आखिर, कौन समझेगा सिवनी
जिले की प्रसव वेदना!
(लिमटी खरे)
1 नवंबर 1956 को अंतिम बार
अस्तित्व में आए सिवनी जिले को देखकर कोई भी कह सकता है कि सिवनी जिला आज़ादी के
साढ़े छः दशकों बाद भी प्रसव वेदना से लगातार दो चार होता आया है। सिवनी के नीति
निर्धारक और देश की सबसे बड़ी पंचायत यानी संसद और प्रदेश की नीति निर्धारक
विधानसभा में सिवनी का पर्याप्त प्रतिनिधित्व होने के बाद भी सिवनी का नवनिर्माण न
हो पाना अपने आप में शर्मिंदगी भरा ही माना जा सकता है। आज उमर दराज या प्रौढ़ हो
रही पीढ़ी के मानस पटल पर सिवनी के विकसित न हो पाने का दर्द साफ देखा जा सकता है।
अपने आंचल में
अकूूत वन संपदा समेटने वाली इस सिवनी के राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विख्यात
होने के अनेक कारक हैं। इनमें जगतगुरू स्वामी शंकराचार्य की जन्म स्थली, भेड़िया बालक मोगली
की कर्मस्थली, एशिया के
सबसे बड़े मिट्टी के बांध (संजय सरोवर परियोजना), बेहतरीन क्वालिटी
के चंदन के लिए प्रसिद्ध चंदन बगीचा, सिंचाई विभाग के मुख्य अभियंता का कार्यालय, लोक निर्माण विभाग
के अधीक्षण यंत्री का कार्यालय, राष्ट्रीय राजमार्ग के कार्यपालन यंत्री का
कार्यालय, उम्दा
किस्म के चावल का उत्पादक, काले हिरण (चिंकारा), सिवनी की पुरानी जिला जेल और सुधारालय
जिसमें महात्मा गांधी और सुभाष चंद्र बोस जैसे स्वतंत्रता संग्राम सैनानी के साथ
ही साथ पीर पगारो जैसी हस्तियां भी बंद थीं, जिनसे गोरे ब्रितानी अंग्रेज भय खाते थे।
अस्सी के दशक तक तो
सिवनी के वाशिंदे अपने आप को गौरवांवित महसूस किया करते थे कि वे ऐसी माटी में
जन्मे या रह रहे हैं, जहां संपन्नता और समृद्धि है। सिवनी के नागरिक पूर्व केंद्रीय
मंत्री पंडित गार्गीशंकर मिश्र और सुश्री विमला वर्मा के द्वारा सिवनी को दी गई
सौगातों को पाकर अपने आप को प्रफुल्लित महसूस किया करते थे। ऐसा नहीं है कि विमला
वर्मा और गार्गी शंकर मिश्र को विरोध न झेलना पड़ा हो।
याद पड़ता है कि
सिवनी में खेल के स्टेडियम के मामले में उस समय स्कूल और कॉलेज के युवाओं के विरोध
का लंबे समय तक सामना करना पड़ा था पंडित गार्गीशंकर मिश्र और सुश्री विमला वर्मा
को। सुश्री विमला वर्मा और पंडित गार्गी शंकर मिश्र द्वारा सिवनी में स्टेडियम की
मांग पर बारंबार बनवाने का आश्वासन दिया जाता रहा। उस वक्त जुझारू छात्र नेता संजय
चौरसिया द्वारा उद्यत एक नारा याद पड़ता है जो सभी की जुबान पर छा गया था और वह था
-‘‘आश्वासन नहीं, स्टेडियम चाहिए।
अर्थात अब आश्वासन नहीं चाहिए अब तो स्टेडियम ही चाहिए। अंत में सिवनी के युवाओं
के सामने पंडित गार्गी शंकर मिश्र और सुश्री विमला वर्मा को झुकना पड़ा तथा सिवनी
में पुलिस लाईन्स के पीछे एक स्टेडियम की सौगत मिल पाई सिवनी को।
शनैःशनैः सिवनी में
समृद्धि और संपन्नता को मानो ग्रहण लगना आरंभ हो गया हो। सिवनी में जो कुछ था वह
भी एक के बाद एक करके मुट्ठी की रेत के मानिंद फिसलने लगा। सिवनी के लोग हैरान
परेशान थे कि आखिर क्या कारण है कि कहां तो जनसेवकों द्वारा सिवनी में एक एक ईंट
जोड़कर आशियाना बनाया गया और कहां जनसेवकों द्वारा पूर्व के जनसेवकों की सौगातों को
ही सहेजकर नहीं रखा जा पा रहा है। इसी उहापोह में नागरिक रहे और सिवनी की सौगातों
के पिटारे में से एक एक कर सौगातें या तो लोगों की आंखों में धूल झोंककर या बलात्
निकालकर अन्य जिलों के सरमायादारों द्वारा ले जाई जाती रहीं।
नब्बे के दशक के
आगाज के साथ ही सिवनी जिले को मिलने वाली सौगातों का सिलसिला थमने सा लगा। लोगों
को लगा कुछ समय बाद ही सही सिवनी की झोली में सौगातें मिलना आरंभ हो जाएंगी। समय
बीतता गया सिवनी की झोली में आने वाली रसद बेहद कम होती गई। एक के बाद एक सौगातें
मिलने की संभावनाएं के क्षीण होती देख सिवनी वासियों का मन आशंकाओं कुशंकाओं से
घबराने लगा।
जनसेवक पता नहीं
किसके दबाव में या फिर निहित स्वार्थ के चलते मौन साधे हुए थे, पर सिवनी की जनता
लगातार लुट रहे अपनी अमूल्य धरोहरों के खजानों को लुटता देखकर बस इसी डर में
आशंकित थी कि कहीं पहरेदार इसी तरह आंख बंद कर बैठे रहे और उसका सौगातों का खजाना
रीत न जाए . . .।
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