नए राज्यों के बहाने सियातस
जनसेवकों द्वारा क्षेत्रवाद, भाषावाद को बढावा देने की कोशिश
(लिमटी खरे)
पृथक तेलंगाना के बाद अब प्रधानमंत्री की कुर्सी पर नजर गडाने वाली बसपा सुप्रीमो मायावती ने तेलंगाना की ही तर्ज पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश और बुंदेलखण्ड को भी अगल राज्य बनाने की सिफारिश कर अलग राज्यों को बनाने के वातावरण प्रशस्त कर दिए हैं। उधर गोरखालेण्ड और विदर्भ के साथ ही साथ अब महाकौशल प्रांत बनाने की मांग भी जोर पकडने लगी है।
देखा जाए तो 26 जनवरी 1950 को भारत गणराज्य में गणतंत्र की स्थापना की गई थी। भारत एक एसा देश है जहां संघीय कानूनों के अलावा राज्यों के अपने कानून भी अस्तित्व में हैं। देश के प्रत्येक भाग को विकसित और रियाया को बुनियादी सुविधाएं मुहैया कराने की गरज से यहां राज्यों का गठन या पुर्नगठन सामान्य प्रक्रिया है। इसी साल जून माह में केंद्र सरकार को देश के टीआरएस, गोरखा जनमुक्ति मोर्चा सहित विभिन्न गैर सरकारी संगठनों के माध्यम से दस नए राज्यों के गठन के प्रस्ताव मिले थे, जिन्हें विचार हेतु सरकार ने स्वीकार कर लिया था।
गौरतलब होगा कि इससे पूर्व तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी ने 2001 में तीन नए राज्यों का गठन किया था। जिनमें मध्य प्रदेश को विभाजित कर छत्तीसगढ, उत्तर प्रदेश से उत्तराखण्ड और बिहार से झारखण्ड की संरचना की थी। केंद्र को मिले प्रस्ताव में गुजरात से सौराष्ट्र, कर्नाटक से कोर्ग, बिहार से मिथिलांचल, आंध्र से तेलंगना, दार्जलिंग से गोरखालेण्ड, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के कुछ जिलों से बुंदेलखण्ड, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश के कुछ हिस्सों से विदर्भ के जन्म की बात कही गई है।
संवैधानिक विशेषज्ञों के अनुसार संसद को यह अधिकार है कि वह किसी भी राज्य के क्षेत्रफल को कम या ज्यादा कर सकता है, उनके नाम में परिवर्तन कर सकता है। वह इस मसले में संबंधित राज्य से रायशुमारी कर सकता है, पर राय मानने के लिए वह बाध्य नहीं है।
जमीनी जरूरतों और दुश्वारियों को ध्यान में रख भारत गणराज्य के मानचित्र में राज्यों के नक्शों में फेरबदल का लंबा इतिहास है। ज्ञातव्य है कि सबसे पहले 1 अक्टूबर 1953 को प्रभावी भाषाई आंदोलन के चलते आंध्र प्रदेश अस्तित्व में आया था। इसके उपरांत दिसंबर 1953 में के.एम.पणिकर, सैयद फैजल अली और हृदयनाथ कुंजरू को जोडकर तीन सदस्यीय आयोग का गठन किया गया था, जिसकी अनुशंसा पर व्यापक फेरबदल किए गए थे। इस व्यवस्था के तहत दो तरह के राज्य अस्तित्व में आए, एक पूर्ण राज्य दूसरे केंद्र शासित प्रदेश।
1966 में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमति इंदिरा गांधी ने पंजाब को तीन तो असम को सात राज्यों में विभाजित कर दिया था। इंदिरा गांधी ने यह प्रयोग काफी विचार विमर्श के उपरांत किया था, उन्हें डर था कि भाषाई, संस्कृति, बोलचाल के आधार पर अगर राज्यों का गठन किया गया तो संघीय ढांचा कहीं डगमगा न जाए, किन्तु उनका प्रयोग सफल रहा था।
अमूमन राज्यों के क्षेत्रफल को कम करने से आम जनता को ही राहत मिलती है, किन्तु अगर यह काम राजनैतिक मंतव्य को ध्यान में रखकर किया जाता है तो इसके परिणाम बहुत अच्छे सामने नहीं आते हैं। शासकों को यह नहीं भूलना चहिए कि राज्य के स्थापना खर्च में उसी राशि को फूंका जाता है जो गरीब गुरबों के विकास के लिए संचित निधि होती है।
उधर तेलंगाना के अस्तित्व में आने के मार्ग जैसे ही केंद्र सरकार ने प्रशस्त कर दिए वैसे ही आंध्र प्रदेश सुलग उठा। तेलगू देशम और कांग्रेस दोनों ही चाहते हैं कि तेलंगाना अस्तित्व में आए पर वर्तमान हालातों को देखकर यह संभव नहीं प्रतीत हो रहा है। गौरतलब होगा कि 1953 के पहले तेलंगाना और आंध्र दो पृथक राज्य हुआ करते थे।
इतिहास उठाकर देखा जाए तो पता चलता है कि हैदराबाद के निजाम अपनी रियासत को पाकिस्तान का अंग बनाना चाहते थे, पर तत्कालीन गृहमंत्री लौहपुरूष सरदार वल्लभ भाई पटेल ने पुलिस को साथ ले निजाम के मंसूबों पर पानी फेर दिया था। तब से आज तक निजाम की रियासत का प्रमुख शहर हैदराबाद विवादित ही रहा है।
आज तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में विवाद सिर्फ हैदराबाद को लेकर ही है। आज हैदराबाद महज आंध्र प्रदेश की राजधानी ही नहीं वरन अध्याधुनिक शहर बन गया है। प्रगति के अनेक सौपान तय कर चुका है चारमीनारों का यह शहर। प्रोद्योगिकी विकास का यहां यह आलम है कि आज लोग इसे हैदराबाद के बजाए ``साईबरावाद`` कहने से नहीं चूकते हैं।
आंध्र प्रदेश और प्रस्तावित तेलंगाना दोनों ही सूबों के नेता किसी भी कीमत पर हैदराबाद को हाथ से जाने नहीं देना चाहते। हो सकता है कि केंद्र सरकार द्वारा पंजाब और हरियाणा की राजधानी चंडीगढ की तर्ज पर आंध्र प्रदेश और तेलंगाना की राजधानी हैदराबाद को बनाकर इसका हल निकाल दे।
नब्बे के दशक के उपरांत राजनीति जिस कदर मैली हुई है उसकी व्याख्या मुश्किल ही है। इसी गंदी राजनीति से उपज रही है अलग राज्यों की मांग। रियाया के विकास के लिए अगर राज्यों को विभाजित किया जाता है तो उसके पीछे लक्ष्य विकास ही होना चाहिए।
वस्तुत: एसा हो नहीं रहा है। एक राज्य में उभरने वाले शक्ति केंद्र अपनी अपनी सल्तनत की बसाहट अलग ही चाह रहे हैं। मंत्रीपद से वंचित जनसेवक लाल बत्ती की चाह में कुछ भी कर गुजरने को तैयार हैं। जनता के दुखदर्द से उन्हें कोई सरोकार नजर नहीं आता। अपने निहित स्वार्थों को पूरा करने के लिए जनसेवकों द्वारा भाषावाद, क्षेत्रवाद, जातिवाद को बढावा देना कोई नई बात नहीं है। यही कारण है कि विकास का नारा लेकर ``जनसेवा`` करने वाले ``जनसेवकों`` का तो विकास हो रहा है पर आम जनता फटी धोती में आधी रोटी से ही पेट भरने को मजबूर है।
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