बुधवार, 30 जून 2010

कहां गई बापू के सपनों की कांग्रेस

आदर्शों से भटकी बापू की कांग्रेस!

सोनिया को वेतन भत्ते अस्वीकार कर पेश करना होगा नजीर

लोकतंत्र में रियाया से अधिक खुद की सुख सुविधा की चिंता!

वेतन भत्तों में अटकी रहती है जनसेवकों की सांसे

(लिमटी खरे)

भारत गणराज्य में आज सुबह उठकर चाय पीने से रात के खाने तक हर मामले में भारत की जनता पर करारोपण इतना जबर्दस्त है कि वह चाहकर भी आजाद भारत में सांसे नहीं ले पा रही है। जनता जनार्दन के लिए अब जीना मुहाल ही हो चुका है, बावजूद इसके भारत गणराज्य में जनसेवक चाहे वे नौकरशाह हों, विधायक या सांसद, सभी अपने वेतन भत्तों में उत्तरोत्तर वृद्धि ही करवाते जा रहे हैं। भात गणराज्य में 1952 में संवैधानिक तौर पर संसद का गठन हुआ था, इसके दो साल बाद सांसदों को वेतन भत्ते देने का प्रावधान करने वाला कानून अस्तित्व में आया था। मजे की बात तो यह है कि तब से अब तक 25 मर्तबा संसद सदस्यों के वेतन भत्ते बढाने का काम किया गया है। जैसे जैसे मंहगाई का सूचकांक उपर उठता है, जनसेवक इसकी चपेट में खुद को घिरा महसूस करते हैं और अपने वेतन भत्तों में बेतहाशा इजाफा करने के मार्ग प्रशस्त कर लेते हैं। हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं कि जनसेवकों को आवाम ए हिन्द के दुख दर्द से कोई सरोकार नहीं है।

हाल ही में संसद की स्थाई समिति ने सांसदो के वेतन को एक दो नहीं वरन पांच गुना बढाने की सिफारिश की है। वर्तमान में कांग्रेसनीत संप्रग सरकार केंद्र पर काबिज है। कांग्रेस द्वारा समय समय पर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के नाम को भुनाया जाता रहा है, यह बात किसी से छिपी नहीं है, पर जब बापू के आदर्शों पर चलने की बारी आती है तो कांग्रेस के वर्तमान सरमायादार पल्ला झाडने से गुरेज भी नहीं करते हैं। इतिहास इस बात का साक्षी है कि महात्मा गांधी कभी भी सांसदों को वेतन भत्ते देने के पक्ष में नहीं रहे हैं। संविधान सभा सहित अनेक नेताओं ने आजादी के उपरांत देश के खाली खजाने को देखकर बिना वेतन ही काम करने का निर्णय लिया था, और उसे अमली जामा पहनाया भी।

संसद हो अथवा विधानसभा या विधान परिषद जब भी वेतन भत्ते बढाने की बात आती है, इसका स्वागत सभी सदस्य मेजें थपथपाकर करते हैं। सवाल यह उठता है कि खुद ही अपने वेतन का निर्धारण करना कहां की नैतिकता है। जब मंहगाई या करारोपण की बात आती है तब सांसद गरीब की थाली में से निवाले निकालने में गुरेज नहीं करते और अपनी जेब भरने की बारी आती है, तब वे संकोच नहीं करते। नौकरशाह, सरकारी कर्मचारी, सांसद, विधायक को तो एक तारीख को उनकी पगार मिल जाती है, पर जो नौकरी में नहीं हैं, खुद ही श्रम कर आजीवीकोपार्जन का काम करते हैं, उनका हिस्से में आखिर क्या आता है! उनके हिस्से में तो करों से लदा फदा मंहगा सामान ही आता है। आम आदमी के लिए क्या मोटी पगार पाने वाले जनसेवक कुछ सोचने की स्थिति में रहते हैं, जवाब नकारात्मक ही मिलता है इन सारी बातों का। फिर कैसे और कौन कह सकता है कि दुनिया के सबसे बडे प्रजातांत्रिक देश के निवासी हैं। यह तो हिटलरशाही की श्रेणी में ही आता है।

