इतिहास में शामिल होने को तैयार है, ‘तार‘
तार की विदेश सेवा बंद!
डेढ़ सदी पुरानी संचार प्रणाली की उखड़ी सांसें
(लिमटी खरे)
अस्सी के दशक में कवि सम्मेलनों में भारतीय डाक तार विभाग का खूब माखौल उड़ाया जाता था। एक बार इरफान (काल्पनिक नाम) को तार मिला ‘बाबा आज मर गए हैं।‘ फिर क्या था, इरफान मियां मय अहलो अयाल के पहुंच गए अब्बाजान के घर। घर पर सब कुछ सामान्य था। इरफान को अब्बा के दीदार जरूर नहीं हुए। इरफान मियां ने घर वालों को मन ही मन खूब कोसा कि अब्बा के जाते ही घर में सब कुछ सामान्य है। खिन्न मन से उन्होंने अम्मी से अब्बा जान के बारे में मालूमात की तो भारतीय डाक तार विभाग की असलियत सामने आ ही गई। दरअसल इरफान के भाई इमरान ने तार किया था, -‘बाबा अजमेर गए हैं‘‘, पर तार विभाग ने उसे पहुंचा दिया -‘‘बाबा आज मर गए हैं‘‘ बनाकर।
एक दौर था, जब टेलीग्राम के सहारे ही लोग आपातकाल में एक दूसरे की खोज खबर लिया करते थे। जब बच्चा बाहर पढ़ता था, तब अगर कई दिन उसकी कोई चिट्ठी पत्री न आती तो पालक बेचैन हो उठते और फिर तार भेज दिया जाता था, वह भी रिटर्न पेड। अर्थात बच्चे को तार का जवाब देने में पैसे न खर्च करने पड़ें। उस दौर में टेलीप्रिंटर के माध्यम से तार का संप्रेषण किया जाता था। तार को संक्षिप्त बनाने के लिए कुछ खास इबारतों के लिए नंबर भी प्रदान किए गए थे।
कवियों साहित्यकारों ने पत्रों और तार की महिमा का बखूबी बखान किया है। पत्र वाकई आनंद लाते हैं। तार आते ही लोगों का दिल तेजी से धड़कने लगता था, पता नहीं क्या विपदा आ गई किसका निधन हो गया, किसका एक्सीडेंट हो गया। तार के आते ही घर भर के लोग एक साथ खड़े होकर भगवान से प्रार्थना करते कि यह तार किसी अच्छे संदेश के लिए हो। जेसे ही किसी के पैदा होने की खबर मिलती घर परिवार के लोग उछल पड़ते और तार लेेकर आने वाले को नकद देकर मिठाई खिलाकर उसका शुक्रिया अदा करते। परीक्षा में सफलता हो या नौकरी की सूचना, या फिर नौकरी में आचानक अवकाश की बात, हर मसले में टेलीग्राम ही सबसे विश्वसनीय सहारा हुआ करता था।
इक्कीसवीं सदी में विज्ञान और प्रोद्योगिकी के विकास के साथ ही अब टेलीग्राम इतिहास की वस्तु में शामिल होने जा रहा है। 30 अप्रेल से टेलीग्राम की समुद्रपारीय सेवा को बंद कर दिया गया है। अब विदेशों मंे तार के संप्रेषण को पूरी तरह विराम दे दिया गया है। टेलीग्राम के इतिहास पर अगर नजर डाली जाए तो 1855 में मोर्स मशीन से कोड के माध्यम से संक्षिप्त संदेश भेजे गए थे।भारत में पहली बार 11 फरवरी 1855 को पहली मर्तबा देशवासियों के लिए ब्रितानियों ने आंग्ल भाषा में टेलीग्राम सेवा आरंभ की गई थी। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में 01 जून 1949 में आगरा, पटना सहित नौ शहरों में हिन्दी में टेलीग्राम सेवा आरंभ की गई। इसके बाद 1960 के दशक मं विभिन्न डाकघरों में टेलीप्रिंटर मशीन लगाई गईं थीं।
एक दशक पहले एक कविता का जन्म हुआ जिसकी इबारत थी:-
‘‘चिट्ठियों की चाल अब बूढ़ी हो चली है!
