मंगलवार, 6 सितंबर 2011

घातक है दवा कंपनियों और चिकित्सकों का गठजोड़


घातक है दवा कंपनियों और चिकित्सकों का गठजोड़

(लिमटी खरे)

भारत गणराज्य में स्वास्थ्य सुविधाओं में तेजी से इजाफा दर्ज किया गया है। विडम्बना यह है कि स्वास्थ्य सुविधाओं परमहामहिम राष्ट्रपति तो चिंतित नजर आ रही हैं पर सरकारें पूरी तरह से मौन ही हैं। अपने कार्यकाल में इस संदर्भ में तीसरी बार अपील की है महामहिम राष्ट्रपति ने। आजाद भारत में चिकित्सकों पर जोर नहीं रह गया है सरकार का। कितने आश्चर्य की बात है कि आजादी के छः दशकों बाद भी नीम हकीमों के भरोसे बैठा है आम हिन्दुस्तानी। यक्ष प्रश्न आज भी यही खड़ा हुआ है कि आखिर कैसे लगे धनवंतरी के वंशजों पर अंकुश। चिकित्सा की पढ़ाई के वक्त लिए गए अपने अपने कौल को भूल चुके हैं चिकित्सक। यह सब कुछ धन पिपासा के चलते ही हुआ है। महामहिम राष्ट्रपति ने दवा कंपनियों ने अपील की है कि वे गरीबों तक स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया करवाने में महती भूमिका निभाएं। एक दवा जो जैनरिक नाम से महज पांच रूपए की बिकती है वही दवा एक मशहूर कंपनी के रेपर में अस्सी रूपए की बिक रही है। इस लिहाज से दवा कंपनियों पर नकेल कसना जरूरी हो गया है।

हैदराबाद में इंटरनेशनल कन्वेन्शन सैंटर में शिक्षक दिवस के अवसर पर महामहिम राष्ट्रपति ने 71वें एफआईपी वर्ल्ड कांग्रेस ऑफ फार्मेसी एण्ड फार्मास्युटिकल साईंस का उद्यघाटन करते हुए कहा कि आज चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में हुई प्रगति सराहनीय है। उन्होंन दवा उद्योग का आव्हान किया है कि वह देश के गरीबों तक स्वास्थ्य सेवा का लाभ पहुंचाने आगे आए। उन्होंने कहा कि आईपीआई क मौजूदा बारह अरब डालर के कारोबार को देखकर कहा जा सकता है कि 2015 तक यह बीस अरब डालर तक पहुंच सकता है।

एक तरफ यह है देश के पहले नागरिक का आव्हान वहीं दूसरी ओर कांग्रेसनीत केंद्र सरकार महामहिम राष्ट्रपति के सपनों पर पानी फेरती ही नजर आ रही है। योजना आयोग, वित्त मंत्रालय और वाणिज्य मंत्रालय प्रत्यक्ष विदेश निवेश अर्थात एफडीआई का हिमायती बन स्वास्थ्य सुविधाओं पर कुठाराघात करने से नहीं चूक रहा है। स्वास्थ्य मंत्रालय इसे उचित नहीं मानता है। स्वास्थ्य मंत्रालय ने बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा देसी दवा कंपनियों के अधिग्रहण से आम जनता के लिए मौजूद सस्ती जैनरिक दवाओं की उपलब्धता पर खतरा मंडराना आरंभ हो गया है।

1600 में भारत आई ईस्ट इंडिया कंपनी ने बाद में देश पर शासन किया। यह कंपनी व्यापार के उद्देश्य से भारत आई थी। आज प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के जरिए शासकों की छिपी महात्वाकांक्षाएं और निहित स्वार्थ अवश्य ही पूरे हों किन्तु इससे हमारे घरेलू उद्योगों पर प्रतिकूल असर पड़े बिना नहीं रहेगा। गौरतलब है कि 2006 से 2010 के बीच बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने दवाओं के क्षेत्र में निवेश के नाम पर महज देशी कंपनियों का ही अधिग्रहण किया है। चिंता का विषय यह है कि किसी भी विदेशी कंपनी ने पिछले एक दशक में नई दवा फैक्टरी लगाने के नाम पर एक रूपए का भी निवेश नहीं किया है। पता नहीं यह बात सरकार को समझ में क्यों नहीं आ रही है।

