष के लोगों ने पति और उसके परिजनों के खिलाफ आपराधिक मामला पंजीबद्ध करवाया है। अब इस मामले में उच्च न्यायालय ने कहा है कि वह अपनी पत्नि के लिए मकान खरीदे या जेल जाने को तैयार रहे। इसके लिए कोर्ट ने पत्नि से अठ्ठारह लाख रूपए तक का मकान देखने को भी कहा है। देश में महिलाओं के पक्ष में कानून के लचीलेपन का बेजा फायदा उठाने से महिलाएं चूक नहीं रहीं हैं। दहेज उत्पीडन जैसे हथियार के जरिए महिलाओं द्वारा पुरूषों को प्रताडित किया जाता रहा है। आज आवश्यक्ता इस बात की है कि दशकों पुराने बने इस कानून में संशोधन के लिए राष्ट्रव्यापी बहस करवाई जाए और उसके उपरांत इसमें संशोधन किया जाए। सवाल यह उठता है कि अगर पति सक्षम नहीं है तो वह आखिर कहां से अपनी पत्नि या बच्चों को गुजारा भत्ता देगा! एक तरफ तो महिलाओं को बराबरी का दर्जा देने की वकालत हो रही है उससे उलट इस मामले में सारी जिम्मेदारी पति पर ही आयत करना उचित नहीं कहा जा सकता है।
जवाब में खोल ही दी नकल माफिया की पोल
स्कूल हो या कालेज उत्तर प्रदेश में नकल माफिया का बोलबाला इतना है कि सरकारें उनका कुछ भी नहीं बिगाडने की स्थिति में हैं। यूपी बोर्ड भले ही एशिया की सबसे बडी परीक्षा करवाने का गौरव अपने भाल पर बांधे अपनी पीठ ठोक रहा हो पर यह सत्य है कि यूपी में नकल माफिया की जडें बहुत ही गहरी हैं। विश्व के सात अजूबों में शामिल ताज महल को अपने आंचल में समेटने वाले आगरा शहर में डेढ दर्जन विद्यार्थियों ने अपने भविष्य की परवाह न करते हुए उत्तर पुस्तिकाओं में प्रश्नपत्र को हल करने के बजाए नकल माफिया का कच्चा चिट्ठा खोल कर रख दिया है। इन विद्यार्थियों ने लिखा है कि पांच हजार न देने पर फेल कराने की धमकी दी थी, नकल माफिया ने। इतना ही नहीं इसमें तीन शिक्षक, दो लिपिक और बीस नकल माफियाओं के नामों का उल्लेख किया गया है। इन सभी ने आग्रह किया है कि उनकी बात को बोर्ड तक पहुंचाया जाए। अरे विद्यार्थी मित्रों क्या आप यह मानते हैं कि बोर्ड की मिलीभगत के बिना यह सब संभव है, नहीं न, तो बस अब क्या किया जा सकता है, सिस्टम मंे ही जंग लग चुकी है, फिर किससे उम्मीद रखी जाए।
लालू यादव का पुत्रमोह
संप्रग सरकार के पहले चरण में स्वयंभू प्रबंधन गुरू बनकर उभरे लालू प्रसाद यादव इन दिनों राजनीति से निर्वासित जीवन जीने पर मजबूर हैं। लालू यादव को संप्रग दो में तवज्जो नहीं मिल सकी है। उनका रेल महकमा भी अब उन्हें घास नहीं डाल रहा है। तेज तर्रार ममता बनर्जी को रेल विभाग का दायित्व सौंपा गया है। लालू यादव के मन में अब पुत्रमोह जबर्दस्त तरीके से जागा है। अन्य नेताओं की तरह लालू यादव ने भी अब अपनी विरासत अपने उत्तारधिकारी तेजस्वी को सौंपने की तैयारी कर रहे हैं। इसके पहले वे अपनी अर्धांग्नी को राजनीति में कुदा चुके हैं। लगता है कि लालू यादव यह संदेश देना चाह रहे हैं कि वंशवाद की राजनीति का कापीराईट नेहरू गांधी परिवार वाली कांग्रेस के पास नहीं है, वे भी इसका उपयोग कर सकते हैं। लालू की बदौलत आईपीएल टीम के सदस्य तो बन गए तेजस्वी पर वे अभी बडे खिलाडियों की सेवा टहल में ही लगे हैं, राजनीति में वे उपर से उतरंेगे तो जाहिर है उन्हें किसी की सेवा टहल नहीं करना होगा।
पुच्छल तारा
जिंदगी और मौत को अनेक कवियों, शायरों, कथाकरों आदि ने परिभाषित किया है। जिंदगी के बारे में न जाने कितनी बातें कहीं गईं हैं, और उससे कहीं ओर मौत के बारे में दोनों के बीच सामंजस्य भी बिठाया गया है। गुड्डू ठाकुर एक ईमेल भेजकर इसी को रेखांकित करने का प्रयास करते हैं। गुड्डू ठाकुर लिखते हैं कि सरदार भगत सिंह ने सही कहा था कि ‘‘जिंदगी तो अपनी ही ‘दम‘ पर जी जाती है. . . .।‘‘ क्योंकि . . . ‘‘औरों के कांधों पर तो ‘जनाजे‘ ही उठा करते हैं. . . .।‘‘

शुक्रवार, 25 जून 2010

सांप के भागने के बाद लकीर तक नहीं पीटी जनसेवकों ने!

सुस्सुप्तावस्था के 26 साल

वोट बैंक की खातिर अब घडियाली आंसू बहा रहे हैं नेता

एंडरसन को लाने के बजाए देश के दोषियों को डाला जाए जेल में

आखिर क्यों खामोश हैं कांग्रेस की राजमाता

(लिमटी खरे)

अस्सी के दशक तक माध्यमिक शिक्षा के अध्ययन के दरम्यान प्राणी विज्ञान विषय मंे मेंढक के बारे में सविस्तार पढाया जाता था। मेंढक बारिश में पूरी तरह सक्रिय हो जाते हैं फिर उसके बाद शनैः शनैः वे निष्क्रीय होने लगते हैं। साल में कुछ माह एसे होते हैं, जिनमें मेंढक न कुछ खाते हैं न पीते हैं, बस पडे रहते हैं, यह कहलाती है ‘‘सुस्सुप्तावस्था‘‘। आश्चर्य की बात है कि भारत गणराज्य की सरकारें रीढ विहीन विपक्ष दोनों ही दुनिया की अब तक की सबसे भीषणतम औद्योगिक त्रासदी ‘भोपाल गैस कांड‘ के छब्बीस साल बीतने तक सुस्सुप्तावस्था में रहे। इसका फैसला आने के बाद फिर इन दोनों ही बिरादरी के मेंढकों ने अपना मुंह खोला और बारिश की फुहार होते ही टर्राना आरंभ कर दिया है।

कितने आश्चर्य की बात है कि बीस हजार लोगों को असमय ही मौत के मुंह में ढकेलने और लाखों को स्थाई या आंशिक अपंग और बीमार बनाने के लिए जिम्मेदार यूनियन कार्बाईड के तत्कालीन प्रमुख वारेन एंडरसन को भारत सरकार के नुमाईंदे, अखिल भारतीय पुलिस और प्रशासनिक सेवा के मध्य प्रदेश काडर के अधिकारी तत्कालीन जिला दण्डाधिकारी मोती सिह और जिला पुलिस अधीक्षक स्वराज पुरी दोनों ही सरकारी वाहन में उस हत्यारे के चालक परिचालक बनकर उसे राजकीय अतिथि के मानिंद विमानतल तक छोडने गए। सभी ने इस तरह के फुटेज निजी समाचार चेनल्स में देखे हैं।

सबसे अधिक आश्चर्य की बात तो यह है कि इतना सब कुछ होने के बाद भी छोटी मोटी बात को तानकर चद्दर बनाने वाले राजनेताओं ने छब्बीस साल तक इस मामले में मौन साधे रखा था। किसी ने इसमें हताहत हुए या जान गंवा चुके लोगों की सुध नहीं ली। न्यायालय ने चाहे जो सजा दी है, किन्तु तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व.राजीव गांधी और मुख्यमंत्री कुंवर अर्जुन सिंह तो इस मामले में जनता के कटघरे में दोषी सिद्ध हो चुके हैं। मामला आईने के मानिंद साफ है कि कांग्रेस के सर्वेसर्वा रहे नेहरू गांधी परिवार की चौथी पीढी के पायोनियर स्व.राजीव गांधी के नेतृत्व वाली केंद्र और कांग्रेस की ही कुंवर अर्जुन सिंह के नेतृत्व वाली मध्य प्रदेश सरकार ने हत्यारे वारेन एंडरसन को सुरक्षित भारत से बाहर जाने के मार्ग प्रशस्त किए थे।

1984 के गैस हादसे के उपरांत के घटनाक्रम से साफ हो जाता है कि कार्पोरेट जगत में यह संदेश साफ तौर पर चला गया कि जहरीले कीटनाशकों का करोबार करने वाली अंतर्राष्ट्रीय फर्म चाहें तो अपनी लापरवाही के बाद हजारों हत्याएं और लाखों को मजबूर बनने के बाद भी पैसे के दम पर साफ बचकर निकल सकते हैं। भारत गणराज्य की नपुंसक तत्कालीन कांग्रेस सरकार और मध्य प्रदेश की सरकार ने अपनी रियाया के प्रति जवाबदेही दर्शाने के बजाए आरोपी गोरी चमडी वालों की जवाबदेही को ढांकने का ही प्रयास किया, जो निंदनीय है। 1992 में विश्व विकास प्रतिवेदन मेें अमेरिका के लारेंस समर्स ने प्रस्तवा दिया था कि प्रदूषणकारी उद्योगों को तीसरी दुनिया अर्थात गरीब या अविकसित देशों की ओर भेज वहां की अर्थव्यवस्था को सुद्रढ किया जाए। दरअसल यह अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के बजाए अपने देशों को प्रदूषण से मुक्त करने का कुत्सित प्रयास था, जिसे हिन्दुस्तान के तानाशाह शासक नहीं समझ सके।

आज मीडिया सहित सभी लोग इस बात पर अडिग हैं कि नब्बे के पेटे में जी रहे वारेन एंडरसन को भारत लाया जाए। भारत को अमेरिका के साथ की गई प्रत्यार्पण संधि के तहत अब तक यह कदम उठा लेना चाहिए था, किन्तु ‘‘समरथ को कहां दोष गोसाईं।‘‘ अमेरिका दुनिया का चौधरी है, भारत उससे दबता है, डरता है, दहशत खाता है, यह बात सत्य है। यही कारण है कि अमेरिका के सामने वह उंची आवाज में बोलने का साहस नहीं जुटा पा रहा है। एंडरसन को भारत नहीं लाया गया और भविष्य में भी उसके आने की संभावनाएं बहुत बलवती नहीं प्रतीत होती हैं, फिर सवाल यह उठता है कि एंडरसन को भारत से भगाने के लिए दोषियों के मामले में केंद्र सरकार मौन क्यों साधे हुए है। क्या वजीरे आजम डॉ.एम.एम.सिंह सहित कांग्रेस की राजमाता श्रीमति सोनिया गांधी का यह दायित्व नहीं बनता है कि वे मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कुंवर अर्जुन सिंह से जोर डालकर इस बात को पूछें कि आखिर कौन था जिसने हजारों लाखों लोगों की हत्या और बीमार होने के दोषी एंडरसन को भारत से भगाया! जाहिर सी बात है दोनों ही कुंवर अर्जुन सिंह से यह बात पूछने का साहस नहीं कर पाएंगे, क्योंकि अगर कुंवर अर्जुन सिंह ने अपनी गाडी का स्टेयरिंग तत्कालीन प्रधानमंत्री और कांग्रेस की सुप्रीमो श्रीमति सोनिया गांधी के पति स्व.राजीव गांधी की ओर कर दिया तब क्या होगा। बस इतनी सी बात से खौफजदा होकर कांग्रेस चुपचाप बैठी अपनी भद्द पिटवा रही है।

