खाद्य सुरक्षा विधेयक में हैं अनगिनत पेंच
(लिमटी खरे)
आम आदमी से जुड़ा हुआ है खद्य पदार्थों का मसला। कांग्रेस नीत संप्रग मनमोहन सिंह सरकार कभी भी मंहगाई के मसले पर एक बयान पर नहीं टिक सकी है। सदा ही सरकार की ओर से बयानबाजी आती रही है। इतिहास में यह संभवतः पहला मौका है जब मंहगाई इतने अधिक समय तक कायम रही है। खाद्य पदार्थों के दामों में सरकार ने इजाफा अवश्य ही किया है, पर यह इजाफा बहुत अधिक नहीं कहा जा सकता है। दरअसल कालाबाजारियों को सरकार द्वारा दिए जा रहे अघोषित प्रश्रय ने मंहगाई के ग्राफ को इतने अधिक समय तक बढ़ाए रखा है।
कोई भी राजनैतिक दल सत्ता की मलाई चखने के लिए चुनावों के दौरान आम जनता से लोक लुभावने वादे करता है, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है। पिछली मर्तबा कांग्रेसनीत संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन द्वारा भी गरीब गुरबों को लुभाने की गरज से महीने में 25 किलो राशन वह भी महज तीन रूपए प्रति किलो की दर से दिलवाने का वायदा किया था। आज उस बात को एक साल से अधिक का समय बीत चुका है, पर कांग्रेस का वायदा परवान नहीं चढ़ सका है। इसी बीच देश की सबसे बड़ी अदालत ने भी अनाज के सड़ने पर अपनी चिन्ता को जग जाहिर कर दिया है।
वैसे कांग्रेस द्वारा खाद्य सुरक्षा विधेयक का झुनझुना भारत गणराज्य की जनता को दिखाया है। जनता को लगने लगा कि उसे सस्ता अनाज अवश्य ही मिल सकेगा। शासकों को भी लगने लगा कि उन्होंने जनता के हित में एक बड़ा फैसला ले लिया है। सवाल यह उठता है कि आजादी के उपरांत भारत में योजनाएं तो अनेक बनीं किन्तु उनमें से कितनी योजनाएं परवान चढ़ सकी हैं, यह बात किसी से छिपी नहीं है। अब शिक्षा के अधिकार कानून को ही लिया जाए। राज्यों को विश्वास में लिए बिना ही सरकार द्वारा शिक्षा के अधिकार कानून को लागू कर दिया गया। आज उसका हश्र क्या है? यह कानून औंधे मुंह गिर गया है। राज्य सरकारों ने इस मामले में अपने हाथ खड़े कर दिए हैं।
कमोबेश यही आलम खाद्य सुरक्षा विधेयक का है। देश में गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने वाला (बीपीएल) या गरीब कौन है? इस बारे में आज भी संशय बरकरार ही है। कांग्रेसनीत केंद्र सरकार की सोच तो देखिए उसने गरीब कौन है इस बात की मालुमात के लिए एक साल में तीन कमेटियां बना डाली। कोई खुराक को आधार बना रहा है, कोई रोजना की आमदानी को। योजना आयोग का सुर अलग ही आलाप गा रहा है।
केंद्र सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रालय की एन.सी.सक्सेना समिति ने गरीबों की गणना में प्रति व्यक्ति खुराक को आधार माना जिसमें केलोरी की मात्रा को प्रमुखता दी गई थी। इस आधार पर सक्सेना कमेटी का मानना है कि देश में पचास फीसदी से ज्यादा लोग गरीब हैं। इसके अलावा अर्जुन सेन गुप्ता समिति अपना राग अगल ही अलाप रही है। गरीबों की गणना में उसका आधार देश की 77 फीसदी से अधिक वह जनता है जो रोजाना 20 रूपए से कम खर्च करने की क्षमता रखती है। तेंदुलकर समिति देश की 35 फीसदी से अधिक जनता को गरीब मानती है।
