जिले में शिक्षा का दयनीय स्तर
(शरद खरे)
शिक्षा के क्षेत्र में सिवनी जिले की
स्थिति बेहद ही दयनीय प्रतीत हो रही है। मामला चाहे सरकारी स्तर पर संचालित शालाओं
का हो या निजी तौर पर संचालित शालाओं का, हर जगह गफलत ही गफलत नजर आ रही है। संवेदनशील
जिला कलेक्टर भरत यादव द्वारा जिले में शिक्षा के स्तर को उंचा उठाने के लिए
लगातार ‘कठोर कदम‘ उठाने की बात कहकर ‘कड़े निर्देश‘ जारी किए जा रहे हैं, पर शिक्षा विभाग के कारिंदे हैं कि जिले
के प्रशासनिक प्रमुख के निर्देशों को ही धता बताने से नहीं चूक रहे हैं।
जिले में कहीं भी चले जाएं वहां बच्चों
विशेषकर प्राथमिक शाला के बच्चों के अध्ययन कक्षों को देखकर आपकी रूह कांप उठेगी।
जर्जर शाला भवनों में कहीं पानी टपक रहा है, कहीं सीलन भरी है तो कहीं कंबल कीड़े
बच्चों पर गिर रहे हैं। सरकारी और गैर सरकारी शालाओं में न तो खेल मैदान हैं न
प्रयोगशालाएं और न ही कंप्यूटर लैब से सुसज्जित है स्कूल। कहने को शाला है, पर यहां पढ़ने वाले विद्यार्थियों से
पूछिए कि वे किस कदर नारकीय पीड़ा के बीच अध्ययन् ग्रहण कर रहे हैं।
एक समय था जब अध्ययन् अध्यापन के स्थान
को ‘गुरूकुल‘ की संज्ञा दी जाती थी। इस गुरूकुल में बच्चों को पढ़ाई लिखाई के साथ ही
साथ संस्कार आधारित व्यवहारिक शिक्षा भी दी जाती थी। उस वक्त राजा हो या रंक अगर
उसका पुत्र शिक्षा ग्रहण करने गुरूकुल गया है तो उसे गुरूकुल के नियम कायदों को
मानना ही होता था। उस समय बच्चों को जंगल से लकड़ी काटना, गाय दुहना, दहलान लीपना, भोजन बनाना आदि अनिवार्य होता था, ताकि वे व्यवहारिक शिक्षा ले सकें। उस
समय यह आवश्यक था।
समय बदलता गया गुरूकुलों का स्थान
अंग्रेजी स्कूलों ने ले लिया। मूल्य आधारित व्यवहारिक शिक्षा हाशिए में ही चली गई।
अब तो आम आदमी एक ही बात सोचता है कि वह अगर पैसा कमा रहा है तो बस दो बातों के
लिए। एक तो हारी बीमारी में चिकित्सक को देने के लिए और दूसरा बच्चों की पढ़ाई
लिखाई के लिए। आज के समय में बच्चों की पढ़ाई एक मिशन है। कल तक मकान बनाना और
बच्ची की शादी करना एक मिशन माना जाता था, आज इसके मायने बदल चुके हैं।
जिले भर में संचालित सरकारी और गैर
सरकारी स्कूल में ‘दुकान विशेष‘ से कॉपी किताबें या यूनीफॉर्म खरीदने के लिए बच्चों को बाध्य किया जाता
है। अब तो शालाओं में बच्चों को हाउस, समूह या ग्रुप में बांटकर उनकी पोशाक भी
प्रथक रंग की कर दी गई है। इस पोषाक का लोअर बाजार में तीन से पांच सौ रूपए तथा टी
शर्ट दो से पांच सौ रूपए में मिल पाती है। इस पर उस शाला का मोनो चस्पा होता है।
इन टी शर्ट और लोअर की कीमत जालंधर या दिल्ली में महज तीस से पचास रूपए होती है।
दुकानदारों का कहना है कि उन्हें यूनीफॉर्म बेचने के लिए शाला प्रबंधन को मोटी
