सिपाही सिपाही में अंतर!
(लिमटी खरे)
छत्तीसगढ़ की हरकत से देश दहला हुआ है। मध्य प्रदेश के तत्कालीन परिवहन
मंत्री लिखीराम कांवरे की जघन्य हत्या के अलावा बड़े नेताओं की माओवादियों, नक्सलवादियों ने हत्या की हो यह उदहारण देखने को नहीं मिलता।
अब लगता है पानी सर के उपर से गुजरने लगा है। वैसे तो सहनशीलता का तकाजा है कि जब
तक पानी नाक तक पहुंचे वैसे ही कार्यवाही करना आरंभ कर देना चाहिए, पर देश और छत्तीसगढ़ की नपुंसक सरकार द्वारा पानी सर के उपर आ
जाने के बाद भी अब तक नहीं जागना दुर्भाग्यपूर्ण ही माना जाएगा।
इस हमले में चूंकि कांग्रेस के सिपाही मारे गए हैं इसलिए प्रधानमंत्री
डॉ.मनमोहन सिंह, कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमति सोनिया
गांधी सहित ना जाने कितने नेता छत्तीगढ़ पहुंचे और अपनी संवेदनाएं प्रकट की हैं।
मध्य प्रदेश में कांग्रेस ने बंद का आव्हान किया। देशवासी यह शायद ही भूले हों कि
तीन साल पहले छत्तीगढ़ में ही वामपंथी नक्सलवादियों ने अर्धसैनिक बल सीआरपीएफ के
सत्तर सिपाहियों को शहीद किया था।
देश पर आधी सदी से ज्यादा राज करने वाली लगभग सवा सौ साल पुरानी कांग्रेस
क्या सिपाही सिपाही में अंतर करने लगी है। देश की रक्षा के कुर्बान होने वाले
सिपाही क्या कांग्रेस के सिपाहियों से ज्यादा महत्वपूर्ण हो गए हैं? देश के सिपाहियों के मारे जाने पर ना तो सोनिया ना ही मनमोहन
सिंह छत्तीगढ़ पहुंचे! आखिर क्यों? क्या कांग्रेस के
सिपाही का मारा जाना देश के सिपाही के मारे जाने से ज्यादा वजनदारी रख रहा है
मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी के लिए।
हमारे कहने का तात्पर्य यह कतई नहीं है कि कांग्रेस के नेताओं के इस तरह
निधन होने पर देश को शोक नहीं मनाना चाहिए, अथवा रोष प्रकट
नहीं करना चाहिए। हम महज यह कहना चाह रहे हैं कि कांग्रेस को सिपाही सिपाही मेें
भेद करना छोड़ना ही होगा। देश की रक्षा के लिए प्राण न्योछावर करने वाले सिपाही के
लिए हर देश वासी दिल से सैल्यूट करता है इस बात में संदेह नहीं है।
एक बात समझ से परे है कि अगर कांग्रेस के नेता पर हमला हो तो वह लोकतंत्र
पर हमला कहलाता है और देश की रक्षा में जुटे जवान पर हमला हो तो वह लोकतंत्र पर
हमला नहीं है। साफ है कि वह आम बात है हमारे हुक्मरानों के लिए।
बहरहाल, माओवादी, नक्सलवादियों द्वारा भारत की संवैधानिक व्यवस्था को चुनौती दी
है, जिसे अगर केंद्र में कांग्रेसनीत संप्रग सरकार और छत्तीगढ़ की
भाजपा सरकार ने बर्दाश्त किया तो उन्हें आने वाली पीढ़ी शायद ही कभी माफ कर पाए।
नक्सलवादियों ने हैवानियत की सारी हदें लांघ दी हैं। सियासी दल के नेता रायपुर
पहुुंचकर अब घड़ियाली आंसू बहा रहे हैं।
इसके बाद आरंभ होगा आरोप प्रत्यारोप का कभी ना रूकने वाला सिलसिला। भाजपा
प्रदेश पर काबिज है वह केंद्र सरकार पर तोहमत लगाएगी, तो कांग्रेस जो केंद्र में सत्तारूढ़ है वह भाजपा को आड़े हाथों
लेगी। सवाल यही है कि जब भाजपा की रमन सरकार नक्सलवाद प्रभावित इलाकों पर हुकूमत
कायम करने का दावा करती है तो आखिर यह घटना किस तरह अंजाम तक पहुंच सकी? रमन सरकार का यह दावा भारत विशेषकर छत्तीगढ़ के लोगों के लिए
छल प्रपंच और धोखे से कम नहीं है। वहीं मानवाधिकार का शोर मचाने वाले भी अभी बनते
बिगड़ते समीकरण देख ही रहे हैं। वे भी दो एक दिन में तवा गर्म होने पर अपने गुंथे
आटे से रोटियां सेंकते नजर आएंगे।
नक्सलवादी जो कुछ कर रहे हैं उसे निश्चित तौर पर भारत के संविधान में किसी
भी कीमत पर सही नहीं ठहराया जा सकता है। नक्सलवादी आतंक बरपाने का काम सिर्फ और
सिर्फ दहशत फैलाने की गरज से कर रहे हैं। आतंक का कोई मजहब नहीं होता है। आतंक की
हर चुनौतियों से निपटने का दावा केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा समय समय पर रटे
रटाए जवाब की तरह दिया जाता है।
आतंक से निपटने के लिए उन्हें उन्हीं की जुबान में उत्तर देना आवश्यक है।
भारत की सुरक्षा के लिए जिम्मेदार और जवाबदार फौज को तत्काल आदेश दिया जाए और इनके
सफाए की माकूल व्यवस्था सुनिश्चित की जाए। आज सियासी बियावान में नैतिकता पूरी तरह
मर चुकी है। वरना क्या कारण है कि आज के कांग्रेस भाजपा के आलंबरदार पश्चिम बंगाल