भोपाल गैस कांड के उपरांत सरकारी मशीनरी द्वारा उठाए गए हर कदम को ‘‘विचित्र किन्तु सत्य‘‘ की श्रेणी में रखा जा सकता है। 1996 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पूरे मामले को कमजोर कर दिया, आरोपों की लीपापोती कर दी गई और सीबीआई चुपचाप सब कुछ देखती सुनती रही। कांग्रेस का जमीर तो देखिए कितना गिर गया, उसने सर्वोच्च न्यायालय के तत्कालीन प्रधान न्याधीश जस्टिस ए.एम.अहमदी को भोपाल मेमोरियल ट्रस्ट अस्पताल का प्रमुख बना दिया। इतना ही नहीं भाजपा ने कुछ घंटों के लिए एंडरसन के सारथी और बाडी गार्ड बने तत्कालीन पुलिस अधीक्षक को राज्यमंत्री का दर्जा दिया। जब बात उछली तो उन्हें हटा दिया गया। बाद में स्वराज पुरी को कांग्रेस ने एंडरसन को भगाने का पारितोषक दे दिया। मनरेगा में पुरी की नियुक्ति एमीनंेट सिटीजन के तौर पर कर दी गई। आखिर यह सब कुछ कर कांग्रेस और भाजपा क्या संदेश देना चाहती हैं, यह बात समझ से परे ही है। विदेश यात्रा से लौटने पर मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान कहते हैं कि इस हासदे के लिए व्यवस्था नहीं व्यक्ति दोषी है! जिसका जो मन आ रहा है दे रहा है वक्तव्य जमा कर। विज्ञप्तिवीर, और बयानवीर नेताओं की सेनाएं सज चुकी हैं, चारों तरफ से बयान और विज्ञप्तियों के तीरों की बौछारें हो रहीं हैं। देश की जनता विशेषकर गैस से प्रभावित लोगों के परिवार अवसाद में जा रहे हैं, पर किसी को इस बात की कोई परवाह नहीं है।

देखा जाए तो भोपाल गैस पीडितों के लिए सरकार के अब तक के प्रयास नाकाफी ही हैं। राजधानी भोपाल का कमला नेहरू चिकित्सालय बनने के बाद कितने दिनों तक शोभा की सुपारी बना रहा। हमीदिया अस्पताल के छोटे से मिक वार्ड में ठसाठस भरे कराहते मरीजों ने न जाने कितने दिनों तक हिटलर के गेस चेम्बर की यातना भोगी है। वस्तुतः देखा जाए तो यूनियन कार्बाईड के संयत्र का विषेला कचरा अभी तक हटाया नहीं गया है। इतना ही नहीं आसपास के रहवासियों को आज भी पीने का साफ पानी मुहैया नहीं है। छब्बीस सालों में भी अगर कांग्रेस और भाजपा ने सत्ता की मलाई खाने के बाद भी गैस पीडितों के लिए कोई गंभीर प्रयास नहीं किए हैं तो उन्हें सत्ता में बने रहने का नैतिक अधिकार कतई नहीं है। हमारे कहने से क्या होता है, आज मोटी चमडी वाले जनसेवकों को तो यह भी पता नहीं है कि नैतिकता किस चिडिया का नाम है।

गुरुवार, 24 जून 2010

क्या हो गया नेहरू गांधी की कांग्रेस को!

वर्तमान कालिख पोत रहा है कांग्रेस के स्वर्णिम इतिहास पर

हजारों के कातिल एंडरसन के बाडीगार्ड को उपकृत करने में जरा भी नहीं शर्माई कांग्रेस

मनरेगा का एमीनंेट सिटीजन बनाया स्वराज पुरी को

(लिमटी खरे)

‘‘भारत की आजादी में महत्वपूर्ण भूमिका किसने निभाई? भारत गणराज्य को आत्मनिर्भर बनाने के लिए सत्तर के दशक तक ईमानदारी तक किसने प्रयास किया? देश को विकास के पथ पर कौन ले जाने प्रयासरत रहा है? भारत पर जान न्योछावर करने वाले  सच्चे वीर सपूत किस दल से संबद्ध थे?‘‘ इन सारे जवाबों का एक ही उत्तर आता है और वह है ‘‘कांग्रेस‘‘। वर्तमान भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का चेहरा इससे उलटा ही दिख रहा है। अस्सी के दशक के उपरांत की कांग्रेस ने सवा सौ साल पुरानी कांग्रेस का मौखटा अवश्य ही लगाया हुआ है, पर वह काम अपने मूल आदर्श और उद्देश्यों से हटकर ही कर रही है। सच ही कहा है ‘‘जब नास मनुस का छाता है, तब विवेक मर जाता है।‘‘ कांग्रेस के साथ भी कुछ इसी तरह का हो रहा है। हालात देखकर यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि कांग्रेस का विवेक, आत्म सम्मान और स्वाभिमान या तो मर चुका है, या फिर उसने विदेशियों के हाथों गिरवी रख दिया है।

भोपाल गैस कांड के घटने के बाद छब्बीस साल तक वही कांग्रेस जिसने देश पर आधी सदी से ज्यादा राज किया है, अनर्गल उल जलूल हरकतों पर उतारू हो गई है। कांग्रेस के कदम देखकर यह कहना गलत नहीं होगा कि देश में अब प्रजातंत्र नहीं बचा है, देश में हिटलर शाही हावी हो चुकी है। कांग्रेस को जो मन में आ रहा है, वैसे फैसले ले रही है, बिना रीढ का विपक्ष भी आंखों पर पट्टी बांधकर चुपचाप देशवासियों के साथ अन्याय हो सह रहा है। वामदल हों या भाजपा या और किसी दल के सियासी नुमाईंदे सभी मलाई खाने को ही अपना प्रमुख धर्म मानकर काम करने में जुटे हुए हैं, आवाम के दुख दर्द से किसी को कुछ भी लेना देना नहीं रहा है। रियाया मरती है तो मरती रहे, हम तो नोट छाप रहे हैं, जिसको जो सोचना है, सोचता रहे हम तो शतुर्मुग के मानिंद अपना सर रेत में गडाकर यह सोच रहे हैं कि हमें कोई देख नहीं रहा है।

2 और 3 दिसंबर 1984 में देश के हृदय प्रदेश में घटे भोपाल गैस हादसे में बीस हजार से अधिक लोग असमय ही काल कलवित हो गए थे, पांच लाख से ज्यादा प्रभावित या तो अल्लाह को प्यारे हो चुके हैं या फिर घिसट घिसट कर जीवन यापन करने पर मजबूर हैं, पर जनसेवकों को इस बात से कोई लेना देना नहीं है। लेना देना हो भी तो क्यों, उनका अपना कोई सगा इसमें थोडे ही प्रभावित हुआ है। देश की जनता की जान की कीमत इन सभी जनसेवकों के लिए कीडे मकोडों से ज्यादा थोडे ही है। मोटी चमडी वाले जनसेवकों ने तो भोपाल हादसे में मारे गए लोगों के शवों पर सियासी रोटियां सेकने से भी गुरेज नहीं किया। छब्बीस साल तक गैस पीडित अपना दुखडा लेकर सरकारांे के सामने गुहार लगाते रहे पर उनकी आवाज नक्कारखाने में तूती ही साबित हुई है। अब जब फैसला आ गया है तब सारे दलों के लोगों का जमीर जागा है, वह भी जनता को लुभाने और दिखाने के लिए, अपना वोट बैंक पुख्ता करने के लिए।

भोपाल गैस कांड के प्रमुख आरोपी वारेन एंडरसन को भारत लाकर उसकी सुरक्षित वापसी में प्रत्यक्षतः प्रमुख भूमिका वाले भोपाल के तत्कालीन जिला पुलिस अधीक्षक स्वराज पुरी को प्रदेश में सत्तारूढ भारतीय जनता पार्टी ने पुलिस महानिदेशक पद से सेवानिवृत्ति के बाद मध्य प्रदेश में नर्मदा घटी विकास प्राधिकरण में शिकायत निवारण अथारिटी में पदस्थ कर राज्य मंत्री का दर्जा देकर उपकृत किया, अब किस मुंह से भाजपा गैस पीडितों के लिए लडने का दावा कर रही है यह बात समझ से ही परे है। 14 जून को मीडिया ने जब पूर्व मुख्यमंत्री सुंदर लाल पटवा से यह सवाल किया तब भाजपा का जमीर जगा और 15 जून को स्वराज पुरी को उनके पद से हटा दिया गया।

सेवानिवृत वरिष्ठ नौकरशाहों पर पता नहीं क्यों जनसेवक और सरकारें मेहरबान रहा करती हैं। हो सकता है कि सेवाकाल में जनसेवकों के अनैतिक कामों को अंजाम देने के बदले में उन्हें सरकारों द्वारा इस तरह का पारितोषक दिया जाता हो। मध्यप प्रदेश की भाजपा सरकार ने स्वराज पुरी को उनके पद से प्रथक किया तो ‘‘तेरी साडी मेरी साडी से सफेद कैसे‘‘ की तर्ज पर केद्र में सत्तारूढ कांग्रेसनीत संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार ने एंडरसन के ‘‘बाडी गार्ड‘‘ रहे स्वराज पुरी को हाथों हाथ ले लिया है। कांग्रेस की नजर में भविष्य के प्रधानमंत्री राहुल गांधी की पसंद बने केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री ने स्वराज पुरी को महात्मा गांधी रोजगार गारंटी योजना में एमिनेंट सिटीजन बना दिया गया है। स्वराज पुरी की नियुक्ति दो वर्षों के लिए की गई है।

खबर है कि पुरी सहित पांच दर्जन से अधिक लोगों की नियुक्ति इस पद पर की गई है। इनका काम मनरेगा की जमीनी हालातों का जायजा लेकर केंद्र को रिपोर्ट सौंपना है। इतना ही नहीं केंद्रीय मंत्री जोशी ने सभी सूबों के ग्रामीण विकास मंत्रियों को पत्र लिखकर न केवल इनकी नियुक्ति की सूचना दी है, वरन् पुरी सहित अन्य सिटीजन्स को उनके भ्रमण के दौरान आवश्यक सहयोग और सुविधाएं भी उपलब्ध कराने के निर्देश दिए हैं। चूंकि पुरी पर मध्य प्रदेश में दबाव है, अतः उन्हें छत्तीसगढ के राजनांदगांव का प्रभार सौंपा गया है।