आंकड़ों पर अगर नजर डाली जाए तो अगस्त 2006 में मैट्रिक्स लैब को दुनिया के चौधरी अमेरिका की कंपनी मेलान ने 736 मिलियन डालर में खरीद लिया था। अप्रेल 2008 में सिंगापुर की कंपनी फ्रेसेनियल काबी ने डाबर फार्मा के स्वामित्व को 219 मिलियन डालर में खरीदा था। इसी साल जून में जपान मूल की दाइची सांक्यू नामक कंपनी ने सुप्रसिद्ध रैनबेक्सी लैब को चार हजार छः सौ मिलियन डालर से ज्यादा में खरीदा था।

खरीदने बेचने का यह सिलसिला अनवरत जारी रहा। वाणिज्य, वित्त मंत्रालय के साथ ही साथ योजना आयोग भी इसके दुष्प्रभावों से अनजान या जानकार अनजान बने रहते हुए मौन साधे रहा। जुलाई 2008 में ही फ्रांस की एक कंपनी सानोफी अवेन्टीस ने सांता बायोटेक को 783 मिलियन डालर में खरीद लिया। दिसंबर 2009 में अमेरिका की एक कंपनी होसपीरा ने ऑर्चिड केमीकल्स को चार सौ मिलियन डालर में अपना बना लिया। इसी तरह मई 2010 में अमेरिका की ही अबोट ने पीरामल हेल्थ केयर को तीन हजार सात सौ बीस मिलियन डालर में खरीद लिया।

एक तरफ बहुराष्ट्रीय कंपनियां भारत सरकार की आंखों में धूल झोंकती रही वहीं दूसरी ओर जनसेवकों की मिली भगत से देश में ही काले अंग्रेज (भारतियों के दुश्मन बने खुद भारतीय) भी लोगों का खून चूसने का काम करने लगे। सरकार से मंहगी जमीने रियायती मूल्यों पर लेकर पांच सितारा अस्पताल बनाने वाले इन अस्पताल संचालकों ने जमीन लेते वक्त भरे बांड को भूलकर सिर्फ अमीरों का ही इलाज आरंभ किया। आदि काल में राजवैद्यका काम सिर्फ राजा का इलाज करना होता था। उसी तर्ज पर इन अस्पतालों ने अमीरों के इलाज में ही दिलचस्पी दिखाई जबकि नियमानुसार इन्हें अपने पच्चीस फीसदी बिस्तर गरीब गुरबों के लिए आरक्षित रखने थे।

हाल ही में दिल्ली में सर्वोच्च न्यायालय ने इस तरह के अस्पतालों को आड़े हाथों लिया है। जस्टिस आर.वी.रविंद्रन औश्र जस्टिस ए.के.पटनायक की युगल बैंच ने कहा है कि इस तरह के अस्पताल अपनी क्षमता का पच्चीस फीसदी ओपीडी में तो दस फीसदी बिस्तारों में गरीबों के इलाज के लिए सुरक्षित रखें। जब इनकी पैरवी करने वाले अधिवक्ता ने इसे अव्यवहारिक बताया तो कोर्ट ने दो टूक शब्दों में कह दिया कि अस्पतालों ने जमीन सरकार से क्यों ली? अगर अस्पताल एसा नहीं कर सकते तो वे जमीन सरकार को वापस कर दें और फिर बाजार से जमीन खरीदकर अस्पताल बनवाएं। रियायती जमीन लेते वक्त अनुबंध पर किए हस्ताक्षर से अस्पताल प्रबंधन अनुबंध की शर्तों से नहीं बच सकते।

बहरहाल, देश की पहली महिला महामहिम राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल की बारंबार की जाने वाली यह चिंता बेमानी नहीं है कि देश में चिकित्सकों की भारी कमी है। मार्च 2009 में पश्चिमी दिल्ली में भारतीय चिकित्सा परिषद की प्लैटिनम जयंती पर आयोजित कार्यक्रम में उनकी यह पीड़ा सामने उभरकर सामने आई। इससे पहले अक्टूबर 2008 में भी महामहिम ने असम के तेजपुर में आर्युविज्ञान संस्थान की आधारशिला रखते हुए इसी मसले पर अपनी चिंता जाहिर की थी।

