क्या हिन्दुस्तान में महज 11 शहरों में ही जनता रहती है!
(लिमटी खरे)
चलो देर से ही सही सरकार ने वायू प्रदूषण रोकने के नए मानक जारी कर इन पर कडाई से पालन सुनिश्चित करने का मानस बनाया है। वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने डेढ दशक के बाद वायू प्रदूषण को रोकने के लिए गुणवत्ता के नए मानक बनाकर उन्हें काफी हद तक सख्त कर दिया है।
सरकार के इस कदम का स्वागत किया जाना चाहिए जिसमें सरकार ने इन मानकों को रिहाईशी और औद्योगिक दोनों ही जगहों पर समान रूप से लागू करने की बात कही है। नए मानकों में घातक धातुओं और हानीकारक गैस को भी इसी श्रेणी में रखा गया है।
केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश की यह बात समझी जा सकती है कि मानकों को लागू करना इतर बात है पर इन पर अमल कराना दुष्कर कार्य है। दरअसल देश की व्यवस्था को पूरी तरह जंग लग चुकी है। यही कारण है कि नियम कायदों को बलाए ताक पर रखने में सरकारी नुमाईंदे पल भर भी नहीं झिझकते।
केंद्र सरकार ने तय किया है कि अप्रेल 2010 से चुनिंदा 11 शहरों मेें यूरो तीन और चार मानकों पर अमल जरूरी हो जाएगा। इसका कडाई से अगर पालन किया गया तो इन शहरों में डीजल से चलने वाले वाहन नजर ही नहीं आएंगे, क्योंकि डीजल से चलने वाले वाहन सबसे अधिक प्रदूषण फैलाते हैं।
सवाल तो यह उठता है कि क्या देश में महज 11 शहरों में ही जनता निवास कर रही है। समूचे देश में यूरो मानकों का सरेआम माखौल उडाया जा रहा है। प्रदूषण के अनेक प्रकारों से देशवासियों को तरह तरह की बीमारियों से दो चार होना पड रहा है।
वर्तमान में केंद्र के अलावा राज्यों में भी प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड अस्तित्व में है। क्या ये बोर्ड साफ मन से प्रदूषण रोकने की कार्यवाही कर रहा है। जाहिर है जवाब नकारात्मक ही मिलेगा। प्रदूषण नियंत्रण महकमे का काम प्रदूषण को नियंत्रित करने के बजाए धन उगाही ज्यादा हो गया है। देश भर में बिछ रहे सडकों के जाल के लिए पत्थर तोडकर गिट्टी बनाने वाले क्रेशर गांव गांव शहर शहर धूल उडा रहे हैं, पर इस ओर देखने वाला कोई नहीं है।
देश में शहरों के साथ ही साथ अब गांव में भी स्वास जनित बीमारियों के मरीजों की खासी तादाद हो गई है। इसका कारण वायू प्रदूषण ही है। इसके अलावा शादी ब्याह, मेले ठेले में कान फोडू आवाज में बजने वाले डीजे साउंड सिस्टम ने लोगों को बहरा बनाना भी आरंभ कर दिया है।
पश्चिमी देशों में पूरी तरह बैन हो चुकी पालीथिन ने भारत को अपना घर बना लिया है। आज शहरों के इर्द गिर्द पेड पौधों पर लटकी पालीथिन की थैलियों को देखकर लगता है मानो हरे भरे झाडों नहीं वरन पालीथिन के जंगल लगे हों। सरकार कई मर्तबा चेतावनी भी जारी कर चुकी है कि पालीथिन का उपयोग मानव के लिए घातक है, पर किसी के कानों में जूं नहीं रेंगती।
अभी ज्यादा समय नहीं बीत जबकि लोग कपड़े के थैले लेकर बाजार जाया करते थे, आज लोग खाली हाथ जाते हैं, और बाजार से इस विनाशकारी पालीथिन में सामान लेकर हाथ झुलाते लौट आते हैं। उपयोग के उपरांत पालीथिन को फेंक दिया जाता है, जिसे मवेशी खा जाते हैं, जिससे उनकी सेहत पर भी प्रतिकूल प्रभाव पडता है।
देश की राजनैतिक राजधानी दिल्ली में सरकार ने पालीथिन के उपयोग पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया है, बावजूद इसके दिल्ली मेें पालीथिन का उपयोग धडल्ले से किया जा रहा है। यहां तक कि लोगों को चाय तक पालीथिन में ही पार्सल होकर मिल रही है।
पश्चिमी देशों की चकाचौंध ने हमें आकषिZत कर रखा है, यह बात किसी से छिपी नहीं है। वस्तुत: हम इस चकाचौंध की जद में आकर पश्चिमी देशों के कचरे को अपना रहे हैं। अमेरिका और यूके से आने वाले उपयोग किए हुए इलेक्ट्रानिक समान, चीन के सस्ते उपकरण आदि हमारे यहां कुछ दिन तो बेहतर काम करते है, फिर ये कचरे के ढेर में तब्दील हो जाते हैं, इन कचरों को ठिकाने लगाने की उचित व्यवस्था हमारे पास नहीं है। ये इलेक्ट्रानिक कचरे देश में पर्यावरण असंतुलन बनाने के मार्ग प्रशस्त कर रहे हैं।
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व काल में आरंभ की गई स्विर्णम चतुभुZज और उत्तर दक्षिण तथा पूर्व पश्चिम कारीडोर सकड परियोजना के चलते न जाने कितने झाड काट दिए गए। इसके बदले ठेकेदारों ने कितने झाड लगाए हैं, इसका हिसाब किताब किसी के पास नहंी है। देश में पर्यावरण असंतुलन का एक बडा कारण यह भी है।
हम जयराम रमेश की इस बात का समर्थन करते हैं कि कानून या मानक बनाना आसान है, पर उसका पालन कराना दुष्कर। हमारा कहना महज इतना ही है कि सरकर ही जब इस तरह से काम आरंभ करने के पहले हाथियार डालने की मुद्रा में आ जाएगी तो हो चुका कानूनों का पालन।
महज दिखावे या आत्म संतोष के लिए कानून बनाने का क्या फायदा। सरकार को चाहिए कि इस तरह की कार्ययोजना बनाए जिसमें कानूनों का पालन सुनिश्चित किया जा सके। और इसके लिए सरकार को सबसे पहले अपने घर से ही शुरूआत करनी होगी।
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