आवाम ए हिन्द (भारत गणराज्य की जनता) की स्मृति से अभी यह विस्मृत नहीं हुआ है कि चंद दिनों पहले ही समाचार चेनल्स ने गैस कांड के प्रमुख आरोपी वारेन एंडरसन की गिरफ्तारी के प्रहसन और उसके बाद एंडरसन के ‘‘बाडीगार्ड‘‘ और ‘‘सारथी‘‘ बनकर सरकारी वाहन में तत्कालीन जिला दण्डाधिकारी मोती सिंह के साथ विमानतल तक पहुंचाने और राजकीय अतिथि के मानिंद उसे भगाने के फुटेज दिखाए गए थे। जनता के मन मस्तिष्क में कांग्रेस और भाजपा के प्रति यह सब देख सुनकर भावनाएं किस तरह की होंगी इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है।

कांग्रेस का इतिहास अस्सी के दशक तक स्वर्णिम माना जा सकता है। अस्सी के दशक के उपरांत जब स्व.राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने थे, तब उन्होंने सार्वजनिक तौर पर यह स्वीकार किया था कि सरकार द्वारा आम जनता के लिए भेजे गए एक रूपए में से चंद पैसे ही जनता के हित में खर्च हो पाते हैं। जब भारत गणराज्य जैसे शक्तिशाली देश का वजीरेआजम ही इस तरह की बात को स्वीकार करे वह भी सार्वजनिक तौर पर तो क्या कहा जा सकता है। इसका मतलब साफ है कि कांग्रेस के शासनकाल में ही भ्रष्टाचार की जडों में खाद और पानी तबियत से डाला गया है। एक समय था जब सरकारी कार्यालयों में दप्तियां चस्पा होती थीं, जिन पर लिखा होता था, ‘‘घूस (रिश्वत) लेना और देना अपराध है, घूस लेने और देने वाले दोनों ही पाप के भागी हैं।‘‘ कालांतर में इस तरह के जुमले इतिहास की बात हो चुके हैं। नैतिकता आज दम तोड चुकी है, हावी हैं तो निहित स्वार्थ।

रीढ विहीन विपक्ष भी अपनी बोथली धार लिए सत्तापक्ष से युद्ध का स्वांग रच रहा है। सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच तीन दशकों से चल रही ‘‘नूरा कुश्ती‘‘ से जनता उब चुकी है। अब विपक्ष की कथित हुंकार सुनकर जनता को उबकाई आने लगी है। बीस हजार लोगों के कातिल वारेन एंडरसन के बाडीगार्ड को भाजपा ने अपनी दहलीज से भगाया तो उसी स्वराज पुरी को उपकृत करने में जरा भी नहीं शर्माई कांग्रेस, और पुरी को नियुक्त कर दिया मनरेगा का एमीनंेट सिटीजन, वह भी दो साल के लिए। आज जनता जनार्दन के मानस पटल पर यह प्रश्न कौंधना स्वाभाविक ही है कि नेहरू गांधी के सिद्धांतो पर चलने वाली कांग्रेस को अचानक क्या हो गया है?

बुधवार, 23 जून 2010

भोपाल गैस कांड के तंदूर पर रोटियां सेंकने से बाज आंए राजनेता

समझ से परे है सरकार का अहमदी प्रेम

दोषी अफसरान को भाल का तिलक क्यों बनाती रहीं सरकारें

जीएमओ में कमल नाथ का क्या काम

अर्जुन की अध्यक्षता वाले जीएमओ की सिफारिश का क्या हुआ!

क्या जनता के ध्यान भटकाव के लिए गठित होते हैं जीएमओ

(लिमटी खरे)

भारत गणराज्य का यह दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि सत्तर के दशक के उपरांत देश में नैतिकता को पूरी तरह से विस्मृत कर दिया गया है। मानवीय मूल्यों पर निहित स्वार्थ पूरी तरह हावी हो गए हैं। कहने को भारत गणराज्य का प्रजातंत्र समूचे विश्व में अनूठा है, पर वास्तविकता इससे कोसों दूर है। आज सत्ताधारी दल के साथ ही साथ विपक्ष ने अपने आदर्श, नैतिकता, जनसेवा पर अपने खुद के बनाए गए स्वार्थांे को हावी कर लिया है। ‘‘हमें क्या लेना देना, हमारे साथ कौन सा बुरा हुआ, हम क्यों किसी के पचडे में फंसें, जनता कौन सा खाने को देती है, कल वो हमारे खिलाफ खडा हो गया तो, हमें राजनीति करनी है भईया, हम उनके मामले मंे नहीं बोलेंगे तो कल वे हमारे मामले में मुंह नहीं खोलेंगे, आदि जैसी सोच के चलते भारत में राजनैतिक स्तर रसातल से भी नीचे चला गया है।

छब्बीस साल पहले देश के हृदय प्रदेश भोपाल में हुई विश्व की सबसे भीषणतम औद्योगिक त्रासदी के बाद उसके लिए जिम्मेदार रहे अफसरान को न केवल उस वक्त केंद्र और सूबें में सत्ता की मलाई चखने वाली कांग्रेस ने मलाईदार ओहदों पर रखा, वरन जब विपक्ष में बैठी भाजपा को मौका मिला उसने भी भोपाल गैस त्रासदी के इन बदनुमा दागों को अपने भाल का तिलक बनाने से गुरेज नहीं किया। देश की सबसे बडी अदालत में जब जस्टिस ए.एस.अहमदी ने धाराओं को बदला तब केंद्र सरकार शांत रही। फिर उच्च पदों पर आसीन नौकरशाहों को सेवानिवृत्ति के बाद मोटी पेंशन देने के बाद भी उनके पुनर्वास के लिए उन्हें किसी निगम मण्डल, आयोग, ट्रस्ट का सदस्य या अध्यक्ष बनाने की अपनी प्रवृत्ति के चलते इनकी लाख गलतियां माफी योग्य हो जाती हैं।

इसी तर्ज पर जस्टिस अहमदी को भोपाल मेमोरियल ट्रस्ट का अध्यक्ष बना दिया गया। क्या सरकार ने एक बारगी भी यह नहीं सोचा कि इन धाराओं को बदलकर जस्टिस अहमदी ने भोपाल में मारे गए बीस हजार से अधिक लोगों और पांच लाख से अधिक पीडित या उनके परिवारों के साथ अन्याय किया है। सच ही है राजनीति को अगर एक लाईन में परिभाषित किया जाए तो ‘‘जिस नीति से राज हासिल हो वही राजनीति है।‘‘ कांग्रेस या भाजपा को इस बात से क्या लेना देना था और है कि किन परिस्थितियों में धाराओं को बदला गया।

भोपाल में न्यायालय में मोहन प्रकाश तिवारी ने जो फैसला दिया उस पर उंगली नहीं उठाई जा सकती क्योंकि उन्होंने अपने विवेक से सही फैसला दिया है। जब प्रकरण को ही कमजोर कर प्रस्तुत किया गया तो भारतीय कानून के अनुसार उसके लिए जितनी सजा का प्रावधान होगा वही तो फैसला दिया जाएगा। चूंकि देश की सबसे बडी अदालत ने पहली बार आरोप तय किए थे, तो उससे निचली अदालत उसे किस आधार पर बदल सकती है। भारतीय काननू में यह अधिकार उपरी अदालतों को है कि वे अपने नीचे की अदालतों के फैसलों की समीक्षा कर नई व्यवस्था दें।

जब फैसला आ चुका है, देश व्यापी बहस आरंभ हो चुकी है, तब फिर पूर्व न्यायाधिपति को भोपाल मेमोरियल का अध्यक्ष बनाए रखने का ओचित्य समझ से परे है। सरकार को चाहिए था कि तत्काल प्रभाव से उन्हें इस पद से हटा देेते। मामला आईने की तरह साफ है। सबको सब कुछ समझ में आ रहा है कि दोषी कौन है, पर ‘‘हमें क्या करना है‘‘ वाली सोच के चलते जनता गुमराह होती जा रही है।

प्रधानमंत्री को भी लगा कि मामला कुछ संगीन और संवेदनशील होता जा रहा है। देश भर में इसके खिलाफ माहौल बनता जा रहा है तो उन्होंने भी मंत्री समूह के गठन की औपचारिकता निभा दी। इस मंत्री समूह में केंद्रीय भूतल परिवहन मंत्री कमल नाथ को भी रखा गया है। कमल नाथ अस्सी से लगातार संसद सदस्य हैं, चोरासी में भी वे संसद सदस्य थे। राजीव और संजय गांधी के उपरांत प्रियदर्शनी स्व.श्रीमति इंदिरा गांधी के तीसरे बेटे कमल नाथ का यह पहला टेन्योर था सांसद के रूप में। वे मध्य प्रदेश के छिंदवाडा संसदीय क्षेत्र से चुगे गए थे। इसके बाद वे नरसिंहराव सरकार में वन एवं पर्यवरण तथा वस्त्र मंत्री रहे हैं। इसके बाद वाणिज्य उद्योग और अब भूतल परिवहन मंत्री हैं। यक्ष प्रश्न यह है कि बतौर सांसद मध्य प्रदेश का प्रतिनिधित्व करने के बाद भी कमल नाथ ने आज तक भोपाल गैस कांड के लिए क्या किया है!

इसका उत्तर निश्चित तौर पर नकारात्मक ही आएगा। जब तीस सालों में उन्होंने अपने निर्वाचन वाले सूबे में भोपाल गैस कांड जैसे संवेदनशील मुद्दे पर कुछ नहीं कहा और किया तो अब मंत्री समूह में रहकर वे क्या कर लेंगे। वरिष्ठ पत्रकार ‘‘आलोक तोमर‘‘ अपनी वेव साईट में लिखते हैं कि कमल नाथ भोपाल के गुनाहगार कैसे हैं! वे लिखते हैं कि कमल नाथ के खिलाफ एक बात उछाली जा रही है कि वाशिंगटन में 28 जून 2007 को कमल नाथ की एक पत्र वार्ता को उछाला जा रहा है कि जिसमें उन्होने कहा था कि डाओ केमिकल ने यूनियन कार्बाईड को खरीद लिया है, हादसे के वक्त डाओ केमिकल अस्तित्व में नहीं थी। वरिष्ठ राजनेता और तीस साल की सांसदी कर चुके कमल नाथ को डाओ केमिकल का पक्ष लेने के बजाए भोपाल गैस कांड के मृतकों के परिजनों और पीडितों के प्रति संवेदनशील होना चाहिए था, जो उन्होंने किसी भी दृष्टि से नहीं दिखाया। भोपाल कांड के मृतकों की कीमत पर डाओ केमिकल को देश में फिर से आमद देना किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं कहा जा सकता है। हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि यह भोपाल गैस कांड के मृतकों और पीडितों को एक गाली से कम नहीं है। आज आरोप प्रत्यारोप के कभी न थमने वाले दौर आरंभ हो चुके हैं। भोपाल गैस कांड के फैसले से सियासी तंदूर फिर गरम होकर लाल हो चुका है। सभी जनसेवक अब अपने अपने हिसाब से इसमें अपने विरोधियों के खिलाफ तंदूरी रोटी सेंकना आरंभ कर चुके हैं। एक दूसरे के कपडे उतारने वाले राजनेता यह भूल जाते हैं कि मृतकों के परिजनों और पीडितों को उनके वर्चस्व की लडाई से कोई लेना देना चहीं है, वे तो बस न्याय चाह रहे हैं।

मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और वर्तमान गैस राहत मंत्री बाबू लाल गौर का जमीर भी अचानक जागा है। उन्होंने भी इस तंदूर में अपनी दो चार रोटियां चिपका दी हैं। गौर का कहना है कि 1991 में जब वे गैस राहत मंत्री थे तब उन्होने 9 जुलाई 1991 को तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंहराव को पत्र भी लिखा था। बकौल गौर भोपाल के गैस प्रभावित 36 वार्ड के पांच लाख 58 हजार 245 गैस प्रभावितों में से महज 42 हजार 208 पीडितों को ही मुआवजा देने की बात कही थी उस समय के मंत्री समूह ने। गौर के इस प्रस्ताव पर कि शेष बीस वार्ड के पांच लाख 16 हजार 37 पीडितों को मुआवजा देने पर उस समय गठित मंत्री समूह के अध्यक्ष कुंवर अर्जुन सिंह सहमत थे। बाबू लाल गौर खुद अपनी पीठ थपथपा रहे हैं, पर वे इस बात को बताने से क्यों कतरा रहे हैं कि उन्होंने विधायक रहते इस मामले को कितनी मर्तबा विधानसभा के पटल पर उठाया। वे भोपाल शहर से ही विधायक चुने जाते आए हैं, वे प्रदेश के मुख्यमंत्री भी रहे हैं, फिर उन्होंने मुख्यमंत्री रहते हुए अपने विधानसभा क्षेत्र के भोपाल शहर के गैस पीडितों के लिए क्या प्रयास किए। बाबू लाल गौर को इन बातों को भी सार्वजनिक किया जाना चाहिए।

प्रधानमंत्री डॉ मन मोहन सिंह क्या सारे राजनेता इस बात को जानते हैं कि पब्लिक मेमोरी (जनता की याददाश्त) बहुत ही कमजोर होती है। अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर या संसद पर हमला हो या फिर देश की व्यवसायिक राजधानी मुंबई पर हुए अब तक के सबसे बडे आतंकी हमले की बात। हर मामले में जैसे ही घटना घटती है, वैसे ही चौक चौराहों, पान की दुकानों पर बहस गरम हो जाती है, फिर समय के साथ ही ये चर्चाएं दम तोड देती हैं। भोपाल गैस कांड में भी कुछ यही हो रहा है। मामला अभी गर्म है सो कुछ न कुछ तो करना ही है। मंत्री समूह का गठन कर जनता को भटकाना ही उचित लगा सरकार को। क्या भाजपा के अंदर इतना माद्दा है कि वह कंेद्र सरकार से प्रश्न करे कि गैस कांड के वक्त मुख्यमंत्री रहे कुंवर अर्जुन सिंह की अध्यक्षता में 1991 गठित मंत्री समूह की सिफारिशें क्या थीं, और क्या उन्हें लागू किया गया, अगर नहीं तो अब एक बार फिर से मंत्री समूह के गठन का ओचित्य क्या है! क्या इसका गठन मामले को शांत करने और जनता का ध्यान मूल मुद्दे से भटकाने के लिए है। मीडिया अगर ठान ले और इस मामले को सीरियल के तौर पर चलाते रहे तो देश प्रदेश की सरकारों के साथ ही जनसेवकों को घुटने टेकने पर मजबूर होना पडेगा, यही गैस कांड के मृतकों के प्रति सच्ची श्रृद्धांजली होगी और न्याय की आस में पथरा चुकी पीडितों की आखों में रोशनी की किरण का सूत्रपात हो सकेगा।

दोषी अर्जुन या कांग्रेस



मंगलवार, 22 जून 2010

धनपतियों का संसद में क्या काम!




शिव के राज में बाघों का शिकार

शिव के राज में माता के वाहन पर संकट!
सरताज हैं वन मंत्री, पर मर रहे बाघ एक एक कर

पंेच नेशनल पार्क बना शिकारियों के लिए साफ्ट टारगेट

एक के बाद एक बाघ हो रहे कालकलवित, वनाधिकारी मशगूल मटरगश्ती में

(लिमटी खरे)

देश के हृदय प्रदेश में पिछले कुछ सालों से शिवराज सिंह चौहान का राज कायम है। शिवराज सिंह चौहान के राज में सूबे के सिवनी जिले में मां दुर्गा के वाहन शेर का अस्तित्व समाप्ति की ओर है। भारी भरकम वन महकमे की फौज, विशेष सशस्त्र बल और पुलिस के जवानों के होने के बावजूद भी शिकारी सरेआम जंगल महकमे के अफसरान की खुली आंख से काजल चुराकर भागने में सफल हो रहे हैं। विश्व भर में अपनी पहचान बना चुके भेडिया बालक ‘‘मोगली‘‘ की कर्मस्थली सिवनी जिले के पेंच नेशनल पार्क के इर्दगिर्द तो क्या समूचे सिवनी जिले में वन्य जीव विशेषकर बाघ बुरी तरह संकट में हैं।

पेंच नेशलन पार्क वैसे भी देश में काफी हद तक चर्चा का विषय बना हुआ है, इसका कारण वर्तमान भूतल परिवहन मंत्री कमल नाथ और वन एवं पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश के बीच पेंच को लेकर खिची तलवारें हैं। गौरतलब होगा कि स्वर्णिम चतुर्भुज के अंर्तगत उत्तर दक्षिण गलियारे का निर्माण पेंच नेशनल पार्क के करीब से हो रहा है। कहते हैं जयराम रमेश को यह बताया गया है कि उक्त सडक कमल नाथ के संसदीय क्षेत्र से होकर जा रही है, (जो कि सर्वथा गलत है) जिसके चलते रमेश के वन एवं पर्यावरण विभाग ने इस मार्ग के निर्माण में अनेक पेंच और फच्चर फसा दिए हैं।

इसके साथ ही साथ पेंच नेशनल पार्क कथित तौर पर जंगल में पले बढे भेडिया बालक मोगली की कर्मस्थली माना जाता है सो इसकी पहचान न केवल हिन्दुस्तान वरन् विश्व के अनेक देशों में बन चुकी है। यहां व्यवसायिक उपयोग के लिए आदिवासियों की जमीनों को धनपतियों और यहां पदस्थ रहे अधिकारियों ने कोडियों के भाव खरीदक उन पर मंहगे आलीशान स्टार होटल का निर्माण करवा दिया। पूर्व में यहां पदस्थ रहे एक अनुविभागीय दण्डाधिकारी, ने नेशनल पार्क से सटे इलाके में जमीन खरीदी थी। इस बात का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि राजस्व के एक अनुविभगीय अधिकारी के लिए यह काम कितना मुश्किल होगा! इसी तरह एक अतिरिक्त जिला दण्डाधिकारी ने भी सिवनी से नागपुर मार्ग पर अपने परिजन के नाम से बहुत बडा सा फार्म हाउस खरीद लिया है। चर्चा है कि सिवनी से खवासा का निर्माण करा रही सदभाव कंपनी ने इस फार्म हाउस को पूरी तरह विकसित कर कुआ आदि खोदा गया है जिसमें लगभग एक करोड रूपए की राशि खर्च की गई है। ‘‘जब सैंया भए कोतवाल तो डर काहे का‘‘ की तर्ज पर अधिकारियों द्वारा पेंच नेशनल पार्क के आसपास और जिले की जमीनों पर कब्जा जमा लिया है।

जहां तक रही वन्य जीवों के शिकार की बात तो इस मामले में इतिहास के चंद पन्ने पलटने आवश्यक होंगे। नब्बे के दशक के आरंभ में जिले की वन संपदा इतनी जबर्दस्त थी कि लोग यहां सागौन के साथ ही साथ चंदन बगीचा घूमने देखने आया करते थे। बताते हैं कि कुरई के सकाटा का जंगल इतना सघन हुआ करता था कि लोगों के आकर्षण का केंद्र था यह। इसके उपरांत जब दिग्विजय ंिसह की सरकार सत्ता में आई उसके बाद के वनमंत्रियों की अर्थलिप्सा और निहित स्वार्थ तथा कर्तव्यों के प्रति अनदेखी के चलते सिवनी जिले के जंगल बुरी तरह साफ हो गए। जिले का इतना विशाल चंदन बगीचा आज किन हालातों में हैं, यह बात किसी से छिपी नहीं है, कांग्रेस के शासनकाल में दुर्दशा का शिकार हुआ चंदन बगीचा और उजडी वन्य संपदा को विपक्ष में बैठी भाजपा और उसके विधायक, सांसदों ने चुपचाप उजडने दिया। इस तरह देखा जाए तो जिले की वन्य संपदा के उजडने के लिए कांग्रेस और भाजपा दोनों ही बराबरी के दोषी हैं।

याद पडता है कि जब प्रहलाद सिंह पटेल संसद सदस्य थे, उस दौरान 1995 में तीन शेरों का शिकार कर बेकार अंगो को सडक के किनारे फेंक दिया गया था। उस समय प्रहलाद सिंह पटेल ने इस मामले को संसद में गुंजाया था। केंद्रीय दल इसकी जांच के लिए आया, किन्तु वन्य जीवों के तस्कर और लकडी माफिया इतना ताकतवर था कि केंद्रीय दल ने इसे दुर्घटना में मौत बताकर मामले को रफा दफा कर दिया था। वन्य जीवों के तस्करों का साहस तो देखिए। पेंच नेशनल पार्क में सेलालियों के आकर्षण का केंद्र रही एक शेरनी को परधियों ने 1999 में जिंदा ही उठा लिया गया था। दरअसल यह शेरनी इतनी सीधी थी कि पर्यटक इसे नजदीक जाकर छू भी लिया करते थे।

अभी आठ माह पूर्व ही एक शेर की संदेहास्पद मौत हुई थी। वन्य महकमे ने अपनी खाल बचाने के लिए इसे स्वाभाविक मौत ही बता दिया था। इतना ही नहीं छः माह पूर्व एक बाघ की जहर से मौत हो गई थी। साफ साफ दिखाई दे रहा था कि उसकी मौत पानी में जहर मिले होने के कारण हुई थी। वन विभाग इसे भी स्वाभाविक मोत ही बताने पर आमदा था। बाद में फोरंेसिक रिपोर्ट में इस बात की पुष्टि हो सकी कि उसकी मौत जहर देने से हुई थी। हाल ही में पेंच पधारे प्रदेश के वन मंत्री से जब इस बारे में पूछा गया तो उन्होंने भी गोल मोल जवाब देकर वन महकमे की खाल बचाने का ही उपक्रम किया है।

हाल ही में प्रकाश में आए मामले ने तो होश ही उडा दिए हैं। पेंच नेशनल पार्क से गायब एक शावक का शव एक माह बाद वन विभाग को दिखाई देना अपने आप मंे ही अनेक प्रश्नों को अनुत्तरित ही छोड गया है। कहा जा रहा है कि इस शावक को तंत्र मंत्र के लिए मौत के घाट उतार दिया गया। इस शावक के दो पंजे एक तांत्रिक के पास ले जाते समय छिंदवाडा के वन महकमे द्वारा जप्त किए गए। आश्चर्य की बात तो यह है कि पंेच के रखरखाव के लिए राज्य शासन द्वारा भारी भरकम अलमा पदस्थ किया है जो जनता के द्वारा दिए जा रहे कर से भारी भरकम वेतन पा रहा है फिर एसी लापरवाही कैसे! क्या शिवराज सिंह चौहान स्वयं इस मामले में संज्ञान लेकर वन विभाग में शिख से लेकर नख तक माता दुर्गा के वाहन के साथ किए इस वीभत्स काम के लिए दण्ड देने का साहस कर पाएंगे?

