भोपाल अब भोजपाल क्यों?
इंडिया से भारत की जंग है जारी
लोगों की भावनाएं भड़काकर सियासत करना निंदनीय
(लिमटी खरे)
इंडिया से भारत की जंग है जारी
लोगों की भावनाएं भड़काकर सियासत करना निंदनीय
(लिमटी खरे)
कस्बों, शहरों, प्रदेश और देश का नाम बदलने के सिलसिले का आगाज बीसवीं या इक्कीसवीं सदी मंे आरंभ नहीं हुआ है। नाम परिवर्तन का सिलसिला प्रचीन माना जा सकता है। भारत को पहले देवभूमि कहा जाता था, फिर इसे आर्यवत कहा जाने लगा। मुगलों के आगमन के उपरांत इसका नामकरण हिन्दुस्तान और ब्रितानियों के शासनकाल के समय हिंगलिश (अंग्रेजी और हिन्दी के संयुक्त अघोषित संस्करण) के पैरोकार इसे इंडिया कहने में अपनी शान समझने लगे। दिल्ली कभी इंद्रप्रस्थ तो शाहजहांबाद, पटना पाटलीपुत्र या अजीमाबाद के नाम से पहचानी जाती थी, इलाहाबाद को प्रयाग के नाम से पहचाना जाता था।
पिछले दशकों में कलकत्ता को कोलकता, मद्रास को चेन्नई, बंबई या बाम्बे को मुंबई, पांडिचेरी को पुंडुचेरी, त्रिवेंद्रम को तिरूअनंतपुरम, कोचीन को कोच्ची, कर्नाटक ने अपनी स्वर्णजयंती पर बैंगलोर को बंग्लुरू, मैसूर को मसूरू, मंगलौर को मंगलुरू, शिमांेग को शिवमुग्गा, टुमकुर को टुमकुरू, कोलार को कोलारा, हासन को हसन्ना, रायचूर को रायचुरू, बेलगाम को बेलगावी, पूना को पुणे, वाराणसी को बनारस, बालासोर को बालेश्वर, होशंगाबाद को नर्मदापुरम का नाम दिया गया है।
नाम बदले जाने की श्रंखला में अभी अनेक शहर कतारबद्ध खड़े हुए हैं जिनमें देश के हृदय प्रदेश की आर्थिक राजधानी इंदौर को इंदुरू, संस्कारधानी जबलपुर को जाबलीपुरम, अहमदाबाद को कर्णावती, इलाहाबाद को प्रयाग, दिल्ली को इंद्रप्रस्थ, पटना को पाटलीपुत्र किया जाना बाकी है। मध्य प्रदेश के सिवनी जिले को ही लिया जाए तो धारणा है कि यह भगवान शिव की नगरी है इसलिए इसे सिवनी कहते हैं, कुछ लोगों का मानना है कि सेवन के वृक्षों की अधिकता के कारण इसका यह नाम पड़ा।
मद्रास का नाम चेन्नई करने के पीछे द्रविड़ संस्कृति और पहचान की दलील दी गई थी। कलकत्ता को कोलकता करने के पीछे बंगाली जनता की मूल बांग्ला संस्कृति पहचान और नगर के नाम का सही उच्चारण को ही आधार बताया गया था। बाम्बे को मुंबई करने के पीछे मराठी अस्मिता और मुंबा देवी को अधार बताया गया था। बंगलौर के बंग्लुरू परिवर्तन के पीछे स्थानवादी विशेष संस्कृति को अधार बनया गया था।
लोग आज भी इस बात का अर्थ खोज रहे हैं कि नए बने राज्यों में उत्तरांचल का नाम आखिर उत्ताखण्ड करने के पीछे क्या आधार था। कुछ सालों पहले तत्कालीन सूचना प्रसारण मंत्री प्रियरंजन दासमुंशी ने पश्चिम बंगाल का नाम बंग देश या बंग भूमि करने की बात फिजा में उछाल दी थी। तब इस बारे में व्यापक चर्चाएं भी हुई थीं, किन्तु इसके पीछे ठोस कारण न हो पाने से मामला ठंडे बस्ते के हवाले हो गया था।
देश के चार में से तीन महानगरों के नाम बदले जा चुके हैं तो भला देश की राजनैतिक राजधानी इससे कैसे बच पाती। तत्कालीन खेल मंत्री और पूर्व चुनाव आयुक्त मनोहर सिंह गिल ने नई दिल्ली को दिल्ली करने की हिमायत कर डाली। वैसे भी दिल्ली के अपभ्रंष डेहली का उच्चारण जोर शोर से जारी है। गिल की बात कामन वेल्थ गेम्स के भ्रष्टाचार के शोर में दबकर ही रह गई।
मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल का नाम भोजपाल करने के पीछे भी सियासत आरंभ हो गई है। इस मसले पर सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस आमने सामने आ चुकी है। कांग्रेस का आरोप है कि यह सांप्रदायिकता की साजिश है। इतिहास बताता है ि1718 में इसका नाम भोजनगरी था। भोपाल कभी राजा भोज की राजधानी ही नहीं रही। भोपाल पर गौड राजाओं का शासन रहा बाद में नवाब दोस्त मोहम्मद खान ने इसे अपनी राजधानी बना दिया था।
उधर राज्य सरकार ने करीब तीन शताब्दी पुराने फतेहगढ़ के किले के बुर्ज पर राजा भोज की विशालकाय प्रतिमा स्थापित कर दी है। भोपाल के विशाल जल संग्रह क्षमता वाले बड़े तालाब का नाम भी सरकार ने भोजताल कर दिया है। विडम्बना तो देखिए इसी भोजताल के अलावा छोटा तालाब और कोलार डेम होने के बाद भी होशंगाबाद से मोटरों से पानी खीचकर सत्तर किलोमीटर दूर भोपाल लाने का जतन कर रही है शिवराज सरकार। कहने को तो वह पुरातन सभ्यता को सहेज रही है पर जब उसके रखरखाव की बात आती है तो सरकार बगलें झांकने लगती है। इसी भोजताल का तीन चोथाई हिस्सा सुखा दिया गया है, पर इसका धनी धोरी कोई दिखाई नहीं पड़ता।
दरअसल लोगों की भावनाएं भड़काकर उन्हें वोट में तब्दील करना सियासी राजनीति का पुराना शगल है। नाम किसी शहर का हो या व्यक्ति का, अगर उसका उच्चारण गलत होगा या उसे गलत नाम से पुकारा जाएगा तो निश्चित तौर पर वह आहत हुए बिना नहीं रहेगा। ब्रितानी शासकों ने अपनी सहूलियत के अनुसार गली मोहल्लों, कस्बों, शहरों, प्रदेश और देश का नामकरण किया था। अब मिल को ही लें। इसका उच्चारण हम तमिल करते हैं, जबकि तमिल भाषा में इसका उच्चारण तमिस है। इसी तरह महाराष्ट्र प्रदेश के एक उपनाम केलकर का मराठी में उच्चारण केड़कर है। इसी तरह कानपुर की स्पेलिंग भी बाद में बदली गई।
पदम पुराण में ‘‘उज्जैन‘‘ के एक दर्जन से अधिक नामों की चर्चा है। मसलन अवन्तिका, उज्ज्ेनी, पदमावत आदि। इन सभी के पीछे कोई न कोई ठोस वजह है। वैसे नाम बदलने का मकसद पूरी तरह पाक पवित्र होना चाहिए। किसी का भी नाम बदलने के पीछे ठोस कारण दिया जाना अत्यावश्यक है। इसके पीछे वर्तमान में चल रही दिशाहीन स्वार्थपरक राजनीति की काली छाया कतई नहीं पड़ना चाहिए।
शेक्सपीयर ने कहा है ‘‘नाम में क्या रखा है?‘‘ लेकिन अनुभव बताते हैं कि नाम मंे बहुत कुछ रखा है। नाम किसी व्यक्ति का हो, स्थान का हो, कस्बे का हो, शहर, सूबे या देश का, उसके साथ उसकी ढेर सारी पहचान जुड़ी होती है। पूर्व प्रधानमंत्री स्व.नरसिंहराव के संसदीय क्षेत्र महाराष्ट्र के रामटेक का नाम आते ही लोगों को भान होने लगता है कि भगवान राम ने वहां कुछ देर टेक लगाई अर्थात विश्राम किया था।
हमारी नितांत निजी राय में होना यह चाहिए कि दासता का प्रतीक या दासता की याद दिलाने वाली सारी वस्तुओं, नाम आदि को अब हम सुविधा के अनुसार बदल दें। आज छः दशक से भी अधिक समय हो गया है हमंे आजादी के साथ सांसे लेते हुए फिर भी हम दासता के प्रतीकों का बोझ ढोने को मजबूर क्यों हैं। हालात देखकर यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि आजद भारत को उसका गौरव वापस दिलवाने भारत की हिन्दुस्तान और इंडिया से जंग बदस्तूर जारी ही है।
साथ ही साथ अगर हम किसी का नाम संकीर्ण मानसिकता के आधार पर तब्दील करते हैं ताकि इसका राजनैतिक फायदा (पालिटिकल माईलेज) लिया जा सके, तो इसे किसी भी दृष्टिकोण से न्यायसंगत नहीं माना जा सकता है। हम महज इतना ही कहना चाहते हैं कि -ः
‘‘मंदिर मस्जिद गुरूद्वारे में बांट दिया भगवानों को!
धरती बांटी, सागर बांटे, मत बांटो इंसानों को!!‘‘
धरती बांटी, सागर बांटे, मत बांटो इंसानों को!!‘‘
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