ठाकरे बंधुओं की लौंडी बन गई है कानून व्यवस्था!
(लिमटी खरे)
देश के संपन्न सूबे में शामिल महाराष्ट्र प्रदेश में शिवसेना सुप्रीमो बाला साहेब ठाकरे और उनसे टूटकर अलग हुए महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के प्रमुख एवं आतंक का पर्याय बन चुके राज ठाकरे एक के बाद एक ज्यादती पर उतारू हैं, किन्तु सूबे पर काबिज कांग्रेस और केंद्र की कांग्रेस नीत संप्रग सरकार मूक दर्शक बन सब कुछ देख सुन रही है।
कभी गैर मराठियों पर आतंक की लाठी ठोंकते तो कभी मास्टर ब्लास्टर सचिन तेंदुलकर को ही सरेआम धमकी दे डालते। यहां तक कि राज ठाकरे ने मुंबई के पुलिस कमिश्नर तक के सामने सरेआम ताल ठोंक दी। सदी के महानायक अमिताभ बच्चन को तक नहीं बख्शा कथित मराठियों के हितों को साधने वाले इन ठेकेदारों ने।
हद तो तब हो गई जब महाराष्ट्र की विधानसभा में समाजवादी पार्टी के चुने हुए विधायक अबू आजमी को हिन्दी में शपथ लेने पर सरेआम थप्पड मारे गए। समूचे देश ने इसे मीडिया के माध्यम से देखा। नहीं देखा तो देश के चुने हुए ``जनसेवकों`` ने। अगर देखा होता तो निश्चित तौर पर इन आतंक के पर्याय बन चुके समाज के दुश्मनों पर कार्यवाही करने का माद्दा रखते।
गत दिवस एक निजी समाचार चेनल के मुंबई और पुणे स्थित कार्यालय में शिवसेनिकों द्वारा कथित तौर पर की गई तोड़फोड के बाद लोगों के जेहन में यह सवाल उठना स्वाभाविक ही है कि आखिर शासन और प्रशासन इस तरह की सरेआम गुण्डागदीZ करने वाले तत्वों को खुला कैसे छोड देता है।
आजादी के बाद अस्तित्व में आए भारत गणराज्य के विभिन्न प्रदेशों में सरकरोें द्वारा अलग अलग नजरों से कानून को देखा जाता है। विडम्बना ही कही जाएगी कि उत्तर प्रदेश में भडकाउ भाषण देने पर नेहरू गांधी परिवार की पांचवी पीढी के भाजपाई वरूण गांधी को रासुका में नजर बंद कर उनके खिलाफ भारतीय दण्ड संहिता के तहत कार्यवाही की जाती है, वहीं दूसरी ओर भाषा के आधार पर देश को बांटने वाले ठाकरे बंधुओं के खिलाफ महाराष्ट्र सरकर कार्यवाही करने से न जाने क्यों हिचकती रही है।
भाषा और प्रांतवाद की आग में समूचा महाराष्ट्र प्रदेश सुलग रहा है। उत्तर भारतीय इस सूबे से एक एक कर छिपकर भागने पर मजबूर हैं। उत्तर भारतीय नेता शिवसेना और मनसे के नेताओं के साथ नूरा कुश्ती खेलकर अपनी सियासत चमका रहे हैं। कुल मिलाकर हालात देखकर बुंदल खण्ड की एक कहावत चरितार्थ होती दिख रही है ``नउआ सीखे नाउ को, मूड कटे गंवार की`` अर्थात नाई तो अपने उस्तरे चलना सीख रहा है, पर सिर तो गांव के गंवार का ही कट रहा है।
ठीक उसी तरह से महाराष्ट्र में बाला साहेब ठाकरे और राज ठाकरे के साथ ही साथ मुलायम सिंह, लालू प्रसाद यादव, राम विलास पासवान अपनी अपनी चालेंं चल रहे हैं, किन्तु अंततोगत्वा मरण तो सूबे में नौकरी करने वाले उत्तर भारतियों की ही हो रही है।
महाराष्ट्र के इस तरह के हालात को बनाने में मीडिया की भूमिका भी कम नहीं मानी जा सकती है। मीडिया ने ही नब्बे के दशक में बाल ठाकरे को तो पिछले लगभग पांच सालों से राज ठाकरे को जो तवज्जो दी है, उसी का नतीजा है कि आज इन दोनों ही का अतंक सूबे में सर चढकर बोल रहा है।
यह पहला मौका नहीं है जब ठाकरे बंधुओं या उनके अखबरा ने वेमनस्यता फैलाने का काम किया हो। पता नहीं क्यों महाराष्ट्र सरकार बाला साहेब ठाकरे और उनके समाचार पत्र ``सामना`` के खिलाफ भारतीय दण्ड संहित की धारा 153 क, 295 क, 503, 504 और 505 के तहत प्रकरण पंजीबद्ध करने किस महूर्त की तलाश कर रही है। लोगों की स्मृति से शायद अब तक विस्मृत नहीं हुआ होगा कि बाला साहेब ठाकरे को इसी तरह के कृत्य के लिए लगभग 14 साल पहले छ: साल के लिए मताधिकार से वंचित कर दिया गया था।
आज यह देखकर बहुत ही आश्चर्य होता है कि पीलिभीत में भाजपा के युवा गांधी, वरूण के उत्तेजक भाषण के लिए उनके खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की गई थी, पर वहीं भारत गणराज्य के महाराष्ट्र सूबे मेें बाला साहेब ठाकरे की शिवसेना और राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना लोगों को सरेआम उकसाने का काम कर रही है। भारत देश में दो सूबों में इस तरह की संवैधानिक विभिन्नताएं अपने आप में अनोखी मानी जा सकती हैं। भारत विविधता में एकता का प्रतीक माना जाता है, किन्तु इस तरह की विविधताओं का नहीं।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें