व्यवसाय बन चुकी शिक्षा व्यवस्था को पटरी पर लाने की कवायद
सीबीएसई की सख्ती से शाला संचालक सक्ते में
(लिमटी खरे)
पालकों और विद्यार्थियों को आकर्षित करने की गरज से निजी शालाओं के संचालकों की यही तमन्ना होती है कि वे किसी भी तरह से केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड की संबद्धता (एफीलेशन) प्राप्त कर लें। ‘साम, दाम, दण्ड और भेद‘ की नीति अपनाकर निजी शालाओं के संचालक अपनी जुगत में कामयाब भी हो जाते हैं किन्तु उसके बाद विद्यार्थियों को बुनियादी सुविधाएं मुहैया करवाने की दिशा में शाला संचालक कोताही बरतते आए हैं। सीबीएसई का रवैया भी बेहद ढुलमुल ही रहा है। शालाओं के निरीक्षण की औपचारिकताएं कागजों पर ही निभा दी जाती रही हैं।
हाल ही में सीबीएसई के अध्यक्ष और भारतीय प्रशासनिक सेवा के वरिष्ठ अधिकारी विनीत जैन ने सीबीएसई से संबद्ध शालाओं की मश्कें कसना आरंभ किया है। निजी शालाओं में विद्यार्थियों से मनमानी फीस लेने पर सीबीएसई को आपत्ति है, सीबीएसई ने नया सर्कुलर जारी कर कहा है कि फीस के मामले में अब शालाएं मनमाना रवैया नहीं अपना सकती हैं। कोई भी शाला किसी भी तरह की केपीटेशन फीस या पालकों से एच्छिक डोनेशन भी नहीं ले सकती हैं। सीबीएसई का कहना है कि अगर कोई विद्यार्थी बीच सत्र में शाला छोड़कर जाता है तो शाला प्रबंधन को उसकी बाकी फीस को हर हाल में वापस करना ही होगा।
राईट टू एजूकेशन में एक कक्षा में बच्चों की संख्या 35 निर्धारित की गई है, फिर भी सीबीएसई ने इस संख्या को चालीस से अधिक होने पर एतराज जताया है। बोर्ड ने शिक्षा के स्तर में सुधार की गरज से कंटिन्यूअस एण्ड कॉम्प्रिहेंसिव इवैल्यूएशन स्कीम (सीसीई) लागू की गई है। इसमें पढ़ाई में किताबों के अलावा एक्सट्रा केरिकुलर एक्टीविटीज पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है, किन्तु एक कक्षा में छात्रों की संख्या अधिक होने पर इस योजना को शायद ही अमली जामा पहनाया जा सके। इन गतिविधियों के तहत आर्ट, डांस, म्यूजिक आदि के मामले में भी शाला को ध्यान देना होगा। इसके लिए प्रथक से क्लास रूम की व्यवस्था भी शाला को ही सुनिश्चित करनी होगी। हर शाला को एक खेल का कालखण्ड रखना भी अनिवार्य होगा, इसके लिए शाला के पास खेल का मैदान होना भी अनिवार्य किया गया है।
सीबीएसई का कहना है कि दाखिला प्रक्रिया भी पूरी तरह से पारदर्शी होना चाहिए। फीस बढ़ाने के मामले में सीबीएसई का तर्क है कि कोई भी शाला अगर शैक्षणिक शुल्क में बढ़ोत्तरी करती है, तो वह पालकों को विश्वास में लेकर ही किया जाए, अन्यथा शिकायत होने पर शाला प्रबंधन के खिलाफ कार्यवाही हो सकती है।
