कहां जाती हैं पकड़ी गई गायें ---- 3
गाय और ग्लोबल वार्मिंग!
(लिमटी खरे)
दुनिया का चौधरी अमेरिका अब भारत की गौ माता पर अपनी कुदृष्टि डालने लगा है। अमेरिका को गाय फूटी आंख नहीं सुहा रही है इसका कारण है गाय के द्वारा किया जाने वाला ‘मीथेन‘ गैस का उत्सर्जन। मीथेन पर्यावरण के लिए अनुपयोगी होने के साथ ही साथ घातक मानी गई है। वैसे गाय से ज्यादा मीथेन गैस उंट द्वारा उत्सर्जित की जाती है। अमेरिकी वैज्ञानिकों का मानना है कि आने वाले समय में वैश्विक जलवायू के लिए गाय, मोटर वाहनों की तुलना में ज्यादा खतरनाक साबित हो सकती है। चारागाह से मांस पकाने की पूरी प्रक्रिया में होने वाले कार्बन का उत्सर्जन कुल ग्रीन हाउस गैस का अठ्ठारह फीसदी है। गौ मांस के भारत में चलते प्रचलन पर चिंतित अमरीकी वैज्ञानिक इस बात से खासे खौफजदा नजर आ रहे हैं कि भारत में गौ मांस की खपत में 40 फीसदी से ज्यादा बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है। गौ मांस का सेवन करने वालों में तरह तरह की बीमारियां भी पनप रहीं हैं। हम सबकी गौ माता को अमेरिका ग्लोबल वार्मिंग का एक कारक मान रहा है!
दुनिया में कम ही एसे जीव जंतु हैं जो मानव जीवन के लिए उपयोगी माने जा सकते हैं। इन जीवों में गाय का अहम स्थान है। गाय पौराणिक काल से ही मनुष्यों के लिए पूजा, सेवा और अन्य उपयोग के लिए सर्वोच्च मानी गई है। अब गाय को ग्लोबल वार्मिंग का एक प्रमुख स्त्रोत माना जा रहा है। वैज्ञानिक कहते हैं कि एक गाय हर साल 180 किलो मीथेन गैस वायूमण्डल में छोड़ती है। कहा जा रहा है कि अगले तीन दशकों में दुनिया भर में गौ मांस और दूध का उत्पादन दोगुने से भी अधिक हो जाएगा।
दुनिया के चौधरी अमेरिका के वैज्ञानिकों का मत है कि आने वाले समय में गाय वैश्विक जलवायू के लिए पेट्रोल और डीजल से चलने वाले वाहनों से भी खतरनाक साबित हो सकती है। दरअसल आजादी के उपरांत भारत में लोगों की खानपान की शैली में बड़ा बदलाव दर्ज किया गया है। इसी समयावधि में दुनिया भर में कमोबेश यही परिवर्तन देखने को मिला है। मांस, मदिरा से दूर रहने वाले समुदाय और संप्रदाय में इसका चलन काफी हद तक बढ़ गया है। यही कारण है कि मांस की खपत में पांच गुना से ज्यादा बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है।
अमेरिका का ही उदहारण अगर लिया जाए तो वहां औसतन एक व्यक्ति साल भर में सवा सौ किलो मांस खा जाता है। प्रति व्यक्ति मांस की खपत चीन में 70 तो ब्राजील में 90 किलो है। हिन्दुस्तान में मांस की औसत खपत प्रति व्यक्ति महज तीन किलो है। यहां विचारणीय तथ्य यह है कि भारत में गौामंस और रेड मीट का स्वाद लेने वालों की तादाद में विस्फोटक बढ़ोत्तरी दर्ज हुई है। दुनिया भर में सत्तर अरब से अधिक पशुओं को सिर्फ उनका मांस खाने के लिए पाला जा रहा है। पशुओं की आबादी मानव आबादी से दस गुना अधिक है। एक किलो मांस बढ़ाने के लिए गाय को औसतन 16 किलो अनाज खिलाया जाता है।
संेटर फॉर इंटरनेशनल फॉरेस्ट्री रिसर्च के 2004 के प्रतिवेदन के अनुसार ब्राजील में गौवंश के मांस की मांग के बढ़ने के कारण 2000 तक पांच करोड़ 87 लाख हेक्टेयर जंगल का सफाया किया गया था। गौ मांस खाने वालों के स्वास्थ्य पर किए सर्वेक्षण से साफ हुआ कि इसका सेवन करने वालों को तनाव और हृदय संबंधी रोग का खतरा अधिक हो गया था। एक देश से मांस को दूसरे देश ले जाते वक्त समुद्री संक्रमण और एक देश की बीमारी दूसरे देशों तक पहुंचने के मार्ग भी प्रशस्त होते गए। 2003 में एवियन फ्लू और इसके बाद नवोदित बीमारियों का कारण भी यही संक्रमण माना गया है।
जगह के हिसाब से भी गाय को राजसी मवेशी माना गया है। गाय को चरने के लिए बड़ा स्थान उसे चाहिए होता है। गाय एक ही स्थान पर खड़े खड़े अधिक देर तक चारा नहीं खा सकती। इस लिहाज से अगर देखा जाए तो एक किलो चिकन के उत्पादन के लिए जितनी जगह की आवश्यक्ता होती है उससे सात गुना अधिक जगह एक किलो गौमांस के लिए आवश्यक होती है। गाय को पर्यावरण हितैष्ज्ञी बनाने की कवायद आरंभ हो चुकी हैं।
गाय को लेेकर किए गए शोध में यह बात उभरकर सामने आई है कि बसंत के मौसम में गाय सबसे ज्यादा दूध देती है और उसका स्वास्थ्य भी बेहद अच्छा रहता है। इसके पीछे वैज्ञानिकों का मत था कि इस मौसम में उगने वाली घास में ओमेगा 3, चर्बीदार अम्ल की मात्रा अधिक होती है, जो उसके लिए लाभदायक होती है। इसके बाद इस अम्ल को गाय कि भोजन में शामिल किया गया तो इसके परिणाम उत्साहजनक सामने आए। इससे गाय के गैस उत्सर्जन में कमी दर्ज की गई। एक आंकलन के अनुसार कनाडा जैसे विकसित देश में ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन हो रहा है, उसमें 75 फीसदी भागीदारी पशुओं के चारागाहों की ही है।
दरअसल गाय जब जुगाली करती है तब उसके पेट में गोबर के साथ ही साथ सह उत्पाद के तौर पर मीथेन गैस बनती है। यूरोप में गाय के सर्वमान्य और परंपरागत आहार भूसे और चारे के स्थान पर सोयाबीन और मक्का खिलाना आरंभ किया। इसके परिणामस्वरूप गाय के पेट में गैस का उत्सर्जन बढ़ गया। बाद में अमेरिका में पटुआ और रिजका जैसे पोष्टिक पदार्थों को गाय के आहार में शामिल किया गया, ताकि मीथेन का उत्सर्जन कम किया जा सके।
दिनों दिन धरती का तापमान बढ़ता ही जा रहा है। बार बार दुनिया में ग्लोबल वार्मिंग की चिंता बढ़ती जा रही है। जंगलों की कटाई कर कांक्रीट के जंगल खड़े किए जा रहे हैं। जंगल ही एकमात्र एसा साधन है जो धरती के ‘बुखार‘ को कम कर सकता है। गाय को ग्लोबल वार्मिंग से जोड़कर अमेरिका ने हमारी धार्मिक आस्था पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। समय है कि हम गाय के द्वारा किए जाने वाले मीथेन उत्सर्जन को कम करने की दिशा में पहल करें, वरना आने वाले कल की तस्वीर बेहद ही भयानक साबित हो सकती है।
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