इस बार ममतामयी नहीं होगा रेल बजट
जर्जर आर्थिक हालात से कराह रही है भारतीय रेल
मंत्री व्यस्त हैं रायटर बिल्डिंग पर कब्जा करने की जुगत में
(लिमटी खरे)
16 अप्रेल 1853 को मुंबई और ठाणे के बीच चली थी पहली रेल भारत में तब इसने 33 किलोमीटर का सफर तय किया था। इसके बाद 1853 से 1903 के बीच परातंत्र भारत में रेल्वे का जाल बहुत ही तेज गति से फैला। इस अवधि में ब्रिटिश इंजीनियर्स के मार्गदर्शन मंे हिन्दुस्तान के गुलाम मजदूरों ने दिन रात एक करके चालीस हजार किलोमीटर लंबी पटरियां बिछा दी थीं।
देश आजाद हुआ 1947 में और इतिहास इस बात का साक्षी है कि उसके बाद रेल्वे के विकास के पहिए बहुत ही मंथर गति से चलने लगे। इस वक्त तक भारत में लगभग 54 हजार किलोमीटर रेल्वे ट्रेक तैयार हो चुका था। इसके अगले 55 सालों में महज नौ हजार किलोमीटर ही इसे आगे बढ़ाया जा सका। आजादी के उपरांत 1951 में रेल का राष्ट्रीयकरण किया गया, जिसके बाद यह भारतीय रेल के नाम से पहचानी जाने लगी।
भारतीय रेल की पातों पर प्रतिदिन 13 हजार से अधिक रेलगाडियां दौड़ती हैं। 14 लाख कर्मचारियों से ज्यादा की फौैज इसके संभाल काम में लगी हुई है। चीन की सेना के बाद सबसे बड़ा नियोक्ता है, किन्तु व्यवसायिक न्योक्ता में यह विश्व मंे नंबर वन है।
रेल बजट आने को है, देशवासी बड़ी ही उम्मीदों के साथ रेल मंत्री ममता बनर्जी की ओर ताक रहे हैं, इस बार उनके पिटारे से क्या कुछ नया निकलने वाला है। पिछले वादे भी आज की तारीख में आधे अधूरे ही पड़े हुए हैं। भारतीय रेल की सेहत अच्छी नहीं कही जा सकती है विशेषकर आर्थिक तोर पर। बेलगाम अफसरशाही के घोड़े सरपट भागे चले जा रहे हैं, रेल मंत्री हैं कि पश्चिम बंगाल पर कब्जा जमाने के अपने सपने के साथ पूरा समय कोलकता के इर्द गिर्द ही बिता रही हैं।
देखा जाए तो भारतीय रेल में साफ सफाई के स्तर में किसी भी तरह का सुधार नहीं दिख रहा है। रेल गाड़ी जब गंतव्य पर पहुंचती है तब वहां उसकी धुलाई और साफाई का ठेका दिया जाता है आपको यह जानकार आश्चर्य होगा कि रेल्वे का पानी रेल्वे की बिजली का उपयोग कर ठेकेदार महज चार आदमी लगाकर प्रति रेलगाड़ी के रेक के लाखों रूपयों के ठेके हर माह लिया करते हैं। यात्रा के दौरान निश्चित दूरी के बाद ठहराव वाले स्टेशन पर भी रेल्वे के टायलेट आदि की सफाई का ठेका किया जाता है। अमूमन ठेकेदार के कारिंदों द्वारा वातानुकूलित श्रेणी के टायलेट की सफाई ही की जाती है। शेष शयनायन और जनरल क्लास के डब्बे दुर्गंध मारते ही मिलते हैं।
कमोबेश यही आलम खान पान सुविधा का है। खान पास सुविधा का स्तर सुधरा तो कतई नहीं अलबत्ता मंहगा अवश्य ही हो गया है। उपर से संपर्क क्रांति और कुछ अन्य रेलगाडियों में पेन्ट्री कार को भी बिदा कर दिया गया है। रेल के अंदर निजी तौर पर खाद्य सामग्री बेचने वालों की मौज हुआ करती है। इन अवांछित तत्वों को न तो टीसी और न ही रेल पुलिस द्वारा हकाला जाता है। कई मर्तबा तो इस तरह के अवैध वेण्डर्स द्वारा यात्रियों के साथ हाथापाई तक कर दी जाती है।
रेल्वे स्टेशन पर यात्रियों के बढ़ते दबाव के मद्देनजर भीड़भाड़ कम करने की योजना आज भी भारतीय रेल के कागजों पर जिन्दा है। रिक्शा, आटो, टेक्सी वालों के साथ ही साथ कचरा बीनने वाले बिना प्लेटफार्म टिकिट के ही रेलों के आसपास अपनी मौजूदगी दर्ज कराते रहते हैं, पर इन्हें रोकने वाला कोई नहीं होता है। इतना ही अनेक अनेक स्टेशन्स को वर्ल्ड क्लास बनाने का सपना आज आकार नहीं ले सका है। यही आलम मानव रहित रेल्वे क्रासिंग का है। समतल पार पर आज भी गेटमेन की नियुक्ति नहीं हो सकी है। टिकिट अपग्रेड होने की जानकारी भी आज के समय में भी पहले से नहीं मिल पाती है।
सुरक्षा को लेकर रेल मंत्री कभी भी संजीदा नहीं रहे हैं। हाल ही में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र और इसके आस पास के इलाकों में रेल यात्रियों के साथ लगातार बढ़ती लूटपाट की घटनाओं ने रेल्वे के सुरक्षा के चक्रव्यूह पर प्रश्नचिन्ह लगा दिए हैं। पिछले दिनों सीलमपुर इलाके में सशस्त्र गुण्डों और डकैतों ने चाकू की नौक पर यात्रियों को लूट लिया। इतना ही नहीं उंचाहार एक्सप्रेस में भी लाखों रूपयों की लूट इसी की पोल खोलने के लिए पर्याप्त कही जा सकती है।
ममता बनर्जी की अनदेखी के चलते भारतीय रेल का आलम यह है कि निजामुद्दीन इंदौर इंटरसिटी सहित अनेक रेल गाडियां एसी भी हैं जिनमें टिकिट चेकर का अता पता ही नहीं होता है। यात्रियों को न चार्ट मिल पाता है और न ही अपनी बर्थ की सही जानकारी। इन परिस्थितियों में यात्रियों के बीच जूतम पैजार होना आम बात है। यक्ष प्रश्न तो यह है कि इन रेलगाडियों में टीसी नहीं होते हैं फिर टिकिट रिफन्ड की स्थिति में ‘‘नान टर्नड अप‘‘ वाली स्थिति से रेल्वे को कौन आवगत कराता होगा।
आधारभूत ढांचे के मामले में भी भारतीय रेल का रिकार्ड बहुत ही बुरा है। हर साल चार सौ किलोमीटर से भी कम लाईनें विद्युतीकृत हो पाती हैं, जबकि सरकार का लक्ष्य 2000 किलोमीटर लाईनों का है। पिछले दस सालों में महज डेढ़ हजार किलोमीटर ही रूट लाईनें बढ़ पाई हैं। आंकड़ों पर नजर डाली जाए तो हर साल 1000 किलोमीटर के लक्ष्य के एवज में रेल्वे ने महज ढाई सौ किलोमीटर लाईन ही बना पाई है। अमान परिवर्तन का भी आलम कमोबेश यही है।
भारतीय रेल के सामने सबसे बड़ा संकट आर्थिक है। धन की कमी का रोना रोते अफसरान यही कहते मिल जाते हैं कि रेल मंत्री का सपना बिना पैसे तो पूरा होने से रहा। मध्यावधि आर्थिक समीक्षा में भी रेल्वे को आड़े हाथों ही लिया गया था। वर्तमान में नई लाईनों के 109, अमान परिवर्तन की 51 परियोजनाओं को मिलाकर कुल 286 परियोजनाएं चल रही हैं।