उधर योजनाओं को मूर्तरूप देने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने वाले योजना आयोग का तराना अलग ही बज रहा है। योजना आयोग के आंकड़े कहते हैं कि सवा करोड़ से अधिक की आबादी वाले भारत में छः करोड़ परिवार अर्थात लगभग आठ फीसदी परिवार ही गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने पर मजबूर हैं। भारत गणराज्य में राज्यों के आंकड़ों पर अगर गौर फरमाएं तो यह आंकड़ा दस करोड़ पहुंच जाता है। जब गरीबों के बारे में तहकीकात करने और उनकी संख्या के बारे में सरकारी आंकड़ों में ही इतनी अधिक विसंगतियां हैं, तो भला कैसे मान लिया जाए कि केंद्र सरकार के खाद्य सुरक्षा विधेयक का सफलता पूर्वक क्रियान्वयन सुनिश्चित हो सकेगा।
कांग्रेस की राजमाता श्रीमति सोनिया गांधी का कहना कुछ और है। उनके मुताबिक खाद्यान्न का आशय गेंहू चावल से नहीं वरन् इसमें दाल, चीनी तेल जैसी जिन्सें भी शामिल हैं। बकौल सोनिया गांधी कंेद्र सरकार खाद्य गारंटी उन परिवारों के लिए ही दे जिनके पास पांच एकड़ से कम कृषि भूमि या जिनके पास दो पहिया वाहन न हों। आज देश में सस्ती दर पर मिलने वाले ऋण के कारण कुछ परिवार ही एसे होंगे जिनके पास दो पहिया वाहन न हो। कांग्रेस की अध्यक्ष ने यह बात साफ नहीं की है कि दो पहिया का तात्पर्य सायकल से है या मोटर सायकल से।
भारत गणराज्य के कृषि मंत्री कहते हैं कि खाद्यान्न पदार्थों के उत्पादन में कमी के कारण कीमतें बढ़ना बताते हैं, तो कभी किसानों को अनाज का अधिक मूल्य देने पर कीमतें बढ़ने की बात कही जाती है, फिर बाद में वे यही कहते हैं कि उन्हें गलत आंकडे़ दिए गए। अरे आप भारत गणराज्य के जिम्मेदार मंत्री हैं, आपके मुंह से इस तरह की गैरजिम्मेदाराना बातें शोभा नहीं देती शरद पवार साहेब। कभी सरकार कहती है कि देश में अनाज का पर्याप्त भंडार है, सो कीमतें घटेंगी, पर कब यह मामला सनी देओल अभिनीत चलचित्र में अदालत की ‘‘तारीख पर तारीख‘‘ की बात को ही प्रदर्शित करती है।
देश के आंतरिक परिदृश्य पर अगर नजर डाली जाए तो साफ तौर पर एक ही बात उभरकर सामने आ रही है कि अनाज की कीमतें कालाबाजारियों और जमाखोरों द्वारा मचाई गई व्यवसायिक लूट का ही परिणाम है। सच्चाई तो यह है कि केंद्र और राज्यों की सरकारें ही इन आताताईयों पर नियंत्रण पाने में विफल रही हैं। विडम्बना यह है कि कांग्रेस की सरकार के कार्यकाल में ही कांग्रेस का ‘‘हाथ‘‘ गरीबों के गिरेबान तक पहुंच गया है।
देश की सार्वजनिक वितरण प्रणाली में भ्रष्टाचार गलकर सड़ांध मार है, जिसकी बदबू चहुंओर फैलकर महामारियां फैला रही है, यह बात सभी को दिखाई पड़ रही है सिवाए कांग्रेस और विपक्षी दलों के। इन्हंे दिखाई और सुनाई पड़े भी कैसे? जब सियासी दल ही आकंठ भ्रष्टाचार में डूबे हों तो फिर उसे दूर करने की जहमत उठाए भी भला कौन? सरकार खुद ही अपने द्वारा कराए गए सर्वेक्षण में इस बात को स्वीकार कर चुकी है कि 99 फीसदी उपभोक्ताओं को नियमित आपूर्ति नहीं हो पाती है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली का पचास फीसदी अनाज अधिकारियों और ठेकेदारों की मिली भगत से खुले बाजार में बेच दिया जाता है। इन परिस्थितियों में खाद्य सुरक्षा विधेयक परवान चढ़ सकेगा इस बात में संशय का गहरा कुहासा ही दिख रहा है।
