कहां गए पीएम की मंहगाई कम करने वाले दावे
(लिमटी खरे)
भारत गणराज्य में पहली बार एसा हुआ होगा जब अर्थ शास्त्री वजीरे आजम डाॅ.मनमोहन सिंह देश में मंहगाई को कम करने में असफल साबित हुए हैं। बार बार मंहगाई पर नियंत्रण की तिथियां देने के बाद भी मंहगाई का जिन्न देश के निरीह नागरिकांे को निगल रहा है, किन्तु सरकार हाथ पर हाथ रखे बैठी है। पेट्रोल, डीजल, रसोई गैस के साथ ही साथ जिंसों के दाम एक के बाद एक करके आसमान को छू रहे हैं, भण्डारण के अभाव मंे अनाज सड़ रहा है, अदालतें गरीबों को अनाज सड़ने के स्थान पर मुफ्त बांटने की बात कहती है, किन्तु सरकार मौन साध लेती है। जनसेवकों के वेतन भत्तों में लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है, उनकी सुख सुविधाओं में इजाफे पर इजाफा हो रहा है, और जनता की जेब में होने वाला सुराख और बढ़ते ही जा रहा है।
सोने से मंहगा हीरा होता है, किन्तु भारत देश में सोने से मंहगा पेट्रोल है। जी हां, यह सच है पिछले 21 सालों में पेट्रोल के दामों में आठ गुना बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है। सोने में इस अवधि में महज साढ़े सात गुना वृद्धि दर्ज की गई है। 1990 में सोना 3200 रूपए तो पेट्रोल आठ रूपए लीटर था। अब पेट्रोल 63 रूपए तो सोना 22 हजार 260 रूपए तोला है। राज्यों में विधानसभा चुनावों के समाप्त होते ही कांग्रेसनीत संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार द्वारा मंहगाई की लगाम छोड़ दी गई है। यह लगाम अगले साल मार्च में एक बार फिर थाम ली जा सकती है क्योंकि मई में आम चुनाव जो होने हैं।
हाल ही में पेट्रोल की कीमतों में पांच रूपए की बढ़ोत्तरी के बाद अब रसोई गैस और डीजल की दरों में इजाफे के संकेत से आम आदमी की रूह कांपने लगी है। चुनावी माहों को छोड़कर बाकी समय देश के आम नागरिक पर कीमतों में इजाफे की तलवार सदा ही लटकती रही है। कांग्रेस नीत संप्रग सरकार द्वारा माननीयों (सांसदों और विधायकों) की सुख सुविधाओं की तमाम चीजों को उपलब्ध कराने में कोई कमी नही की है। देश की राजनैतिक राजधानी दिल्ली में जहां कांग्रेस की सरकार है, का ही उदहारण अगर लिया जाए तो यहां एक साल में पेट्रोल की कीमतों में 32 फीसदी, दूध की कीमतों में 28 फीसदी, बैंक की ईएमआई में 18 फीसदी, दवाओं में 17 फीसदी तो स्कलों की फीस में 10 से 40 फीसदी की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है।
भाजपा शासनकाल में कच्चे तेल के भाव आसमान छू रहे थे, किन्तु अटल सरकार ने इसका प्रभाव आम उपभोक्ता पर नहीं पड़ने दिया गया। अस्सी के दशक के उत्तरार्ध में खाड़ी युद्ध के कारण पेट्रोलियम पदार्थों पर तीन रूपए का खाड़ी अधिभार लगाया गया था, युद्ध समाप्त हुए आज ढाई दशक के लगभग बीत चुका है, पर खाड़ी अधिभार आज भी देश के लोग देने पर मजबूर ही हैं।
पेट्रोल की कीमतों मंे लगी आग पर अगर नजर दौड़ाई जाए तो 13 जून 2009 को इसके दाम 40 रूपए 62 पैसे, 2 जुलाई को 44 रूपए 63 पैसे, 27 अक्टूबर को 44 रूपए 72 पैसे, 04 मार्च 2010 को 47 रूपए 43 पैसे, 01 अप्रेल को 47 रूपए 93 पैसे, 26 जून को 51 रूपए 43 पैसे (सरकारी नियंत्रण से मुक्ति के पहले), 01 जुलाई को 51 रूपए 45 पैसे, 8 सितंबर को 51 रूपए 56 पैसे, 21 सितम्बर को 51 रूपए 83 पैसे, 17 अक्टूबर को 52 रूपए 55 पैसे, 02 नवंबर को 52 रूपए 59 पैसे, 09 नवंबर को 52 रूपए 91 पैसे, 16 दिसंबर को 55 रूपए 87 पैसे, 16 जनवरी 2011 को 58 रूपए 37 पैसे और 14 मई को 63 रूपए 37 पैसे थी।
