आलेख 26 मार्च 2011
विज्ञान के बजाए प्रौद्योगिकी की ओर बढ़ता रूझान
सरकारी पहल के अभाव में दम तोड़ रही हैं शालेय विज्ञान प्रदर्शनियां
आजादी के मतवालों को भुला ही दिया कांग्रेस ने
(लिमटी खरे)
सरकारी पहल के अभाव में दम तोड़ रही हैं शालेय विज्ञान प्रदर्शनियां
आजादी के मतवालों को भुला ही दिया कांग्रेस ने
(लिमटी खरे)
अभी वह पीढ़ी बखूबी सांसे ले रही है, जिसने इस देश को ब्रितानियांे की गुलामी की जंजीरों को तोड़कर भारत देश को आजाद होते देखा है। वह पीढ़ी अभी प्रोढ़ावस्था को पा रही है जिसने सत्तर के दशक के उपरांत तेजी से हुए परिवर्तन को महसूस किया है। हम भी उसी पीढ़ी के प्रतिनिधि हैं जो परिवर्तन की साक्षात गवाह है। काल चक्र तेजी से घूम रहा है। विलासिता की वस्तु समझा जाने वाला टेलीफोन अब छोटे से मोबाईल की शक्ल में हर किसी के जेब की अनिवार्य जरूरत में तब्दील हो चुका है। कल के क्लिक सेकन्ड और थर्ड ब्लेक एण्ड व्हाईट केमरे के स्थान पर मोबाईल में ही रंगीन छायाचित्र के साथ ही साथ वीडियो बनाने की सुविधा मिल चुकी है। सफर करने वाले अपने साथ अब सुराही, लोटा, रस्सी या छागल के बजाए प्लास्टिक का बोतल बंद पानी रखने लगे हैं। यह सब कुछ प्रगति का ही घोतक है।
कुछ सालों पहले तत्कालीन रेलमंत्री और स्वयंभू प्रबंधन गुरू लालू प्रसाद यादव ने अपने अधीनस्थ अधिकारियों को निर्देश दिए थे कि रेल्वे स्टेशन को साफ सुथरा रखा जाए। उस वक्त रेल मंत्री ने स्टेशन प्लेटफार्म पर खड़ी रेलगाड़ी में शौच न करने का फरमान जारी कर दिया था। दिल्ली के रेल भवन में आलीशान वातानुकूलित कक्षों में बैठे अधिकारियों की पेशानी पर तब बल पड़ा और उन्होंने सोचा कि आखिर हर डब्बे के चार शौचालयों की निगरानी हर स्टेशन पर कैसे संभव होगी। अनेक रेल्वे स्टेशन एसे भी हैं जहां एक साथ एक दर्जन तक रेलगाडियां खड़ी हुआ करती हैं। उस वक्त चेन्नई की एम महज आठवीं कक्षा की एक छात्रा माशा नजीम ने इसका हल खोजकर सभी को चौंका दिया था।
माशा ने कंट्रोल्ड डिस्चार्ज सिस्टम के माध्यम से इसका हल खोजा था। इसके तहत दी गई व्यवस्था में सिस्टम का कंट्रोल रेल चालक के हाथ में होगा जो स्टेशन आते ही शौचालयों के जल मल निकासी के पाईप को एक संग्रहण टेंक से जोड़ देगा। बाद में स्टेशन से रेल निकलने के बाद खुले स्थान में चालक द्वारा इस अपशिष्ट को गिरा दिया जाएगा। रेल विभाग ने इस विकट समस्या का इतना सहल हल पाकर उस समय दांतों तले उंगली दबा ली थी। इतना ही नहीं तत्कालीन महामहिम राष्ट्रपति डॉ.कलाम साहेब ने भी माशा को सराहा था।
यह अलहदा बात है कि वर्तमान रेल मंत्री सुश्री ममता बनर्जी जब रेल मंत्री बनी हैं तब से वे पश्चिम बंगाल की सियासत में ही अपना पूरा ध्यान दिए हुए हैं। भारतीय रेल कहां जा रही है, इस बात से ममता बनर्जी को कोई लेना देना नहीं है। यात्रियों को किराए के एवज में सुविधाएं मिल रही हैं या नहीं इस बारे में भी रेल प्रशासन ध्रतराष्ट्र की भूमिका में ही है।
बहरहाल देश में तेज दिमाग वाले बच्चों की कमी नहीं है, आवश्यक्ता है तो उसे निखारने की। महाराष्ट्र की संस्कारधानी नागपुर के उपनगर बन चुके कामठी का एक पुराना किस्सा याद पड़ता है। मुगल बादशाह शेरशाह सूरी द्वारा निर्मित राष्ट्रीय महामार्ग नंबर 07 पर कामठी में रेल्वे अंडरब्रिज में एक तेजी गति से आया ओव्हरलोड ट्रक फंस गया। समस्या यह सामने आई कि वह ट्रक टस से मस नहीं हो पा रहा था। चूंकि यह उत्तर दक्षिण को जोड़ने वाली जीवनरेखा का मसला था, अतः चारों ओर कोहराम मच गया। अंत में सभी विशेषज्ञों ने एकमत से रेल्वे ट्रेक को तोड़कर ट्रक को निकालने पर रजामंदी जाहिर की।
इसी बीच वहां से एक चरवाहा गुजरा जिसने सारी स्थिति देखने के बाद मशविरा दिया कि बेहतर होगा कि ट्रक के पहियों की हवा निकाल दी जाए, जिससे ट्रक कुछ नीचे आ जाएगा फिर उसे आगे या पीछे सरका दिया जाए। हुआ वही, वह भी बिना किसी नुकसान के। इसके बाद से ही रेल्वे के अंडरब्रिज के दोनों सिरों पर गर्डर युक्त बेरियर बना दिए जाते हैं ताकि अगर कोई ओव्हरलोड वाहन फसे तो उस गर्डर में ही। कहने का तातपर्य महज इतना ही है कि खालिस भारतीय दिमाग की दाद तो दुनिया के चौधरी समझे जाने वाले पश्चिमी देश भी दिया करते हैं, किन्तु उचित मार्गदर्शन के अभाव में युवाओं का पथभ्रष्ट होना स्वाभाविक ही है।
युवा पीढ़ी में आज विज्ञान के प्रति घटता रूझान और प्रौद्योगिकी की ओर बढ़ता लगाव साफ तौर पर देखा जा सकता है। नब्बे के दशक के आरंभ में ही युवाओं में विज्ञान के मूलभूत विषयों के प्रति आकर्षण में तेजी से गिरावट दर्ज की गई है। स्नातक के स्तर पर विद्यार्थियों की पहली पसंद के तौर पर इंजीनियरिंग की डिग्री ही सामने आई है। कंप्यूटर के इस दौडते युग में युवाओं ने इंफरमेशन टेक्नालाजी (आईटी) को ही शीर्ष वरीयता पर रखा है। आज तेजी से करवट लेते दौड़ते भागते युग में सरकारी और निजी क्षेत्र में विज्ञान से संबंधित विषयों पर रोजगार के अवसर लगभग नगण्य ही कर दिए हैं।
याद पड़ता है अस्सी के दशक में ‘‘नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ साईंस कम्यूनिकेशन एंड इंफरमेशन रिसोर्सेस‘‘ की पत्रिका ‘विज्ञान प्रगति‘ स्कूली विद्यार्थियों में खासी लोकप्रिय हुई थी। उस वक्त सत्तर पैसे मूल्य की इस पत्रिका के माध्यम से छात्रों को विज्ञान विषय की नई जानकारियां मिलती जिससे उनकी रूचि इसमें बढ़ती जाती।
इसके उपरांत आईटी का भूत इस कदर सवार हुआ कि सरकारों द्वारा विज्ञान के मूलभूत विषयों को अंधेरी कोठरी में बलात ढकेल दिया। यही कारण है कि आज इंजीनियरिंग स्नातक अपने मूल अध्ययन किए हुए विषयों से हटकर अन्य क्षेत्रों में रोजगार के अवसर तलाश कर रहे हैं। सरकारी प्रशासनिक, पुलिस, वन सेवाओं के साथ ही साथ इन्होंने निजी क्षेत्रों में जाकर भी हाथ आजमाने आरंभ कर दिए हैं। आज भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) में इंजीनियरिंग स्नातकों की बाढ़ सी आ गई है। इस बारे में 1985 में तत्कालीन शिक्षा मंत्री कृष्ण चंद पंत द्वारा कही गई बात का उल्लेख प्रासंगिक होगा कि भारत में इंजीनियरिंग स्नातक पचास फीसदी से अधिक छात्र ऐसे कामों को अपने रोजगार का जरिया बनाए हुए हैं जिसका शोध और विकास से दूर दूर तक लेना देना नहीं है।
अस्सी के दशक के पूर्वाध तक देश के कमोबेश हर राज्य में विज्ञान को काफी हद तक प्रोत्साहित किया जाता रहा है। उस वक्त तक राष्ट्रीय स्तर से लेकर जिला स्तर तक विज्ञान प्रदर्शनियों की धूम हुआ करती थी। विज्ञान विषय पर वादविवाद के साथ ही साथ विभिन्न माडल्स के माध्यम से विद्यार्थी स्वयं ही विज्ञान के चमत्कारों से अपने सहपाठियों को रूबरू कराया करते थेे।
इसके उपरांत शिक्षा का स्तर और पाठ्यक्रम को तय करने के लिए जिम्मेदार मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने तरह तरह के प्रयोग आरंभ कर दिए। आश्चर्य की बात तो यह है कि आज के कोर्स में से आजादी के फसाने ही गायब कर दिए गए है। युवा इस बात को नहीं जानते कि कितने जतन के बाद आजादी मिल सकी है भारत को। हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि नेहरू गांधी के नाम को भुनाकर सत्ता की मलाई चट करने वाली सवा सौ साल पुरानी कांग्रेस ने कोर्स से नेहरू गांधी को छोड़कर बाकी सभी को समेटकर हाशिए पर लाकर खड़ा कर दिया है। शिक्षा को लेकर एक्सपेरीमेंट अब बंद होना चाहिए।
आज आवश्यक्ता इस बात की है कि विज्ञान के मूलभूत विषयों के बारे में युवाओं में आकर्षण पैदा किया जाए। यह काम निश्चित तौर पर सरकार का है किन्तु सरकार अगर इस मामले में कुछ नहीं कर सकती तो कम से कम उसे गैर सरकारी संगठनों को यह जवाबदारी सौंपना चाहिए और विज्ञान को लोकप्रिय बनाने के मार्ग प्रशस्त करने चाहिए। इसके लिए सबसे आवश्यक यह है कि विद्यार्थियों को पर्याप्त प्रोत्साहन के साथ ही साथ रोजगार के अवसर भी मुहैया हों।
वर्तमान में विज्ञान से संबंधित विषयों की नौकरियां अध्ययन, अनुसंधान या चंद सरकारी पदों तक सिमटकर रह चुकी हैं। अन्य रोजगारों की तुलना में कम सुविधाएं, वेतन आदि के चलते लोगों का इस दिशा से हटना स्वाभाविक ही है। देखना यह होगा कि अगर विज्ञान के मूलभूत विषयों की इस तरह ही उपेक्षा होती रही और विज्ञान का लोकव्यापीकरण नहीं हुआ तो निश्चित तौर पर हम पश्चिमी सभ्यता के पीछे भागते हुए नग्न सभ्यता की अंधी दौड़ में अपनी मौलिकता को खो ही देंगे।
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