इसके साथ ही साथ केंद्रीय सूचना आयोग द्वारा भी निर्देश जारी किए गए हैं कि शालाओं में पूरी पारदर्शिता अपनाई जाए। इसके लिए आयोग का कहना है कि हर शाला की अपनी एक वेव साईट होना आवश्यक है। इस वेव साईट में शाला का सीबीएसई एफीलेशन स्टेटस, आधारभूत अधोसंरचना (इंफ्रास्टक्चर), शिक्षकों के नाम, पद, उनकी शैक्षणिक योग्यताएं, प्रत्येक कक्षा में विद्यार्थियों की संख्या, शाला का ईमेल आईडी, शाला प्रबंधन समिति के सदस्यों का विवरण, शाला का दूरभाष नंबर वेव साईट पर होना आवश्यक है। इसके साथ शाला को यह भी सुनिश्चित करना होगा कि यह वेव साईट लगातार अद्यतन (अपडेट) की जाए, ताकि अभिभावकों को सारी जानकारियां मिल सकें।
सीबीएसई के दिशा निर्देशों में साफ किया गया है कि प्रत्येक शाला को अपना वार्षिक प्रतिवेदन भी वेव साईट पर डालना अनिवार्य होगा। इस प्रतिवेदन के साथ शाला को अपने इंफ्रास्टक्चर के अलावा वार्षिक गतिविधियां, रिजल्ट आदि को भी अद्यतन किया जाना अनिवार्य किया गया है। सीबीएसई के मान्यता प्राप्त स्कूलों के पास प्राणी विज्ञान, रसायन शास्त्र, भौतिकी विज्ञान, गणित एवं कम्पयूटर की प्रयोगशाला को अनिवार्य किया गया है।
सीबीएसई के उच्च पदस्थ सूत्रों का कहना है कि इन नियमों के उल्लंघन को गंभीरता से लिया जाएगा। इसके लिए सीबीएसई बोर्ड के निरीक्षण दल समय समय पर जाकर शालाओं का निरीक्षण करेंगे और बच्चों की संख्या निर्धारित से अधिक पाए जाने पर या पारदर्शिता का अभाव मिलने पर कठोर कार्यवाही भी करने का प्रावधान किया जा रहा है।
सीबीएसई के अध्यक्ष विनीत जैन के कदमों का स्वागत किया जाना चाहिए, कि उन्होंने व्यवसाय का रूप अख्तिायर कर चुकी शिक्षा व्यवस्था को पटरी पर लाने की कवायद आरंभ की है। वैसे देखा जाए तो यह जिम्मेदारी केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय की है। कहने को शिक्षा का अधिकार कानून बना दिया गया है, किन्तु इसे अमली जामा पहनाने की जब बारी आती है तो मानव संसाधन और विकास मंत्रालय अपने हाथ खड़े कर देता है।
केंद्रीय विद्यालय संगठन के बोर्ड ऑफ गवर्नर की अनुशंसा के आधार पर 1988 में तत्कालीन सांसद चंदू लाल चंद्राकर की अध्यक्षता में बनी समिति जिसने दाखिला के तौर तरीकों को बदलने के लिए अपनी सिफारिशें दी थीं। विडम्बना देखिए कि चंद्राकर समिति का वह प्रतिवेदन ही गायब हो चुका है। 21 साल बाद रिपोर्ट खोजने की मुहिम में लगा है मानव संसाधन विकास मंत्रालय! यह बात भी तब प्रकाश में आई जब संसद की आश्वासन समिति ने जनवरी 2009 में इसे लेकर मानव संसाधन विकास मंत्रालय को फटकार लगाई थी। गौरतलब होगा कि 1992 में तत्कालीन मानव संसाधन मंत्री कुंवर अर्जुन सिंह ने सदन में इस समिति की रिपोर्ट को लागू करने का आश्वासन भी दिया था। अर्जुन सिंह ने उस वक्त कहा था कि चंद्राकर कमेटी अपनी रिपोर्ट मंत्रालय को सौंप चुकी है।
कितने आश्चर्य की बात है कि शिक्षकों की व्यवस्था के लिए राज्य सरकारें अतिरिक्त धन की मांग करती हैं। मतलब साफ है कि सूबों की सरकारों को पता है कि उनके राज्यों में अशिक्षा का अंधेरा इक्कीसवीं सदी के पहले दशक के समाप्त होने के बाद भी पसरा हुआ है। उस अंधेरे को दूर करने की दिशा में राज्य सरकारों द्वारा कोई ठोस प्रयास नहीं किया जाना भी आश्चर्य का ही विषय माना जाएगा।
शिक्षा के अधिकार कानून में गरीब गुरबों के बच्चों को शिक्षा मुहैया करवाने की शर्त अवश्य ही रखी गई है, किन्तु किसी में इतना साहस नहीं है कि वह फाईव स्टार से लेकर विलासिता वाली संस्कृति वाली शालाओं के संचालकों की कालर पकड़कर उन्हें गरीब बच्चों को शाला में दाखिला दिलाने की घुड़की दे सकें। नर्सरी में दाखिले के लिए भी सरकार ने साफ किया है कि निजी स्कूलों को यह बाध्यता है कि वे गरीब बच्चों को 25 फीसदी स्थान अवश्य ही दें। विडम्बना ही कही जाएगी कि कानून बनने के बाद भी केंद्र और राज्य सरकारों के सामने शालाओं को दुकान और प्रतिष्ठान की तरह बनाने वाले शाला संचालक इसकी सरेआम धज्जियां ही उड़ा रहे हैं।
इस बात की आशंका भी जताई जा रही थी कि अगर दबाव में आकर शाला संचालक इस 25 फीसदी कोटा सिस्टम को लागू भी कर देते हैं तो वे मनमानी फीस बढ़ोत्तरी के लिए स्वतंत्र हो जाएंगे। सीबीएसई के अध्यक्ष विनीत जैन की कड़ाई से इन दुकानदार शिक्षण संस्थाओं के संचालकों का मुगालता अवश्य ही टूटा होगा।
इस साल के आरंभ में केंद्रीय विद्यालय संगठन ने बच्चों के बस्तों का बोझ कम करने का फैसला लिया था। संगठन ने अपने समस्त केंद्रीय विद्यालयों को ताकीद किया था कि बच्चों के बस्ते के बोझ को किसी भी कीमत पर कम करना होगा। इसके लिए टाईम टेबल इस तरह का तैयार करने पर बल दिया गया था जिससे बच्चे कम किताबें लेकर शाला जाएं। केवीएस का यह फैसला भी पहले के उन फैसलों की तरह ही ढेर हो गया जिनमें कहा गया था कि बच्चों को होमवर्क और बस्ते के बोझ से मुक्त कराया जाएगा। आज भी केंद्रीय विद्यालय में प्राथमिक कक्षा के बच्चे दस से पंद्रह किलो का बस्ता लादे शाला के मुख्य द्वार से आधे किलोमीटर की कसरत करते मिल जाते हैं।
यह सच है कि बच्चा अपने पाठ्यक्रम (सिलेबस) को कड़वी कुनैन की गोली की तरह ही निगलता है। वस्तुतः बच्चों को कम उम्र में किताबी ज्ञान देकर हम उन्हें मशीनी बना रहे हैं। इससे बच्चों का स्वाभाविक विकास अवरूद्ध हुए बिना नहीं है। यह पद्यति दरअसल बच्चों के आंतरिक गुणों के विकास करने के स्वाभाविक माहौल को तैयार करने के बजाए उनके उपर सूचनाओं का बड़ा सा पहाड़ लाद देती हैं। पढ़ाई बच्चों के लिए स्वाभाविक और मनोरंजक बनने के बजाए एक लाईबिलटी और मुश्किल कवायद में तब्दील हो जाती है। आज की युवा पीढ़ी देश के स्वतंत्रता संग्राम और अन्य इतिहास को विस्मिृत ही कर चुकी है। आज आवश्यक्ता इस बात की है कि बच्चों के सिलेबस के अध्याय कम करके उन्हें व्यवहारिक ज्ञान की शिक्षा प्रदाय की जाए।
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