हिटलरशाही हो गए हैं भारत गणराज्य में लोकतंत्र के मायने
(लिमटी खरे)
आजादी के लगभग सवा छः दशकों बाद अब चुनिंदा लोग ही बचे होंगे जिन्हें वास्तव में पता होगा कि ब्रितानियों के जुल्मों को सहकर कितनी मशक्कत के उपरांत भारत ने आजादी हासिल की थी। कितने अरमान के साथ भारत गणराज्य की स्थापना की गई थी। क्या क्या सपने देखे थे, उस वक्त जवान होती पीढ़ी ने। उनकी कल्पनाओं को साकार करने के लिए सरकारों ने पूरे जतन से कोशिश की। आज तक की सरकारों की कोशिशें कितनी ईमानदार थीं, इस बारे में हालात देखकर ज्यादा कुछ कहना अतिश्योक्ति ही होगी। इक्कीसवीं सदी की कल्पना कांग्रेस के पूर्व प्रधानमंत्री स्व.राजीव गांधी ने कुछ और की थी, किन्तु उनके परिजनों की अगुआई में आगे बढ़ने वाली कांग्रेस ने इक्कीसवीं सदी में लोकतंत्र की परिभाषा ही बदल दी है। वर्तमान में ‘‘लोकतंत्र‘‘ के मायने ‘‘हिटलरशाही‘‘ हो गए हैं।
सवा सौ साल पुरानी और आजादी के उपरांत आधी सदी से ज्यादा इस देश पर राज करने वाली कांग्रेस पार्टी की अगुआई वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की छवि साफ, स्पष्ट, सच्चे और ईमानदार इंसान की है, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है, किन्तु पिछले कुछ सालों मंे उनकी आखों के सामने जो भी घटा है, उसे देखकर उनकी छवि धूल धुसारित ही हुई है। घोटाले दर घोटाले सामने आने के बाद भी वे मूकदर्शक बने बैठे हैं। जब भी समाचार चेनल्स पर वजीरे आजम दिखाई देते हैं, आम आदमी के मानस पटल पर उनके निरीह और बेबस होने का भाव आ ही जाता है।
हाल ही में केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) के संवैधानिक पद पर पी.जे.थामस की नियुक्ति के उपरांत जो बवाल मचा है, वह थमता नहीं दिख रहा है। संसद लगातार ठप्प ही पड़ी हुई है। विपक्ष भी अपनी मांग पर अडिग ही है। 2004 के उपरांत पहला मौका होगा जब विपक्ष ने सशक्त भूमिका निभाई हो, हो भी क्यों न, आखिर किसी दागी के हाथ में खजाने की चाबी जो सौंपी जा रही है।
देश की सबसे बड़ी अदालत ने मुख्य सतर्कता आयुक्त थामस को उनका पक्ष रखने के लिए नोटिस जारी कर साफ कर दिया है कि सितम्बर महीने में डॉ.मन मोहन सिंह ने उनक नियुक्ति जिस तरह की थी, उसमें कहीं न कहीं कुछ तो असंवैधानिक हुआ है। वैसे भी सीवीसी का पद कोई राजनैतिक लालीपाप नहीं है, कि कांग्रेस इसमें सारे नियम कायदों को धता बताते हुए मनमानी कर ले।
वस्तुतः सीवीसी का पद संवैधानिक है, जिसकी पहली अहर्ता ही ईमानदारी और विश्वसनीयता है। इस पद के लिए नियुक्ति हेतु तीन सदस्यीय टीम का गठन किया गया है, जिसमें स्वयं प्रधानमंत्री के अलावा गृहमंत्री और लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष का समावेश किया गया है। इस मामले में वजीरे आजम मनमोहन सिंह और गृह मंत्री पलनिअप्पम चिदम्बरम की एक राय तो मानी जा सकती है, कि वे टूजी स्पेक्ट्रम घोटाले को दबाना चाह रहे हों, किन्तु जब इस मसले में नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज ने आपत्ति दर्ज की तो उनकी आपत्ति को प्रधानमंत्री ने दरकिनार कैसे कर दिया।
यक्ष प्रश्न तो आज भी यही सामने आ रहा है कि क्या भारत गणराज्य का कलश ईमानदार अफसरान से रीत गया है, जो पामोलिन आयात घोटाले के अभियुक्त पी.जे.थामस को इस पद पर बिठाया गया है। वस्तुतः इस पद के लिए एक एसे नौकरशाह की दरकार थी जिसकी कालर स्वच्छ हो। थामस के भ्रष्ट होने के बारे में सुषमा स्वराज की चीख पुकार बेकार ही साबित हुई। भाजपा ने इस मसले मंे महामहिम राष्ट्रपति को ज्ञापन भी सौंपा, मगर हमारे निरीह, ईमानदार, सच्चे, अर्थशास्त्री, साफ, स्पष्ट, मौन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने मामला बिगड़ता देख आनन फानन ही महामहिम से थामस को पद की शपथ दिलवा दी।
स्पेक्ट्रम मामले में संसद की कार्यवाही बाधित है, यही कारण है कि संसद में थामस की नियुक्ति पर शोर शराबा नहीं हो पा रहा है। इतना सब बवाल होने के बाद भी मोटी चमड़ी वाले कांग्रेस के नेताओं ने इतना साहस भी नहीं जुटाया कि वे थामस की नियुक्ति के बारे में कहीं भी स्पष्टीकरण दे सकें। चहुंओर एक ही बयार बह रही है कि सारे नियम कायदों को धता बताकर कांग्रेसनीत केंद्र सरकार ने पी.जे.थामस को केंद्रीय सतकर्ता आयुक्त बना दिया, इससे यही मैसेज जा रहा है कि कांग्रेस और उसकी सरकार को लोकतंत्र की परवाह ही नहीं रही। विपक्ष के विरोध पर भी कांग्रेस का नेतृत्व शर्म हया को त्यागकर अड़ा हुआ है।
बेशर्मी का लबादा ओढने वाली कांग्रेस को इस बात की परवाह तक नहीं है कि देश की सबसे बड़ी अदालत की बार बार फटकार के बाद भी वह मुंह खोलकर यह नहीं कह पा रही है कि आखिर थामस के बारे में सरकार की कार्ययोजना क्या है? देखा जाए तो कांग्रेस द्वारा प्रत्यक्ष तौर पर ही थामस का बचाव किया जा रहा है, अगर एसा नहीं है तो इन आरोपों को जवाब क्यों नहीं दे पा रही है कांग्रेस? साथ ही अगर कांग्रेस एसा नहीं कर रही है तो कांग्रेस को तत्काल ही थामस को पदच्युत कर देना चाहिए था। हो सकता है कांग्रेस के तेज दिमाग रणनीतिकार चाणक्य इस बात की खोज में लगे हों कि पामोलिन आयात घोटाले के अभियुक्त पी.जे.थामस को इस तरह के जिम्मेदार संवैधानिक पद पर बिठाने की तोड़ क्या हो सकती है! इस विलंब के पीछे इससे ज्यादा तर्कसंगत कारण और हमारी समझ में नहीं है।
गौरतलब होगा कि सीवीसी का गठन देश में भ्रष्टाचार के मामलों की जांच के दरम्यान राजनैतिक दबाव और हस्ताक्षेप को दूर रखने के उद्देश्य को केंद्रित कर किया गया था। इतना ही नहीं भारत गणराज्य की सबसे बड़ी जांच एजेंसी केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) के प्रमुख का चयन सीवीसी की अध्यक्षता में गठित समिति द्वारा ही किया जाता है। यह समिति देश के योग्य पुलिस अधिकारियों में से एक का चयन सीबीआई चीफ के तौर पर करती है। क्या इस तरह के दागी के हाथों में कमान सौंपे जाने पर ईमानदारी की परंपरा का निर्वहन किया जा सकेगा?
यहां गुजरे जमाने के सुपर स्टार राजेश खन्ना, मुमताज अभिनीत चलचित्र ‘‘रोटी‘‘ के एक गाने का जिकर लाजिमी होगा -‘‘यार हमारी बात सुनो, एसा इक इंसान चुनो, जिसने पाप न किया हो, जो पापी न हो . . . .।‘‘ अर्थात कल थामस अगर किसी के खिलाफ भ्रष्टाचार की जांच करते हैं तो वह भ्रष्टाचारी यह नहीं कह सकेगा कि थामस जिनका अपना दामन दागदार है, उन्हें क्या नैतिक अधिकार है किसी की जांच करने का। सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा थामस को अपना पक्ष रखने का नोटिस मिलने पर वे गदगद हैं। हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं कि थामस की नैतिकता भी कांग्रेस के मानिंद पूरी तरह से मर चुक है। उनके उपर पामोलिन आयात घोटाला करने का आरोप है। यह आरोप आजकल का नहीं बरसों पुराना है। अगर वे इस मामले में बेदाग थे, तो अब तक उन्होंने अपना पक्ष रखते हुए मामले में क्लीन चिट क्यों नहीं ले ली। आज वे अभियुक्त हैं, और उन्हें सीवीसी जैसे संवैधानिक पद पर बैठने का कोई अधिकार नहीं बचा है।
हंसी तो इस बात पर आती है कि भारत गणराज्य के गृहमंत्री पलनिअप्पम चिदंबर खुद पेशे से वकील हैं। कोई भी लॉ ग्रेजुएट कानून की बारीकियों से बहुत अच्छे से वाकिफ होता है। इस लिहाज से चिदम्बरम की सोच समझ, ईमानदारी, सच्चाई पर भी प्रश्नचिन्ह लगने लाजिमी हैं। सीवीसी के पद पर नियुक्ति के प्रस्ताव पर हस्ताक्षर करते समय आखिर किस आधार पर चिदम्बरम ने मान लिया कि थामस निर्दोष हैं? क्या प्रधानमंत्री के तौर पर डॉ.मनमोहन सिंह और गृहमंत्री के तौर पर चिदम्बरम द्वारा ली गई शपथ बेमानी थी? क्या यह राष्ट्र के साथ सरेआम धोखाधड़ी की श्रेणी में नही आएगा?
जब भारत गणराज्य की स्थापना की गई थी, तब लोकतंत्र की परिभाषा थी, जनता का, जनता द्वारा, जनता के लिए शासन। इस व्यवस्था में विपक्ष को अपनी बात कहने का, गलत बात का विरोध करने का पूरा पूरा अधिकार दिया गया था। पर सवा सौ साल पुरानी और आधी सदी से ज्यादा इस देश पर शासन करने वाली कांग्रेस की अगुआई वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार ने इक्कसवीं सदी में लोकतंत्र की नई परिभाषा गढ़ी है, जिसे एक शब्द में अगर कहा जाए तो वर्तमान में ‘‘लोकतंत्र‘‘ का समानार्थी शब्द कांग्रेस की नजर में ‘‘हिटलरशाही‘‘ है। विपक्ष चाहे जो कहते, चीखे चिल्लाए, पर सरकार वही करेगी जो उसके मन को भा रहा हो। अगर यही लोकतंत्र है तो इससे बेहतर तो ब्रितानियों की गुलामी ही थी।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें