बुधवार, 18 अगस्त 2010

माले मुफ्त के बाद भी पेट नहीं भरता सांसदों का

 ‘‘कम ऑन वेल्थ‘‘ के लिए फिकर मंद माननीय
 
सब कुछ निशुल्क फिर भी चाहिए भारी भरकम वेतन भत्ते
 
मंहगाई पर साध लेते हैं चुप्पी पर वेतन भत्तों पर अड़े रहते हैं माननीय
 
आधी आबादी को मयस्सर नहीं दो वक्त की रोटी
 
(लिमटी खरे)

14 और 15 अगस्त की दरम्यानी रात को जब डेढ़ सौ साल की ब्रितानी हुकूमत से देश को आजादी मिल रही थी तब हर एक भारतीय की आखों में उजले भविष्य की तस्वीर साफ दिखाई पड़ रही थी। उस वक्त जवान हो चुकी पीढ़ी को लगने लगा था कि आने वाला कल हमारा है। हम अपनी आने वाली पीढ़ी को वाकई काफी उज्जवल भविष्य दे पाएंगे। विडम्बना यह है कि आज भारत में जाति भेद, क्षेत्र भेद, भाषा भेद, वर्ण भेद, वर्ग भेद के साथ ही साथ अमीरी गरीबी के बीच का एक एसा फासला बन गया है, जिसे आजाद भारत गणराज्य पर आधी सदी से ज्यादा राज करने वाली कांग्रेस पार्टी द्वारा कम किए जाने के बजाए बढ़ाया ही जा रहा है।
 
भारत गणराज्य की स्थापना के उपरांत देश में प्रजातंत्र की स्थापना की गई थी। प्रजातंत्र का अर्थ है, जनता का, जनता द्वारा और जनता के लिए शासन। इसकी अवधारणा जिस वक्त रखी गई थी तब एसा सोचा गया था। आज के समय में यह अवधारणा बदल चुकी है। अब यह मामला जनसेवक का, जनसेवक द्वारा जनसेवक के लिए बन चुकी है। आज के समय में सांसद और विधायक पूरी तरह से अपने ही आप पर केंद्रित निहित स्वार्थों की राह पर खुद को देश को ले जाने लगे हैं। देश पर राज करने वाले जनसेवक अपने आप को जनता का सेवक बताकर बर्ताव राजा के मानिंद कर रहे हैं, देश और प्रदेशों के मंत्री अपने आप को जनसेवक के बजाए राज करने वाला समझकर यह सोच रहे हैं कि देश में आज भी आजादी पूर्व की सामंतशाही जीवित है। मंत्रियों के लिए नौकरशाह उनके लिए उनके गण और जनता उनकी जरखरीद गुलाम हो चुकी है, वे जो चाहें वो कर सकते हैं।
 
माले मुफ्त अर्थात सब कुछ निशुल्क पाने वाले जनसेवकों ने अपने सेवाकाल में भारी भरकम पगार और सेवानिवृत्ति के उपरांत खासी पेंशन की व्यवस्था करने के बाद अब मंत्रियों को भव्य अट्टालिका और मंहगी विलासिता भरी गाडियों की दरकार होना आश्चर्यजनक है। अगर आप विधायक या सांसद हैं तो आप निजी तौर पर मंहगी विलासिता भरी गाडी में फर्राटा भर सकते हैं, पर अगर आप मंत्री हैं तो आपको निश्चित तौर पर प्रोटोकाल को निभाना ही होगा। स्टेट गैरेज से आपको आवंटित वाहन में सफर करना आपकी मजबूरी होगी। भले ही आप दूसरे वाहन में सफर करें किन्तु आपके काफिले में वह वाहन होना अनिवार्य है। स्टेट गैरिज की मजबूरी है कि उसके पास एम्बेसेडर कार की भरमार है। स्टेटस सिंबाल के लिए ‘‘जेड प्लस‘‘ केटेगरी की सुरक्षा लेने वाले जनसेवक भी जब कहीं दौरे पर जाते हैं तो वे बुलट प्रूफ एम्बेसेडर में बेठने से बचते ही हैं, क्योंकि इसके कांच नहीं खुलते और कांच नहीं खुलेंगे तो नेता जी अपने समर्थकों का हाथ हिलाकर अभिवादन कैसे कर पाएंगे। इस बारे में किसी राज्य शासन के गृह विभाग द्वारा कभी केंद्रीय गृह विभाग को नहीं बताया जाता कि जिसे अपने ही देश के नागरिकों से खतरा होने के कारण आपने जेड प्लस केटगरी की सुरक्षा दी है, उसे जनता के बीच जाते समय उस जेड प्लस की आवश्यक्ता नहीं है। अनेक माननीयों को सरकार द्वारा दिए गए गनमेन उनके लिए खलासी का काम करते हैं।
 
भारत के लिए इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या होगा कि देश में राज्य सभा में करोड़पति सांसदों का आंकड़ा एक सौ के पार हो चुका है। लोकसभा में भी कमोबेश यही स्थिति सामने आ रही है। उत्तर प्रदेश के सांसद अक्षय प्रताप सिंह की संपत्ति 2004 में 21 लाख के पांच साल बाद 1841 फीसदी बढ़ गई। राजस्थान के सचिन पायलट की संपत्ति इन पांच सालों में 1746 फीसदी तो एमपी के चंद्र प्रताप सिंह की 1466 फीसदी। केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया की संपत्ति में पांच सालांे में 431 फीसदी तो कांग्रेस की नजर में देश के भावी प्रधानमंत्री राहुल गांधी की संपत्ति में 414 फीसदी का इजफा दर्ज हुआ है। सवाल यह उठता है कि आखिर इन सबका उद्योग क्या है? जाहिर है जनसेवा! अगर जनसेवा में संपत्ति इस कदर बढ़ती है तो निश्चित तौर पर देश का हर नागरिक इस तरह की ‘‘जनसेवा‘‘ करना ही चाहेगा।
 
हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं कि देश की सबसे बड़ी पंचायत के पंचों अर्थात सांसदों को जनता की दुख तकलीफ से ज्यादा फिकर है तो अपनी सुविधाआंे की। आलीशान घर, गाड़ी, फोन, परिवार सहित मुफ्त रेल और हवाई सुविधा जैसी सहूलियतों से इन्हें संतोष नहीं है। देश में सांसद विधायक और विधान परिषद के सदस्यों को राजमार्गों पर बिना किसी शुल्क के निर्बाध आवाजाही का भी मुकम्मल इंतजाम कर दिया है केंद्र सरकार ने। क्या ये चुने हुए लोग आम आदमी से इतर हैं? जब आम जनता से शुल्क वसूला जा सकता है तो इन्हें इससे बरी किस आधार पर रखा गया है! अभी लोगों की स्मृति से विस्मृत नहीं हुआ होगा कि मंदी के दौर में कांग्रेसनीत केंद्र सरकार के पहले कार्यकाल में माननीय मंत्रियों ने हवाई यात्रा पर 300 करोड़ रूपए फूंक दिए थे। क्या यह पैसा किसी टकसाल में एसे ही छप जाता है? नहीं यह देश की सवा करोड़ जनता के खून पसीने की कमाई से वसूले गए कर से ही आता है।
 
इसी साल जनवरी में जब इस मामले में हो हल्ला होने पर केंद्र सरकार ने सांसदों की कमाई पर नजर रखना आरंभ किया था। सांसदों की संपत्ति की घोषणा और उनके द्वारा भरे जाने वाले आयकर रिटर्न का मिलान करने का भरोसा भी दिलाया था सरकार ने। आयकर विभाग ने सांसदों और उनके आश्रितों के पेन नंबर और रिटर्न की जानकारी मांगी थी। इस मामले मंे सर्किल कार्यालयों को भी मुस्तैद किया गया था। सरकार का यह कदम निश्चित तौर पर माननीयों के कपड़े उतारने के लिए पर्याप्त माना जा रहा था कि सांसदों द्वारा कमाया गया धन जायज तरीके से हासिल किया गया है अथवा नहीं। विडम्बना यह है कि यह सब सांसदों के लिए किया जा रहा था, अतः यह योजना संभवतः परवान नहीं चढ़ सकी।
 
