आधार परियोजना का कारपोरेट भ्रष्टाचार
(गोपाल कृष्ण / विस्फोट डॉट काम)
13 दिसम्बर को वित्त की संसदीय समिति की जो रिपोर्ट संसद के दोनों सदनों में पेश की गयी उसने ये जगजाहिर कर दिया की भारत सरकार की शारीरिक हस्ताक्षर या जैवमापन (बायोमेट्रिक्स) आधारित विशिष्ट पहचान अंक (यू.आई.डी।/आधार परियोजना) असंसदीय, गैरकानूनी, दिशाहीन और अस्पष्ट है और राष्ट्रीय सुरक्षा और नागरिक अधिकारों के लिए खतरनाक है। बायोमेट्रिक पहचान तकनीक और ख़ुफ़िया तकनीक के बीच के रिश्तो की पड़ताल अभी बाकी है। लेकिन ससंदीय समिति की इस सिफारिश के बाद से ही एक बार फिर कारपोरेट घराने आधार परियोजना को जायज ठहराने और इसे किसी भी हाल में जारी रखने के लिए जबरदस्त लॉबिंग शुरू कर दी है। लेकिन आधार परियोजना भारतीय नागरिकों के हित में है या फिर इसके परियोजना के जरिए भारतीय नागरिकों को गुलाम बनाने की कोई और योजना काम कर रही है? आखिर वे कौन से कारण है जिसके मद्देनजर संसदीय समिति ने इस परियोजना को स्वीकृति देने से मना कर दिया?
संसदीय समिति की रिपोर्ट कहती है की सरकार ने विश्व अनुभव की अनदेखी की है। इस बात पर ध्यान नहीं दिया गया की मौजूदा पहचान प्रणाली को कारगर कैसे बनाया जाए। हैरानी की बात है की जल्दबाजी में ऐसी कोई तुलनात्मक अध्ययन भी नहीं की गयी जिससे यह पता चलता की मौजूदा पहचान प्रणाली कितनी सस्ती है और आधार और जनसँख्या रजिस्टर जैसी योजनाये कितनी खर्चीली है। आज तक किसी को यह नहीं पता है की आधार और जनसँख्या रजिस्टर पर कुल अनुमानित खर्च कितना होगा?
सरकार यह दावा कर रही थी कि यह परियोजना को देशवासियों और नागरिको को सामाजिक सुविधा उपलब्ध कराने की परियोजना है। अब यह पता चला है की इस योजना के पैरोकार गाड़ियो और जानवरों पर भी ऐसी ही योजना लागु करने की सिफारिश कर चुके है, ये बाते परत दर परत सामने आ रही है। यह परियोजना १४ विकासशील देशो में फ्रांस, दक्षिण कोरिया और संयुक्त राष्ट्र अमेरिका की कंपनियों और विश्व बैंक के एक पहल के जरिये लागु किया जा रहा है। दक्षिण एशिया में यह पाकिस्तान में लागु हो चुका है और नेपाल और बंगलादेश में लागू किया जा रहा है।
संसदीय समिति ने कानुनविदों, शिक्षाविदो और मानवाधिकार कार्यकर्ताओ की इस बात को माना है की यह देशवासियों के निजी जीवन पर एक तरह का हमला है जिसे नागरिक स्वतंत्रता और मानवाधिकार के हनन के रूप में ही समझा जा सकता है। समिति ने अपनी रिपोर्ट में ब्रिटेन सरकार द्वारा ऐसे ही पहचानपत्र कानून 2006 को समाप्त करने के फैसले का भी जिक्र किया है जिसका उद्धरण देश के न्यायाधिशो ने दिया था। भारत में इस बात पर कम ध्यान दिया गया है कि कैसे विराट स्तर पर सूचनाओं को संगठित करने की धारणा चुपचाप सामाजिक नियंत्रण, युद्ध के उपकरण और जातीय समूहों को निशाना बनाने और प्रताड़ित करने के हथियार के रूप में विकसित हुई है। भारत के निर्धनतम लोगों तक पहुंचने में 12 अंकों वाला आधार कार्ड सहायक होने का दावा करने वाले इस विशिष्ट पहचान परियोजना का विश्व इतिहास के सन्दर्भ में नहीं देखा गया।