के नक्सलवाद का सफाया करने वाले तत्कालीन कांग्रेस के निजाम सिद्धार्थ शंकर रे को
भूलते जा रहे हैं।
प्रौढ़ हो रही पीढ़ी के दिमाग से यह बात कतई विस्मृत नहीं हुई होगी कि
स्व.सिद्धार्थ शंकर रे ने भारत की लोकतांत्रिक परंपराओं की मर्यादा में रहते हुए
सत्ता की ताकत का सही दिशा में प्रयोग किया। इसका नतीजा यह हुआ कि नक्सलवादी
निहत्थे हो गए और निहत्थे नक्सलवादियों के सामने भारत के संविधान के प्रति आस्था
प्रकट करने के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचा।
आज देश भर में कांग्रेस के नेताओं का गुस्सा पूरे उबाल पर है। कांग्रेस के
नेताओं को अपनों को खोने का जबर्दस्त गम है। अगर नेता इसी बात को समझते और देश के
हर नागरिक को अपना मानते तो आज हालात कुछ और होते। नेता चाहे कांग्रेस का हो भाजपा
का अथवा अन्य किसी सियासी दल का उसे अपना पराया का भेद छोड़ना ही होगा।
कितनी अजीब बात है कि छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में वहां के निजाम राज्य की
कानून व्यवस्था उसका विशेषाधिकार है को लेकर केंद्र सरकार के साथ सदा ही बैर रखता
आया हो, और उसी सूबे में नक्सलवादी, माओवादी जब चाहे तब शासन प्रशासन की कालर पकड़कर झंझकोर रहे
हों।
वस्तुतः भारत की संवैधानिक व्यवस्थाओं की मंशा के अनुसार किसी राज्य में
निजाम का कर्तव्य और दायित्व यह है कि वह अपने सूबे में संविधान का पालन सुनिश्चित
करवाए। संविधान के पालन के लिए परिस्थितियां पैदा करे। संविधान का अनादर करने
वालों को मुंहतोड़ जवाब देते हुए वह यह संदेश देने का प्रयास करे कि भारत के
संविधान का उल्लंघन चाहे बंदूक के दम पर हो या किसी और जरिए से, उसे बर्दाश्त कतई नहींे किया जा सकता है।
यहां एक बात और स्पष्ट है कि आतंकवादियों का कोई सियासी मंसूबा नहीं होता
है, वे राजनैतिक रूप से विचार शून्य ही होते हैं, पर जहां तक माओवाद और नक्सलवाद की बात है तो माओवाद और
नक्सलवाद में सियासी पुट होता है। इनका उद्देश्य अपने अधिकार और प्रभाव क्षेत्र
में समानांतर सत्ता चलाने का होता है।
आज भी देश में कई हिस्सों में भारत का संविधान कराह रहा है। जगह जगह इंसाफ
के लिए इनकी अलग कचहरियां हैं। इनकी बात ना मानने पर ये वहशीपन पर उतर आते हैं।
इतना खौफ पैदा कर देते हैं कि क्षेत्र के लोग संविधान के बजाए इनकी सत्ता को मानने
पर मजबूर हो जाते हैं।
जब भी बगावत होती है तब इसके शमन के लिए शासकों को ताकत का इस्तेमाल करना
ही होता है। भारत का इतिहास इस बात का गवाह है कि गदर को रोकने हुकूमत ने कड़ा
रवैया अपनाया है। देश भर में आज अराजकता की स्थिति है। हमें यह कहने में कोई संकोच
नहीं है कि देश में हुक्मरानों की अस्पष्ट नीतियों से जंगल राज स्थापित हो चुका
है।
क्या भारत गणराज्य में जंगलराज की स्थापना की आजादी है। यह बताएं कि आखिर
इन आताताईयों के पास असलहा कहां से आता है। कौन हैं जो इनकी मदद कर रहे हैं। इनके
पास से चीन और पाकिस्तान की मुहर लगे हथियार मिलते हैं ये क्या साबित करते हैं?
मध्य प्रदेश में भी नक्सलवाद की आहट कम नहीं है। बालाघाट, मण्डला, डिंडोरी जिलों
में इनकी पदचाप सुनी जा सकती है। प्रदेश के तत्कालीन परिवहन मंत्री को
नक्सलवादियों द्वारा ही उनके बालाघाट जिले के गृह ग्राम गला रेतकर मार डाला था।
सिवनी जिले में नब्बे के दशक के आरंभ में नक्सलवाद की पदचाप सुनाई दे गई थी।
पिछले दिनों नक्सल प्रभावित जिलों की फेहरिस्त में सिवनी को शामिल किया
गया है। सिवनी में नक्सलवाद से निपटने अर्धसैनिक बल का एक दस्ता आकर सर्वेक्षण कर
चला गया है। नक्सलवाद से निपटने के लिए लाखों रूपयों के आवंटन के आने की भी खबर
है। सिवनी का केवलारी से बरघाट की ओर का इलाका इसकी जद में बताया जाता है।
1992 में कफर््यू के दरम्यान तत्कालीन जिलाधिकारी पंडित जयनारायण शर्मा का
कथन याद आता है। वे सदा ही कहा करते थे कि प्रीकाशन इज बेटर देन क्योर! अर्थात अगर
सावधानी बरत ली जाए तो बाद में उपचार की आवश्यक्ता नहीं होती है। छत्तीसगढ़ की घटना
से जिला प्रशासन सिवनी को भी सबक लेना चाहिए और सिवनी जिले में नक्सलवादी गतिविधि
ना पनपें इसका पुख्ता इंतजाम करना चाहिए।
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