देश में खाद्यान्न की कृत्रिम कमी के बाद जिंसों को आयात किया जाता है। आयतित खाद्यान्न बंदरगाहों पर या तो सड़ जाता है या मूषकों का ग्रास बन जाता है। इसी तरह रख रखाव के अभाव में देश में उत्पादित अनाज भी सड़ गल जाता है। देश की सबसे बड़ी पंचायत इस मामले में संज्ञान लेती है। केंद्र सरकार को अदालत आदेशित करती है कि खाद्यान्न को सड़ने देने के बजाए उसे गरीब में मुफ्त बांटा जाए। सरकार में बैठे मोटी चमड़ी वाले जनसेवकों की हिमाकत तो देखिए, वे अदालत के आदेश को सलाह मानकर उसका अनुपालन करने से इंकार कर देते हैं। तब अदालत को अपना रूख गंभीर कह कहना ही पड़ता है कि अदालत ने मशविरा नहीं दिया वरन् आदेश दिया है। कृषि मंत्री फिर भी कहते हैं कि वे अदालत के आदेश को पाने का प्रयास कर रहे हैं। चुनावों के दौरान दीवारों पर लिखे एक जुमले का उल्लेख यहां प्रासंगिक होगा जिसमें लिखा गया था कि -‘‘वाह री सोनिया तेरा खेल! खा गई शक्कर, पी गई तेल!!‘‘
हमारे विचार से देश की नीतियों में ही खोट है। सरकार को चाहिए कि नीतियों को जमीनी वास्तविक, हकीकत से रूबरू होने वाली बनाई जाया। भारत गणराज्य के जिम्मेदार मंत्रियों को अनर्गल बयानबाजी से रोका जाए। केंद्रीय भूतल परिवहन मंत्री कमल नाथ ने बेतूल की एक सभा में कहा कि देश में गरीब दोनों टाईम खाने लगा है इसलिए मंहगाई बढ़ी है। कृषि मंत्री शरद पवार कहते हैं कि चीनी नहीं खाने से आदमी मर नहीं जाएगा। अरे आप जनता का जनादेश प्राप्त नुमाईंदे हैं, जिन्हें आवाम ए हिन्द ने अपना भविष्य सुरक्षित और संरक्षित करने की जवाबदारी दी है। अगर ये जनसेवक ही इस तरह की अनर्गल और गैर जिम्मेदाराना बयानबाजी करेंगे तो यह तो जनादेश का सरासर अपमान ही हुआ।
उत्पादन और आपूर्ति में अंतर साफ दिखता है। कभी गेंहूं की पैदावार बहुत अधिक हो जाती है, तो कभी चावल का उत्पादन रिकार्ड तोड़ देता है, तो कभी गन्ना जबर्दस्त पैदा होता है। इस असंतुलन का क्या कारण है? सरकार ने कभी जानने का प्रयास ही नहीं किया है। भारत सरकार ने एक मंत्रालय कृषि के लिए बनाया हुआ है। इसके तहत कृषि विज्ञान केंद्र भी अस्तित्व में हैं। कृषि पर शोध भी जमकर हुए हैं। भारत कृषि प्रधान देश भी कहा जाता है, जहां की आत्मा गांव में बसती है, इस लिहाज से किसान ही देश की आत्मा है। हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं कि केंद्र और सूबों की सरकारों द्वारा भारत की आत्मा का गला घोंटा जा रहा है।
हजारों, लाखों करोड़ रूपए खर्च कर कृषि को उन्नत करने का ढकोसला किया जाता रहा है, यह क्रम आज भी अनवरत जारी है। कभी इस बात पर जोर नहीं दिया गया और न ही इस तरह का ही कोई कार्यक्रम चलाया गया जिसमें बताया गया हो कि किस जमीन पर किसान को कितने हिस्से में दाल, गेंहू, चावल, गन्ना आदि उगाना चाहिए। इस तरह देश का किसान अपने मन से दूसरों की देखा सीखी ही खेती करने पर मजबूर है। अगर देखा जाए तो देश में खाद्यान्न उत्पादन 330 किलो प्रति व्यक्ति की दर से हो रहा है, जो अनेक देशों की तुलना में बहुत ही संतुष्टीकारक माना जा सकता है, बावजूद इसके देश खाद्यान्न संकट से जूझ रहा है।
महानगरों में अमीरों और जनसेवकांे द्वारा एक ही रात में लाखों रूपयों की दारू मुर्गा पार्टी के बाद खाद्यान्न इस तरह फेंक दिया जाता है, मानो वह किसी के काम का नहीं है। इस बचे खाने को एकत्र करने के लिए सरकार के पास कोई ठोस कार्ययोजना नहीं है। आंकड़ों पर अगर गौर फरमाया जाए तो पिछले साल दुनिया भर में एक अरब दो लाख लोग भुखमरी का दंश झेल रहे थे, यह आंकड़ा इस साल घटकर बानवे लाख पचास हजार पहुंच गया है। एक तरफ दुनिया में जहां भूखे लोगों की तादाद में कमी आई है, वहीं भारत में इसकी संख्या का बढ़ना निश्चित तौर पर कांग्रेसनीत संप्रग सरकार के लिए शर्म की बात है, पर शासकों को शर्म आए तो क्यों? शासकों का पेट भरा जो है।
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