बाबूराज में दम घुटता विज्ञान का
(लिमटी खरे)
देश के अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह की चिंता बेमानी नहीं कही जा सकती है, जिसमें उन्होंने कहा है कि विज्ञान के लिए बाधा न बने नौकरशाही। प्रधानमंत्री ने काफी सोच समझकर यह वक्तव्य दिया है। अपने लगभग साढे छ: साल के प्रधानमंत्रित्व काल में मनमोहन सिंह भली भांति समझ चुके होंगे कि भारत गणराज्य की व्यवस्थाओं में बाबूराज और नौकरशाही की लाल फीताशाही की जडें किस कदर मजबूत हो चुकी हैं। वैसे देखा जाए तो प्रधानमंत्री ने यह बात करकर भारतीय मूल के नोबेल पुरूस्कार विजेता वेंकटरमन रामकृष्णन की बात को ही दुहराया है।
सवाल यह उठता है कि क्या प्रधानमंत्री की अपील का कोई असर होगा। एक जमाना था जब प्रधानमंत्री या देश के महामहिम राष्ट्रपति के आव्हान का आम जनता पर जबर्दस्त असर होता था। चाहे स्वाधीनता दिवस पर लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री देश को संबोधित कर रहे हों अथवा गणतंत्र या स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर महामहिम राष्ट्रपति का देश के नाम संबोधन हो, देशवासी आकाशवाणी या दूरदर्शन पर इसे पूरे ध्यान से सुना करते थे। देश के आला नेताओं के देश निर्माण के सपने को आम जनता अंगीकार कर सुनहरा भविष्य गढने का ताना बाना बुना करती थी। आज समय पूरी तरह बदल चुका है। अब बडे नेताओं की अपील में भी राजनीति की बू आती है।
97वी भारतीय विज्ञान कांग्रेस (आईसीएस) के उद्धाटन पर प्रधानमंत्री डॉ.एम.एम.सिंह ने विज्ञान पर नौकरशाहों की बाधा बनने की प्रवृत्ति को दुर्भाग्यपूर्ण ही बताया है। देश में प्रतिभा के विकास के लिए विदेशों में काम कर रहे भारतीय वैज्ञानिकों को स्वदेश लौटने का आव्हान भी किया है वजीरे आजम ने। पीएम ने कहा है कि कंसोलिउेशन ऑफ यूनिवर्सिटी रिसर्च और इनोवेशन एंड एक्सीलेंस को इसलिए आरंभ किया गया है ताकि अधिक से अधिक महिलाएं विज्ञान के क्षेत्र में अपना सुनहरा भविष्य बनाने के लिए आकषिZत हो सकें। निश्चित तौर पर वजीरे आला ने एक बहुत ही निहायत सामयिक मुद्दे की ओर ध्यान आकषिZत किया है। विडम्बना यह है कि नौकरशाही के मकडजाल से इसे मुक्त कराने की बात खुद सरकार के मुखिया के श्रीमुख से निकल रही है।
यक्ष प्रश्न आज भी वही खडा हुआ है कि देश विज्ञान की स्थिति क्या है। अस्सी के दशक के आरंभ के साथ ही युवाओं में विज्ञान के बजाए प्रोद्योगिकी की ओर रूझान बढता चला गया। यही कारण है कि देश में विज्ञान पिछड गया है। अभी ज्यादा दिन नहीं बीते जबकि स्वयंभू प्रबंधन गुरू लालू प्रसाद यादव ने अपने रेल मंत्री के कार्यकाल में भारतीय रेल के स्टेशनों को गंदगी से मुक्त कराने के लिए खडी रेल गाडी में शौच न करने की समस्या उठाई थी।
लालू की इस समस्या का निदान चैन्नई की एक बारह साल की बाला माशा नजीम ने चुटकी में खोज दिया था। आठवीं दर्ज में पढने वाली माशा के अनुसार रेल्वे स्टेशन आते ही जलमल निकासी का पाईप एक रेल में जुडे एक संग्रहण टेंक से स्वत: ही जुड जाएंगे। बाद में रेल्वे स्टेशन के गुजरने के बाद खुले स्थान में यह मलबा चालक द्वारा कहीं गिरा दिया जाएगा। तत्कालीन महामहिम राष्ट्रपति कलाम ने भी इस तकनीक को सराहा था।
एसा नहीं कि देश में तेज दिमाग बच्चों की कमी हो। दरअसल हिन्दुस्तान की शिक्षा पद्यति व्यवहारिक ज्ञान की ओर ध्यान देने वाली नहीं है। आमिर खान अभिनीत ``थ्री ईडियट्स`` चलचित्र कमोबेश इसी पर केंद्रित है। एक पुराने वाक्ये का जिकर यहां प्रासंगिक होग। मध्य प्रदेश की सीमा से लगे महाराष्ट्र के कामठी नागपुर मार्ग पर एक ओव्हलोड ट्रक रेल्वे के अंडरपास में फंस गया। इसे निकालने काफी जुगत लगाई गई। मोटी पगार पाने वाले इंजीनियर्स ने भी हाथ डाल दिए।
मामला चूंकि देश के सबसे लंबे और व्यस्ततम राष्ट्रीय राजमार्ग क्रमांक सात का था सो लगातार यातायात बाधित होने पर कोहराम मच गया। अंतत: सभी पहलुओं पर गौर फरमाने के बाद आला इंजीनियर्स ने रेल्वे के पुल को उपर से तोडकर लारी को बाहर निकालने पर सहमति जताई। यह मामला काफी खर्चीला था, एवं इससे नागपुर से बरास्ता रायपुर पूर्वी भारत का संपर्क रेल से लंबे समय के लिए अवरूद्ध होने की आशंका भी थीं
तभी वहां से एक चरवाहा गुजरा जिसने मामले की नजाकत को देखकर एसा तरीका बताया कि विज्ञान एवं प्रोद्योगिकी के स्नातक इंजीनियर्स का सर चकरा गया। उसने फंसे ट्रक के सभी पहियों की हवा निकालने का सुझाव दिया और कहा कि इससे लारी छ: इंच नीचे आ जाएगी फिर आसानी से उसे खींचा जा सकेगा। इसके बाद से रेल्वे अंडरपास के दोनों सिरों पर लोहे के बेरियर का इस्तेमाल किया जाने लगा।
कहने का तातपर्य महज इतना सा है कि पूर्वी और पश्चिमी दोनों ही देश भारत के दिमाग की दाद देते हैं किन्तु उचित मार्गदर्शन के अभाव में युवाओं का पथभ्रष्ट होना स्वाभाविक ही है। युवा पीढी में आज विज्ञान के बजाए प्रोद्योगिकी की ओर रूझान साफ दिखता है। युवाओं के लिए आज भी इंजीनियर की उपाधि का ग्लेमर बरकरार है। कंप्यूटर के युग में इंफरमेशन तकनालाजी (आईटी) इनकी पसंद बन गई है।
तेजी से बदलते युग में सरकारी और गैरसरकारी क्षेत्रों में विज्ञान से संबंधित विषयों पर रोजगार के अवसर नगण्य हो गए हैं। अससी के दशक में नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ साईंस कम्युनिकेशन एण्ड इंफरमेशन रिसोZसेज की पत्रिका ``विज्ञान प्रगति`` स्कूलों में खासी लोकप्रिय हुई थी। महज सत्तर पैसे (लगभग बारह आने) में आने वाली इस पत्रिका से विद्यार्थियों को विज्ञान के बारे में रोचक जानकारियां मिला करती थीं।
विडम्बना ही कही जाएगी कि आज इंजीनियरिंग की उपाधि हासिल करने वो पचास फीसदी से अधिक विद्यार्थी अपने मूल काम से इतर अन्य रोजगार ढूंढने पर मजबूर हैं। भारतीय प्रशासिनक सेवा और भारतीय पुलिस सेवा में ही देखा जाए तो इंजीनियर स्नातकों की बाढ सी आई हुई है। इस बारे में 1985 में तत्कालीन शिक्षा मंत्री कृष्ण चंद पंत का एक वक्तव्य का जिकर लाजिमी होगा जिसमें उन्होंने कहा था कि हिन्दुस्तान में इंजीनियर की डिग्री धारण करने वाले पचास फीसदी छात्रों द्वारा एसे कामों को रोजगार का जरिया बनाया हुआ है, जिसमें शोध और विकास का दूर दूर तक लेना देना नही है।
सत्तर के दशक की समाप्ति तक हिन्दुस्तान के हर सूबे में विज्ञान को काफी प्रोत्साहन दिया जाता रहा है। जिला स्तर से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक विज्ञान प्रदर्शनियों की धूम रहा करती थी। विज्ञान विषय पर वाद विवाद के साथ ही साथ विभिन्न माडलों के माध्यम से विद्यार्थियों को विज्ञान के चमत्कारों से रूबरू करवाया जाता था। इसके बाद नौकरशाही और बाबूराज के बेलगाम घोडों ने विज्ञान का रथ रोक ही दिया। अब बमुश्किल ही विज्ञान प्रदर्शनियों के बारे में कहीं सुनने को मिल पाता है।
प्रधानमंत्री अगर वाकई चाहते हैं कि देश में विज्ञान के प्रति युवा आकषिZत हों तो उन्हें लगभग तीस साल पुराना इतिहास खंगालना पडेगा, और देखना होगा कि सत्तर के दशक तक विज्ञान के प्रति विद्यार्थियों की रूचि का कारण क्या था, और आज चाहकर भी शिक्षण संस्थाएं उनमें विज्ञान के प्रति आकर्षण क्यों पैदा नहीं कर पा रही हैं।
जहां तक प्रवासी भारतीय वैज्ञानिकों की वतन वापसी का सवाल है, तो इसका तहेदिल से स्वागत किया जाना चाहिए। भारत के दिमाग का इस्तेमाल कर विश्व के अनेक समृद्ध देश अपने आप को बहुत आगे ले जाते जा रहे हैं। भारत सरकार को चाहिए कि भारत वर्ष में एसा माहौल तैयार करे ताकि देश की प्रतिभाएं देश में ही रहें विदेश पलायन के बारे में उनके मानस पटल पर कभी विचार तक न आए।
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