कांग्रेस के चेहरे दो, भाजपा का मुखौटा एक
(लिमटी खरे)
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी को भाजपा का मुखौटा कहा गया था। इसके बाद भाजपा में किसी तरह का चेहरा सामने नहीं आया। भाजपा का चाल चरित्र और चेहरा भले ही बदल गया हो पर आज भी भाजपा का नाम आते ही जेहन में अटल बिहारी बाजपेयी का चेहरा आ जाता है। वहीं दूसरी ओर कांग्रेस में वर्तमान वजीरे आजम डाॅक्टर मन मोहन सिंह के न जाने कितने चेहरे सामने आते जा रहे हैं। कभी वे खुद को मजबूर बताकर अपनी खाल बचाने की कोशिश करते हैं तो कभी भ्रष्टाचार के मामले मंे शतुरमुर्ग के मानिंद अपनी गर्दन रेत में गड़ाने का उपक्रम करते नजर आते हैं। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में ईमानदार छवि के धनी मन मोहन सिंह को ध्यान में रखकर जनता ने कांग्रेस को जिताया किन्तु बाद में जनता को समझ में आने लगा कि जिसे उन्होंने चुना है वह लोकतंत्र का सबसे बड़ा लाचार लुटेरा है। मनमोहन के सहयोगी अगर लूटपाट मचा रहे हैं और वे चुप हैं इसका तात्पर्य है कि ‘अली बाबा‘ ने अपने ‘चालीस चोरों‘ को लूट खसोट की छूट मौन सहमति के रूप में दी है।
वाकई डाॅ.मनमोहन सिंह ने इतिहास रच दिया है। आजादी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली कांग्रेस आजादी के उपरांत नेहरू गांधी परिवार की प्राईवेट लिमिटेड कंपनी बनकर रह गई है। आजादी के बाद नेहरू गांधी परिवार के पंडित जवाहर लाल नेहरू, प्रियदर्शनी इंदिरा गांधी और राजीव गांधी ने देश के सबसे ताकतवर पद वजीरे आजम को संभाला। गैर कांग्रेसी सरकार में अटल बिहारी बाजपेयी ने ही पांच साल से ज्यादा समय तक लाल किले की प्राचीर से देश को संबोधित किया है। कांग्रेस में गैर नेहरू गांधी परिवार में डाॅक्टर साहेब सातवीं मर्तबा स्वाधीनता दिवस पर लाल किले से देश को संबोधित करने का सौभाग्य पाएंगे।
दूसरी बार जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने तब से पहली मर्तबा से अधिक कमजोर दिखाई पड़ने लगे। इसका कारण कांग्रेस के सत्ता और शक्ति के शीर्ष केंद्र 10 जनपथ (श्रीमति सोनिया गांधी का सरकारी आवास) के सलाहकारों में कुछ मंझे और घाघ किस्म के राजनेताओं का जुड़ना ही था। अपने मन में 7, रेसकोर्स (प्रधानमंत्री का ईयरमार्क आवास) को आशियाना बनाने की चाहत पाले कांग्रेस के राजनैतिक चाणक्यों ने सोनिया गांधी को मनमोहन के खिलाफ तबियत से भरमाया और भ्रष्टों को लूट खसोट के लिए उकसाया।
कांग्रेस के बीसवीं सदी के अंतिम दशकों के चाणक्य स्व.अर्जुन सिंह ने इन हालातों को बेहतर भांपा और फिर उनके मौन ने कांग्रेस नेतृत्व की नींद उड़ा दी। इसी बीच एक के बाद एक लाखों करोड़ रूपयों के घपले और घोटालों की गूंज होने लगी। क्या टू जी स्पेक्ट्रम घोटाल, क्या कामन वेल्थ घोटाला, क्या एस.बेण्ड, क्या आदर्श सोसायटी, क्या सीवीसी पद पर थामस की नियुक्ति, हर मामले में कांगे्रसनीत केंद्र सरकार को मुंह की ही खानी पड़ी है। यहां तक कि देश की शीर्ष अदालत ने दो दो मर्तबा टू जी स्पेक्ट्रम मामले में वजीरे आजम की भूमिका पर ही गंभीर सवाल खड़े किए थे। अदालत का यह कहना कि इतने बड़े घोटाले के बाद आदिमत्थू राजा आखिर मंत्री पद पर क्यों बने हुए हैं? काग्रेस को गिरेबान में झाकने के लिए पर्याप्त माना जा सकता है। काले धन के मामले में भी सरकार को बार बार अदालत द्वारा आड़े हाथों लेते हुए फटकार लगाई है।
जब पानी सर से उपर होता दिखा तो वजीरे आजम डाॅक्टर मनमोहन सिंह ने देश के चुनिंदा टीवी समाचार चेनल्स के संपादकों को बुलाकर अपना स्पष्टीकरण दिया और खुद को निरीह, मजबूर और निर्दोष बताने का प्रयास किया। समूचे देश ने उस वक्त मनमोहन सिंह को पानी पी पी कर कोसा कि अगर आप मजबूर हैं तो फिर कुर्सी से चिपके रहने की क्या मजबूरी है। अगर आप इस सब भ्रष्टाचार घपले घोटाले में शामिल नहीं हैं तो आप अपने पद से त्यागपत्र क्यों नहीं दे देते? मतलब साफ है कि आप भी ‘‘कथड़ी (एक तरह का फटे वस्त्रों से बना दुशाला) ओढ़कर घी पीने‘‘ में विश्वास रखते हैं। अगर आप यह कहने का साहस जुटा पा रहे हैं कि आप मजबूर हैं तो सवा करोड़ भारतवासियों को यह जानने का पूरा हक है कि आखिर यह मजबूरी क्या है और यह आप भारत के हर नागरिक की किस कीमत पर चुका रहे हैं।
हाल ही में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के दो साल पूरे हुए। प्रधानमंत्री ने सरकार में प्रत्यक्ष और परोक्ष तौर पर शामिल घटक दलांे के प्रतिनिधियों के साथ मिलकर जश्न मनाया। पता नहीं प्रधानमंत्री ने इस तरह खुशी मनाने का नैतिक साहस कैसे जुटाया? क्योंकि सरकार को भ्रष्टाचार के मामले में जिस करवट मिला उस करवट उसके अपने सहयोगियों ने कपड़ों के मानिंद धुना। पूर्व संचार मंत्री ए.राजा, कामन वेल्थ गेम्स आयोजन समिति के तत्कालीन अध्यक्ष सुरेश कलमाड़ी, सरकार की सहयोगी द्रमुक अध्यक्ष करूणानिधि की पुत्री कनिमोरी जैसी शख्सियतें सरकार की छवि पर कालिख लगाकर जेल में हैं। अनेक और एसे ही नगीनों का जेल इंतजार कर रहा है। इन परिस्थितियों में क्या संप्रग सरकार ने घपले घोटालों का जश्न मनाया है!
आदि अनादि काल से रियाया के हर दुख दर्द, सुख सुविधा का ध्यान रखना शासकों का प्रथम नैतिक दायित्व रहा है। आजाद भारत में पहली मर्तबा यह देखने को मिल रहा है कि शासकांे को अपना निजी खजाना वह भी जनता के गाढ़े पसीने की कमाई से भरने की फिक्र है। शासकों को इतना भी इल्म नहीं है कि वह मंहगाई के बोझ तले दबी जनता के रूदन को सुन पाए। नौ माह में नौ मर्तबा पेट्रोल के दाम बढ़ा दिए गए। डीजल और रसोई गैस इसी कतार में खड़े हैं। दूध के दामों में बार बार बढ़ोत्तरी की जा रही है। दाल तेल और अन्य खाद्य सामग्रियों की कीमतें आसमान को छू रही हैं। नहीं बढ़ रही हैं तो शराब की कीमतें।
लगता है वजीरे आजम डाॅक्टर मनमोहन सिंह वाकई में महात्मा गांधी के सच्चे अनुयाई हैं। बापू के तीन बंदर यह शिक्षा देते हैं कि बुरा मत सुनो, बुरा मत देखो, बुरा मत कहो। वजीरे आजम बुरा सुनने से गुरेज ही करते हैं, रही बात देखने की तो जहां भी अनर्थ या भ्रष्टाचार, घपले घोटाले होते दिखते हैं वे अपनी आंखे बन्द कर लेते हैं और बचा बुरा बोलना तो व्यक्तिगत तौर पर वे भले आदमी हैं, सो बुरा बोलने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता है। एक तरफ मनमोहन की छवि ईमानदार की बनी हुई है वहीं दूसरी ओर उनका दूसरा चेहरा भ्रष्टों को प्रश्रय देने वाला सामने आया है।