रिश्वत देनी होती है तो वे भला कहां से निकालेंगे पैसे? जाहिर है जेब पालक की ही कटनी है।
मध्यान्ह भोजन की गुणवत्ता तो बस मत
पूछिए। जिला कलेक्टर खुद कई स्थानों पर मध्यान्ह भोजन की गुणवत्ता चेक कर चुके
हैं। आखिर क्या कारण है कि मध्यान्ह भोजन की गुणवत्ता के लिए जिम्मेदार सरकारी
मुलाज़िम अपने कर्त्तव्यों के बजाए पैसा कमाने में ज्यादा दिलचस्पी ले रहे हैं।
ग्राम पंचायत, जनपद या जिला पंचायत के नुमाईंदे, यहां तक कि सांसद विधायक आखिर मौन क्यों
हैं? क्या सांसद विधायक बता पाएंगे कि आज तक उन्होंने कितनी शालाओं में जाकर
मध्यान्ह भोजन का निरीक्षण किया।
कांग्रेस भाजपा के संगठन प्रमुखों से
लेकर मंत्री सांसद विधायक भी साल में दो तीन बार बच्चों के बीच बैठकर ‘लज़ीज‘ मध्यान्ह भोजन का लुत्फ उठाते हुए फोटो
में मीडिया की सुर्खी बन जाते हैं पर क्या वे अपने दिल पर हाथ रखकर इस बात को बता
सकते हैं कि कितनी मर्तबा उन्होंने शालाओं में जाकर बन रहे मध्यान्ह भोजन का औचक
निरीक्षण किया। क्या जिला पंचायत अध्यक्ष सहित अन्य नुर्माइंंदे, जनपद या ग्राम पंचायत के लोग कभी शाला
जाकर इसके निरीक्षण का समय निकाल पाए?
जिले में सरकारी शालाओं में शिक्षकों की
कमी साफ दिखाई पड़ती है। ग्रामीण अंचलों में पदस्थ सिवनी में रहने वाले शिक्षक रोज
आना जाना करते हैं, क्या आदेगांव या शिकारा में पदस्थ शिक्षक सिवनी से बस का सफर तय कर वहां
पहुंचने के बाद इस काबिल बचता होगा कि वह बच्चों को पढ़ा सके। शाम ढलते ही आखिरी बस
का टाईम मिलाने के चक्कर में वह बच्चों को पढ़ाने के बजाए बार बार घड़ी ही देखता नजर
आता है।
शालाओं में इंटरनेट और कंप्यूटर लेब
होना जरूरी है। जिला मुख्यालय में ही इंटरनेट पार्लर्स में बच्चे प्रोजेक्ट की
चीजें पार्लर संचालक से मांगते नजर आते हैं। एक बार पुनः अभिभावक की ही जेब तराशी
होती है। क्या जिला शिक्षा अधिकारी ने कभी शालाओं विशेषकर निजी शालाओं में जाकर इस
बात की जानकारी ली है कि निर्धारित मापदण्डों के हिसाब से उनकी कंप्यूटर लेब और
इंटरनेट काम कर रहा है या नहीं। जब इस मद में निजी शिक्षण संस्थाएं अभिभावकों से
शुल्क लेती हैं तो इसका उपयोग बच्चों को करने देने के बजाए उन्हें प्राजेक्ट के
लिए बाहर क्यों भेजा जाता है?
जिले के प्रभारी मंत्री नाना भाऊ माहोड़
के पास स्कूल शिक्षा विभाग है। जिले का सौभाग्य है कि संवेदनशील कलेक्टर भरत यादव
की तैनाती यहां हुई है, नियम कायदों पर चलने वाले जिला शिक्षा अधिकारी रवि बघेल यहां पदस्थ हैं
तब तो कम से कम जिले में शिक्षा का स्तर रसातल में नहीं जाना चाहिए। अगर यह हो रहा
है तो जरूरत है आत्म मंथन की . . .।
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