एक तरफ पेट्रोल, डीजल, केरोसिन, रसोई गैस के दाम बढाकर देश की जनता की कमर तोडने का कुत्सित प्रयास किया गया, तो दूसरी ओर जनता की सेवा का आडंबर रचने वाले जनता के चुने नुमाईंदों ने अपना वेतन बढाकर जनता को मुंह चिढाने का प्रयास भी किया है, जो निंदनीय ही कहा जाएगा। रीढ विहीन विपक्ष ने भी अपने निहित स्वार्थ के चलते वेतन भत्ते बढाने में हामी भरी है, सवाल यह उठता है कि इसके बाद सरकार के गलत कदमों का विरोध करने का नैतिक साहस क्या उनके पास बचेगा! कांग्रेस के कुशाग्र बुद्धि वाले रणनीतिकारों ने सांसदों के वेतन भत्तों को पांच गुना बढाने की जलेबी लटकाकर विपक्ष की विरोध की धार को पूरी तरह बोथरा ही किया है। अब क्या मुंह लेकर विपक्ष जनता के सामने जाकर मूल्यवृद्धि का विरोध करेगा। जनता जब उनसे पूछेगी कि अपने वेतन भत्तों में बढोत्तरी के लिए हां और मूल्य वृद्धि के लिए ना, यह कैसा तरीका है काम करने का। जनता जब उनसे पूछेगी कि आपके वेतन भत्ते इसलिए बढे क्योंकि मंहगाई का असर आप पर है, तब हम गरीब गुरबों पर क्या मंहगाई का असर नहीं होगा। जब माननीय सांसद खुद अपने और अपने परिवार को एक सहायक के साथ वातानुकूलित श्रेणी में यात्रा करवा सकते हैं सब कुछ निशुल्क पा सकते हैं तब फिर वेतन भत्ते बढाने का क्या ओचित्य! क्या इन सारे प्रश्नों के जवाब हैं माननीय सांसदों के पास।

मंहगाई का हवाला देकर वेतन भत्ते बढवाने में किसी को आपत्ति नहीं होना चाहिए पर जनता अपने चुने हुए माननीयों से यह सवाल करने का अधिकार अवश्य ही रखती है कि क्या कभी किसी माननीय ने संसद में इस बात को पुरजोर तरीके से उठाकर इस पर बहस करना चाहा है कि आखिर क्या वजह है कि मंहगाई सुरसा की तरह मुंह फाडती जा रही है। एक समय था जब राजनीति में नेतिकता का अहम स्थान था। उस वक्त के माननीय संसद में बहस इसलिए किया करते थे ताकि उसका कुछ परिणाम निकले, हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि आज संसद सदस्य बहस महज इसलिए करते हैं कि संसद के चलने के दौरान उनको मिलने वाले भत्तों में कमी न हो पाए।

याद पडता है कि भारत गणराज्य की स्थापना के उपरांत 1995 - 96 में जब सांसदों के वेतन को बढाया जा रहा था तब फारवर्ड ब्लाक के सांसद बसु ने इसके लिए लोकसभा का बहिष्कार किया था। क्या आज कांग्रेस की राजमाता श्रीमति सोनिया गांधी, करोडों की संपत्ति वाले कांग्रेस की नजर में भविष्य के प्रधानमंत्री राहुल गांधी, करोडपति सांसद लाल कृष्ण आडवाणी, नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज, राज्य सभा में विपक्ष के नेता अरूण जेतली सहित अन्य माननीय सांसदों में इतना माद्दा है कि वे जनता के हितों को देखते हुए बढे हुए वेतन भत्तों का विरोध कर सकें? किसी भी मामले में संसद में हंगामा न हो एसा हो ही नहीं सकता है, अनेकों मर्तबा तो संसद को स्थगित तक करने की नौबत आती है, किन्तु जब माननीयों के वेतन भत्ते बढाने की बारी आती है तो हंगामा शोर शराबा मानो थम जाता हो, मेजें थपथपाकर सभी एक स्वर से इसका स्वागत करते हैं, क्या यह आम जनता के साथ छल की श्रेणी में नहीं आता है।

आज भारत गणराज्य के वजीरे आजम एक रूपए वेतन लेकर एक नजीर पेश कर रहे हैं। क्या सोनिया गांधी, राहुल गांधी, एल.के.आडवाणी, सुषमा स्वराज, अरूण जेतली आदि में इतना माद्दा है कि वे भी अपने वेतन को एक रूपए के रूप में प्रतीकात्मक कर लें। अरे और तो छोडिए जब कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमति सोनिया गांधी ने सारे जनसेवकों से अपने वेतन का एक हिस्सा सूखा पीडितों के लिए दान देने का फरमान जारी किया तब सारे जनसेवक बगलें झांकने लगे। कांग्रेस के उद्दंड जनसेवकों ने अपनी ही राजमाता के फरमान की हुकुम उदली करने में जरा भी संकोच नहीं किया, मजबूरन सोनिया गांधी को अपने उस आदेश पर ज्यादा जोर देने के बजाए उसे ‘‘नाट प्रेस‘‘ अर्थात कोई कार्यवाही नहीं चाहते की श्रेणी में लाकर रख दिया। आज जनता मंहगाई के बोझ से दबी हुई है एसे में एक शेर कहना मुनासिब होगा


‘‘ये सारा जिस्म बोझ (मंहगाई) से झुककर दोहरा हुआ होगा!

मैं सजदे में नहीं था आपको धोखा हुआ होगा. . . !!

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