कहा जा रहा है कि 9 मई को उक्त शावक को पंेच नेशनल पार्क के उप संचालक ने स्वयं ही कमजोर हालत में देखा था, इसके बाद से वह कथित तौर पर ‘‘लापता‘‘ था। एसा नहीं कि जिस स्थान पर उसका शव मिला है, वहां पर से उडन दस्ता न गुजरा हो। अगर नहीं गुजरा तो उडन दस्ते को वेतन और उडन दस्ते का डीजल कौन पी जाता है। जब बागड ही खेत को चरने लगे तो फिर खेत को कोई ताकत नहीं बचा सकती है। जब वन विभाग के अधिकारी कर्मचारी ही अपने कर्तव्यों में बेशकीमती इमारती लकडी और वन्य जीवों का दोहन करने का मानस बना लें तो फिर इनकी रखवाली भगवान ही आकर कर सकता है।

सिवनी जिले में काले हिरण भी बहुतायत में पाए जाते हैं। जिला मुख्यालय सिवनी से बमुश्किल पांच सात किलोमीटर के दायरे में ही काले हिरणों के झुण्ड दिखाई पड जाते हैं। इन काले हिरणों का शिकार बडे पैमाने पर किया जा रहा है, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है। हमने अपने पूर्व के आलेख में इन काले हिरणों के लिए एक सेंचुरी बनाने की बात कही थी, पर न तो मध्य प्रदेश सरकार के कानों में ही जूं रेंगी और न ही केंद्र की सरकार को इससे कोई सरोकार दिख रहा है। वन्य जीवों के शिकार और इमारती लकडी की दनादन कटाई को लेकर प्रहलाद सिंह पटेल के अलावा किसी और ने बात किसी मंच पर उठाई हो इसका उदहारण अभी तक तो नहीं मिल सका है। क्या कांग्रेस के जिले के इकलौते विधायक और विधानसभा उपाध्यक्ष ठाकुर हरवंश सिंह सहित सत्तारूढ भाजपा के विधायक श्रीमति नीता पटेरिया, कमल मस्कोले, श्रीमति शशि ठाकुर सहित केंद्र में सत्ता और विपक्ष में बैठे जिले के दोनों सांसद बसोरी सिंह मसराम और के.डी.देशमुख इस मामले को उठाने का मद्दा रखते हैं।

इस तरह के शिकार को दुर्घटना में मौत बताकर एनएचएआई के उत्तर दक्षिण गलियारे के गुजरने में अडंगे कसे जा रहे हैं। एक बार चर्चा के दौरान जिले के एक वरिष्ठतम अधिकारी ने एनएचएआई के सडक निर्माण में फसे पेंच कारीडोर के फच्चर के बारे में अनोपचारिक तौर पर कहा गया था कि शिकारियों द्वारा किए गए शिकार को सडक दुर्घटना बताने से इस सडक का निर्माण और दुष्कर होता जा रहा है। सवाल यह उठता है कि केंद्र में बैठे वन एवं पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश जो वनों और पर्यावरण के बारे में अपनी चिंता का स्वांग रचते हैं वे क्या पेंच का दौरा कर इन सारे अनसुलझे सवालों पर गौर फरमाएंगे। अगर वे एसा करते हैं तो यह न केवल वन और पर्यावरण के मामले में उनका स्वागतयोग्य और अनुकरणीय प्रयास समझा जाएगा, वरन् सिवनी वासियों के साथ पूरा न्याय भी माना जाएगा।

सोमवार, 21 जून 2010

जनता का गला काट अपनी जेबें भर रहे जनसेवक

धनपतियों का संसद में क्या काम!
राजनीति जनसेवा है, पूंजीपति चाहें तो वैसे ही कर सकते हैं

चार सौ चोदह फीसदी बढी है युवराज की संपत्ति पांच सालों में

करोडपति सांसदों की तादाद बढी राज्य सभा में

राज्यसभा में हैं 139 करोडपति सांसद

सांसदों की भारी होती जेबंे

(लिमटी खरे)

देश की सबसे बडी पंचायत संसद एवं राज्यसभा के साथ ही साथ सूबों की आला पंचायत विधानसभा और विधानपरिषदों में चुने जाने वाले ‘‘जनसेवकों‘‘ की संपत्ति का समूचा ब्योरा वर्षवार अगर सार्वजनिक किया जाए तो देश की जनता चक्कर खाकर गिर पडेगी कि जनता की सेवा के लिए जनता द्वारा चुने गए नुमाईंदों के पास इतनी तादाद में दौलत आई कहां से जबकि आम जनता की क्रय शक्ति और जीवन स्तर का ग्राफ दिनों दिन नीचे आता जा रहा है। अखिर इन जनसेवकों के पास एसा कौन सा जादुई चिराग है जिससे ये अपनी संपत्ति दिन दूगनी रात चौगनी बढाते जा रहे हैं और जनता के शरीर का मांस दिनों दिन कम ही होता जा रहा है। देश में आज आधी से अधिक आबादी के पास पहनने को कपडे, रहने को छत और खाने को दो वक्त की रोटी नहीं है और इन जनसेवकों की एक एक पार्टी में लाखों पानी की तरह बहा दिए जाते हैं। अनेक संसद सदस्य तो एसे भी हैं जिन्होंने आज तक यात्रा करने में रेल तो क्या यात्री बस का मुंह भी नहीं देखा। अपने या किराए से लिए गए विमानों में ही इन जनसेवकों ने लगातार यात्राएं की हैं।

2004 और 2009 में ही अगर तुलनात्मक अध्ययन किया जाए तो पता चल जाएगा कि किसकी संपत्ति में कितने फीसदी इजाफा हुआ है। देश की नंगी भूखी गरीब निरीह जनता को यह जानकार आश्चर्य ही होगा कि कांग्रेस की नजरों में भविष्य के प्रधानमंत्री और नेहरू गांधी परिवार की पांचवी पीढी के सदस्य एवं कांग्रेसियों के भावी प्रधानमंत्री राहुल गांधी की संपत्ति में पांच सालों में 414.03 फीसदी की प्रत्यक्ष वृद्धि दर्ज की गई है। उत्तर प्रदेश सूबे से चुने गए राहुल गांधी की 2004 में घोषित संपत्ति 45 लाख 27 हजार 880 रूपए थी। पांच सालों में उन्होंने कहीं कोई उद्योग धंधा नहीं किया, बस सांसद रहे और ‘‘जनसेवा‘‘ की इस जनसेवा में उनकी संपत्ति को मानो पर लगा गए हों। 2009 मंे उनकी घोषित संपत्ति 414 फीसदी बढकर 2 करोड 32 लाख 74 हजार 706 रूपए हो गई। है न कमाल की बात। इस मामले में विपक्ष मूकदर्शक बना हुआ है।

आखिर विपक्ष मुंह खोले भी तो कैसे। राजग के पीएम इन वेटिंग को ही लिया जाए। लाल कृष्ण आडवाणी गुजरात से सांसद हैं, उन्होंने 2004 में अपनी संपत्ति एक करोड 30 लाख 42 हजार 443 रूपए घोषित की थी, जो पांच सालों में 172.52 गुना बढकर तीन करोड 55 लाख 43 हजार 172 रूपए हो गई। क्या आडवाणी और राहुल गांधी देश की जनता के सामने आकर बताने का माद्दा रखते हैं कि उनकी संपत्ति में पंख कैसे लग गए। अगर वे वाकई जनसेवा कर रहे हैं तो निश्चित तौर पर उन्हें धन को हर साल 82 गुना बढाने की तरकीब सभी को बतानी चाहिए। एक रूपए के अस्सी रूपए तो मुंबई का मटका किंग रतन खत्री ही देता है, वह भी सट्टे के माध्यम से। कांग्रेस की नजर में देश के भावी प्रधानमंत्री राहुल गांधी की कौन सी नोट छापने की फेक्टरी लगी है, इसका जवाब विपक्ष ने सवा साल में क्यों नहीं मागा यह बात समझ से परे ही है।

हमाम में सभी नग्नावस्था में ही खडे हैं, क्या कांग्रेस, क्या भाजपा, क्या दूसरे दल और क्या निर्दलीय। संसद चाहे लोकसभा हो या राज्य सभा इस हमाम के बाहर सभी एक दूसरे के खिलाफ नैतिकता की तलवार लिए खडे होकर जनता को बेवकूफ बनाने का स्वांग रचते हैं, और जैसे ही हमाम के अंदर प्रवेश करते हैं, सारी की सारी नेतिकता को वे अपने कपडों की तरह हमाम के बाहर उतारकर छोड जाते हैं। जार्ज फर्नाडिस की संपत्ति तीन करोड 39 लाख 87 हजारा चार सौ दस रूपए थी जो पांच सालांे में 180.81 फीसदी बढकर 9 करोड 54 लाख 39 हजार 978 हो गई। आरजेडी के सुप्रीमो और चारा घोटाला के आरोपी स्वयंभू प्रबंधन गुरू लालू प्रसाद यादव की संपत्ति महज 86 लाख 69 हजार 342 थी, जिसमें 365.69 फीसदी उछाल दर्ज किया गया है, यह 2009 में बढकर तीन करोड 17 लाख दो हजार 693 हो गई।

सबसे अधिक उछाल उत्तर प्रदेश के सांसद अक्षय प्रताप सिंह की संपत्ति में ही दर्ज किया गया है। इनकी संपत्ति 2004 में 21 लाख 69 हजार 847 रूपए थी, जो पांच सालों में महज 1841.06 गुना ही बढी और 2009 में बढकर चार करोड 21 लाख 18 हजार 96 रूपए हो गई। संपत्ति में उछाल के मामले में दूसरी पायदान पर सचिन पायलट हैं। सचिन की संपत्ति पांच सालों में 1746 गुना बढी है। पहले यह दो करोड 51 लाख नो हजार थी, जो 2009 में बढकर 46 करोड, 48 लाख नो हजार पांच सौ अठ्ठावन हो गई है। तीसरी पायदान पर मध्य प्रदेश के समाजवादी संसद सदस्य चंद्र प्रताप सिंह हैं, जिनकी संपत्ति 7 लाख 95 हजार 619 से 1466.69 गुना बढकर 12 करोड 46 लाख चार हजार नो सौ बाईस रूपए हो गई है। चौथे नंबर पर वसुंधरा राजे के पुत्र राजस्थान के सांसद दुष्यंत सिंह हैं। इनकी संपत्ति पहले सात लाख 82 हजार 67 रूपए से 790.34 गुना बढकर छः करोड तीस लाख चउअन हजार 275 रूपए हो गई है। पांचवें नंबर पर दुष्यंत के ममेरे बेटे और केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया हैं। उनकी संपत्ति मेें 430.83 फीसदी इजाफा हुआ है। इनकी संपत्ति 2004 में 2 करोड 80 लाख 87 हजार 39 थी, जो बढकर 2009 में 14 करोड 90 लाख 94 हजार 212 रूपए हो गई।