कांग्रेस के संसद सदस्य चरण दास महंत की अध्यक्षता वाली समिति ने सांसदों का वेतन केंद्रीय स्तर पर सचिवों के वेतन से एक रूपए अधिक करने की सिफारिश की है। कल इस मामले में लोकसभा में हंगामा भी हुआ। अरबों रूपए के चारा घोटाले मंे फंसे लालू प्रसाद यादव द्वारा चीख चीख कर यह बात कही गई कि सांसदों का वेतन निम्न श्रेणी लिपिक से भी कम है। लालू यादव यह भूल जाते हैं कि एलडीसी को वेतन के अलावा जो सुविधाएं मिलती हैं वे सांसदों को मिलने वाली सुविधाओं के मुकाबले शन्य ही हैं। अनेक विभागों ने नई भर्ती पर यह शर्त रख दी है कि सेवानिवृति पर सरकारी नुमाईंदा पेंशन का पात्र नहीं होगा। इस मामले में सांसद चुप क्यों हैं कि जब सरकारी कर्मचारी को पेंशन नहीं तो सांसद विधायक किस हक से पेंशन के पात्र हैं?
 
यह सच है कि आज के जनसेवक, लोकसेवक, देश सेवक अपनी लज्जा को पूरी तरह तज चुके हैं। आज का राजनैतिक परिवेश एकदम भिन्न ही नजर आ रहा है। आज नेहरू और गांधी के सिद्धांत लागू नहीं किए जा सकते, किन्तु राजनेताओं को जनता की फिकर भी करनी होगी। जनसेवकों को यह नहीं भूलना चाहिए कि देश के पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के पास प्रधानमंत्री रहते हुए भी फिएट कार खरीदने के पैसे नहीं थे। सरदार वल्लभ भाई पटेल से उन्हें सीख लेना होगा जिनके निधन के उपरांत उनके बैंक खाते में महज 259 रूपए थे।
 
आज वक्त आ गया है कि जनता इस बारे में सोचे कि जिसके हाथों उसने अपना और अपनी आने वाली पीढ़ी का भविष्य सौंपा है वे आज जनता के प्रति कितने जवाबदेह रह गए हैं। आसमान छूती मंहगाई लंबे समय से कायम है। सत्तर फीसदी आबादी रात को या तो आधे पेट खाना खाती है या भूखे ही सोने को मजबूर है। बेरोजगारी का आलम यह है कि युवा गलत कामों की ओर बढ़ते जा रहे हैं। सांसद विधायक अपनी भव्य और विशाल अट्टालिकाएं बना रहे हैं, पर जनता को छत नसीब नहीं है! यह कैसी आजादी और यह कैसा सुनहरा, उजला भविष्य! जिसका सपना हमारी पुरानी पीढ़ी ने आजादी के वक्त हमारे लिए देखा था, और हम अपनी आने वाली पीढ़ी को क्या सौंप कर जा रहे हैं, यह सोचना बहुत ही जरूरी है, वरना हमने तो अपनी उमर काट दी आने वाली पीढी हमें बहुत अच्छी नजर से तो कतई नहीं देखेगी।

2 टिप्‍पणियां:

Bhavesh (भावेश ) ने कहा…

अगर लालू प्रसाद यादव का तर्क है कि सांसदों का वेतन निम्न श्रेणी लिपिक से भी कम है तो कोई उसे पूछे की देश के कई सांसदों की न्यूनतम शेक्षणिक योग्यता भी चपरासी की योग्यता से कम है. ये केवल भारत का ही संविधान है जहाँ मुर्ख जनता इन जैसे गधो को इतना सर चढाती है. पिछले चुनाव में ये और पासवान कुत्ते बिल्ली की तरह लड़ रहे थे, अब जब डाल पतली निकली तो एक हो गए. ये सब नौटंकी नहीं तो और क्या है.
अगर देश ने सरदार वल्लभ भाई पटेल को अपना आदर्श माना होता तो आज ये घोटालों में सरताज नहीं होता लेकिन हमें तो अंग्रेजो की गुलामी करने वाले नेहरु और गाँधी की औलादे अपने सर पर बैठानी थी.

sandhyagupta ने कहा…

चलिए आखिर किसी मुद्दे पर तो ये महानुभाव एक सुर में बोलते हैं.