(8 मार्च महिला दिवस पर विशेष आलेख)
समाज तो चाहता है पर सरकारें नहीं चाहतीं महिलाओं की भलाई
- महिला सशक्तीकरण का सच
- महिलाओं को दबाने में पीछे नहीं हैं पुरूष
(लिमटी खरे)
2004 में जैसे ही कांग्रेसनीत संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार केंद्र पर काबिज हुई, और सरकार के अघोषित सबसे शक्तिशाली पद पर कांग्रेस सुप्रीमो श्रीमति सोनिया गांधी बैठीं तभी लगने लगा था कि आने वाले समय में सरकार द्वारा महिलाओं के हितों का विशेष ध्यान रखा जाएगा। पांच साल बीत गए पर महिलाओं की स्थिति में एक इंच भी सुधार नहीं हुआ है।
महिलाओं के फायदे वाले सारे विधेयक आज भी सरकार की अलमारियों में पड़े हुए धूल खा रहे हैं। लोकसभा और विधानसभाओं में महिलाओं को एक तिहाई (33 फीसदी) भागीदारी सुनिश्चित करने संबंधी विधेयक अंतत: लोकसभा में पारित ही नहीं हो सका। राजनैतिक लाभ हानि के चक्कर में संप्रग सरकार ने इस विधेयक को हाथ लगाने से परहेज ही रखा।
महिलाओं की हालत क्या है यह बताता है उत्तर प्रदेश में किया गया एक सर्वेक्षण। सर्वे के अनुसार 1952 से 2002 के बीच हुए 14 विधानसभा चुनावों में प्रदेश में कुल 235 महिला विधायक ही चुनी गईं थीं। इनमें से सुचिता कृपलानी और मायावती ही एसी भाग्यशाली रहीं जिनके हाथों में सूबे की बागड़ोर रही।
चुनाव की रणभेरी बजते ही राजनैतिक दलों को महिलाओं की याद सतानी आरंभ हो जाती है। चुनावी लाभ के लिए वालीवुड के सितारों पर भी डोरे डालने से बाज नहीं आते हैं, देश के राजनेता। भीड़ जुटाने और भीड़ को वोट में तब्दील करवाने की जुगत में बड़े बड़े राजनेता भी रूपहले पर्दे की नायिकाओं की चिरोरी करते नज़र आते हैं।
देश के ग्रामीण इलाकों में महिलाओ की दुर्दशा देखते ही बनती है। कहने को तो सरकारों द्वारा बालिकाओं की पढ़ाई के लिए हर संभव प्रयास किए हैं। किन्तु ज़मीनी हकीकत इससे उलट है। गांव का आलम यह है कि स्कूलों में शौचालयों के अभाव के चलते देश की बेटियां पढ़ाई से वंचित हैं।
प्राचीन काल से माना जाता रहा है कि पुरातनपंथी और लिंगभेदी मानसिकता के चलते देश के अनेक हिस्सों में लड़कियों को स्कूल पढ़ने नहीं भेजा जाता। एक गैर सरकारी संगठन द्वारा कराए गए सर्वे के अनुसार उत्तर भारत के अनेक गांवों में बेटियों को शाला इसलिए नहीं भेजा जाता, क्योंकि वे अपनी बेटी को शिक्षित नहीं करना चाहते। इसकी प्रमुख वजह गांवों में शौचालय का न होना है।
शौचालयों के लिए केंद्र सरकार द्वारा समग्र स्वच्छता अभियान चलाया है। इसके लिए अरबों रूपयों की राशि राज्यों के माध्यम से शुष्क शोचालय बनाने में खर्च की जा रही है। सरकारी महकमों के भ्रष्ट तंत्र के चलते इसमें से अस्सी फीसदी राशि गैर सरकारी संगठनों के माध्यम से सरकारी मुलाजिमों ने डकार ली होगी।
सदियों से यही माना जाता रहा है कि नारी घर की शोभा है। घर का कामकाज, पति, सास ससुर की सेवा, बच्चों की देखभाल उसके प्रमुख दायित्वों में शुमार माना जाता रहा है। अस्सी के दशक तक देश में महिलाओं की स्थिति कमोबेश यही रही है। 1982 में एशियाड के उपरांत टीवी की दस्तक से मानो सब कुछ बदल गया।
नब्बे के दशक के आरंभ में महानगरों में महिलाओं के प्रति समाज की सोच में खासा बदलाव देखा गया। इसके बाद तो मानो महिलाओं को प्रगति के पंख लग गए हों। आज देश में जिला मुख्यालयों में भी महिलाओं की सोच में बदलाव साफ देखा जा सकता है। कल तक चूल्हा चौका संभालने वाली महिला के हाथ आज कंप्यूटर पर जिस तेजी से थिरकते हैं, उसे देखकर प्रोढ़ हो रही पीढी आश्चर्य व्यक्त करती है।
कहने को तो आज महिलाएं हर क्षेत्र में आत्मनिर्भर हैं, पर सिर्फ बड़े, मझौले शहरों की। गांवों की स्थिति आज भी दयनीय बनी हुई है। देश की अर्थव्यवस्था गावों से ही संचालित होती है। देश को अन्न देने वाले अधिकांश किसानों की बेटियां आज भी अशिक्षित ही हैं।
आधुनिकीकरण की दौड़ में बड़े शहरों में महिलाओ ने पुरूषों के साथ बराबरी अवश्य कर ली हो पर परिवर्तन के इस युग का खामियाजा भी जवान होती पीढ़ी को भुगतना पड़ रहा है। मेट्रो में सरेआम शराब गटकती और धुंए के छल्ले उड़ाती युवतियों को देखकर लगने लगता है कि भारतीय सभ्यता और संस्कृति कितने घिनौने स्वरूप को ओढ़ने जा रही है।
पिछले सालों के रिकार्ड पर अगर नज़र डाली जाए तो शराब पीकर वाहन चलाने, पुलिस से दुव्र्यवहार करने के मामले में दिल्ली की महिलाओं ने बाजी मारी है। टीवी पर गंदे अश्लील गाने, सरेआम काकटेल पार्टियां किसी को अकषिZत करतीं हो न करती हों पर महानगरों की महिलाएं धीरे धीरे इनसे आकषिZत होकर इसमें रच बस गईं हैं। हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं कि महानगरों और गांव की संस्कृति के बीच खाई बहुत लंबी हो चुकी है, जिसे पाटना जरूरी है। अन्यथा एक ही देश में संस्कृति के दो चेहरे दिखाई देंगे।बहरहाल सरकारों को चाहिए कि महिलाओं के हितों में बनाए गई योजनाओं को कानून में तब्दील करें, और इनके पालन में कड़ाई बरतें। वरना सरकारों की अच्छी सोच के बावजूद भी छोटे शहरों और गांव, मजरों टोलों की महिलाएं पिछड़ेपन को अंगीकार करने पर विवश होंगी।
राजनेताओं ने तो गांधी के आदशोZं को नीलाम कर दिया!
- विरासत वापस लाना अहम जवाबदारी, किन्तु जो है उसे तो संभालें
- नवजीवन ट्रस्ट की संपत्ति कैसे पहुंची विदेश
(लिमटी खरे)
अपनी शहादत के 61 साल बाद भी आज गांधी समूचे विश्व में प्रासंगिक बने हुए हैं। अमेरिका के डाक्टूमेंट्री फिल्म निर्माता जेम्स ओटिस ने बापू की कुछ अनमोल चीजों की नीलामी करने की घोषणा की है। इस घोषणा के बाद भारत सरकार को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की याद आई और आनन फानन उसने इस चीजों को वापस लाने की पहल आरंभ की।
कितने आश्चर्य की बात है कि ओटिस ने बापू के चश्मे, जेब वाली घड़ी, चमड़े की चप्पलें, कटोरी, प्लेट आदि को भारत को सौंपने के एवज में एक मांग रखी है। ओटिस का कहना है कि अगर भारत सरकार अपने बजट का पांच प्रतिशत हिस्सा गरीबी उन्नमूलन पर खर्च करे तो वे इन सामग्रीयों को भारत को लौटा सकते हैं।
