अमानवीयता की हदें पार करती कांग्रेस
(लिमटी खरे)
भारत गणराज्य को गोरे ब्रितानियों की गुलामी से आजाद हुए छः दशक बीत चुके हैं। इन छः दशकों में भारत गणराज्य ने उत्तरोत्तर प्रगति की है, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है। एक मामले में आज भी देश पर आधी सदी से ज्यादा राज करने वाली कांग्रेस का सर शर्म से झुक जाना चाहिए पर एसा हो नहीं रहा है। यह मामला है मनुष्य की ही विष्ठा को दूसरे मनुष्य द्वारा सर पर उठाकर ले जाने का मसला। यह मामला समझ से परे है कि मैला उठाने की परंपरा आखिर कब समाप्त होगी। मध्य प्रदेश में आज भी जारी है सामंती प्रथा। हालात देखकर यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि देश का हृदय प्रदेश आज भी दासता में ही सांसे ले रहा है। वैसे दलित अत्याचार के मामले में उत्तर प्रदेश का कोई सानी नहीं है। पिछले दिनों इलेट्रानिक मीडिया में अत्याचार, चोरी, डकैती अराजकता की खबरें छाई रहती थीं किन्तु जब से समाचार चेनल्स पर यूपी के विज्जुअल एड्स दिखने लगे हैं तबसे समाचार चेनल्स पर उत्तर प्रदेश की सकारात्मक खबरें ही दिखने लगी हैं। कांग्रेस शासित राजस्थान के टोंक जिले में महज एक रोटी और दस रूपए माहवार के एवज में परिवार के सदस्य सर पर मैला ढोने को मजबूर हैं। यह आलम है नेहरू गांधी के नाम पर सत्ता की मलाई चखने वाली कांग्रेस के राज की भयावह तस्वीर।
भारत देश को आजाद हुए छः दशक से ज्यादा बीत चुके हैं, भारत में गणतंत्र की स्थापना भी साठ पूरे कर चुकी है, बावजूद इसके आज भी देश के हृदय प्रदेश में मध्ययुगीन सामंती प्रथा की जंजरों की खनक सुनाई पड रही है। कहने को केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा देश भर में सर पर मैला ढोने की प्रथा समाप्त करने के लिए ढेर सारे जतन किए हों, पर कागजी बातों और वास्तविकता में जमीन आसमान का अंतर दिखाई पड रहा है। पिछले साल मानवाधिकार आयोग के सर्वेक्षण में मध्य प्रदेश में सर पर मैला ढोने वाले लोगों की तादाद लगभग सात हजार दर्शाया जाना ही अपने आप में सबसे बडा प्रमाण माना जा सकता है। उधर देश को सबसे अधिक प्रधानमंत्री देने वाले उत्तर प्रदेश सूबे में दलितों की हालत बद से बदतर ही है।
मध्य प्रदेश के अलावा देश के और भी सूबे एसे होंगे जहां सर पर मानव मल ढोने वालों की खासी तादाद होगी। मध्य प्रदेश में ही होशंगाबाद, सीहोर, हरदा, शाजापुर, नीमच, मंदसौर, भिण्ड, टीकमगढ, राजगढ, उज्जैन, पन्ना, छतरपुर, नौगांव, निवाडी आदि शहरों और एक दर्जन से भी अधिक जिलों में इस तरह की अमानवीय प्रथा को प्रश्रय दिया जा रहा है। देश पर आधी सदी से ज्यादा राज करने वाली कांग्रेस भले ही दलितों के उत्थान के लिए गगनभेदी नारे लगती रही हो पर सच्चाई यह है कि आज भी इसी कांग्रेस की नीतियों के चलते बडी संख्या में दलित समुदाय के लोग इस तरह की प्रथा के जरिए अपनी आजीविका कमाने पर मजबूर हैं। विडम्बना यह है कि आज भी हिन्दु धर्म में बाल्मिकी समाज तो मुस्लिमों में हैला समाज के लोग देश में सर पर मैला ढोने का काम कर रहे हैं।
हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि आज भी परंपरागत तरीके से सिर पर मैला ढोने का काम, शौचालयों की साफ सफाई, मरे पालतू या शहरों में पाए जाने वाले जानवरों को आबादी से दूर करने, नाले नालियों की सफाई, शुष्क शौचालयों के टेंक की सफाई, चिकित्सालय में साफ सफाई, मलमूत्र साफ करने के काम आदि को करने वाले दलित सुमदाय के लोगों का जीवन स्तर और सामाजिक स्थितियां अन्य लोगों की तुलना में बहुत ही दयनीय है। सरकारों द्वारा इन्हें वोट बैंक की तरह इस्तेमाल अवश्य ही किया जाता हो, पर इन्हें मुख्य धारा में शामिल होने नहीं दिया जाता है। सरकारों द्वारा दलित उत्थान के लिए बनाई गई योजनाओं का लाभ इस वर्ग के दलित लोगों को ही मिल पाता है, इस बात में कोई संदेह नहीं है।
गौरतलब है कि भारत सरकार ने अपनी दूसरी पंचवर्षीय योजना मेें सर पर मैला ढोने की अमानवीय प्रथा को समाप्त करने की गरज से राज्यों और नगरीय निकाय संस्थाओं को शुष्क शौचालय बनाने के लिए नागरिकों को प्रोत्साहन देने के लिए वित्तीय प्रावधान भी किए थे। आश्चर्य तो तब होता है जब इतिहास पर नजर डाली जाती है। 1971 में भारत सरकार ने दस साल की आलोच्य अवधि में सर पर मैला ढोने की प्रथा को समाप्त करने हेतु चरणबद्ध तरीके से अभियान चलाया था। दस साल तो क्या आज चालीस साल बीतने को हैं, पर यह कुप्रथा बदस्तूर जारी है।
इसके बाद 1993 में सरकार की तंद्रा टूटी थी, तब सफाई कर्मचारी नियोजन और शुष्क शौचालय संनिर्माण (प्रतिषेध) अधिनियम 1993 लागू किया गया था, जिसके तहत प्रावधान किया गया था कि जो भी व्यक्ति यह काम करवाएगा उसे एक वर्ष के कारावास और दो हजार रूपए अर्थदण्ड की सजा का भोगमान भुगतना पड सकता है। कानून के जानकार बताते हैं कि देश में कुछ इस तरह के कानून और भी अस्तित्व में हैं, जो सर पर मैला ढोने की प्रथा पर पाबंदी लगाते हैं। रोना तो इसी बात का है कि सब कुछ करने के बाद भी चूंकि जनसेवकों की नीयत साफ नहीं थी इसलिए इसे रोका नहीं जा सका।
सरकार द्वारा इस काम में संलिप्त लोगों के बच्चों को अच्छा सामाजिक वातावरण देने, साक्षर और शिक्षित बनाने के प्रयास भी किए हैं। सरकार ने इसके लिए बच्चों को विशेष छात्रवृति तक देने की योजना चलाई है। इसके तहत बच्चों को छात्रवृत्ति भी दी गई। मजे की बात यह है कि जिन परिवारों ने इस काम को छोडा और कागजों पर जहां जहां सर पर मैला ढोने की प्रथा समाप्त होना दर्शा दी गई वहां इन बच्चों की छात्रवृत्ति भी बंद कर दी गई है।
देश के पिता की उपाधि से अंलकृत राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के नाम को भुनाने में कांग्रेस द्वारा अब तक कोई कोर कसर नही रख छोडी है। बापू इस अमानवीय प्रथा के घोर विरोधी थे। बापू द्वारा उस समय के अपने शौचालय को स्वयं ही साफ किया जाता था। सादगी की प्रतिमूर्ति महात्मा गांधी के नाम को तो खूब कैश कराया है कांग्रेस ने पर जब उनके आचार विचार को अंगीकार करने की बात आती है तब कांग्रेस की मोटी खाल वाले खद्दरधारी नेताओं द्वारा मौन साध लिया जाता है।
दलित परिवारों को प्रश्रय देने में उत्तर प्रदेश काफी हद तक पिछडा माना जा सकता है। उत्तर प्रदेश में 2006 में एससी एसटी के 1759, 2007 में 2410, तो 2008 में 2390 मामले दर्ज किए गए। आईपीसी के मामलों ने तो सारे रिकार्ड ही ध्वस्त कर दिए। 2206 में 2238, 2007 में 3064 तो 2008 में इनकी संख्या बढकर 3543 हो गई थी। दलित महिलाओं की आबरू बचाने के मामले में 2006 से 2008 तक 255, 339 एवं 333 मामले प्रकाश में आए। ये तो वे आंकडे हैं जिनकी सूचना पुलिस में दर्ज है। गांव के बलशाली लोगों के सामने घुटने टेकने वाले वे मामले जो थाने की चारदीवारी तक पहुंच ही नहीं पाते हैं, उनकी संख्या अगर इससे कई गुना अधिक हो तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