खासतौर पर जर्मनी और आमतौर पर यूरोप के अनुभवों को नजरअंदाज करके, निशानदेही को सही मानकर वित्तमंत्री ने 2010-2011 का बजट संसद में पेश करते हुए फर्माया कि यूआईडी परियोजना वित्तीय योजनाओं को समावेशी बनाने और सरकारी सहायता (सब्सिडी) जरूरतमंदों तक ही पहुंचाने के लिए उनकी निशानदेही करने का मजबूत मंच प्रदान करेगी। जबकि यह बात दिन के उजाले की तरह साफ है कि निशानदेही के यही औज़ार किसी खास धर्माे, जातियों, क्षेत्रों, जातीयताओं या आर्थिक रूप से असंतुष्ट तबकों के खिलाफ भी इस्तेमाल में लाए जा सकता हैं। भारत में राजनीतिक कारणों से समाज के कुछ तबकों का अपवर्जन लक्ष्य करके उन तबकों के जनसंहार का कारण बना- 1947 में, 1984 में और सन् 2002 में। अगर एक समग्र अध्ययन कराया जाए तो उससे साफ हो जाएगा कि किस तरह संवेदनशील निजी जानकारियां और आंकड़े जिन्हें सुरक्षित रखा जाना चाहिए था, वे हमारे देश में दंगाइयों और जनसंहार रचाने वालों को आसानी से उपलब्ध थे।
भारत सरकार भविष्य की कोई गारंटी नहीं दे सकती। अगर नाजियों जैसा कोई दल सत्तारूढ़ होता है तो क्या गारंटी है कि यू।आई।डी। के आंकड़े उसे प्राप्त नहीं होंगे और वह बदले की भावना से उनका इस्तेमाल नागरिकों के किसी खास तबके के खिलाफ नहीं करेगा? योजना योग की यूआईडी और गृह मंत्रालय की राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर वही सब कुछ दोहराने का मंच है जो जर्मनी, रूमानिया, यूरोप और अन्य जगहों पर हुआ जहां वह जनगणना से लेकर नाजियों को यहूदियों की सूची प्रदान करने का माध्यम बना। यू।आई।डी। का नागरिकता से कोई संबंध नहीं था, वह महज निशानदेही का साधन है। दरअसल यह जनवरी 1933 से जनवरी 2011 तक के ख़ुफ़िया निशानदेही के प्रयासों का सफरनामा है।
इस पृष्ठभूमि में, ब्रिटेन की साझा सरकार द्वारा विवादास्पद राष्ट्रीय पहचानपत्र योजना को समाप्त करने का निर्णय वैसे ही स्वागत योग्य है जैसे अपनी संसदीय समिति की अनुसंसा ताकि नागरिकों की निजी जिंदगियों में हस्तक्षेप से उनकी सुरक्षा हो सके। पहचानपत्र कानून 2006 और स्कूलों में बच्चों की उंगलियों के निशान लिए जाने की प्रथा का खात्मा करने के साथ-साथ ब्रिटेन सरकार अपना राष्ट्रीय पहचानपत्र रजिस्टर बंद कर देगी। वह की सरकार ने घोषणा की है की अगले कदम में (बायोमेट्रिक) जैवसांख्यिकीय पासपोर्ट, सम्पर्क-बिन्दुओं पर इकट्ठा किये जाने वाले आंकड़ों तथा इंटरनेट और ई-मेल के रिकार्ड का भंडारण खत्म किया जाएगा।
भारत की आधार परियोजना की ही तरह ब्रिटेन में भी इसका कभी कोई उद्देश्य बताया जाता था, कभी कोई। इस परियोजना को गरीबों के नाम पर थोपा जा रहा था। कहा जा रहा है कि पहचान का मसला राशन कार्ड, ड्राइविंग लाइसेंस, पासपोर्ट, बैंक खाता, मोबाइल कनेक्शन आदि लेने में अवरोध उत्पन्न करता है। पहचान अंक पत्र गरीब नागरिकों को शिक्षा, स्वास्थ्य और वित्तीय सेवाओं सहित अनेक संसाधन प्राप्त करने योग्य बनाएगा। ब्रिटेन की बदनाम हो चुकी परियोजना के पदचिन्हों पर चलते हुए यह भी कहा जा रहा था कि पहचान अंकपत्र से बच्चों को स्कूल में दाखिले में मदद मिलेगी। ब्रिटेन सरकार के हाल के निर्णय के बाद कहीं भारत में भी इस परियोजना को तिलांजलि न दे देनी पड़े, इस बात की आशंका के चलते अब सरकार के द्वारा कहा जा रहा था यह वैकल्पिक है अनिवार्य नहीं जबकि हकीकत कुछ और ही थी।
