कुण्डलिनी जागरण की रहस्यमय प्रक्रिया
(हरीश शहरी)
(हरीश जी हमारे ब्लाग मित्र हैं और उन्होंने कुण्डलनी के जागरण की प्रक्रिया समझाने के लिए हमें मेल भेजा है, जिसे पाठकों के सुलभ सन्दर्भ के लिए हम प्रस्तुत कर रहे हैं लिमटी खरे)
यदि आपकी धर्म एवं ईश्वर में लेशमात्र भी आस्था है तो आपने यह अवश्य सुना होगा कि ईश्वर दशZन या तो महान ज्ञानी को प्राप्त होते हैं अथवा महा अज्ञानी को। मैं स्वयं को महान ज्ञानी होने अथवा समझने में लेशमात्र भी भ्रमित नहीं हूं, हां मेरे महा अज्ञानी होने का मुझे पूर्ण विश्वास है। शायद यह मां सरस्वती की मेरे ऊपर महान अनुकम्पा ही है जो मैं ऐसे गूढ़तम विषय में कुछ कहने का साहस कर पा रहा हूं जिसका खुद मुझे कोई व्यक्तिगत अनुभव नहीं है। जिस विषय के अनुभवों एवं उसकी प्रक्रिया की व्याख्या स्वयं वे नहीं कर पाते जो इसका व्यक्तिगत अनुभव रखते हैं उसका बखान मुझ जैसा मन्द बुद्धि करने का साहस कर रहा है, इसका कारण शायद यह हो कि अनुभव संपन्न वे लोग शायद उस असीम आनन्द से इतने ओत-प्रोत हो जाते हों जिसे व्यक्त करने में उनकी लेखनी उनका साथ न दे पाती हो किन्तु मेरी बातें यदि आपको सार्थक न लगें तो कृपया इसे मेरी वाचालता समझकर मुझे माफ कर दीजिएगा।
जहां तक अनुभवी व्यक्तियों के लेखों और अनुभवों से मैने जाना है, कुण्डलिनी शब्द के मेरी समझ से दो अर्थ हैं: पहला, कुण्डल अर्थात चक्राकार में स्थित और दूसरा, कुण्ड अर्थात किसी गहरे स्थान या गढ्ढे में स्थित। अभिप्राय यह है कि प्रत्येक व्यक्ति के शरीर में किसी चक्राकार गहरे स्थान में एक ऐसी शक्ति सुसुप्ता अवस्था में विद्यमान रहती है जिसे यदि जाग्रत कर दिया जाये तो असीम आनन्द की प्राप्ति होती है। यहां पर मैं पाठकों को यह भी सचेत करना चाहता हूं कि न तो यह कोई साधारण प्रक्रिया है और न ही खेल का विषय बल्कि यदि इसे सावधानी पूर्वक नियन्त्रित ढंग से उचित मानदण्डों के अनुसार न जाग्रत किया जाये तो इसके दुष्परिणाम भी हो सकते हैं और साधक की जान का भी खतरा उत्पन्न हो सकता है। यह एक ऐसी योगिक क्रिया (योग साधना) है जिसके संपन्न होने पर साधक में आमूल-चूल परिवर्तन होते हैं। कहने का अर्थ यह है कि साधक में न सिर्फ शारीरिक एवं मानसिक परिवर्तन होता है बल्कि आित्मक परिवर्तन भी हो जाता है। साधक को ऐसे परमानन्द की अनुभूति हो जाती है जिसके उपरान्त साधक को किसी अन्य सुख की चाह रह ही नहीं जाती है।
कुण्डलिनी जाग्रत करने से पूर्व परिस्थितियां अनुकूल होनी आवश्यक हैं अर्थात साधक को शारीरिक एवं मानसिक रूप से शुद्ध होना आवश्यक है। कहने का तात्पर्य यह है कि न सिर्फ साधक का शरीर साफ-सुथरा होना चाहिए (साधक का पेट मल-मूत्र रहित होना चाहिए एवं ऊपरी त्वचा स्वच्छ होनी चाहिए) बल्कि उसका मन भी शुद्ध होना आवश्यक है अर्थात् राग-द्वेष एवं अन्य सभी प्रकार की कलुषित भावनाओं से परे होना चाहिए। साधक की आत्मा में परमानन्द की प्राप्ति के अतिरिक्त अन्य किसी प्रकार की चाह नहीं होनी चाहिए। जिस स्थान पर साधक योगिक क्रिया संपन्न करना चाहता है अर्थात् कुण्डलिनी जाग्रत करना चाहता है वह स्थान साफ-सुथरा, शान्त, स्वच्छ वायुयुक्त एवं व्यवधान रहित होना चाहिए। यदि इसे निर्जन अथवा एकान्त स्थान कहा जाये तो अनुचित नहीं होगा।
उपरोक्त मानदण्डों की प्रतिपूर्ति के उपरान्त साधक को स्वच्छ स्थान (जमीन/भूमि) पर बैठकर अपने ईष्टदेव का नाम लेकर मन को एकाग्र करना चाहिए अर्थात अपने मन को अपने नाभिस्थल पर केन्द्रित करना चाहिए। मन विचलित न हो इसके लिए साधक सरस्वती मन्त्र अथवा गायत्री मन्त्र का पाठ अनवरत रूप से मन्द स्वर में कर सकता है। नित्यप्रति/प्रतिदिन प्रयास करने से कुछ दिवसों/काल उपरान्त साधक का मन नाभिस्थल पर केन्द्रित होने लगेगा। नित्यप्रति की अनवरत एकाग्रता के बढ़ने पर साधक को अपने नाभिस्थल में किसी अलौकिक शक्ति के होने का आभास मिलने लगेगा। चूंकि नाभिस्थल सम्पूर्ण शरीर का केन्द्र-बिन्दु है अर्थात शरीर की सभी इन्द्रियों का संबन्ध नाभिस्थल से होता है इसलिए जैसे ही नाभिस्थल पर मन की एकाग्रता का संयोग बनेगा, शरीर में एक अजीब स्फूर्ति का समावेश होगा और शरीर की सभी इन्द्रियां पुलकित होने लगेंगी।