इन्हें पूरा करने के लिए रेल्वे को अस्सी हजार करोड़ रूपयों की दरकार है। इतनी राशि की मांग को देखकर रेल्वे के अधिकारियों के हाथ पैर फूलना लाजिमी है। रेल्वे ने अपनी परियोजनाओं में 123 को जरूरी तो 97 को बेहद जरूरी श्रेणी में चिन्हित किया था। रेल्वे ने राज्य सरकारों के अलावा निजी क्षेत्र के समक्ष भागीदारी का विकल्प खोला था, किन्तु रेल्वे की लालफीताशाही बेलगाम अफरशाही और बाबूराज के चलते इस तरह के प्रस्तावों में किसी ने रूचि नहीं दिखाई।
विद्युतीकरण के मामले में अगर आंकड़ों को खंगाला जाए तो एक दशक पूर्व यह आंकड़ा 14,856 था, जबकि पिछले साल यह आंकड़ा 18,800 किलोमीटर रहा। इससे साफ हो जाता है कि हर साल चार सौ से भी कम किलोमीटर को विद्युतीकरण से जोड़ा गया है। पिछले दो तीन सालों में तो महज चालीस फीसदी भी काम नहीं हो सका है।
रेल्वे का बुनियादी ढांचा बुरी तरह कराहते हुए ही रेंग रहा है। दुनिया भर के सबसे बड़े रेल नेटवर्क होने का दावा करने वाले हिन्दुस्तान के रेल महकमे ने पिछले दस सालों में रूट की लंबाई 63 हजार 28 किलोमीटर से बढ़ाकर 65 हजार 5 सौ किलोमीटर की है। रेल मंत्री की घोषणाओं के प्रति उनके मातहत कितने संजीदा हैं, इसकी एक बानगी देखिए। ममता बनर्जी द्वारा हर साल एक हजार किलोमीटर रेल लाईन बिछाने का दावा किया था, किन्तु इस साल 31 जनवरी तक महज ढाई सौ किलोमीटर लाईन ही बिछाई जा सकी है।
पिछले बजट के उपरांत रल मंत्रालय ने जनता भोजन दस रूपए में उपलब्ध कराना आरंभ किया था। यह योजना भी साल भर में परवान चढ़ती नहीं दिख रही है। मोटी मोटी कच्ची पुड़ी और अधपकी सब्जी वह भी ठंडा खाना खाने से यात्री गुरेज ही करते हैं। वेन्डर्स की मनमानी के चलते अनेक स्टेशन पर जनता खाना दिखाई ही नहीं पड़ पाता है।
अप्रेल 2010 में रेल मंत्रालय ने बोतल बंद पानी को छः रूपए मंे उपलब्ध कराने का मन बनाकर घोषणा की थी। आज साल पूरा होने को है, रेल्वे स्टेशन पर गर्म बोतलबंद पानी की कीमत पंद्रह रूपए तो ठंडे किए गए बोतलबंद पानी की कीमत सत्रह से बीस रूपए है। प्लेटफार्म पर चलने वाले नलों की हड़ताली स्थिति को देखकर यात्रियों को मंहगा बोतल बंद पानी पीने मजबूर होना पड़ता है।
वातानुकूलित श्रेणियों में मिलने वाले बिस्तर अर्थात बेड रोल का भी अलग मजा है। सालों साल इसमें मिलने वाले कंबल न धोए जाते हैं और न ही ड्राई क्लीन किए जाते हैं। अगर शिकायत करने जाईए तो कोच अटेंडेंट मरा सा चेहरा लेकर आपके सामने आकर खड़ा हो जाता है -‘‘साहेब क्यों गरीब के पेट पर लात मारते हैं, ठेकेदार भगा देना फिर कैसे पाला जाएगा परिवार का पेट?‘‘ अब बताईए इन परिस्थितियों में भारतीय रेल का यात्री आखिर करे तो क्या?
देश आजाद हुआ 1947 में और इतिहास इस बात का साक्षी है कि उसके बाद रेल्वे के विकास के पहिए बहुत ही मंथर गति से चलने लगे। इस वक्त तक भारत में लगभग 54 हजार किलोमीटर रेल्वे ट्रेक तैयार हो चुका था। इसके अगले 55 सालों में महज नौ हजार किलोमीटर ही इसे आगे बढ़ाया जा सका। आजादी के उपरांत 1951 में रेल का राष्ट्रीयकरण किया गया, जिसके बाद यह भारतीय रेल के नाम से पहचानी जाने लगी।
भारतीय रेल की पातों पर प्रतिदिन 13 हजार से अधिक रेलगाडियां दौड़ती हैं। 14 लाख कर्मचारियों से ज्यादा की फौैज इसके संभाल काम में लगी हुई है। चीन की सेना के बाद सबसे बड़ा नियोक्ता है, किन्तु व्यवसायिक न्योक्ता में यह विश्व मंे नंबर वन है।
रेल बजट आने को है, देशवासी बड़ी ही उम्मीदों के साथ रेल मंत्री ममता बनर्जी की ओर ताक रहे हैं, इस बार उनके पिटारे से क्या कुछ नया निकलने वाला है। पिछले वादे भी आज की तारीख में आधे अधूरे ही पड़े हुए हैं। भारतीय रेल की सेहत अच्छी नहीं कही जा सकती है विशेषकर आर्थिक तोर पर। बेलगाम अफसरशाही के घोड़े सरपट भागे चले जा रहे हैं, रेल मंत्री हैं कि पश्चिम बंगाल पर कब्जा जमाने के अपने सपने के साथ पूरा समय कोलकता के इर्द गिर्द ही बिता रही हैं।
देखा जाए तो भारतीय रेल में साफ सफाई के स्तर में किसी भी तरह का सुधार नहीं दिख रहा है। रेल गाड़ी जब गंतव्य पर पहुंचती है तब वहां उसकी धुलाई और साफाई का ठेका दिया जाता है आपको यह जानकार आश्चर्य होगा कि रेल्वे का पानी रेल्वे की बिजली का उपयोग कर ठेकेदार महज चार आदमी लगाकर प्रति रेलगाड़ी के रेक के लाखों रूपयों के ठेके हर माह लिया करते हैं। यात्रा के दौरान निश्चित दूरी के बाद ठहराव वाले स्टेशन पर भी रेल्वे के टायलेट आदि की सफाई का ठेका किया जाता है। अमूमन ठेकेदार के कारिंदों द्वारा वातानुकूलित श्रेणी के टायलेट की सफाई ही की जाती है। शेष शयनायन और जनरल क्लास के डब्बे दुर्गंध मारते ही मिलते हैं।
कमोबेश यही आलम खान पान सुविधा का है। खान पास सुविधा का स्तर सुधरा तो कतई नहीं अलबत्ता मंहगा अवश्य ही हो गया है। उपर से संपर्क क्रांति और कुछ अन्य रेलगाडियों में पेन्ट्री कार को भी बिदा कर दिया गया है। रेल के अंदर निजी तौर पर खाद्य सामग्री बेचने वालों की मौज हुआ करती है। इन अवांछित तत्वों को न तो टीसी और न ही रेल पुलिस द्वारा हकाला जाता है। कई मर्तबा तो इस तरह के अवैध वेण्डर्स द्वारा यात्रियों के साथ हाथापाई तक कर दी जाती है।
रेल्वे स्टेशन पर यात्रियों के बढ़ते दबाव के मद्देनजर भीड़भाड़ कम करने की योजना आज भी भारतीय रेल के कागजों पर जिन्दा है। रिक्शा, आटो, टेक्सी वालों के साथ ही साथ कचरा बीनने वाले बिना प्लेटफार्म टिकिट के ही रेलों के आसपास अपनी मौजूदगी दर्ज कराते रहते हैं, पर इन्हें रोकने वाला कोई नहीं होता है। इतना ही अनेक अनेक स्टेशन्स को वर्ल्ड क्लास बनाने का सपना आज आकार नहीं ले सका है। यही आलम मानव रहित रेल्वे क्रासिंग का है। समतल पार पर आज भी गेटमेन की नियुक्ति नहीं हो सकी है। टिकिट अपग्रेड होने की जानकारी भी आज के समय में भी पहले से नहीं मिल पाती है।
सुरक्षा को लेकर रेल मंत्री कभी भी संजीदा नहीं रहे हैं। हाल ही में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र और इसके आस पास के इलाकों में रेल यात्रियों के साथ लगातार बढ़ती लूटपाट की घटनाओं ने रेल्वे के सुरक्षा के चक्रव्यूह पर प्रश्नचिन्ह लगा दिए हैं। पिछले दिनों सीलमपुर इलाके में सशस्त्र गुण्डों और डकैतों ने चाकू की नौक पर यात्रियों को लूट लिया। इतना ही नहीं उंचाहार एक्सप्रेस में भी लाखों रूपयों की लूट इसी की पोल खोलने के लिए पर्याप्त कही जा सकती है।