योजना मंत्रालय की आधार यानि यूआईडी। योजना से गृह मंत्रालय का राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एन.पी.आर.) परियोजना शुरू से ही जुडा हुआ था जिसका खुलासा प्रधानमन्त्री द्वारा दिसम्बर ४, २००६ को गठित शक्ति प्राप्त मंत्रिसमूह की घोषणा से होता है जिसकी तरफ कम ध्यान दिया गया है। । यह पहली बार है कि जनसंख्या रजिस्टर बनाई जा रही है। इसके जरिए रजिस्ट्रार जनरल आफ इंडिया जो की सेन्सस कमिश्नर भी है देशवासियों के आंकड़ों का भंडार तैयार करेंगे। यह समझ जरुरी है कि जनगणना और राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर अलग-अलग चीजें हैं। जनगणना जनसंख्या, साक्षरता, शिखा, आवास और घरेलू सुविधाओं, आर्थिक गतिविधि, शहरीकरण, प्रजनन दर, मृत्युदर, भाषा, धर्म और प्रवासन आदि के संबंध में बुनियादी आंकड़ों का सबसे बड़ा स्रोत है जिसके आधार पर केंद्र व राज्य सरकारें योजनाएं बनती हैं और नीतियों का क्रियान्वयन करती हैं, जबकि राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर देशवासियों और नागरिकों के पहचान संबंधी आंकड़ों का समग्र भंडार तैयार करने का काम करेगा। इसके तहत व्यक्ति का नाम, उसके माता, पिता, पति/पत्नी का नाम, लिंग, जन्मस्थान और तारीख, वर्तमान वैवाहिक स्थिति, शिक्षा, राष्टीयता, पेशा, वर्तमान और स्थायी निवास का पता जैसी तमाम सूचनाओं का संग्रह किया जाएगा। इस आंकड़ा-भंडार में 15 साल की उम्र से उपर सभी व्यक्तियों की तस्वीरें और उनकी उंगलियों के निशान भी रखे जाएंगे।
राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर के आंकड़ो-भंडार को अंतिम रूप देने के बाद, अगला कार्यभार होगा हर नागरिक को विशिष्ट पहचान पत्र प्रदान करना। प्रस्तावित यह था कि पहचानपत्र एक तरह का स्मार्ट-कार्ड होगा जिसके उपर आधार पहचान अंक के साथ व्यक्ति का नाम, उसके माता, पिता, पति/पत्नी का नाम, लिंग, जन्मस्थान और तारीख, फोटो आदि बुनियादी जानकारियां छपी होंगी। सम्पूर्ण विवरण का भंडारण चिप में होगा।
ब्रिटेन की ही तरह यहां भी 1।2 अरब लोगों को विशिष्ट पहचान अंक देने की कवायद को रोके जाने की जरूरत जीप, क्योंकि मानवाधिकार उलंघन की दृष्टि से इसके खतरे कल्पनातीत है इसे संसदीय समिति ने समझा है । बिना संसदीय सहमती के 13वें वित्त आयोग ने प्रति व्यक्ति 100 रूपए और प्रति परिवार 400-500 रूपए गरीब परिवारों को विशिष्ट पहचान अंक के लिए आवेदन करने हेतु प्रोत्साहन के बतौर दिए जाने का प्रावधान किया था। यह गरीबों को एक किस्म की रिश्वत ही है। इस उद्देश्य के लिए आयोग ने राज्य सरकारों को 2989।10 करोड़ की राशि मुहैया कराने की संस्तुति की है। सवाल यह है की सरकार ने नागरिकों के अंगुलियों के निशान, पुतलियों की छवि जैसे जैवमापक आंकड़ों का संग्रह करने के बारे में विधानसभाओं और संसद की मंजूरी क्यों नहीं ली और इस बात को क्यों नज़र अंदाज़ किया की ऐसी ही परियोजना को ब्रिटेन में समाप्त कर दिया गया है किया है?