ओटिस की इस मांग को दो नज़रियों से देखा जा सकता है। अव्वल तो यह कि भारत सरकार क्या वाकई देश के गरीबों के प्रति फिकरमंद नहीं है? और क्या वह गरीबी उन्नमूलन की दिशा में कोई पहल नहीं कर रही है। अगर एसा है तो भारत सरकार को चाहिए कि वह हर साल अपने बजट के उस हिस्से को सार्वजनिक कर ओटिस को बताए कि उनकी मांग के पहले ही भारत सरकार इस दिशा में कार्यरत है। वस्तुत: सरकार की ओर से इस तरह का जवाब न आना साफ दर्शाता है कि ओटिस की मांग में दम है।
वहीं दूसरी ओर ओटिस को इस तरह की मांग करने के पहले इस बात का जवाब अवश्य ही देना चाहिए था कि उनके द्वारा एकत्र की गईं महात्मा गांधी की इन सारी वस्तुओं को किसी उचित संग्रहालय में महफूज रखने के स्थान पर इनकी नीलामी करने की उन्हें क्या ज़रूरत आन पड़ी।
ज्ञातव्य होगा कि 1996 में एक ब्रितानी फर्म द्वारा महात्मा गांधी की हस्तलिखित पुस्तकों की नीलामी पर मद्रास उच्च न्यायालय द्वारा रोक लगाई गई थी। यह पहल भी 1929 में गठित किए गए नवजीवन ट्रस्ट द्वारा ही की गई थी। सवाल तो यह उठता है कि महात्मा गांधी द्वारा जब अपनी वसीयत में साफ तौर पर लिखा था कि उनकी हर चीज, प्रकाशित या अप्रकाशित आलेख रचनाएं उनके बाद नवजीवन ट्रस्ट की संपत्ति होंगे, के बाद उनसे जुड़ी वस्तुएं सात समुंदर पार कर अमेरिका और इंग्लेंड कैसे पहुंच गईं?
जिस चश्मे से उन्होेंने आजाद भारत की कल्पना को साकार होते देखा, जिस चप्पल से उन्होंने दांडी जैसा मार्च किया। जिस प्लेट और कटोरी में उन्होंने दो वक्त भोजन पाया उनकी नीलामी होना निश्चित रूप से बापू के विचारों और उनकी भावनाओं का सरासर अपमान है।
समूचे विश्व के लोगों के दिलों पर राज करने वाले अघोषित राजा जिन्हें हिन्दुस्तान के लोग राष्ट्र का पिता मानते हैं, उनकी विरासत को संजोकर रखना भारत सरकार की जिम्मेवारी बनती है। इसके साथ ही साथ महात्मा गांधी के दिखाए पथ और उनके आचार विचार को अंगीकार करना हर भारतीय का नैतिक कर्तव्य होना चाहिए।
महात्मा गांधी के नाम से प्रचलित गांधी टोपी को ही अगर लिया जाए तो अब उंगलियों में गिनने योग्य राजनेता बचे होंगे जो इस टोपी का नियमित प्रयोग करते होंगे। अपनी हेयर स्टाईल के माध्यम से आकर्षक दिखने की चाहत में राजनेताअों ने भी इस टोपी को त्याग दिया है।
आधी सदी से अधिक देश पर राज करने वाली अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के अनुषांगिक संगठन सेवादल की पारंपरिक वेशभूषा में गांधी टोपी का समावेश किया गया है। विडम्बना ही कही जाएगी कि सेवादल में सलामी लेने के दौरान ही कांग्रेस के बड़े नेताओं द्वारा इस टोपी का प्रयोग किया जाता है।
इसके साथ ही गांधी वादी आज भी खादी का इस्तेमाल करते हैं, मगर असली गांधीवादी। आज हमारे देश के 99 फीसदी राजनेताओं द्वारा खादी का पूरी तरह परित्याग कर दिया गया है, जिसके चलते हाथकरघा उद्योग की कमर टूट चुकी है। आज आवश्यक्ता इस बात की है कि गांधी जी की विरासत को तो संजोकर रखा ही जाए, साथ ही उनके विचारों को संजोना बहुत जरूरी है। बापू की चीजें तो बेशक वापस आ जाएंगी, किन्तु उनके बताए मार्ग का क्या होगा?