अपने अपने मतदाताओं को लुभाने के लिए सत्ता में बैठे जनप्रतिनिधि सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र (सीएचसी), प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (पीएचसी), उप स्वास्थ्य केंद्र या सिटी डिस्पेंसरी तो स्वीकृत करा लेते हैं किन्तु इन अस्पतालों में कितना अमला वास्तव में कार्यरत है, इस बारे में देखने सुनने की फरसत किसी को भी नहीं है। सत्ता के मद में चूर ये जनप्रतिनिधि चुनावो की घोषणा के साथ ही एक बार फिर सक्रिय हो मतदाताओं को लुभावने वादों से पाट देते हैं।

नेशनल रूलर हेल्थ मिशन के प्रतिवेदन पर अगर नज़र डाली जाए तो देश की साठ फीसदी से अधिक पीएचसी में सर्जन नहीं हैं, इतना ही नहीं पचास फीसदी जगह महिला चिकित्सक गायब हैं, तो 55 फीसदी जगह बाल रोग विशेषज्ञ। क्या ये भयावह आंकड़े सरकार की तंत्रा तोड़ने के लिए नाकाफी नहीं हैं।

दिया तले अंधेरा की कहावत देश की सबसे बड़ी पंचायत में साफ हो जाती है। यूं तो सभी दल आरक्षण का झुनझुना बजाकर वोट बैंक तगड़ा करने की फिराक में रहते हैं किन्तु सांसदों के इलाज के लिए तैनात चिकित्सा कर्मियों में महज 22 फीसदी चिकित्सक ही कोटे के हैं। हाल ही में सूचना के अधिकार में निकाली गई जानकारी से यह कड़वा सच सामने आया है। सांसदों के लिए तैनात 49 चिकित्सकों मेंसे नौ अनुसूचित जाति, एक एक अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के हैं।

कांग्रेसनीत संप्रग सरकार के लिए क्या यह विचारणीय प्रश्न नहीं है कि महज पांच माहों में देश की महामहिम चिकित्सकों को गांव की ओर रूख करने और स्वास्थ्य सुविधाओं में सुधार की बात कह रहीं हैं। कांग्रेस की इस अनदेखी को उसकी निर्लज्जता से अधिक और कुछ नहीं कहा जा सकता है। देश के महामहिम की अपील को ही संप्रग सरकार ने एक कान से सुनकर दूसरे कान से बाहर निकाल दिया हो, तो फिर देश के आखिरी छोर के आदमी का तो भगवान ही मालिक है।

बहरहाल प्रश्न यह उठता है कि आखिर चिकित्सा जैसे पवित्र पेशे के माध्यम से जनसेवा को उतारू युवा गांव की ओर रूख क्यों नहीं करना चाहते? संभवतः विलासिता के आदी हो चुके युवाआंे को गांव की धूल मिट्टी और अभाव का जीवन रास नहीं आता होगा इसी के चलते वे गांव नहीं जाना चाहते। इसके साथ ही साथ शहरों में सरकारी चिकित्सकों के आवासों पर लगने वाली मरीजों की भीड़ भी उन्हें आकर्षित करती होगी। हर जिला मुख्यालय का नामी सरकारी डॉक्टर किसी न किसी अध्यनरत चिकित्सक का पायोनियरभी होता होगा।

वैसे इस मामले में सरकार को दोष देना इसलिए उचित होगा क्योंकि सरकार द्वारा चिकित्सकों को गांव भेजने के लिए उपजाउ माहौल भी तैयार नहीं किया गया है। अस्सी के दशक में सुनील दत्त अभिनीत ‘‘दर्द का रिश्ता‘‘ चलचित्र का जिकर यहां लाजिमी होगा। उस चलचित्र में विदेश में अपनी सेवाएं दे रहे चिकित्सक का किरदार निभा रहे सुनील दत्त ने अपनी ही बेटी के इलाज के दौरान हुई तकलीफों से प्रेरणा लेकर हिन्दुस्तान में गांवों में जाकर सेवा करने का संकल्प लिया था।

वह निश्चित रूप से चलचित्र था, पर उससे प्रेरणा लेकर न जाने कितने नौजवानों ने गांवों की ओर रूख किया था। कहने का तात्पर्य महज इतना है कि सरकार को चाहिए कि फूहड़ और समाज को बरबादी के रास्ते पर ले जाने वाले चलचित्रों के स्थान र प्रेरणास्पद चलचित्रों के निर्माण को प्रोत्साहन देने की आज महती जरूरत है। कहने को तो देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से लेकर आज तक न जाने कितने नेताओं ने कहा है कि भारत का दिल गांव में बसता है। पर गांव की सुध लेने वाला आखिर है कौन? इस सबके आभाव में अप्रशिक्षित चिकित्सा कर्मी आज भारत के दिल के स्वास्थ्य के साथ सरेआम खिलवाड़ करने से बाज नहीं आ रहे हैं।