केंद्र सरकार द्वारा जून 2010 में पेट्रोल के दाम नियंत्रणमुक्त कर दिए गए थे, तब से अब तक 09 बार पेट्रोल के दामांे में वृद्धि की गई है। पिछले दो सालों में 23 तो ग्यारह माहों में इसके दाम 18 रूपए से ज्यादा बढ़ा दिए गए हैं। पेट्रोल पर लगने वाले करों को देखकर आम आदमी के होश फाख्ता हो सकते हैं। प्रति लीटर पर 14 रूपए 35 पैसे एक्साईज ड्यूटी, साढ़े सात फीसदी की दर से 2 रूपए 65 पैसे कस्टम ड्यूटी, बीस फीसदी की दर से 7 रूपए 05 पैसे वैट, एजुकेशन सेस के रूप में एक रूपए एवं अन्य करों के रूप में 3 रूपए 08 पैसे का करारोपण कर कुल 28 रूपए 13 पैसे का कर लगाया जा रहा है।
पेट्रोल की दरों के बढ़ने से आम उपभोक्ता की कमर भले ही टूटी हो किन्तु सरकारों की इसे पौ बारह हो गई हैं। केंद्र और राज्य सरकारें प्रति लीटर में प्रतिशत के हिसाब से कर वसूला करती हैं। वैट चार्ज अगर देखा जाए तो आंध्र प्रदेश में यह 33 फीसदी तो पड्डिचेरी में 15 फीसदी है। अनेक राज्यों में 12 फीसदी वैट लगाया जा रहा है। इस लिहाज से पेट्रोल की कीमतें 5 रूपए बढ़ाने से सरकारों की झोली में करोड़ों रूपयों का राजस्व आ रहा है।।
देखा जाए तो लीबिया संकट के कारण अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की दरों में बढ़ोत्तरी के चलते इनके दामों में साढ़े दस रूपए की वृद्धि की जानी थी। अभी पांच रूपए ही कीमत बढ़ी है, आने वाले समय में साढ़े पांच रूपए की वृद्धि से इंकार नहीं किया जा सकता है। दरअसल सरकार द्वारा दी जाने वाली सब्सीडी के चलते सरकार को काफी नुकसान उठाना पड़ रहा है। सबसे अधिक गफलत मिट्टी के तेल यानी केरोसिन में होती है। डीजल से चलने वाले यंत्रों और वाहनों में केरोसीन का उपयोग धड़ल्ले से किया जाता है। केरोसीन में सब्सीडी है, और इस सब्सीड़ी का लाभ गरीबों के बजाए अमीर सबसे ज्यादा उठा रहे हैं। सरकार अब तक कोई एसी ठोस कार्ययोजना नहीं बना पाई है कि गरीबों की थाली में से निवाले निकालने वाले इन अमीरों के खिलाफ कोई कार्यवाही सुनिश्चित की जाए।
एक अन्य दृष्टिकोण से अगर देखा जाए तो राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में सूबों की जनता ने बहुत ही उम्मीद और उत्साह के साथ संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन का साथ दिया है, यह उनके साथ सीधा सीधा छल है। कल तक केंद्र सरकार के इस तरह के कदमों पर चीखने वाली ममता बनर्जी के लिए मौजूदा हालात एक बयान जारी करने लायक भी नहीं बचे हैं। किसानों के हितैषी होने का स्वांग भरने वाले कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी ग्रेटर नोएडा जाकर अनशन पर बैठ सकते हैं, पर क्या वे अब किसी पेट्रोल पंप पर अपनी ही सरकार के खिलाफ धरने पर बैठने का साहस जुटा पाएंगे? कितने आश्चर्य की बात है कि जो सरकर चुनाव पूर्व पेट्रोल के दाम में एक रूपए की बढ़ोत्तरी करने को राजी नहीं थी, वह अचानक ही पांच रूपए दाम बढ़ाने पर कैसे राजी हो गई?
अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें सिर्फ गरीबों के लिए ही बढ़ी दिख रही हैं। तेल कंपनियों ने न जाने किस दबाव में आकर अमीरों की पसंदीदा सवारी हवाई जहाज और हेलीकाप्टर के ईंधन के दाम घटा दिए हैं। विमान ईंधन एटीएफ का दाम दो दशमलव नौ फीसदी घटाया गया है। एटीएफ के दाम 1,766 रूपए किलोलीटर घटकर अब 58 हजार 794 रूपए प्रति किलोलीटर हो गए हैं।
विपक्ष और सत्ताधारी दल की जुगलबंदी और कदमताल देखकर लगता है कि विपक्ष सड़कों पर उतरकर औपचारिकता ही पूरी करेगा। विपक्ष से सरकार पर दबाव बनाने की उम्मीद करना बेमानी ही होगा। अब चुनाव आयोग ही इकलौती एसी संस्था बचती है जिससे संज्ञान लेने की उम्मीद की जा सकती है, क्योंकि चुनावों के पूर्व सरकारों द्वारा अपने महत्वपूर्ण फैसले टालकर देश की अर्थव्यवस्था से खिलवाड़ किया जा सकता है। हालात देखकर यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि इक्कीसवीं सदी की कांग्रेस के नेतृत्व में देश के रहवासियों को लुटते, पिटते, घिसते रहना नियति बनकर रह गया है।
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