देश के वर्तमान हालातों को देखकर हम यह कह सकते हैं कि देश के राजनेताओं ने अपने निहित स्वार्थों के चलते राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के आर्दशों को भी नीलाम कर दिया है। आज के परिवेश में राजनीति में बापू के सिद्धांत और आदशोZं का टोटा साफ तौर पर परिलक्षित हो रहा है। ओटिस की नीलामी करने की घोषणा हिन्दुस्तान के राजनेताओं के लिए एक कटाक्ष ही कही जा सकती है, कि भारत गांधी जी के सिद्धांतों पर चलना सीखे।
मध्य प्रदेश की युवा ब्रिगेड ने ठोंकी
- मीनाक्षी, कमलेश्वर, प्रियवत, दिनेश, राजा बघेल, संजय पाठक, अरूण के नाम फिजा में
- युवाओं की भागीदारी पर संजीदा हैं राहुल गांधी
- मध्य प्रदेश में युवाओं की खुल सकती है लाटरी
- भाजपा के गढ़ में हो सकता है यह प्रयोग
(लिमटी खरे)
नई दिल्ली। भारतीय जनता पार्टी के कब्जे वाली सीटों पर युवाओं पर कांग्रेस दांव लगाने का मन बना रही है। राहुल गांधी से जुड़े मध्य प्रदेश के अनेक युवाओं का इतिहास और जीतने की संभावनाओं से संबंधित जानकारी राहुल गांधी के सलाकार कनिष्क सिंह के पास पहुंचना आरंभ हो गईं हैं।
राहुल गांधी के करीबी सूत्रों ने बताया कि राहुल गांधी चाहते हैं कि इस बार संसद में युवाओं की भागीदारी सबसे अधिक हो, इसी कारण उन्होंने देश भर में उन सीटोंं पर युवाओं को उतारने का मानस बनाया है जो दो या अधिक बार से भाजपा के कब्जे में हैं।
इसी तारतम्य में मध्य प्रदेश के बालाघाट संसदीय क्षेत्र से युवक कांग्रेस सिवनी के अध्यक्ष राजा बघेल, खरगोन से वर्तमान सांसद अरूण यादव को खण्डवा, मण्डला से ओंकार सिंह मरकाम, मुरेना से दिनेश गुर्जर, धार से उमंग सिंघार, कमलेश्वर पटेल को सतना, प्रियवृत सिंह को राजगढ़ एवं मीनाक्षी नटराजन को मंदसौर से चुनवी मैदान में उतारा जा सकता है। इसके साथ ही साथ अगर सत्यवृत चतुर्वेदी द्वारा खजुराहो से चुनाव लड़ने से इंकार किया जाता है तो उनके स्थान पर कटनी के युवा विधायक संजय पाठक को मैदान मे उतारा जा सकता है।
सूत्रों ने आगे बताया कि राहुल गांधी के निर्देश पर मध्य प्रदेश के लगभग एक दर्जन युवाअों का बायोडाटा और पूर्व का रिकार्ड तथा जीतने की संभावनाओं के मद्देनजर पर्यावेक्षकों का एक दल मध्य प्रदेश दौरे पर है, जो खुफिया तौर पर सारी जानकारी एकत्र कर रहा है। यही कारण है कि लोकसभा के युवा दावेदारों को शुक्रवार 6 मार्च के स्थान पर अब अगले गुरूवार 12 मार्च को दिल्ली तलब किया गया है।
माना जा रहा है कि राहुल गांधी के इस अभिनव प्रयोग के पीछे इस बार तेजी से बढ़े युवा मतदाताओं को कांग्रेस के पक्ष में करने की सोच है। अगर राहुल गांधी का यह प्रयोग सफल रहा तो आने वाले समय में लोकसभा में उमर दराज नेताओं के बजाए युवा ब्रिगेड़ नजर आएगी।
जस्टिस वर्मा बने राजस्थान के मुख्य न्यायधीश
- मध्य प्रदेश में पले बढ़े हैं जस्टिस वर्मा
- भोपाल गैस पीड़ितों की सुनवाई के लिए मिली थी शोहरत
(लिमटी खरे)
नई दिल्ली। मध्य प्रदेश की संस्कारधानी जबलपुर में पले बढ़े जस्टिस दीपक वर्मा को राजस्थान का चीफ जस्टिस बनाया गया है। वे वर्तमान में कर्नाटक उच्च न्यायालय में बतौर जस्टिस कार्यरत हैं। महामहिम राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल ने उक्ताशय के मनोनयन के आदेश जारी कर दिए हैं।