पीडित मानवता की सेवा का संकल्प लेने वाले हिन्दुस्तान के चिकित्सकों की मानवता कभी की मर चुकी है। आज के युग में चिकित्सा का पेशा नोट कमाने का साधन बन चुका है। आज के समय को देखकर कहा जा सकता है कि मरीज की कालर एक डाक्टर द्वारा बिस्तर पर ही पकडी जाती है। दवा कंपनियों की मिलीभगत के चलते मरीजों की जेब पर सीधे सीधे डाका डाला जा रहा है। चिकित्सकों और दवा कंपनियों ने मिलकर तंदरूस्ती हजार नियामत की पुरानी कहावत पर पानी फेरते हुए अपना नया फंडा इजाद किया है कि स्वास्थ्य के नाम पर जितना लूट सको लूट लो। इसी तारतम्य में स्वयंभू योग गुरू बाबा रामदेव ने बिना मेडीकल रिपर्जेंटेटिव ही स्वास्थ्य की उपजाउ भूमि पर न केवल अपना साम्राज्य स्थापित किया है, वरन् अब तो वे देश पर राज करने का सपना भी देखने लगे हैं। संस्कृत की एक पुरानी कहावत है, ‘‘न दिवा स्वप्नं कुर्यात‘‘ अर्थात दिन में सपने नहीं देखना चाहिए, किन्तु बाबा रामदेव को लगता है कि योग के बल पर उन्होंने जो आकूत दौलत और शोहरत एकत्र की है, उसे वे भुना सकते हैं।

इस परिदृश्य में एक प्रश्न दिमाग में कौंधता है, वह है कि हमें सरकार से ही यह प्रश्न करना चाहिए कि हम उम्मीद तो करते हैं कि चिकित्सक को सेवा भावी होना चाहिए, किन्तु यह तो बताया जाए कि चिकित्सकों को प्रशिक्षण सेवा के लिए दिया जा रहा है या व्यवसाय के लिए? आज आर्युविज्ञान, आर्युवेदिक, यूनानी या होम्योपैथिक हर चिकित्सा को पैसा कमाने का साधन बना लिया गया है। इसके लिए जिम्मेदार कौन है? जाहिर है सरकारें। जब हम देखते हैं कि चिकित्सकों के दरवाजे पर दवा कंपनियों के प्रतिनिधियों की लाईन लगी हुई है। कभी पता लगता है कि चिकित्सक के घर का आटा दाल राशन यहां तक कि अंडर गार्मेंटस मकान दुकान सभी का यानी पिन टू प्लेन का खर्च दवा कंपनियां उठा रही हैं तो हर किसी का चिकित्सा जैसे दुधारू पेशे की ओर आकर्षित होना स्वाभाविक ही है।

सरकारी चिकित्सकों में गजब का स्टेमना होता है। वे आठ से एक बजे तक और शाम चार से छः बजे तक सात आठ घंटे की कठोर ड्यूटी करने के बाद भी अपने निजी क्लीनिक में जाकर सैकड़ों मरीजों को देखने का माद्दा रखते हैं। चिकित्सकों की इस एनर्जी पर शोध अवश्य ही होना चाहिए। अमूमन आठ घंटे का थका मांदा सरकारी कर्मचारी जब घर लौटता है तब उसे अपने परिवार के अलावा कुछ दिखाई नहीं देता है, पर इन चिकित्सकों को अपनी मरीजों से एक अलग किस्म का लगावहोता है, जिसके चलते ये अस्पताल के बाद भी चिकित्सा की निजी दुकानों पर जाकर मरीजों को देखने की जहमत उठाते हैं। हां अस्पताल से अगर समय बेसमय काल आ जाए जो एसा लगता है मानों इनके मुंह में किसी ने कुनैन की गोली फोड़ दी हो।

बहरहाल मेडीकल काउंसलि ऑफ इंडिया द्वारा अक्टूबर 2008 में एक कोड लाने की तैयारी की जा रही थी, जिसके तहत दवा कंपनियों से तोहफा लेने वाले चिकित्सकों का लाईसेंस रद्द किए जाने का प्रावधान किया गया था। एमसीआई द्वारा स्वास्थ्य के देवता भगवान धनवंतरी के वर्तमान वंशजों अर्थात चिकित्सकों पर लगाम कसने की कवायद की जा रही थी। एमसीआई कोड के अनुसार चिकित्सक और उसके परिजन अब दवा कंपनियों के खर्चे पर सेमीनार, वर्कशाप, कांफ्रेंस आदि में नहीं जा सकेंगे। कल तक अगर चिकित्सक एसा करते थे, तब भी वे उजागर तौर पर तो किसी को यह बात नहीं ही बताते थे। इसके अलावा दवा कंपनियों के द्वारा चिकित्सकों को छुट्टियां बिताने देश विदेश की सैर कराना प्रतिबंधित हो जाएगा। चिकित्सक किसी भी फार्मा कंपनी के सलाहकार नहीं बन पाएंगे तथा मान्य संस्थाओं की मंजूरी के उपरांत ही शोध अथवा अध्ययन के लिए अनुदान या पैसे ले सकेंगे। आज तीन साल बीतने के बाद भी वह कोड़ लापता है। जाहिर है दवा कंपनियों की भारी भरकम थैलियों ने सरकार का मुंह बंद कर दिया होगा।

वै एमसीआई कोड भले ही ले आए पर चिकित्सकों के मुंह में दवा कंपनियों ने जो खून लगाया है, उसके चलते चिकित्सक इस सबके लिए रास्ते अवश्य ही खोज लेंगे। देखा जाए तो दुनिया का चौधरी अमेरिका इस मामले में बहुत ही ज्यादा सख्त है। अमेरिका में अनेक एसे उदहारण हैं, जिनको देखकर वहां के चिकित्सक और दवा कंपनी वालों की हिम्मत मरीजों की जेब तक हाथ पहुंचाने की नहीं हो पाती है। अमेरिका की एली लिली कंपनी ने तीन हजार चार सौ चिकित्सकों और पेशेवरों के लिए 2.20 करोड डालर (एक अरब रूपए से अधिक) दिए, बाद में गडबडियों के लिए उस कंपनी को 1.40 अरब डालर (64.40 अरब रूपए से अधिक) की पेनाल्टी भरनी पडी।

इसी तरह फायजर कंपनी ने चिकित्सकों और पेशेवरों के माध्यम से गफलत करने पर 2.30 अरब डॉलर (एक सौ पांच अरब रूपए से अधिक) का दण्ड भुगता। ग्लेक्सोस्मिथक्लाइन ने 30909 डालर (14 लाख रूपए से अधिक) के औसत से 3700 डॉक्टर्स को 1.46 करोड डालर (6.71 अरब रूपए से अधिक) दिए तो मर्क ने 1078 पेशेवरों को 37 लाख डालर (सत्रह करोड रूपए से अधिक) का भुगतान किया।

अमेरिका में फिजिशियन पेमेंट सानशाइन एक्ट लाया जा रहा है, जिसके तहत दवा कंपनियों को हर साल 100 डालर से अधिक के भुगतान की जानकारी देनी होगी। जानकारी देने में नाकाम या आनाकानी करने वाली कंपनी को हर भुगतान पर कम से कम 1000 डालर और जानबूझकर जानकारी छिपाने के आरोप में कम से कम दस हजार डालर का भोगमान भुगतना पडेगा।

दरअसल पेंच चिकित्सकों द्वारा लिखी जाने वाली दवाओं में है। निहित स्वार्थ और लाभ के लिए चिकित्सकों द्वारा कंपनी विशेष की दवाओं को प्रोत्साहन दिया जाता है। दवा कंपनी द्वारा अनेक लीडिंग प्रेक्टीशनर्स को पिन टू प्लेन सारी सुविधाएं उपलब्ध कराई जाती हैं। चिकित्सकों के बच्चों की पढाई लिखाई से लेकर घर तक खरीदकर देती हैं, दवा कंपनियां। इसी बात से अंदाज लगाया जा सकता है कि दवा कंपनियों द्वारा चिकित्सकों के साथ मिलकर किस कदर मोनोपली मचाई जाती है, और मरीजों की जेब किस तरह हल्की की जाती है।

चिकित्सकों द्वारा सस्ती दवाएं नहीं लिखी जातीं हैं, क्योंकि जितनी मंहगी दवा उतना अधिक कमीशन उसे मिलता है। वहीं दूसरी ओर देखा जाए तो चिकित्सकों पर होने वाले खर्चे के कारण ही दवाओं की कीमतें आसमान छू रहीं हैं। बीते साल में ही दवाओं की कीमतों में 20 से 30 फीसदी तक इजाफा हुआ है। हृदय रोग के काम आने वाली दवाएं तो 70 फीसदी तक उछाल मार चुकीं हैं। कहा जाता है कि लगभग पचास फीसदी दवाएं तो अनुपयुक्त ही हैं। मर्क कंपनी की अथर्राइटिस की दवा वायोक्स के साईड इफेक्ट के मामले में कंपनी ने मौन साध लिया था। इसके सेवन से हार्ट अटैक की संभावनाएं बहुत ज्यादा हो जाती थीं। अनेक मौतों के बाद इस दवा को वापस लिया गया था।

महानगरों सहित लगभग समूचे हिन्दुस्तान के बडे शहरों में चिकित्सा की दुकानें फल फूल रही है, आम जनता कराह रही है, सरकारी अस्पताल उजडे पडे हैं, पर सरकारें सो रहीं हैं। नर्सिंग होम में चिकित्सकों के परमानेंट पेथालाजी लेब, एक्सरे आदि में ही टेस्ट करवाने पर चिकित्सक उसे मान्य करते हैं, अन्यथा सब बेकार ही होता है। कितने आश्चर्य की बात है कि सरकारी अस्पतालों में होने वाले टेस्ट को इन्हीं चिकित्सकों द्वारा सिरे से खारिज कर दिया जाता है। अगर वाकई सरकारी अस्पताल के टेस्ट मानक आधार पर सही नहीं होते हैं तो बेहतर होगा कि सरकारी अस्पतालों से इन विभागों को बंद ही कर देना चाहिए। यहां तक कि लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज के संसदीय क्षेत्र और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की कर्मभूमि विदिशा में जिला चिकित्सालय में पदस्थ सिविल सर्जन श्रीमति जैन के पास इतना समय है कि वे अस्पताल के ठीक गेट के सामने अपनी निजी चिकित्सा की दुकान चलाती हैं, और जनसेवक चुपचाप देख सुन रहे हैं।

चिकित्सकों पर अंकुश लगाने के लिए एमसीआई द्वारा नियमावली बनाई जा रही है, कहा जा रहा है कि मार्च माह में उसे लागू भी कर दिया जाएगा। इसके लिए विशेषज्ञों से सुझाव भी आमंत्रित करवाए जा रहे हैं। इस पाबंदी से डायरी, पेन, पेपवेट, कलेंडर जैसी चीजों को मुक्त रखा गया है। वैसे दवा कंपनियों से डी कंट्रोल श्रेणी की दवाओं के मूल्य निर्धारण का अधिकार छीनकर कुछ हद तक भ्रष्टाचार को रोका जा सकता है।

जब तक सरकार द्वारा चिकित्सकों के साथ ही साथ दवा कंपनियों पर अंकुश नहीं लगाया जाता तब तक मरीजों की जेब में डाका डालने का सिलिसिला शायद ही थम पाए। सरकार को अमेरिका जैसा कानून ‘‘सख्ती‘‘ से लागू कराना होगा। दवा कंपनियों से यह कहना होगा कि वे किसी चिकित्सक विशेष के बजाए मेडीकल एसोसिएशन या चिकित्सकों की टीम के लिए स्पांसरशिप कर नई दवाओं की जानकारी दे। इसके अलावा एमसीआई को चिकित्सकों और जांच केंद्रों के बीच की सांठगांठ के खिलाफ कठोर पहल करनी होगी। मार्च माह में लागू किए जाने वाले कोड और आचार संहिता का पालन सुनिश्चित करने के लिए कठोर कदम ही उठाने आवश्यक होंगे। वहीं दूसरी ओर देश में गिरती स्वास्थ्य सुविधाआंे के बारे में महामहिम प्रतिभा देवी सिंह पाटिल की बार बार की जा रही चिंता स्वागतयोग्य है। हो सकता है महामहिम की इस चिंता से कंेद्र और राज्य सरकारें चेतें, और युवा चिकित्सकों के मानस पटल पर गांव के प्रति प्रेम जागृत कर सकें, अन्यथा गांव और छोटे शहरों में जीने वालों के स्वास्थ्य के साथ झोला छाप चिकित्सकों का खिलवाड़ बदस्तूर जारी रहेगा।

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