प्रधानमंत्री के इस नरम रवैए से कांग्रेस, संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन और खुद डाॅक्टर मनमोहन सिंह की छवि जमीन पर आ चुकी है। इसका सबसे बड़ा और प्रत्यक्ष उदहारण अन्ना हजारे का आंदोलन था। अन्ना के आंदोलन से सरकार हिल गई। अन्ना ने लोकपाल विधेयक की तान छेड़ी है। सच है कि जनता को यह अधिकार होना चाहिए कि जिसे वह जनादेश देती है अगर वह उसकी उम्मीदों पर खरा न उतरे तो उसे वापस बुलाने का अधिकार उसे होना चाहिए। अगर एसा हुआ तो पारदर्शिता आ सकती है। अन्ना हजारे द्वारा उठाए गए मुद्दों पर पहले भी काफी शोर शराबा हो चुका है। तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने इस बात का समर्थन किया था कि जनता को अपने प्रतिनिधि को वापस बुलाने का अधिकार होना ही चाहिए।
स्वतंत्र भारत में सत्तर के दशक के बाद भ्रष्टाचार का केंसर तेजी से बढ़ा है। तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व.राजीव गांधी ने खुद ही इस बात को स्वीकारा था कि केंद्र द्वारा दी गई इमदाद के एक रूपए में से महज पंद्रह पैसे ही जनता तक पहुंच पाते हैं। उस दर्मयान एक लतीफा बहुत ही चला था। केंद्र की मदद को बर्फ की संज्ञा दी गई थी, जो एक हाथ से दूसरे हाथ जाने तक पिछलती रहती है। और जब अंतिम हाथ में पहुंचती है और उसे खर्च करने के लिए जब वह सोचता है तब तक वह पूरी ही घुल जाती है।
इस संदर्भ में मध्य प्रदेश मंे उप सचिव रहे स्व.आर.के.तिवारी दद्दा द्वारा उद्यत एक प्रसंग का जिकर लाजिमी होगा। दद्दा ने बतायाकि उन्होंने त्रि स्तरीय पंचायती राज की व्याख्या स्व.राजीव गांधी के समक्ष कुछ इस तरह की थी। सूबाई व्यवस्था में तीन स्तर पर काम होता है। पहला सचिवालय जिसे अंग्रेजी में सेक्रेटरिएट कहते हैं, यहां सब कुछ सीक्रेट है, अर्थात हो सकता है आपका काम पांच लाख में हो जाए या फिर एक बोतल शराब में, इसे दद्दा सेक्रेटरिएट के बजाए ‘सीक्रेटरेट‘ कहा करते थे। दूसरा है संचालनालय अर्थात डायरेक्ट रेट, यहां सब फिक्स है दो परसेंट लगेगा मतलब दो परसंेट न कम न ज्यादा। पंचायती राज का तीसरा स्तर है जिलों में जिलाध्यक्ष कार्यालय जिसे ‘कलेक्ट रेट‘ कहते हैं अर्थात जो कुछ आया उसे कलेक्ट करना।
आज देश के हर राज्य में कमोबेश यही आलम है। वहीं देश के प्रधानमंत्री डाॅक्टर मनमोहन सिंह ध्रतराष्ट्र की भूमिका में शांति के साथ जनता को लुटने दे रहे हैं। प्रधानमंत्री का दोहरा चरित्र देखकर आश्चर्य ही होता है। वजीरे आजम राज्य सभा से हैं, एवं आम धारणा बन चुकी है कि बिना जनाधार वाले लोग ही राज्य सभा की बैसाखी से संसदीय सौंध तक जाने का मार्ग चुनते हैं, ये रीढ़ विहीन होते हैं। अब समय आ चुका है प्रधानमंत्री को सारे मिथक तोड़ने ही होंगे, उन्हंे कठोर और अप्रिय कदम उठाने ही होंगे, इस देश की नंगी भूखी जनता की चीत्कार सुनना ही होगा, वरना आने वाले समय में जो परिदृश्य बनेगा वह अद्भुत और अकल्पनीय तौर पर भयावह ही होने की उम्मीद है।