अस्मत की कीमत पर विकास!
(शरद खरे)
‘‘जिले में कुछ विध्नसंतोषी हैं जो जिले
में विकास नहीं चाहते हैं। इनमें कुछ सियासी हल्कों से जुड़े हैं तो कुछ मीडिया के
अंग हैं।‘‘ इस तरह की बातें निहित स्वार्थ के नाम पर ईमानदारी का चोगा पहनने वाले जिले
के तथाकथित कर्णधार अक्सर ही कहा करते हैं। सिवनी के आदिवासी बाहुल्य घंसौर में
प्रस्तावित तीन अदद कोल आधारित पावर प्लांट में से एक का काम तेजी से चल रहा है।
यह है देश के मशहूर उद्योगपति गौतम थापर के स्वामित्व वाले अवंथा समूह के सहयोगी
प्रतिष्ठान मेसर्स झाबुआ पावर लिमिटेड का। वर्ष 2009 से इसका काम आरंभ हुआ। इसके
बाद घंसौर के कुछ दबंग नेतानुमा ठेकेदारों ने आदिवासियों को बरगलाकर मीडिया के
तथाकथित मुगलों से जुगलबंदी कर संयंत्र प्रबंधन को अपने कब्जे में ले लिया। कहते
हैं कि इसके बाद हजार दो हजार पांच हजार की मदद के चलते किसी ने भी अपना मुंह
खोलने की जुर्रत नहीं की। आरोप तो यहां तक हैं कि घंसौर में पुलिस और प्रशासन भी
संयंत्र प्रबंधन के इशारों पर ही चलता रहा है।
इस संयंत्र की संस्थापना की पहली
जनसुनवाई के साथ ही जिला प्रशासन की इसमें मिली भगत की बू आने लगी थी। उस वक्त ना
तो जनसुनवाई की मुनादी ही पिटवाई गई और ना ही आपत्तियों का निराकरण ही हुआ। इसके
बाद 2011 में हुई दूसरी लोक सुनवाई में भी यही स्थिति बनी रही। आदिवासियों के साथ
अत्याचार होता रहा और नेतानुमा ठेकेदार, प्रशासन के साथ मिलकर उनकी मजबूरी पर
अट्टहास करता रहा।
इस संयंत्र में काम करने के लिए स्थानीय
स्तर पर मजदूरों की आवश्यक्ता थी। संयंत्र प्रबंधन द्वारा सरकार को भरोसा दिलाया
गया था कि वह स्थानीय सतर पर रोजगार मुहैया करवाने की हर संभव कोशिश करेगा। इसके
साथ ही साथ औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान में युवाओं को प्रशिक्षित कर उन्हें रोजगार
देगा। 2009 से अब तक चार साल हो चुके हैं पर स्थानीय युवा उपेक्षा का ही शिकार है।
संयंत्र प्रबंधन द्वारा उत्तर प्रदेश, हरियाणा, बिहार से अपेक्षाकृत सस्ते मजदूरों को
लाकर स्थानीय युवाओं की उपेक्षा की जा रही है। इस सबके बाद भी सांसद विधायक
धृतराष्ट्र की भूमिका में ही नजर आ रहे हैं।
अब तक ना जाने कितने बाहरी मजदूरों की
यहां मौत हो चुकी है। ना तो प्रशासन और ना ही पुलिस ने इस बारे में संज्ञान लिया
है। और तो और बरेला संरक्षित वन में लगने वाले इस पावर प्लांट में हिरण के छौने का
शव भी मिला था। कहा तो यहां तक जा रहा है कि नेतानुमा ठेकेदार की शह पर इस
संरक्षित वन में वन्य जीवों का शिकार कर उनके लज़ीज मांस का लुत्फ यहां के कारिंदों
द्वारा उठाया जाता रहा है। जबलपुर से रोजाना आना जाना करने वाले संयंत्र प्रबंधन
के स्टाफ ने स्थानीय स्तर पर जिला मुख्यालय सिवनी में एक भी कार्यालय नहीं खोला है
ताकि सिवनी के लोग अपनी शंका, कुशंकाओं का निवारण कर सकें। क्या यह
बात स्थानीय विधायक शशि ठाकुर, सांसद बसोरी सिंह, के साथ ही साथ विधायक नीता पटेरिया, कमल मर्सकोले या सांसद के.डी.देशमुख को
दिखाई नहीं देती? दिखाई सुनाई तो देती होगी पर शायद वे ‘‘मजबूर‘‘ हैं, उनकी मजबूरी क्या है यह बात तो सिर्फ और
सिर्फ वे ही बता सकते हैं।
अप्रेल माह में एक चार साल की अबोध
बच्ची के साथ दुराचार होता है और उसकी मौत हो जाती है। दुराचार करने का आरोपी
झाबुआ पावर लिमिटेड में वेल्डर का काम करने वाला गौतम थापर का मुलाजिम निकलता है।
पुलिस ने इसका चरित्र सत्यापन और मुसाफिरी दर्ज नहीं की थी। करती भी क्यों गौतम
थापर का इकबाल सियासी गलियारों में जमकर बुलंद है और लक्ष्मी माता की कृपा उन पर
बरसती है, सो सरकारी मुलाजिम उनकी देहरी पर सलामी बजाएं तो किसी को आश्चर्य नहीं
होना चाहिए।
विडम्बना तो यह है कि इसके उपरांत भी
प्रशासन नहीं जागा। गत दिवस आठवीं कक्षा की एक बच्ची के साथ अश्लील इशारे कर रहा
था कंपनी का सुरक्षा कर्मी। कहते हैं लगभग तेरह साल की बच्ची को कंकर मारकर अपनी
ओर ध्यान आकर्षित कराने के बाद उक्त कर्मी ने अपनी पतलून उतार दी। बच्ची घबराई
चिल्लाई, आगे चल रहे उसके पिता का ध्यान उसकी ओर गया, तब जाकर यह विकृत मानसिकता वाला गौतम
थापर का कारिंदा पुलिस की पकड़ में आया।
यक्ष प्रश्न आज यही मन में कौंध रहा है
कि क्या घंसौर पुलिस और घंसौर में पदस्थ सरकारी नुमाईंदों के लिए झाबुआ पावर
लिमिटेड को अघोषित तौर पर मनमानी करने और अपनी रासलीला का अड्डा बनाने का फरमान
जारी किया है प्रदेश की भाजपा सरकार ने! अगर नहीं तो क्या कारण है कि झाबुआ पावर
लिमिटेड के अंदर हो रहे अवैध काम, निर्माणाधीन चिमनी से गिरकर होने वाली
मौतों, संयंत्र के अंदर मिलने वाले हिरण के शव, अवैध उत्खनन जैसी शिकायतों पर कार्यवाही
क्यों नहीं की जा रही है।
रही बात सिवनी में कथित तौर पर विध्न
संतोषियों की उपमाओं की तो जिनका दीन ईमान पैसा हो चुका है और जो पैसे के लिए
सिवनी को गिरवी रख चुके हैं वे अब भी संभल जाएं क्योंकि उनकी आने वाली पीढ़ी भी इसी
माहौल को अंगीकार करने वाली है। रही बात विकास की तो सिवनी की बहू बेटियों, विशेषकर कोमलांगी बालाओं की अस्मत की
कीमत पर सिवनी का विकास हमें नहीं चाहिए, और शायद ही सिवनी का कोई समझदार नागरिक
होगा जो अस्मत की कीमत पर विकास का सपना मन में संजोएगा. . .!
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