फेक्स, फोन, ई मेल खिलती कली है!!‘‘
संभवतः इसी कविता को आधार बनाकर भारत सरकार के संचार विभाग ने तीस अप्रेल से 156 साल पुरानी अंतराष्ट्रीय टेलीग्राम सेवा को बंद करने का फैसला ले लिया है। बीएसएनएल के मुख्यालय ने अप्रेल माह के दूसरे पखवाड़े में सभी सर्किल के उप महाप्रबंधकों को यह सेवा बंद करने के निर्देश जारी कर दिए थे। वैसे सरकार का तर्क काफी हद तक सही है कि मोबाईल, इंटरनेट और डाटा ट्रांसफर की अत्याधुनिक और संचार सेवाओं के व्यापक पैमाने पर हुए विस्तार के कारण टेलीग्राम सेवाएं अब अप्रासंगिक होता जा रहा है।
यद्यपि सरकार द्वारा अंतर्राष्ट्रीय तार सेवा बंद की है, जिससे देश के अंदर तो तार की सेवाआंे पर कोई असर नहीं पड़ेगा फिर भी तार की दिनों दिन घटती मांग के कारण इस पर किसी भी दिन विराम लग सकता है। एक समय में आबादी और जन जीवन की जीवन रेखा समझे जाने वाले अंतरदेशीय, पोस्ट कार्ड, लिफाफे, पंजीकृत डाक (रजिस्ट्री), मनी आर्डर आदि की सांसे अब तकनीकि तरक्की के चलते फूलने लगी हैं।
संचार क्रांति के दौर में आधुनिक सूचना तकनीक महानगरों और बड़े शहरों तक ही सिमटकर रह गई है। कहा जा रहा है कि विश्व भर में टेलीग्राम सेवा को समाप्त किया जा रहा है। आस्ट्रेलिया में मार्च में ही टेलीग्राम सेवा को बंद कर दिया गया है। संचार क्रांति के दौर में अब पत्र, रजिस्ट्री, टेलीग्राम आदि का स्थान इंटरनेट और मोबाईल सेवा ने ले लिया है। अब ईमेल और एसएमएस ही सब कुछ हो गया है। ईमेल को अब आधिकारिक माना जाने लगा है। ईमेल या एसएमएस का रिकार्ड भी मायने रखते हैं।
अब तो बधाई भी ई बधाई में तब्दील हो गई है। यहां तक कि राखियां भी ई राखियों में तब्दील हो गई हैं। अब तो राखियां भी लिफाफे में रखकर भेजने के बजाए ईमेल या दूसरी वेब साईट के माध्यम से भेजी जाने लगी हैं। जन्म दिवस के पेपर के कार्ड से कहीं ज्यादा खूबसूरत ई कार्ड मौजूद हैं, जो बिना पैैसे के ही मिल रहे हैं।
आज जो चालीस के पेटे में होंगे उन्होंने बीसवीं और इक्कीसवीं सदी के इस परिवर्तन को अपनी आंखों से देखा है। किस तरह बैल गाड़ी का स्थान फर्राटे भरने वाली यात्री बस और मेट्रो रेल ने लिया है, किस तरह सड़क किनारे खुदे कुएं से प्यास बुझाने के लिए राहगीर एक रस्सी और लोटा साथ लेकर चलता था और आज बोतलबंद ठंडा पानी हर जगह सहजता से उपलब्ध है। कहां पत्रों के लिए प्रेयसी या मां छटपटाती थी, और अब किस तरह आॅन लाईन चेटिंग के जरिए मां अपनी परदेश में बैठी बिटिया को गाजर का हलवा बनाना सिखाती है और पे्रमी प्रेमिका आपस में बात कर प्रसन्न होते हैं।
अभी कुछ दिनों पहले टाईपराईटर ने दम तोड़ा और अब टेलीग्राम की बारी है। अंतरदेशीय, पोस्ट कार्ड, लिफाफे, पंजीकृत डाक (रजिस्ट्री), मनी आर्डर आदि की सांसे भी अब उखड़ने ही लगी हैं। पता नहीं कब इन सब की हृदय गति रूक जाए और ये भी इतिहास की वस्तु में अपने आप को पाएं। यह जल्दी ही होगा किन्तु कम से कम एक पीढ़ी की स्मृतियांे से तो यह इतनी जल्दी विस्मृत होने वाला नहीं दिखता।
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