खबरें तो यहां तक आ रहीं हैं कि दलित बच्चों के साथ शालाओं में भी भेदभाव किया जाता है। अनेक स्थानों पर संचालित शालाओं में दलित बच्चों को मध्यान भोजन के वक्त उनके घरों से लाए बर्तनों में ही खाना परोसा जाता है। इतना ही नहीं शिक्षकों द्वारा इन बच्चों को दूसरे बच्चों से अलग दूर बिठाया जाता है। देश के ग्रामीण अंचलों में आज भी दासता का सूरज डूबा नहीं है। आलम कुछ इस तरह का है कि दलित लोगों के साथ अन्याय जारी है। गांव के दबंग लोग इनसे बेगार करवाने में भी नहीं चूक रहे हैं। हालात देखकर यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि आजादी के बासठ सालों बाद भी गांवों में बसने वाला भारत स्वतंत्रता के बजाए मध्य युगीन दासता में ही उखडी उखडी सांसे लेने पर मजबूर है।
पिछले साल सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्री श्रीमती सुब्बूलक्ष्मी जगदीसन ने हाल ही में लोकसभा में एक प्रश्न के लिखित उŸार में बताया था कि मैला उठाने की परम्परा को जड़ मूल से समाप्त करने के लिए रणनीति बनाई गई है । उन्होंने बताया कि मैला उठाने वाले व्यक्तियों के पुनर्वास और स्वरोजगार की नई योजना को जनवरी, 2007 में शुरू किया गया था । उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार इस योजना के तहत उस वक्त देश के 1 लाख 23 हजार मैला उठाने वालों और उनके आश्रितों का पुनर्वास किया जाना था। कितने आश्चर्य की बात है कि मनुष्य के मल को मनुष्य द्वारा ही उठाए जाने की परंपरा इक्कीसवीं सदी में भी बदस्तूर जारी है। देश प्रदेश की राजधानियों, महानगरों या बड़े शहरों में रहने वाले लोगों को भले ही इस समस्या से दो चार न होना पड़ता हो पर ग्रामीण अंचलों की हालत आज भी भयावह ही बनी हुई है।
कहने को तो केंद्र और प्रदेश सरकारों द्वारा शुष्क शौचालयों के निर्माण को प्रोत्साहन दिया जाता रहा है, वस्तुतः यह प्रोत्साहन किन अधिकारियों या गैर सरकारी संगठनों (एनजीओ) की जेब में जाता है, यह किसी से छुपा नहीं है। करोड़ों अरबों रूपए खर्च करके सरकारों द्वारा लोगों को शुष्क शौचालयो के प्रति जागरूक किया जाता रहा है, पर दशक दर दशक बीतने के बाद भी नतीजा वह नहीं आया जिसकी अपेक्षा थी। सरकारो को देश के युवाओं के पायोनियर रहे महात्मा गांधी से सबक लेना चाहिए। उस समय बापू द्वारा अपना शौचालय स्वयं ही साफ किया जाता था। आज केंद्रीय मंत्री जगदीसन की सदन में यह स्वीकारोक्ति कि देश के एक लाख 23 हजार मैला उठाने वालों का पुर्नवास किया जाना बाकी है, अपने आप में एक कड़वी हकीकत बयां करने को काफी है।
सरकार खुद मान रही है कि आज भी देश में मैला उठाने की प्रथा बदस्तूर जारी है। यह स्वीकारोक्ति निश्चित रूप से सरकार के लिए कलंक से कम नहीं है। यह कड़वी सच्चाई है कि कस्बों, मजरों टोलों में आज भी एक वर्ग विशेष द्वारा आजीविका चलाने के लिए इस कार्य को रोजगार के रूप में अपनाया जा रहा है। सरकारों द्वारा अब तक व्यय की गई धनराशि में तो समूचे देश में शुष्क शौचालय स्थापित हो चुकने थे। वस्तुतः एसा हुआ नहीं। यही कारण है कि देश प्रदेश के अनेक शहरों में खुले में शौच जाने से रोकने की प्रेरणा लिए होर्डिंग्स और विज्ञापनों की भरमार है। अगर देश में हर जगह शुष्क शौचालय मौजूद हैं तो फिर इन विज्ञापनों की प्रसंगिकता पर सवालिया निशान क्यों नहीं लगाए जा रहे हैं? क्यों सरकारी धन का अपव्यय इन विज्ञापनों के माध्यम से किया जा रहा है?