इतना ही नहीं यह फेहरिस्त काफी लंबी है। दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के सांसद पुत्र संदीप दीक्षित सेंतालीस लाख चोंसठ हजार नो सौ एक रूपए से अपनी संपत्ति को पांच सालों में बढाकर 2 करोड 27 लाख 46 हजार चार सौ अठ्ठाईस तक अर्थात 377.37 फीसदी ही बढा सके। जेवीएम नेता झारखण्ड के बाबूलाल मरांडी इस मामले में कंधे से कंधा मिलाकर ही चल रहे हैं। वे अपनी संपत्ति को पांच लाख से 327.54 फीसदी बढाकर 21 लाख 37 हजार 675 रूपए तक ले गए। बीमार पडे जार्ज फर्नाडिस की संपत्ति अपने आप ही बढती जा रही है। उनकी संपत्ति 3 करोड 39 लाख, 87 हजार 410 रूपए से 265.69 गुना बढकर 2009 में नो करोड 54 लाख 39 हजार 798 रूपए हो गई है।

इस साल के आरंभ तक पीछे के रास्ते से संसदीय सौंध में पहुंचने वाले जनसेवकों में से सौ करोडपति सांसद थे। राज्य सभा को पीछे का रास्ता इसलिए भी कहा जाता है क्योंकि इसमें प्रवेश के लिए नेताओं को जनता का विश्वास हासिल नहीं करना होता है। इसके लिए जनता के चुने विधायकों द्वारा ही संसद सदस्य का चुनाव किया जाता है, इस तरह कुल मिलाकर अच्छे प्रबंधक, ध्नबल, बाहुबल अर्थात इसमें प्रवेश की ताकत सिर्फ और सिर्फ महाबली ही रखते हैं। राज्य सभा में राहुल बजाज के पास तीन सौ करोड तो जया बच्चन के पास 215 करोड रूपए, और तो और अमर सिंह के पास 79 करोड की संपत्ति है। जनता दल के एमएएम रामास्वामी के पास 278 करोड, टी.कांग्रेस के सुब्बारामी रेड्डी 272 करोड की संपत्ति है। अप्रेल तक राज्य सभा में 33 सांसद कांग्रेस के, भाजपा के 21 और समाजवादी पार्टी के सात सांसद करोडपति थे। वर्तमान में राज्यसभा पहुंचे 49 सांसदों में से 38 सांसद करोडपति हैं।

हमारे मतानुसार भारत गणराज्य में रहने वाली भूखी, अधनंगी, बिना छत और बुनियादी सुविधाओं के लिए तरसती आम जनता को यह जानने का हक है कि आखिर ‘‘आलादीन का कौन सा जिन्न‘‘ इन जनसेवकों के पास है जिसे घिसकर ये जनसेवक पांच सालों में अपनी संपत्ति को कई गुना बढा लेते हैं, वहीं दूसरी ओर देश में आम जनता का जीवन स्तर कई गुना नीते आता जा रहा है। भारत सरकार को चाहिए कि जनसेवकों के लिए नया कानून बनाकर जिसकी संपत्ति पचास लाख से अधिक हो उसकी संपत्ति को देश की संपत्ति मानकर उसका उपयोग आम जनता के कल्याण के लिए करने का नियम बनाए। इससे संसद और विधानसभाओं में धनपतियों का आना रूक सकेगा। धनपति की सोच विशुद्ध व्यापारिक होती है, उसे आवाम के दुख दर्द से कोई लेना देना नहीं होता है। सरकार के साथ ही साथ रियाया को भी अब जागना होगा, वरना कहीं देर न हो जाए और धनपति देश और सूबों की पंचायतों मंे बैठकर देश प्रदेश को अपने निहित स्वार्थ और लाभ के चलते विदेशियों के हाथों गिरवी न रख दें।

