खूनी संघर्ष से होगा गलत संस्कृति का
आगाज़!
(शरद खरे)
सिवनी विधानसभा के पुसेरा गांव में
भारतीय जनता पार्टी के अधिकृत प्रत्याशी नरेश दिवाकर के जनसंपर्क के दौरान खूनी
संघर्ष की खबर आना और उस बारे में भारतीय जनता पार्टी द्वारा खण्डन न किया जाना इस
बात को दर्शा रहा है कि उक्त खबर में दम है। खबर अगर सही है तो इसका स्वागत तो
नहीं किया जा सकता है। नरेश दिवाकर दो बार सिवनी विधानसभा के विधायक रहे हैं। उनके
जैसे वरिष्ठ विधानसभा प्रत्याशी से इस तरह की उम्मीद नहीं की जा सकती है कि वे
अपने सहयोगियों या चुनाव प्रचार के दौरान साथ चलने वाले भाजपा कार्यकर्ताओं को इस
तरह की हरकतों को अंजाम देने के लिए प्रोत्साहित करेंगे। पर यह हुआ है इसलिए उन पर
भी इसके छींटे अगर जाएं तो गलत नहीं कहा जा सकता है।
याद पड़ता है कि उनके विधायक रहते हुए एक
बार कुरई (परिसीमन के पूर्व कुरई क्षेत्र सिवनी विधानसभा का अंग हुआ करता था) में
नरेश दिवाकर ने अपना आपा खोया था और एक वनाधिकारी को झापड़ रसीद कर दिया था। इस
संबंध में कुरई थाने में प्राथमिकी भी दर्ज कराई गई थी। बाद में आपसी सुलह से
मामला सुलझ गया बताया जाता है। पर घटना तो कारित हुई थी वह भी एक वनाधिकारी के साथ
मारपीट की, वह भी तत्कालीन सिटिंग एमएलए नरेश दिवाकर के द्वारा।
पुसेरा में घटी घटना के बाद, भाजपा द्वारा इस संबंध में अब तक अपना
पक्ष नहीं रखा जाना दुर्भाग्यपूर्ण ही माना जाएगा। इसका कारण यह है कि सिवनी जिला
देश प्रदेश के सबसे शांत जिलों की फेहरिस्त में शामिल है। सिवनी में गुण्डागर्दी
को कभी भी प्रश्रय नहीं दिया गया है। पुसेरा में तलवार बाजी हुई वह भी चुनाव
प्रचार के दरम्यान। इस मामले में महज निंदा करने से काम नहीं चलने वाला। इसके लिए
प्रशासन को कड़ा रूख अख्तियार करना ही होगा। प्रशासन के साथ ही साथ निष्पक्ष चुनाव
करवाने के लिए भारत सरकार की ओर से सामान्य, व्यय, पुलिस न जाने कितने प्रेक्षकों को यहां
तैनात किया गया है। यह बात उनके संज्ञान में आई ही होगी, अब इंतजार है तो उनके कदम का।
सिवनी के इतिहास में चाहे चुनाव रहा हो
या कोई अन्य आयोजन, कभी भी इस तरह की गुण्डागर्दी के उदाहरण कम ही मिलते हैं। याद पड़ता है
कि लखनादौन के करीब, बीबी कटोरी में एक बार लोकसभा चुनाव के दौरान जून 1991 में एक दल के प्रत्याशी पर बंदूक की
नोक पर मतपेटियां लूटने के आरोप लगे थे। उस समय संचार के साधन सीमित थे, किन्तु बावजूद इसके जून 91 में सिवनी का नाम राष्ट्रीय क्षितिज पर
उछला। 12 जून 1991 को मतपेटियां लुटने की खबर ने तत्कालीन जिला प्रशासन को हलाकन कर दिया
था।
इसके बाद सिवनी जिले में बूथ केप्चरिंग
की घटना का कोई प्रमाण नहीं है। अब लगने लगा है कि सांसद या विधायक का पद वाकई लाभ
का है। यही कारण है कि लोगों द्वारा ज्यादा से ज्यादा तादाद में सांसद विधायक बनने
की चाहत पैदा हो रही है। एक और बात उभरकर सामने आ रही है कि अमीरजादों के मन में