प्राधिकरण की ही जैवमापन मानक समिति (बायोमेट्रिक्स स्टैंडर्डस कमिटि) यह खुलासा किया कि जैवमापन सेवाओं के निष्पादन के समय सरकारी विभागों और वाणिज्यिक संस्थाओं द्वारा प्रामाणिकता स्थापित करने के लिए किया जाएगा। यहां वाणिज्यिक संस्थाओं को परिभाषित नहीं किया गया। जैवमापन मानक समिति जैवमापन में अमेरिका और यूरोप के पिछले अनुभवों का भी हवाला दिया और कहा कि जैवमापक आंकड़े राष्ट्रीय निधि हैं और उन्हें उनके मौलिक रूप में संरक्षित किया जाना चाहिए। समिति नागरिकों के आंकड़ाकोष को राष्ट्रीय निधि बताती है। यह निधि कब कंपनियों की निधि बन जाएगी कहा नहीं जा सकता।
विशिष्ट पहचान अंक और राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर सरकार द्वारा नागरिकों पर नजर रखने के उपकरण हैं। ये परियोजनाएं न तो अपनी संरचना में और न ही अमल में निर्दाेष हैं। विशिष्ट पहचान अंक प्राधिकरण के कार्य योजना प्रपत्र में कहा गया है कि विशिष्ट पहचान अंक सिर्फ पहचान की गारंटी है, अधिकारों, सेवाओं या हकदारी की गारंटी नहीं। आगे यह भी कहा गया है कि यह पहचान की भी गारंटी नहीं है, बल्कि पहचान नियत करने में सहयोगी है।
एक गहरे अर्थ में यशवंत सिन्हा की अध्यक्षता वाली संसद की स्थायी समिति विशिष्ट पहचान अंक जैसे ख़ुफ़िया उपकरणों द्वारा नागरिकों पर सतत नजर रखने और उनके जैवमापक रिकार्ड तैयार करने पर आधारित तकनीकी शासन की पुरजोर मुखालफत करने वाले व्यक्तियों, जनसंगठनों, जन आंदोलनों, संस्थाओं के अभियान का समर्थन करती है। समिति यह अनुसंसा करती है की संसद बायोमेट्रिक डाटा को इकठ्ठा करने के कृत्य की जांच करे। जनसंगठनों की मांग है की सी.ए.जी। विशिष्ट पहचान अंक प्राधिकरण की कारगुजारियों की जांच करे और इसके और जनसँख्या रजिस्टर द्वारा किये जा रहे कारनामो को तत्काल रोका जाये। देशवासियों के पास अपनी संप्रभुता को बचाने के लिए आधार अंक योजना और जनसँख्या रजिस्टर का बहिष्कार ही एक मात्र रास्ता है।
गौरतलब है की कैदी पहचान कानून, १९२० के तहत किसी भी कैदी के उंगलियों के निशान को सिर्फ मजिसट्रेट की अनुमति से लिया जाता है और उनकी रिहाई पर उंगलियों के निशान के रिकॉर्ड को नष्ट करना होता है। कैदियों के ऊपर होनेवाले जुल्म की अनदेखी की यह सजा की अब हर देशवासी को उंगलियों के निशान देने होंगे और कैदियों के मामले में तो उनके रिहाई के वक्त नष्ट करने का प्रावधान रहा है, इन योजनाओं के द्वारा देशवासियों के पूरे शारीरिक हस्ताक्षर का रिकॉर्ड रखा जा रहा है। यह एक ऐसे निजाम के कदमताल की गूंज है जो नागरिको को कैदी सरीखा मानता है। बायोमेट्रिक डाटाबेस आधारित राजसत्ता का आगाज हो रहा है बावजूद इसके जानकारी के अभाव में कुछ व्यस्त देशवासियों को बायोमेट्रिक तकनीक वाली कंपनियों के प्रति प्रचार माध्यम द्वारा तैयार आस्था चौकानेवाली है। मगर लाजवाब बात तो यह है की उन कर्मचारियों से यह आशा कैसे की जा सकती है की वो बायोमेट्रिक निशानदेही की मुखालफत करेंगे जो अपने दफ्तरों में बायोमेट्रिक हस्ताक्षर करके अन्दर जाते है। ऐसे में संसदीय समिति की सिफारिशों में एक उम्मीद की किरण दिखती है। कुछ राज्यों ने भी केंद्र सरकार को ऐसी परियोजनायो के संबध में आगाह किया है। संसद और राज्य की विधान सभाओ को संसदीय समिति के सिफारिशों को सरकार से अमल में लाने के लिए तत्काल निर्णय लेने होंगे।
(साई फीचर्स)
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