उत्तर बिल्कुल आईने के मानिंद साफ है, देश के अनेक स्थान आज भी शुष्क शौचालय विहीन चिन्हित हैं। क्या यह आदी सदी से अधिक तक देश प्रदेशों पर राज करने वाली कांग्रेस की सबसे बड़ी असफलता नहीं है? सत्ता के मद में चूर राजनेताओं ने कभी इस गंभीर समस्या की ओर नज़रें इनायत करना उचित नहीं समझा है। यही कारण है कि आज भी यह समस्या कमोबेश खड़ी ही है।श्विडम्बना ही कही जाएगी कि एक ओर हम आईटी के क्षेत्र में आत्मनिर्भर होने का दावा कर चंद्रयान का सफल प्रक्षेपण कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर शौच के मामले में आज भी बाबा आदम के जमाने की व्यवस्थाओं को ही अंगीगार किए हुए हैं। इक्कीसवीं सदी के इस युग में आज जरूरत है कि सरकार जागे और देश को इस गंभीर समस्या से निजात दिलाने की दिशा में प्रयास करे।
इस साल जनवरी में केंद्रीय समाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्री ने इस बारे में पहल की थी। उस वक्त मुकुल वासनिक का मानना था कि मैला ढोने की प्रथा से मुक्ति के लिए 1993 में बने कानून का पालन ठीक ढंग से नहीं किया जा पा रहा है। जनवरी में ही वासनिक को एक संगठन द्वारा इसी पर आधारित एक प्रतिवेदन भी सौंपा था जिसमें 14 राज्यों में कहां कहां, किन किन मोहल्लों और जिलों में सफाई कर्मी इस अमानवीय काम को अंजाम दे रहे हैं। इसमें इन कर्मियों का ब्योरा सचित्र उपलब्ध करवाया गया था। कितने आश्चर्य की बात है कि देश के शासन का रिमोट अपने हाथों में रखने वाली कांग्रेस की राजमाता श्रीमति सोनिया गांधी द्वारा पिछले साल दिसंबर में इस संबंध में प्रधानमंत्री को बाकायदा पत्र भी लिखा था। विडम्बना यह है कि वजीरे आजम ने सोनिया की इस गुहार पर कोई ध्यान देना भी मुनासिब नहीं समझा है।
सबसे अधिक दुख तो तब होता है जब पता चलता है कि राजस्थान के टोंक जिले में महज एक रोटी रोज और दस रूपए महीने के एवज में परिवार के सदस्य सर पर मैला ढोने का अमानवीय काम कर रहे हैं। पिछले दिनों टोंक के हीरा चौक से दिल्ली आई रामवती ने अपनी आपबीती कहते हुए कहा था कि वैकल्पिक रोजगार के अभाव में उसके साथ गांव के अनेक लोग आज भी सर पर मैला ढोने का अपना पारंपरिक काम करने पर मजबूर हैं। इस गांव में आज भी एक रोटी रोज और दस रूपए महीने की मजदूरी पर लोग सर पर मैला ढोने को मजबूर हैं।
आजादी के परवानों ने अपने प्राणों की आहूति दी है देश को आजाद करवाने में। देश के पिता होने का गौरव पाने वाले महात्मा गांधी ने आजादी के वक्त ही कहा था कि अब लक्ष्य पूरा हो गया है इसलिए कांग्रेस को समाप्त कर देना चाहिए। इसके बाद नेहरू गांधी परिवार (राष्ट्रपिता महात्मा गांधी नहीं) के वारिसान देश पर शासन करते आए हैं। महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी ने इक्कीसवीं सदी के आधुनिक भारत के बारे में जो कल्पना की होगी निश्चित तौर पर उसमें और नेहरू गांधी परिवार के वर्तमान निजामों और कांग्रेस के हुक्मरानों का गढ़े भारत में जमीन आसमान का अंतर होना स्वाभाविक ही है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें