मंगलवार, 5 जुलाई 2011

बिना ड्राईवर चल रही मंत्रालय की रेल


बिना ड्राईवर चल रही मंत्रालय की रेल

(लिमटी खरे)

भारत गणराज्य में इक्कीसवीं सदी का पहला दशक याद किया जाएगा तो पतन के लिए। इस दशक में नैतिक मूल्यों का जो अवमूल्यन हुआ है वह किसी भी दशक में नहीं हुआ होगा। एक के बाद एक घपले घोटाले, भ्रष्टाचार अनाचार की गूंज अनुगूंज सुनाई देती जा रही पर कांग्रेस नीत केंद्र सरकार कान में रूई लगाए चुपचाप नीरो के मानिंद बांसुरी बजा रही है। भारतीय रेल इनमें से एक है। रेल को लेकर होने वाले एक्सपेरीमेंट्स से यात्री हलाकान रहे। लालू यादव के बाद ममता बनर्जी बनीं इस विभाग की निजाम। वे भारत गणराज्य नहीं वरन् पश्चिम बंगाल की ही रेल मंत्री बनकर रह गईं। रेल की व्यवस्थाएं पटरी से उतरती गईं किन्तु हवाई सफर का आनंद लेने वाले प्रधानमंत्री, मंत्री और सांसदों ने इस बारे में आवाज उठाना मुनासिब नहीं समझा। कुल मिलाकर हताशा और निराशा आम रियाया के हाथ ही लगी। हालात देखकर लगने लगा है मानो बिजली, पानी, रोड़वेज आदि की तर्ज पर अब रेल को भी निजी हाथों मंे देकर जनता की जेब काटने की तैयारियों में व्यस्त है सरकार।
 
देश की राजनैतिक राजधानी दिल्ली में पिछले एक पखवाड़े में तीन गंभीर दुर्घटनाओं के बाद भी रेल मंत्रालय के लिए यह एक सामान्य घटना होना चिंताजनक स्थिति की ओर इशारा करने के लिए पर्याप्त कहा जा सकता है। 30 जून को तिलक ब्रिज के पास प्वाईंट नंबर 63 पर एक माल गाड़ी पटरी से उतर गई, जिससे यातायात दस घंटे तक बाधित रहा। इसके पहले इसी स्टेशन पर प्वाईंट नंबर 80 के खराब होने से बीस जून को लाईन गलत जुड़ गईं, जिसके चलते गुवहाटी राजधानी और काशी विश्वनाथ एक्सप्रेस एक ही समय एक ही ट्रेक पर आ गईं। रेल कर्मी मुस्तैद थे इसलिए कोई हादसा नहीं हो पाया।

हद तो तब हो गई जब नई दिल्ली रेल्वे स्टेशन पर बिना इंजन की खड़ी भुवनेश्वर राजधानी अपने आप ही चल पड़ी। इसे रोकने के लिए ट्रेक पर पत्थर डालने पड़े। यह गंभीर लापरवाही की श्रेणी में आएगा। रेल विभाग इसे सामान्य घटना मान रहा है। रेल की पातों पर पत्थर पटकने से उसमें टूटफूट की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता है। चूंकि भुवनेश्वर राजधानी व्हीआईपी रेल की श्रेणी में है अतः यह चूक उजाकर हो पाई अन्यथा मामला दब गया होता।

रेल हादसों की प्रमुख वजह रेल विभाग के पास मौजूदा संसाधनों से कई गुना अधिक मात्रा में रेल गाडियों का परिचालन है। जनसेवकों के दबाव में रेल महकमा नई रेल गाडियों की घोषणा, मौजूदा रेल के फेरों में बढ़ोत्तरी तो कर देता है किन्तु संसाधनों के मामले में खामोशी ही अख्तियार कर लेता है। मसलन मथुरा के बाद दिल्ली तक रेल पटरी पर सरकती ही नजर आती है। इसका प्रमुख कारण यातायात का अत्याधिक दबाव ही है।

दक्षिण और पूर्व भारत से आनेवाली रेल गडियांे के लिए भुसावल और नागपुर गेट वे का काम करते हैं। इसके बाद इटारसी में आकर फिर एक बार ये सभी मिल जाती हैं। इटारसी से दिल्ली की ओर बढ़ने पर झांसी में एक और रेल लाईन आकर मिलती है। रही सही कसर मथुरा में पूरी हो जाती है, जहां गुजरात, राजस्थान, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडू, केरल, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, छत्तीसढ़, उड़ीसा आदि राज्यों से आने वाली रेल गाडियों का समागम होता है। इनमें माल गड़ियों को इंतजार ही करना पड़ता है। जाहिर है भुसावल, नागपुर के बाद झांसी में यातायात का दबाव बढ़ जाता है, इसके बाद झांसी और फिर मथुरा के बाद पटरी पर अत्याधिक दबाव होता है।