जरूर सांसद विधायक बनने की बलवती इच्छाएं कुलाचें भर रही हैं। अमीरों के पास हर
साधन होता है। फिर पता नहीं वे किस बात के लिए इस सियासी कीचड़ में कूदने का जतन
करते हैं।
गौरतलब है कि सिवनी जिले में पिछले एक
दशक में बंदूक संस्कृति का आगाज़ हुआ है, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है।
सिवनी में बात बात पर लड़ाई झगड़े होना आम बात हो चुकी है। इसका कारण शराब और अन्य
नशा ही माना जा सकता है। नशे में व्यक्ति को अच्छे बुरे का भान नहीं होता है, और वह कुछ भी कर गुजरने को अमादा होता
है। सिवनी में अवैध रूप से शराब एवं अन्य नशे बेचे जाने की खबरें आम हैं। इसकी
रोकथाम के लिए पाबंद लोगों के द्वारा भी इस संबंध में कोई कार्यवाही नहीं किया
जाना भी अनेक संदेहों को जन्म देता है।
देर रात जिला मुख्यालय से सटे हॉटल
ढाबों में शराब के जाम छलकते रहते हैं, और पुलिस हाथ पर हाथ रखे ही बैठी रहती
है। कम से कम चुनाव के दरम्यान तो पुलिस को इस संबंध में सख्ती बरतना चाहिए था।
कुछ समय पूर्व नगर कोतवाल रहे श्री कालरा (वर्तमान एसडीओपी मण्डला) ने एक के बाद
एक करके हॉटल ढाबों में शराब परोसने पर प्रतिबंध लगा दिया था। उस समय दूर से ही
पीली बत्ती आती देख हॉटल ढाबों के संचालकों की सांस अटक जाया करती थी।
बहरहाल, पुसेरा में जो भी कुछ हुआ है उसका
प्रतिकार प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस के अलावा अन्य निर्दलीय प्रत्याशियों ने भी
नहीं किया है। लगता है मानो सभी एक ही थैली के चट्टे बट्टे हैं, वरना क्या कारण है कि एक गांव में एक दल
के जनसंपर्क के दौरान कार्यकर्ता खून खराबे पर उतारू हों और दूसरे दल उसका विरोध न
करें? हो सकता है वे भी इसी संस्कृति के पोषक हों और उनकी मंशा भी कमोबेश इसी
तरह की हो कि साम, दाम, दण्ड भेद की नीति को अपना कर येन केन प्रकरणेन विधायक का पद हासिल कर
लिया जाए। अगर यह नहीं है तो उन्हें इसका प्रतिकार अवश्य ही करना चाहिए था, जो उन्होंने नहीं किया।
चुनाव से इतर अगर कोई और समय होता तो
सियासी दलों के प्रवक्ता तो मानो टूट पड़ते एक दूसरे पर। दुख की बात तो यह है कि इस
घटना के बाद न तो किसी ने विज्ञप्ति जारी कर जिला एवं पुलिस प्रशासन से कठोर कदम
उठाने की मांग की है और न ही मंशा ही दिखाई है। जो प्रत्याशी यह चाह रहे हैं कि वे
विधानसभा में सिवनी की आवाज बनें उन्हें यह सोचना अवश्य होगा कि अगर कल इस तरह की
कोई घटना घटित होती है तो क्या वे इसी तरह मौन रहकर सिवनी के निवासियों का हित
साधेंगे! अपना अच्छा बुरा सोचने के लिए हर प्रत्याशी स्वतंत्र है पर यह सिवनी की
शांत फिजां में घुल रहे गुण्डागर्दी के जहर का मामला है, इसके लिए उन्हे आगे आकर आवाज बुलंद करना
ही होगा। साथ ही साथ सभी प्रत्याशियों और उनके समर्थकों से अपील है कि वे आपा न
खोएं और धैर्य व संयम का परिचय देते हुए सिवनी की गौरवशाली परंपरा को बदस्तूर कायम
रखने में सहयोग प्रदान करें।
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