28 अगस्त 1947 को जन्मे जस्टिस वर्मा ने जबलपुर में कला के साथ स्नातक की डिग्री लेने के बाद यूनिवर्सिटी टीचिंग डिपार्टमेंट (यूटीडी) से विधि विषय में स्नातक की डिग्री ली। 1972 में इन्होंने वकील के रूप में अपना पंजीयन कराकर वकालत आरंभ की। इसके उपरांत इन्हें 1984 में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय का जज बनाया गया।
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सीमापार से एड्स लेकर आ रहीं हैं सुंदर बालाएं
- सीमा के पहरेदार हैं इसकी गिरफ्त में
(लिमटी खरे)
नई दिल्ली। देश की उत्तरी सीमाओं की चौकसी कर रहे जवान इन दिनों भयानक बीमारी एड्स की चपेट में आत ेजा रहे हैं। उत्तर बंगाल में पड़ोसी देश नेपाल, भूटान व बाग्लादेश से एड्स आ रहा है। आम लोगों के साथ साथ सीमा पर तैनात अर्द्धसैनिक बल के जवान बड़ी तेजी से इनकी चपेट में आ रहे हैं। इस भयानक बीमारी को फैलाने में इन देशों की रेडलाइट एरिया में सक्रिय यौनकमÊ महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं।
सैनिकों ने इन यौनकर्मियों को आतंकी सुंदरियों को नाम दिया है। एक जाच में सीमा पर तैनात अर्द्धसैनिक बलों के 17 जवान इससे ग्रस्त पाए गए हैं। सुनियोजित तरीके से इस बीमारी को भारतीय सीमा क्षेत्र में फैलाया जा रहा है। स्वयंसेवी संस्था संगबद्ध के सर्वेक्षण व सीमा पार से आई तीन यौनकर्मियों की गिरफ्तारी के बाद यह सनसनीखेज खुलासा हुआ है। मामले की गंभीरता को देखते हुए उच्चाधिकारियों ने सीमा पर तैनात अर्द्धसैनिक बलों को सचेत रहने का निर्देश दिए हैं।
सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ), ने इसके मद्देनजर एक पायलट प्रोजेक्ट शुरू किया है। इसके तहत एड्स विशेषज्ञ जवानों के रक्त नमूने की जाच कर रहे हैं। सीमा पर तैनात बीएसएफ और सशó सीमा बल ख्एसएसबी, के अधिकारी अपने.अपने जवानों को सैनिक सम्मेलन के माध्यम से आतंकी सुंदरियों से बचने के तरीके बता रहे हैं। एड रोकथाम में जुटी स्वयंसेवी संस्था संगबद्ध के सर्वेक्षण के मुताबिक, बाग्लादेश सीमा पर स्थित इलाके उत्तर दिनाजपुर, कूचबिहार, हिली, नक्सलबाड़ी, फूलबाड़ी, खोरीबाड़ी, दार्जिलिंग, पशुपति फाटक, मालदा, फासीदेवा, अलीपुरद्वार, कर्सियाग, कालिम्पोंग और जलपाईगुड़ी में एड्स तेजी से पाव फैला रहा है। तीन वर्ष पूर्व इन इलाकों में एड्स मरीजों की संख्या लगभग छह सौ थी। वर्तमान में इनकी संख्या करीब दो हजार पहुंच गई है।
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भाजपा के प्रेरणा स्त्रोत के बारे में पूछा सीबीएसई
(लिमटी खरे)
नई दिल्ली। सीबीएसई ने 10वÈ क्लास के सोशल साइंस के पेपर में भारतीय जनता पार्टी के प्रेरणाóोत के बारे में पूछा गया है। फरीदाबाद सेंटर पर प्रश्न पत्र में आए इस सवाल ने स्टूडंटस को काफी उलझा दिया। उधर, टीचर्स का भी कहना है कि किसी राजनीतिक पार्टी के बारे में इस तरह से सवाल नहÈ पूछे जाते हैं।
फरीदाबाद सेंटर के स्कूलों में सोशल साइंस पेपर के सेट नंबर एक के सातवें क्वेÜचन में कहा गया था कि भारतीय जनता पार्टी के प्रेरणाóोत का उल्लेख कीजिए। एक नंबर के इस क्वेÜचन का जवाब अधिकतम एक लाइन में देना था। स्टूडंटस का कहना है कि उन्हें समझ नहÈ आया कि इसका जवाब किस तरह से दें। टीचर्स का भी कहना है कि सोशल साइंस में राजनीतिक पार्टियो± र्के बारे में पढ़ाया जाता हैए लेकिन जो क्वेÜचन पूछे जाते हैं वे लोकतंत्र को लेकर ही पूछे जाते हैं। उनका कहना है कि इस तरह के क्वेÜचन आÜचर्यचकित करते हैं।
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