उपरोक्त अवस्था के पश्चात् साधक को विशेष सतर्कता बरतने की आवश्यकता है क्योंकि इसी अवस्था के पश्चात् कुण्डलिनी जाग्रत होती है और कुण्डलिनी के जाग्रत होने के पश्चात् यदि उसे नियन्त्रित न किया गया तो कुछ भी सम्भव हो सकता है।
कुण्डलिनी का जाग्रत होना क्या है
वास्तव में प्रत्येक मनुष्य की आत्मा उसके नाभिस्थल में सुसुप्ता अवस्था में स्थित होती है जो स्वत: मृत्यु के समय ही जाग्रत होती है और अभ्यास की अपूर्णता एवं जर्जर शरीर होने के कारण अनियन्त्रित होकर शरीर से बाहर निकल जाती है और ईश्वर के नियन्त्रण में चली जाती है तथा मनुष्य की मृत्यु हो जाती है। कुण्डलिनी जागरण की प्रक्रिया में साधक अपनी साधना के द्वारा स्वयं अपनी सुसुप्त आत्मा को जाग्रत करता है एवं नियमित अभ्यास और स्वस्थ शरीर होने के कारण उसे नियन्त्रित भी कर पाता है जिससे उसकी आत्मा उसकी इच्छानुसार पुन: उसके शरीर में लौट आती है।
जब साधक नियमित प्रयास से अपनी सुसुप्त आत्मा को जाग्रत करता है तो वह अपने चक्राकार मार्ग से होती हुई मनुष्य के शरीर से बाहर आ जाती है। दरअसल प्रत्येक साधक का कुण्डलिनी जाग्रत करने का मुख्य उद्देश्य आत्मा का परमात्मा से मिलन करना होता है और इसी चरम अवस्था में साधक को परमानन्द की अनुभूति होती है किन्तु साधक को अपनी आत्मा का परमात्मा से एकाकार कराने के लिए उसे अपने योगबल से नियन्त्रित करना पड़ता है जिससे आत्मा दिग्भ्रमित होकर अनन्त आकाश में किसी अन्य लोक की ओर न अग्रसर हो सके और जब साधक की आत्मा सही मार्ग का अनुसरण करते हुए अनन्त आकाश में विचरण करती है तो वह ऐसा सब कुछ देख पाने में सक्षम हो जाती है जिसकी साधक सशरीर कल्पना तक नहीं कर पाता है और यही नियन्त्रित आत्मा जब कुछ क्षणों के लिए ही परम पूज्य परमात्मा से मिलती है तो साधक परमानन्द की अनुभूति करता है जिसे शब्दों में व्यक्त कर पाना असम्भव है। किन्तु जब तक मनुष्य जीवित है अर्थात उसकी आयु पूर्ण नहीं हुई है तब तक आत्मा का परमात्मा से पूर्ण मिलन सम्भव नहीं है। इसीलिए कुछ क्षणों उपरान्त आत्मा को अपने शरीर में वापस लौटना पड़ता है और साधक अपनी पूर्वावस्था में आ जाता है।
किन्तु साधक के शरीर से निकलकर यदि साधक की आत्मा अनियन्त्रित हो जाये और दिग्भ्रमित हो जाये तो वही आत्मा किसी अन्य लोक में भी जा सकती है फिर साधक को उस लोक के अनुभवों से गुजरना पड़ता है जैसे यदि साधक की आत्मा प्रेतलोक में विचरण करने लगी तो उसका सामना नाना प्रकार के प्रेतों से होगा और यदि साधक मजबूत िहृदय का स्वामी नहीं है तो डर से उसकी मृत्यु भी सम्भव है। ऐसी स्थिति में आत्मा प्रेतलोक में ही रह जायेगी और साधक की मुक्ति लगभग असम्भव हो जायेगी। अनियन्त्रित आत्मा यदि प्रेतलोक जैसे लोक में न भी जाये तो भी उसे साधक के शरीर वापस लाना जरा दुष्कर कार्य है। अत: सामान्य दिनचर्या एवं कमजोर िहृदय के स्वामियों से अनुरोध है कि इस प्रयोग को न आजमायें यही उनके लिए हितकर है।
कुण्डलिनी जाग्रत करने की प्रक्रिया अत्यन्त जटिल, साहसपूर्ण एवं नियमित एवं अनवरत अभ्यास की प्रक्रिया है जिसकी पूर्ण सफलता में साधक को 3-6 वर्ष तक का समय लग सकता है जो साधक की साधना पर निर्भर करता है किन्तु इसके लिए प्रथम अवस्था की अनिवार्यता भी है।
मैं मन्दबुद्धि यह समझता हूं कि मां सरस्वती मेरे माध्यम से जिन साधकों का मार्गदशZन करना चाहती हैं वे इसके दूरगामी परिणामों से पूर्ण परिचित होंगे एवं लाभ प्राप्त कर सकेंगे।
इति
2 टिप्पणियां:
आपकी ये पोस्ट पढ़ी। धन्यवाद
मेरी हार्दिक शुभ कामनाएं हरीष भाइ को
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