आज आवश्यक्ता इस बात की है कि रेल गाडियों की संख्या बढ़ाने के बाजाए पटरियों को दो के स्थान पर चार करने की दिशा में प्रयास किए जाएं। रेल्वे विभाग अपनी आधारभूत संरचाना में बदलाव के बिना ही पटरी पर यातायात का दबाव बढ़ाते जा रहा है। यह सच है कि भारत का रेल तंत्र विश्व में सबसे बडे रेल तंत्रों में स्थान पाता है। हिन्दुस्तान में अंग्रेजों द्वारा अपनी सहूलियत के लिए बिछाई गई रेल की पांतों को अब भी हम उपयोग में ला रहे हैं। तकनीक के नाम पर हमारे पास बाबा आदम के जमाने के ही संसाधन हैं जिनके भरोसे भारतीय रेल द्वारा यात्रियों की सुरक्षा के इंतजामात चाक चौबंद रखे जाते हैं।

सदी के महात्वपूर्ण दशक 2020 के आगमन के साथ ही ‘‘विजन 2020‘‘ रेल मंत्रालय के रेल सुरक्षा एवं संरक्षा के दावों की हवा अपने आप निकल गई है। दिल्ली में ही एक पखवाड़े में हुई इन तीन रेल दुर्घटनाओं ने साफ कर दिया है कि आजादी के साठ सालों बाद भी हिन्दुस्तान का यह परिवहन सिस्टम कराह ही रहा है।

जब भी कोई रेल मंत्री नया बनता है वह बजट में अपने संसदीय क्षेत्र और प्रदेश के लिए रेलगाडियों की बौछार कर देता है। अधिकारी उस टेªक पर यातायात का दबाव देखे बिना ही इसका प्रस्ताव करने देते हैं। देखा जाए तो बिहार, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल के रेलमंत्रियों ने अपने अपने सूबों के लिए रेलगाडियों की तादाद में गजब इजाफा किया है। देश के अनेक हिस्से रेल गाडियों के लिए आज भी तरस ही रहे हैं। भारतीय रेल आज भी बाबा आदम के जमाने के सुरक्षा संसाधनों की पटरी पर दौडने पर मजबूर है।

रेल विभाग की कमान पहले हंसौड़ की भूमिका में दिखने वाले लालू प्रसाद यादव के हाथों में रही। उन्होंने रेल्वे की आय बढ़वाने के लिए एक डिब्बे में 82 की बजाए 81 और 84 स्लीपर लगवा दिए। जब यात्रियों को परेशानी हुई तब इन्हें अलग किया गया। यह प्रयोग लगभग अस्सी फीसदी रेल गाड़ियों में किया गया था, जिसे वापस लेना पड़ा। जाहिर था कि यह बिना सोचे समझे ही लिया गया फैसला था।

ममता बनर्जी रेल मंत्री बनीं तो रेल मुख्यालय दिल्ली के रेल भवन में ही रहा किन्तु अघोषित तौर पर यह खसककर पश्चिम बंगाल चला गया। उनकी अनदेखी से रेल्वे पटरी से उतर गया। अब इसे पटरी पर लाने के लिए खासी कवायद की दरकार प्रतीत हो रही है। पिछले लगभग सवा दो सालों से भारतीय रेल निजाम होते हुए भी बिना निजाम का ही वैसे ही चल रहा है जैसे कि बिना इंजन की रेल गाड़ी।

गठबंधन को साधकर सत्ता की मलाई चखने की गरज से कांग्रेस भी ममता बनर्जी के नखरे सहती आई है। अब ममता की इच्छा पर ही देश को नया पूर्ण कालिक रेल मंत्री मिल पाएगा। कितने दुर्भाग्य की बात है कि करोड़ों लोगों को लेकर चलने वाली भारतीय रेल आज मुखिया विहीन है, और मुखिया ममता बनर्जी तय करेंगीं? कांग्रेस चुपचाप देश की व्यवस्था चौपट होते देख रही है। यक्ष प्रश्न तो आज यही बना हुआ है कि सवा सौ साल पुरानी और इस देश पर आधी सदी से ज्यादा राज करने वाली कांग्रेस ने भारत को जिस रास्ते पर ढकेल दिया है, क्या वही है नेहरू और गांधी के सपनों का भारत?

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