अर्जुन के पेंतरे से घबराई कांग्रेस

ये है दिल्ली मेरी जान
(लिमटी खरे)
अंततः अर्जुन ने चला ही दिया ब्रम्हास्त्र
भोपाल गैस कांड के वक्त मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे कुंवर अर्जुन सिह जो कि पिछले दो सालों से निर्वासित जीवन जी रहे थे, ने अपना मौन चिरपरिचित अंदाज में तोड ही दिया है। बीसवीं सदी के अंतिम दशकों में कांग्रेस के माने हुए चाणक्य ने भोपाल गैस कांड से जुडे अनछुए पहलुओं के बारे में एक समाचार पत्र को दिए साक्षात्कार में साफ कह दिया है कि वे उस मसले में जो भी बात कहेंगे वह उनकी ‘‘आत्मकथा‘‘ का हिस्सा बनेगी। साक्षात्कार में कुंवर साहेब ने साफ शब्दों में कहा है कि एंडरसन अगर भारत लोटा था तो वह राजीव गांधी के नेतृत्व वाली सरकार के इस भरोसे पर लौटा था कि उसे भोपाल से वापस अमेरिका भेज दिया जाएगा। अर्जुन के इस ब्रम्हास्त्र से कांग्रेस अब रक्षात्मक मुद्रा में दिखाई दे रही है। गौरतलब है कि भोपाल गैस कांड के वक्त देश में नेहरू गांधी परिवार की चौथी पीढी के सदस्य राजीव गांधी देश के वजीरे आजम थे, और आज उनकी अर्धांग्नी श्रीमति सोनिया गांधी कांग्रेस की राजमाता की भूमिका में हैं, एवं कांग्रेस की नजरों में पांचवी पीढी के राहुल गांधी देश की बागडोर संभालने को आतुर दिख रहे हैं। कांग्रेस के प्रबंधकों की राय के चलते सोनिया ने कुंवर अर्जुन सिंह को दूध में से मख्खी की तरह निकालकर बाहर फेंक दिया है। भोपाल गैस कांड के फैसले के उपरांत उनके सरकारी आवास में लाल बत्ती और हूटर्स की आवाजें फिर गूंजने लगीं हैं। अर्जुन सिंह ने अभी सिर्फ इशारा किया है, अगर उन्होंने साफ तौर पर कुछ कह दिया तो आने वाले दो तीन दशकों तक कांग्रेस इस बदनुमा दाग को शायद ही धो पाए।
राशि पीडितों के लिए थी आपके लिए नहीं नितीश जी
बिहार का दर्द माना जाता है कोसी नदी को। हर साल कोसी नदी की बाढ से बिहार वासी बुरी तरह प्रभावित होते हैं। केंद्र और राज्य सरकारों की इमदाद इसमें पूरी नहीं पडती है। देश भर के हर सूबे से लोग कोसी नदी के प्रभावितों के लिए मदद भेजते हैं। इसी तारतम्य में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी राज्य की ओर से पांच करोड रूपए की राशि की सहायता पहुंचाई थी, जिसे बिहार के निजाम नितीश कुमार ने वापस लौटा दिया है। पिछले दिनों नितीश कुमार और नरेंद्र मोदी के फोटो युक्त विज्ञापनों से नितीश कुमार खासे खफा हैं, क्योंकि मोदी ने भाजपा की कार्यकारिणी में भी इस इमदाद का जिकर कर दिया था। नितीश के पैसा वापस करते ही सियासत की बासी फिर उबाल मारने लगी है। कांग्रेस का कहना है कि यह गुजरात की जनता का अपमान है, तो भाजपा इसे सीधे सीधे स्वाभिमान पर ठेस का मामला मान रही है। आपसी अहं और सियासी लाभ हानी का गणित अपने आप में अलग मामला हो सकता है पर नितीश कुमार को कम से कम इस मामले को मानवीय नजरिए से देखना चाहिए था। कारण चाहे जो भी हो पर यह राशि मोदी ने नितीश कुमार को व्यक्तिगत खर्च के लिए नहीं वरन कोसी प्रभावितों के लिए दी थी, और अपने अहं को निश्चित तौर पर नितीश को प्रथक ही रखना चाहिए था।
युवराज का अधेडावस्था में प्रवेश
कांग्रेस के युवराज ने चालीस बसंत देख लिए हैं, वे अब अधेडावस्था में कदम रख चुके हैं, फिर भी युवा और उर्जावान का तगमा उनके साथ है। नोकरी पेशा में जरूर साठ साल में सेवा निवृति का नियम हो या लोग बचकानी या बेहूदगी की बात पर ‘‘सठिया गए हैं‘‘ अर्थात साठ पूरे कर चुके हैं का मुहावरा कहें पर राजनीति में युवा की आयु 45 से 65 मानी जाती है। अरे देश जो चला रहे हैं राजनेता तो उनके हिसाब से अगर 45 से 65 की आयु युवा की है तो मानना ही पडेगा। इस हिसाब से कांग्रेस की नजरों में भविष्य के प्रधानमंत्री राहुल गांधी अभी बच्चे हैं, पांच साल के उपरांत वे युवा होंगे। विदेशों में पले बढे देश पर आधी सदी से ज्यादा राज करने और आजादी की लडाई में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी ने अपना चालीसवां जन्म दिन हिन्दुस्तान में किसी दलित की झोपडी में मनाने के बजाए हिन्दुस्तान पर हुकूमत करने वाले ब्रिटेन के लंदन शहर में मनाना उचित समझा। हो सकता है कि दलित और गरीब प्रेम के प्रहसन से राहुल गांधी उकता चुके हों और वे खुली हवा में विदेश में जाकर चेन की सांस लेने की इच्छा रख रहे हों।
घट सकती है बिटियों की तादाद
देश में एक बार फिर स्त्री पुरूष के अनुपात में और अधिक गिरावट होने की आशंका जताई जा रही है। चालू जनगणना में प्रति हजार पुरूषों पर महिलाओं की तादाद में और कमी आ सकती है। 2001 में शून्य से छः वर्ष तक की आयु वर्ग में प्रति एक हजार बालक पर बालिकाओं की तादाद 927 ही रह गई थी। वैसे यह अनुपात 931 का है पर शून्य से छ साल में पांच की कमी आई थी, जो चिन्ता का विषय थी। आने वाले समय में इसी आयु वर्ग में जनसंख्या में अनुपातिक कमी दर्ज होने की आशंका निर्मूल नहीं कही जा सकती है। 2004 में यह बालिकाओं की संख्या 892, तो 2005 से 2007 के मध्य यह संख्या बढकर नौ सौ पार हो गई थी, इसके बाद 2006 से 2008 के मध्य यह 904 तक ही पहुंची थी। इस जनगणना में उम्मीद जताई जा रही है कि शून्य से छः साल के बीच प्रति हजार बालकों में बालिकाओं की संख्या 915 के उपर शायद ही पहुंच सके। अगर एसा है तो बालिका बचाओ के सरकारी नारे पर व्यय होने वाली करोडों अरबों रूपए की राशि कौन डकार गया इस बात के लिए एक आयोग का गठन करना ही होगा।
पेंच के निर्माण को तुडवाओ जयराम जी
लगता है केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश को सिर्फ और सिर्फ भूतल परिवहन मंत्री कमल नाथ से ही कोई शिकवा शिकायत है, तभी तो एसा लगता है कि चाहे कुछ हो जाए पर वे एनएचएआई के मध्य प्रदेश के सिवनी जिले से होकर गुजरने वाले हिस्से को पेंच नेशनल पार्क के आसपास से गुजरने नहीं देंगे। यह कारण है कि इसका निर्माण आज भी बंद पडा हुआ है, महज बीस किलोमीटर की सडक ही नहीं बनी है। इस सडक का रखरखाव भी कोई नहीं कर रहा है सो इसकी चमडी उधड चुकी है। सडका का निर्माण करने वाली कंपनी ने मध्य प्रदेश की सीमा पर खवासा के पास पांच सौ मीटर के हिस्से को बनाने से हाथ खडे कर लिए हैं। जयराम रमेश को सडक बनने से पर्यावरण का नुकसान तो दिख रहा है, किन्तु पेंच नेशनल पार्क में धडाधड बन रहे रिसोर्ट काटेज और निर्माण कार्य नहीं दिख रहे हैं, जिससे पर्यावरण प्रभावित हो रहा है। पेंच नेशनल पार्क से लगी आदिवासियों की बेशकीमति जमीन कोडियों के दाम धन्नासेठ खरीदकर इन पर आलीशान होटल बनवा रहे हैं। अरे रमेश जी, कम से कम इन निर्माण को तुडवाओ और वन्य जीवों के साथ ही साथ पर्यावरण का नुकसान होने से बचाएं।
देशी नहीं अंग्रेजी कहो जनाब!
देशी और अंग्रेजी शराब में बहुत अंतर होता है। नशा दोनों का एक जैसा हो सकता है, पर सूरत सीरत अलग अलग ही होती है, स्वाद और सुगंध या दुर्गंध अलग होती है। आने वाले समय में देश की राजनैतिक राजधानी दिल्ली में देशी शराब पीने वालों को अंग्रेजी का जायका मिलेगा। यह शुद्ध होने के साथ ही साथ मदिरा सेवन करने वालों के शरीर के लिए तुलनात्मक कम हानिकारक होगी। अब तक दिल्ली में बिकने वाली देशी शराब को रेक्टीफाईड एल्कोहल से बनाया जाता है, पर अब इसके निर्माण में एक्सट्रा न्यूट्रल एल्कोहल का प्रयोग किया जाएगा। देशी शराब में अल्कोहल की तादाद 28.5 तो अंग्रेजी में 42.8 होती है, देशी शराब को जिससे बनाया जाता है, वह शरीर के लिए काफी घातक हो जाता है। वैसे भी दिल्ली में बेवडों ने सारे रिकार्ड ही ध्वस्त कर रखे हैं। अवैध और जहरीली शराब के मामले में भी दिल्ली ने पताके गाड रखे हैं। जहरीली शराब पीकर मरने वालों की तादाद सबसे अधिक दिल्ली में ही है। एसे में अगर सरकार बेवडों का ध्यान रखे तो कम से मयकशों को तो शीला दीक्षित सरकार को सलाम बजाना ही चाहिए।
रहें अतिरिक्त करारोपण के लिए तैयार
आने वाले समय में मंहगाई से टूट चुकी आम आदमी की कमर और बुरी तरह टूटने की आशंका है। मानव संसाधन और विकास मंत्रालय एक एसी योजना बनाने जा रहा है जिसमें देश भर के पचास लाख से अधिक स्कूली शिक्षकों को कुछ सुविधाएं उपलब्ध कराई जाएं। सूत्रों की मानें तो मानव संसाधन विकास मंत्री ने एक एसा खाका तैयार किया है, जिसमें शिक्षकों का बीमा, चिकित्सा सुविधा मुहैया कराई जाएगी। इसके साथ ही साथ उन्हें सस्ती दरों पर निवास के लिए मकान भी उपलब्ध कराए जा सकते हैं। बताते हैं कि मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल के एक चहेते ने अपने बिल्डर मित्र के कहने पर सिब्बल ने मकान उपलब्ध कराने पर सहमति जता दी है। विभागीय सूत्रों का कहना है कि पचास लाख से अधिक मकानों के निर्माण के लिए केंद्रीय स्तर पर ही टेंडर प्रक्रिया अपनाई जाएगी। बीमा, मकान और चिकित्सा सुविधा में होने वाले व्यय का भोगमान अंततोगत्वा अतिरिक्त करारोपण कर आम जनता की जेब से ही वसूला जाएगा, सो कमर टूटा आम आदमी रहे आगे और टूटने को तैयार।
बनारस के रईस भिखारी!
भीख वही मांगता है जिसके पास कुछ नहीं होता है। न खाने को हो न पहनने को और न ही ओढने को तभी कहा जाता है किसी को भिखारी। देश की धार्मिक नगरी बनारस में भिखारी के मायने कुछ और ही समझ में आ रहे हैं। बनारस के गंगा तट पर फिल्मी भजनों को गाकर भीख मांगने वाले भिखारियों की असलियत जानकर आप दांतों तले उंगली दबा लेंगे। इन भिखारियों के पास मोबाईल, पेन कार्ड, बैंक खाते, बीमा पालिसी, मकान, दुकान, गाडी क्या क्या नहीं है इनके स्वामित्व में। बनारस में भिखारियों की संख्या पच्चीस हजार से अधिक है जिनमें से पांच हजार से अधिक भिखारी गंगा के घाट और मंदिरों में बैठकर श्रृद्धालुओं की भावनाओं के साथ खिलवाड करते हैं। एक भिखारिन की तीन बच्चियां कान्वेंट में पढती हैं, तो कई के नाम पर बचत खातों में हजारों रूपए हैं। पांच बरस पहले संकटमोचन हनुमान मंदिर के पास मरे एक भिखारी के बिस्तर से पुलिस ने लगभग दो लाख रूपए की रकम भी बरामद की थी। सच ही है भीख मांगना भी आजकल मुनाफे का व्यवसाय बन गया है।
कांग्रेसी संस्कृति से दूर रहें भाजपाई
भाजपा के निजाम नितिन गडकरी का कहना है कि कांग्रेस की पांव छूने और माला पहनाने की संस्कृति से भाजपा को दूर ही रहना चाहिए। भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों और मंत्रियों के सम्मेलन में नितिन गडकरी ने यह गर्जना की। दरअसल कार्यकर्ता नेताओं से करीबी बनाने के चक्कर में उनके पैर पडने और माला पहनाने को आतुर रहते हैं। नेताओं की गणेश परिक्रमा के कारण नेताओं के कद पार्टी से बडे होने लगे हैं। यही कारण है कि व्यापक जनाधार वाली पार्टियों के बजाए अब उनका स्थान छोटे दलों अथवा निर्दलियों ने ले लिया है। कांग्रेस में गणेश परिक्रमा जबर्दस्त हावी हो चुकी है। अब तो एक ही जिले में अनेक नेताओं के बीच प्रतिस्पर्धा के कारण कार्यकर्ता गुटों में बंटे नजर आते हैं, यही कारण है कि पार्टियांे का ग्राफ नीचे की ओर जाता जा रहा है। नितिन गडकरी ने बहुत ही सही नस को पकडा है, मगर समस्या इस बात की है कि गडकरी के इस मशविरे को मानेगा कौन। पैर पडवाने और माला पहनने के आदी हो चुके नेताओं क्या गडकरी की नसीहत रास आएगी!
सपनि बंद होने से पूर्व विधायक परेशान
देश के हृदय प्रदेश में मध्य प्रदेश राज्य सडक परिवहन निगम (सपनि) के बंद होने से पूर्व विधायक और मीडिया बिरादरी बुरी तरह हलाकान परेशान हैं। दरअसल पूर्व विधायकों और मीडिया के अधिमान्य पत्रकारों को सपनि में निशुल्क यात्रा करने का अधिकार पत्र प्राप्त है। पूर्व में विधायक, पूर्व विधायक और पत्रकार यात्री बस में निशुल्क यात्रा के लिए अधिकृत हुआ करते थे। मध्य प्रदेश से सटे महाराष्ट्र सूबे में पूर्व विधायकों को यह सुविधा मुहैया है। मध्य प्रदेश के पूर्व विधायक इस सुविधा को बहाल करने के लिए लामबंद भी हुए थे, पर नतीजा सिफर ही था। पिछले साल पूर्व विधायक मंडल के अध्यक्ष राजेंद्र सिंह ने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को इस संबंध में पत्र भी लिखा था। पूर्व विधायक तो होश में आ गए पर अधिमान्य पत्रकारों ने इस बारे में अभी मानस तैयार ही नहीं किया है कि क्या कदम उठाए जाएं। लगता है भारतीय रेल में पचास फीसदी में यात्रा कर ही मीडिया बिरादरी संतोष कर रही है।
थाने में जप्त कार का कटा चालान!
क्या यह संभव है कि कोई कार थाने में जप्त कर ली गई हो और जप्त अवधि में ही उसका चालान दूसरे थाना क्षेत्र में काट दिया गया हो। जी हां दिल्ली के रोहणी निवासी जी.बी.सिंह के साथ कुछ इसी तरह का वाक्या हुआ। 27 दिसंबर 2003 को किसी मामले में शकरपुर थाने के स्टाफ ने उनकी कार को जप्त कर लिया था, और कोर्ट के आदेश पर 5 मार्च 2004 को उसे सुपर्दनामे पर सौंपा था। दिल्ली यातायात पुलिस की मुस्तैदी देखिए 13 फरवरी 2004 को उसकी कार में बिना सीट बेल्ट बांधकर चलाने के जुर्म में चालान काट दिया गया। अरे भले मानस जिस कार को थाने में जप्त कर दिया गया हो, वह सडक पर कैसे दौड सकती है, और कौन उसमें बिना सीट बेल्ट बांधे जा सकता है। हो सकता है शकरपुर थाने वाले ही जप्तशुदा कार में बिना सीट बेल्ट बांधे सफर कर रहे हों। बहरहाल, कडकडडूमा कोर्ट ने याचिका कर्ता की अपील पर आदेश दिया कि 1653 रूपए का मुआवजा सिंह को दिया जाए। दिल्ली पुलिस अदालत के इस आदेश को भी धता बताने से नहीं चूक रही है।
कानून के दायरे से बाहर हैं जनसेवकों के बंग्ले
नियम कायदे कानून बनाना नौकरशाह और राजनेताओं अर्थात जनसेवकों का काम है, पर उसका पालन करने में उन्हें पूरी छूट मिलती है। राजस्थान में इसकी जीती जागती मिसाल देखने को मिल रही है। राजस्थान में जितने भी बंग्ले मंत्री या अफसरान के हैं उनमें इसकी तस्वीर साफ दिखाई पड जाती है कि नियम कायदों की कितनी परवाह है उन्हें। राजस्थान में भवन मालिकों के लिए वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम लगाना अनिवार्य कर दिया गया है। इसके लिए भवन मालिकों को बाकायदा नोटिस भी जारी किए गए हैं। मजे की बात तो यह है कि गुलाबी शहर जयपुर में पांच सौ वर्ग मीटर से अधिक साईज वाले नेता मंत्री अफसरान के बंग्लों में न तो वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम ही लगा है और न ही बिजली और पानी की बचत का कोई प्रयास किया जाता है। भरी गरमी में जब जनता पानी पानी चिल्ला रही थी, तब इन जनसेवकों के बंग्लों के बाग बगीचे पानी से तर हुआ करते थे। बताते हैं कि राजस्थान के मुख्यमंत्री के आवास को छोडकर किसी भी सरकारी आवास में वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम नहीं लगा हुआ है।
पुच्छल तारा
दिल्ली सरकार चोरी और सीना जोरी के लिए बहुत ही बदनाम हो चुकी है। कोई भी काम दिल्ली में अगर हो रहा हो तो वह समय सीमा में तो पूरा हो ही नहीं सकता है। इस साल के अंत में होने वाले कामन वेल्थ गेम्स को ही ले लें। पूरी दिल्ली का सीना खुदा पडा है। जहां तहां हवा में उडती धूल नागरिकों का स्वास्थ्य बिगाड रही है। इस खेल के लिए अभी तैयारी अधूरी ही है। इसी पर केंद्रित एक मजेदार ईमल भेजा है रोहणी दिल्ली निवासी अभिषेक दुबे ने। वे लिखते हैं अखबार में एक खबर छपी कि कामन वेल्थ गेम्स की टिकिटों की बिक्री शुरू। इसे पढकर उनके एक मित्र ने चुटकी ली - ‘‘सडकें, स्टेडियम, पानी की निकासी की योजना, साफ पेयजल आदि तैयार नहीं, फिर भी टिकिटें बेच लेंगे। मानते हैं सरकार को, इसी को कहते हैं असली दिलेरी

