विपक्ष के बंद को कांग्रेस का समर्थन!
कांग्रेसियों ने भी नहीं खोले अपने प्रतिष्ठान!
जनसेवकों को आखिर जनता के समर्थन की क्या जरूरत!
संसद में क्यों नहीं एकजुटता दिखाता विपक्ष!
नहीं चेते तो भविष्य में तानाशाह और हिटलर कहलाएंगे कांग्रेस के शासक
(लिमटी खरे)
05 जुलाई 2010, सालों बाद किसी मामले में भारत बंद को आशातीत सफलता मिली। देश के कोने कोने से जो खबरें आ रहीं थीं, उन्हें देखकर लग रहा था मानो देश की जनता सुरसा के मुंह की तरह बढती मंहगाई से हलाकान हो चकी है। विपक्ष के आव्हान पर देशवासियों ने अपने अपने प्रतिष्ठानों को बंद रखा। सबसे अधिक आश्चर्य तो इस बात पर हुआ कि केंद्र में सत्तारूढ कांग्रेसनीत संप्रग सरकार के घटक दलों विशेषकर कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने विपक्ष के इस बंद के दौरान अपने अपने प्रतिष्ठान बंद रखकर मंहगाई के प्रति अपना आक्रोश जता ही दिया। कांग्रेस कार्यकर्ताओं के इस मोन समर्थन से लगने लगा है कि अपने आकाओं की नीतियों पर कांग्रेस के कारिंदों का रोष और असंतोष भडकने लगा है।
दो ढाई दशक बाद जनता का गुस्सा इस कदर उबलता दिखाई पडा है। संप्रग सरकार के लिए खुली चेतावनी से कम नही है, बंद की इस कदर की सफलता। विपक्ष कहने को एकजुट था, पर अगर वाकई विपक्ष ने एकजुटता दिखाई होती तो देश में इससे भी साफ, मजबूत और स्पष्ट संदेश दिया जा सकता था। कार्यकर्ता चाहे किसी भी दल का हो जब वह देखता है कि उसके बीच से चुना गया विधायक या सांसद अपने वेतन भत्तों के मामले में तो सदन की मेजें थपथपा देता है पर जब भारत गणराज्य की जनता के दुख दर्द की बारी आती है तो वह अपने कर्तव्यों से मुंह चुराता घूमता है, तब उसका मन अपने आला नेताओं के प्रति वितृष्णा से भर जाता है, कि अपनी सुख सुविधा के लिए तो जनता के चुने हुए नुमाईंदे फिरक मंद हैं पर जब बात रियाया की आती है तो वे मौन साध लेते हैं।
मंहगाई के मुद्दे पर न जाने कितनी ही बार विधानसभा, लोकसभा, विधानपरिषद और राज्यसभा के चुने हुए नुमाईंदों ने जनता का समर्थन चाहा और जनता को सडकों पर उतारा है। जनता क्या वाकई बेवकूफ बनाने के लिए है। एक यक्ष प्रश्न आज भी अनुत्तरित ही है कि जब जनता ने आपको चुनकर सक्षम मंच अर्थात लोकसभा, राज्य सभा, विधानसभा या विधानपरिषद दे दिया है फिर भारत गणराज्य में जनता के चुने हुए नुमाईंदों को आखिर जनता के पास जाकर जनता को सडकों पर उतारकर सहयोग लेने की क्या जरूरत है। विपक्ष चाहे तो इस मामले में ही एक जुट हो जाए तो सरकार एक दिन भी नहीं चल सकती है। विडम्बना ही कही जाएगी कि जब सदन में मंहगाई का मुद्दा उछाला जाता है तो एक सूत्र मेें पिरे विपक्ष की लडी के एक एक गुरिए छिटककर दूर दूर जा गिरते हैं और जनता को मंहगाई झेलने पर मजबूर होना पडता है। जनता के चुने नुमाईंदों को महंगाई के मामले में सदन में सरकार को घेरना चाहिए, वस्तुतः एसा होता नहीं है। जनता को दिखाने के लिए विपक्ष को मंहगाई बढने पर सडक पर उतरने का प्रहसन करना ही होता है, ताकि भारत गणराज्य के आवाम को लगे कि उनकी बात सुनने वाला भी कोई है।
बंद के दौरान हिंसा भी होती है, यह हिंसा किसके इशारे पर होती है, यह बात सभी जानते है। बंद के दौरान नेता अपने प्रतिद्वंदियों से खुन्नस निकालने में नहीं चूकते एक दूसरे से जलन रखने वाले नेता एक दूसरे के प्रतिष्ठानों में तोडफोड कराकर आर्थिक तोर पर उन्हें तोडने का प्रयास करते हैं। मरण तो जनता की ही होती है। जब सरकारी संपत्ति का नुकसान किया जाता है, तो उसकी भरपाई सरकार कहां से करती है? जाहिर है सरकार के पास कोई टकसाल तो नहीं लगी है, या सोना चांदी रूपया पैसा उगाने वाला पेड तो नहीं है, वह भारत गणराज्य की जनता पर ही करों का भार थोपकर उससे अर्जित होने वाले राजस्व से ही सरकारी संपत्ति की तोडफोड को दुरूस्त कराती है।
सवा सौ साल पुरानी और आजाद भारत में आधी सदी से ज्यादा राज करने वाली कांग्रेस की राजमाता इन दिनों चाटुकार प्रबंधकों से घिर चुकी हैं तभी तो उनके दरबार में जनता जनार्दन की आवाज नक्कारखाने में तूती की तरह ही साबित हो रही है। बिना रीढ अर्थात जनाधारा के कांग्रेसी मैनेजरों को इस बात को न तो खुद ही भी नहीं भूलना चाहिए और अपनी राजमाता को भी वाकिफ करवा देना चाहिए कि विपक्ष ने जिस तरह की एकजुटता पांच जुलाई को दिखाई वही एकजुटता 1989 में विपक्ष् दिखाई थी, तब भी एतिहासिक भारत बंद का आव्हान किया गया था। इसके उपरांत लोकसभा से सामूहिक तौर पर त्यागपत्र देने का अदम्य साहस दिखाया था जनसेवकों ने उस वक्त। विपक्ष के इस अदम्य साहस और एकजुटता का नतीजा 1990 के चुनावों में उभरकर सामने आया और कांग्रेस को जनता ने सत्ता के गलियारे से उठाकर बाहर फंेक दिया था। उसके उपरांत जनमोर्चा की सरकार विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में केंद्र में बैठी।
सत्ता की मलाई सदा ही चखती रही कांग्रेस के लिए यह सदमे से कम नहीं था। यद्यपि भाजपा के राम मंदिर प्रेम के चलते संयुक्त विपक्ष का गठबंधन तार तार हो गया पर यह सच है कि 1990 में लगे उस झटके से कांग्रेस आज तक उबर नहीं सकी है। नब्बे के दशक में राजनीति में आ चुके कट्टर कांग्रेसियों की नींद आज भी 90 के कारनामे से टूट ही जाती है। इस बार भी विपक्ष के तेवर कुछ उसी तरह के ही लग रहे हैं। अगर जनता के दिमाग में वे कांग्रेस को वालीवुड के सत्तर के दशक के विलेन रहे शत्रुध्न सिन्हा और प्रेम चौपडा की तरह पेश करने में सफल रही तो जनता एक बार फिर कांग्रेस को सत्ता के गलियारे से बाहर फंेकने में गुरेज नहीं करने वाली।
05 जुलाई के एतिहासिक बंद से विपक्ष गदगद है। सभी इस बंद का श्रेय लेकर अपनी खुद की पीठ थपथपा रहा है। विपक्ष को चाहिए कि मंहगाई आखिर बढी क्यों है, इस पर राष्ट्रव्यापी बहस आरंभ करवाए। इसके लिए विपक्ष को अपने निहित स्वार्थों की तिलांजली देना अनिवार्य होगा, पर क्या विपक्ष में इतना माद्दा है कि वह अपने निहित स्वार्थों को भारत गणराज्य की जनता के स्वार्थों के सामने गौड कर पाएगा? जाहिर है इसका उत्तर नकारात्मक ही आने वाला है।
विपक्ष की इस एक जुटता से घबराए भारत गणराज्य के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह विपक्ष को उसकी जिम्मेदारी समझने की बात कह रहे हैं, अरे भले मानुस आप सबसे पहले अपनी जिम्मेदारी को तो समझो। क्या प्रधानमंत्री अपने द्वारा दिए गए आश्वासनों की लंबी फेहरिस्त पर गौर फरमाने का उपक्रम करेंगे, जिसमें उन्हों बारंबार यह बात कही थी कि हमारे इस कदम के परिणाम स्वरूप मंहगाई का ग्राफ एकदम नीचे आ जाएगा। कभी मानसून को कोसा तो कभी वैश्विक मंदी का रोना रोया, फिर तारीख पर तारीख कि फलां समय से मंहगाई कम होना आरंभ हो जाएगा! क्या वह महज आश्वासन ही था? क्या यह जनता को बहलाने के लिए एक घुनघुना था, जिसे जनता कुछ समय तक बजाकर अपना ध्यान बटाए? एक तरफ भारत गणराज्य के प्रधानमंत्री जैसे जिम्मेदार पद पर बैठे डॉ.एम.एम.सिंह सब कुछ निशुल्क पाने वाले सांसदों का वेतन पांच गुना बढाने की बात करते हैं वहीं दूसरी ओर आम जनता की कमर मंहगाई से टूटने के बाद इसी भारत गणराज्य के वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी द्वारा ‘‘अभी और बढेगी मंहगाई‘‘ जैसे बयान पर चुप्पी साधे रहते हैं।
रही बात तेल के दाम बढाने की, तो इस बारे में देश में शायद ही कोई हो जो इससे असहमत हो। हर आदमी यही चाहता है कि सरकार को घाटा न हो। विचारणीय प्रश्न तो यह है कि जब भोपाल गैस कांड के प्रमुख अभियुक्त वारेन एण्डरसन के मामले में कांग्रेस की राजमाता श्रीमति सोनिया गांधी के पति और युवराज राहुल गांधी के पिता एवं पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी को घिरता पाया गया और जब देश में मंहगाई चरम पर है तभी तेल को नियंत्रण से मुक्त क्यों किया गया। जाहिर सी बात है कि भारत गणराज्य में मंहगाई इतना संवेदनशील मुद्दा है कि आदमी इस मुद्दे के सामने सारे मामलों को भूल ही जाता है। यही इस मामले में भी हुआ अब आम आदमी को लगने लगा है कि राजीव गांधी ने अगर एण्डरसन को छोडा तो छोडा यार पर इस मंहगाई से कैसे निपटा जाए इस बारे में सोचो। किसी राजनैतिक दल या राजनेता के जिंदाबाद या मुर्दाबाद के नारे लगाने से पेट भरने वाला नहीं। पेट भरने को तो अनाज ही चाहिए और अनाज के पैसा, वो कहां से आएगा यह सोचना पहली प्राथमिकता है।
सरकार ने तेल को नियंत्रण से मुक्त करने का विचार कर लिया, पर उस तेल पर सरकारों द्वारा लगाए जाने वाले भारी भरकम कर जिससे देश के नौकरशाहों और जनसेवकों की मोटी पगार बनती है को कम करने के बारे में सरकार ने विचार तक नहीं किया है। क्या यही है भगवान राम का भारत देश? क्या इसी भारत की कल्पना करके ब्रितानियों के दांत खट्टे कर अपने प्राणों की आहुती दी थी देशभक्तों ने? क्या यही है महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी के आदर्शों पर चलने वाली सवा सौ साल पुरानी कांग्रेस का इक्कीसवीं सदी का भयावह चेहरा? इन प्रश्नों का उत्तर भारत गणराज्य की जनता देश के प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह और पर्दे के पीछे से उन्हें रिमोट कंट्रोल से चलाने वाली कांग्रेस की राजमाता श्रीमति सोनिया गांधी को देना ही होगा। आखिर क्या वजह है कि भोपाल गैस कांड के बारे में मुंह सिलने वाली सोनिया और राहुल गांधी, इसके बाद मंहगाई के मामले में भी चुप्पी साधे हुए हैं।
क्या यह सोनिया और राहुल का फर्ज नहीं है कि वे आम जनता के दुख दर्द के लिए भारत गणराज्य की सरकार से आग्रह करें? गरीबों के घर जाकर रात बिताने से कुछ नहीं होता राहुल गांधी जी, साल भर में दो दिन अगर आप गरीब की झोपडी में रहकर आ गए तो उसकी गरीबी दूर नहीं होने वाली। उसकी गरीबी तब और केवल तब दूर होगी जब आप संसद सत्र आरंभ होते ही पहले दिन अपनी ही सरकार को इस बात के लिए घेरें कि तेल कीमतों पर करों को कम क्यों नहीं किया जा रहा है, साथ ही साथ माले मुफ्त पाने वाले जनसेवकों के वेतन भत्ते क्यों बढाए जा रहे हैं, जो पहले से ही लखपति करोडपति है, उसे वेतन देने का क्या ओचित्य। सोनिया जी अब आपको गूंगी गुडिया बनकर नहीं रहना है आपको अपने पुत्र राहुल को भी समझाना होगा कि सरकार की गलत नीतियों का विरोध करना आवश्यक है, वरना आने वाले समय में देश का जो इतिहास लिखा जाएगा उसें कांग्रेस के शासकों को ‘‘तानाशाह‘‘ और ‘‘हिटलर‘‘ की उपाधि से नवाजा जाए तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
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