शनिवार, 19 जून 2010

कौन है सच्‍चा कौन है झूठा हर चेहरे पे नकाब है


किसको माने सच किसको झूठ
सेवानिवृति के बाद तबियत से मुंह खोल रहे नौकरशाह

गैस कांड के वक्त सियार रहे नौकरशाह अब बन रहे शेर

(लिमटी खरे)

1984 में 2 और 3 दिसंबर की दर्मयानी रात भोपाल में तांडव मचाने वाली यूनियन कार्बाईड से रिसी गैस के वक्त मध्य प्रदेश में जिम्मेदार पदों पर रहने वाले नौकरशाह अब एक दूसरे पर लानत मलानत भेजकर क्या साबित करना चाह रहे हैं यह बात समझ से परे है, किन्तु इस पूरे घटनाक्रम से एक बात तो स्थापित हो गई है कि देश का हृदय प्रदेश हो या कोई भी सूबा हर जगह नौकरशाह पूरी तरह जनसेवकों के हाथों की कठपुतली ही हुआ करते हैं। हाकिम चाहे जो हो नौकरशाह उनकी मर्जी के हिसाब से रास्ते निकालने में महारत रखते हैं। यह कडवा और अप्रिय तथ्य भी साफ तौर पर उभरकर सामने आ चुका है कि चाहे जनसेवक हों या नौकरशाह, किसी को भी ‘‘आवाम ए हिन्द‘‘ (भारत गणराज्य की जनता) से कोई देना नहीं है।

एक समाचार पत्र को दिए साक्षात्कार में भोपाल गैस कांड के वक्त मध्य प्रदेश के गृह सचिव रहे कृपा शंकर शर्मा का कहना है कि उन्हें अंधेरे में रखकर यह कदम उठाए गए थे। उनका कहना हास्यास्पद ही लगता है उन्हें तत्कालीन पुलिस अधीक्षक स्वराज पुरी ने बताया कि वारेन एंडरसन को गिरफ्तार कर लिया गया है, और उसे पुलिस थाने के बजाए कार्बाईड के सर्वसुविधायुक्त आरामदेह गेस्ट हाउस में रखा गया है। इतना ही नहीं पुलिस अधीक्षक का कहना था कि तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह एसा चाहते थे। क्या गृह सचिव की कोई जवाबदेही नहीं बनती है! के.एस.शर्मा जो आज सेवानिवृति के इतने सालों बाद यह कह रहे हैं क्या वे उस वक्त कुंवर अर्जुन सिंह से इस बारे में पूछकर नियम कायदों का हवाला नहीं दे सकते थे।

गोरतलब है कि छोटी छोटी बात पर नोट शीट पर ‘‘पुर्नविचार करें, समीक्षा करें, पुटअप करें, नियमानुसार कार्यवाही करें‘‘ जैसी टीप लिखने के आदी नौकरशाह कुंवर अर्जुन सिंह के इतने दबाव में थे कि उन्होंने इस मामले में भेडचाल चलना ही मुनासिब समझा। अपनी जवाबदेही से बचते हुए के.एस.शर्मा का यह कहना आश्चर्यजनक है कि तत्कालीन मुख्य सचिव, जिला दण्डाधिकारी या जिला पुलिस अधीक्षक चाहते तो उसी समय उपर के दवाब के बावजूद भी किसी भी स्तर पर इंकार कर सकते थे। जब यह बात तत्कालीन गृह सचिव को पता लगी थी, तो क्या यह शर्मा साहेब की नैतिक जवाबदेही नहीं बनती थी कि वे स्वयं ही इस मामले में संज्ञान लेकर नोटशीट चला देते और एक बार कोई बात लिखत पढत में आ जाती तो फिर उसे आसानी से दबाया नहीं जा सकता था। वस्तुतः एसा हुआ नहीं।

उस वक्त पुलिस माहानिदेशक के सबसे उंचे ओहदे पर बैठने वाले भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी बी.के.मुखर्जी अलग तान सुनाते हैं। वे कहते हैं, एंडरसन को बचाने के लिए वे स्वराज पुरी की पीठ थपथपाते हैं। बाकी मामलात में उन्हें सारे वाक्यात बिल्कुल साफ याद हैं पर जब भोपाल गैस कांड में यूनियन कार्बाईड के तत्कालीन प्रमुख वारेन एंडरसन को भोपाल लाकर गिरफ्तार करना और उसे पुलिस थाने के बजाए यूनियन कार्बाईड के गेस्ट हाउस में रखना, पुलिस अधीक्षक स्वराज पुरी द्वारा वारेन एंडरसन का सारथी बनकर उसे ‘‘राजकीय अतिथि‘‘ के तरीके से भोपाल से बाहर भेजने के मामले में उनकी याददाश्त धुंधली पड जाती है। मुखर्जी अस्सी साल की उमर के हो चुके हैं, उनकी धुंधली याददाश्त की वजह उम्र है या यूनियन काबाईड की कोई उपकार यह तो वे ही जाने पर यह सच है कि पुलिस की उस वक्त की भूमिका ने खाकी को कलंकित करने में काई कोर कसर नहीं रख छोडी है।

हजारों शव के गुनाहगार वारेन एंडरसन के सारथी बने भारतीय पुलिस सेवा के सेवानिवृत अधिकारी स्वराज पुरी ने मुंह खोलना ही मुनासिब नहीं समझा है, किन्तु उस वक्त भोपाल के ‘‘जिला दण्डाधिकारी‘‘ रहे मोती सिंह इतनी लानत मलानत के बाद भी बडे ही रिलेक्स हैं, जो वाकई आश्चर्यजनक है। सच है इन आला अफसरान या जनसेवकों के घरों का कोई असमय ही इस गैस की चपेट में आकर काल कलवित नहीं हुआ, तो उन्हें भला किस बात की परवाह, आखिर क्यों उनके चेहरों पर शिकन आए! हो सकता है कि इन नौकरशाहों और जनसेवकों को दुनिया के चौधरी अमेरिका से हजारों लाशों और लाखों पीडितों का एक मुश्त या फिर किश्तों में मुआवजा भी मिल रहा हो।

एसा नहीं कि नौकरशाहों ने कभी भी शासकों की गलत बात का विरोध न किया हो। इन्हीं कुंवर अर्जुन सिंह के मुख्यमंत्रित्व काल में इंदौर की एक कपडा मिल में हुए बवाल के दौरान अफसरान ने हुक्मरानों को आईना दिखाया था। उस वक्त इस कपडा मिल के मालिक सरकार द्वारा लीज पर दी गई जमीन मंहगी कीमत मिलने पर बेचना चाह रहा थे, जो उन्हें मिल चलाने के लिए मिली थी। मालिकों ने अपने ‘‘तरीके‘‘ से मुख्यमंत्री कुंवर अर्जुन सिंह को भी मना लिया था। जमीन चूंकि लीज पर दी गई थी, अतः उसे बेचकर उसका स्वामित्व परिवर्तन संभव नहीं था। ताकतवर मुख्यमंत्री कुंवर अर्जुन सिंह के लाख दबाव के बावजूद भी नौकरशाह नहीं झुके। उस वक्त के विधि, राजस्व, उद्योग, आवास पर्यावरण आदि महकमो के सचिवों ने मुख्यमंत्री सिंह के लाख दबाव के बावजूद भी एक के बाद एक कर नस्ती को अपनी टेबिल पर ही रोककर रखा।

इतना ही नहीं बावरी ढांचा ढहने के उपरांत देश भर मंे लगी आग में मध्य प्रदेश भी बुरी तरह झुलसा हुआ था। मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल सहित अनेक शहर हिन्दु मुस्लिम आबादी के आधिक्य के चलते अति संवेदनशील की श्रेणी में आते हैं। भोपाल के हालात पर काबू पाना बहुत ही दुष्कर हो रहा था। उस वक्त भोपाल के जिला दण्डाधिकारी एम.ए.खान कानून और व्यवस्था बनाने में बुरी तरह असफल रहे थे। तत्कालीन मुख्य सचिव निर्मला बुच तत्काल खान को हटाना चाह रहीं थीं। उनके सामने मजबूरी यह थी कि एम.ए.खान तत्कालीन मुख्यमंत्री सुंदरलाल पटवा के खासुलखास हुआ करते थे। पटवा उन्हें हटाने को राजी नहीं थे, किन्तु बाद में जब निर्मला बुच अड गईं तो पटवा को श्रीमति बुच के सामने आखिर झुकना ही पडा।

पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के कार्यकाल में भी जब निजी स्कूलों को शासनाधीन करने के मामले हुए तब विन्धय के सफेद शेर पंडित श्रीनिवास तिवारी ने रीवा अंचल के सैकडों स्कूलों को इस सूची में शामिल करवा दिया था। दरअसल शासनाधीन होने वाले स्कूल के कर्मचारियों को सरकारी कर्मचारी बना दिया जाता है। इस मामलें में अरबों के वारे न्यारे हुए। तत्कालीन प्रमुख सचिव शिक्षा यू.के.सामल को जब भ्रष्टाचार की बात पता चली तो उन्होंने नस्ती को अपने पास अटकाए रखा। अंततः पांच सौ से अधिक स्कूलों की सूची को निरस्त कर दिया गया था। कुल मिलाकर अगर जनसेवकों की नैतिकता तो समाप्त हो चुकी है, नौकरशाहों ने भी अपनी अस्मिता को बेच खाया है। आज सेवानिवृति के उपरांत नौकरशाह एक दूसरे पर लानत मलानत भेजकर मजे लेने से नहीं चूक रहे हैं। आसमान से अगर महात्मा गांधी, इंदिरा गांधी, जवाहर लाल नेहरू सरदार वल्लभ भाई पटेल आदि इस सारे प्रहसन को देख रहे होंगे, तो वे निश्चित तौर पर आंखों में आंसू लिए यही सोच रहे होंगे कि इस तरह के भारत गणराज्य की कल्पना तो उन्होंने कभी की ही नहीं थी।