ममता बनर्जी की अनदेखी के चलते भारतीय रेल का आलम यह है कि निजामुद्दीन इंदौर इंटरसिटी सहित अनेक रेल गाडियां एसी भी हैं जिनमें टिकिट चेकर का अता पता ही नहीं होता है। यात्रियों को न चार्ट मिल पाता है और न ही अपनी बर्थ की सही जानकारी। इन परिस्थितियों में यात्रियों के बीच जूतम पैजार होना आम बात है। यक्ष प्रश्न तो यह है कि इन रेलगाडियों में टीसी नहीं होते हैं फिर टिकिट रिफन्ड की स्थिति में ‘‘नान टर्नड अप‘‘ वाली स्थिति से रेल्वे को कौन आवगत कराता होगा।
आधारभूत ढांचे के मामले में भी भारतीय रेल का रिकार्ड बहुत ही बुरा है। हर साल चार सौ किलोमीटर से भी कम लाईनें विद्युतीकृत हो पाती हैं, जबकि सरकार का लक्ष्य 2000 किलोमीटर लाईनों का है। पिछले दस सालों में महज डेढ़ हजार किलोमीटर ही रूट लाईनें बढ़ पाई हैं। आंकड़ों पर नजर डाली जाए तो हर साल 1000 किलोमीटर के लक्ष्य के एवज में रेल्वे ने महज ढाई सौ किलोमीटर लाईन ही बना पाई है। अमान परिवर्तन का भी आलम कमोबेश यही है।
भारतीय रेल के सामने सबसे बड़ा संकट आर्थिक है। धन की कमी का रोना रोते अफसरान यही कहते मिल जाते हैं कि रेल मंत्री का सपना बिना पैसे तो पूरा होने से रहा। मध्यावधि आर्थिक समीक्षा में भी रेल्वे को आड़े हाथों ही लिया गया था। वर्तमान में नई लाईनों के 109, अमान परिवर्तन की 51 परियोजनाओं को मिलाकर कुल 286 परियोजनाएं चल रही हैं।
इन्हें पूरा करने के लिए रेल्वे को अस्सी हजार करोड़ रूपयों की दरकार है। इतनी राशि की मांग को देखकर रेल्वे के अधिकारियों के हाथ पैर फूलना लाजिमी है। रेल्वे ने अपनी परियोजनाओं में 123 को जरूरी तो 97 को बेहद जरूरी श्रेणी में चिन्हित किया था। रेल्वे ने राज्य सरकारों के अलावा निजी क्षेत्र के समक्ष भागीदारी का विकल्प खोला था, किन्तु रेल्वे की लालफीताशाही बेलगाम अफरशाही और बाबूराज के चलते इस तरह के प्रस्तावों में किसी ने रूचि नहीं दिखाई।
विद्युतीकरण के मामले में अगर आंकड़ों को खंगाला जाए तो एक दशक पूर्व यह आंकड़ा 14,856 था, जबकि पिछले साल यह आंकड़ा 18,800 किलोमीटर रहा। इससे साफ हो जाता है कि हर साल चार सौ से भी कम किलोमीटर को विद्युतीकरण से जोड़ा गया है। पिछले दो तीन सालों में तो महज चालीस फीसदी भी काम नहीं हो सका है।
रेल्वे का बुनियादी ढांचा बुरी तरह कराहते हुए ही रेंग रहा है। दुनिया भर के सबसे बड़े रेल नेटवर्क होने का दावा करने वाले हिन्दुस्तान के रेल महकमे ने पिछले दस सालों में रूट की लंबाई 63 हजार 28 किलोमीटर से बढ़ाकर 65 हजार 5 सौ किलोमीटर की है। रेल मंत्री की घोषणाओं के प्रति उनके मातहत कितने संजीदा हैं, इसकी एक बानगी देखिए। ममता बनर्जी द्वारा हर साल एक हजार किलोमीटर रेल लाईन बिछाने का दावा किया था, किन्तु इस साल 31 जनवरी तक महज ढाई सौ किलोमीटर लाईन ही बिछाई जा सकी है।
पिछले बजट के उपरांत रल मंत्रालय ने जनता भोजन दस रूपए में उपलब्ध कराना आरंभ किया था। यह योजना भी साल भर में परवान चढ़ती नहीं दिख रही है। मोटी मोटी कच्ची पुड़ी और अधपकी सब्जी वह भी ठंडा खाना खाने से यात्री गुरेज ही करते हैं। वेन्डर्स की मनमानी के चलते अनेक स्टेशन पर जनता खाना दिखाई ही नहीं पड़ पाता है।
अप्रेल 2010 में रेल मंत्रालय ने बोतल बंद पानी को छः रूपए मंे उपलब्ध कराने का मन बनाकर घोषणा की थी। आज साल पूरा होने को है, रेल्वे स्टेशन पर गर्म बोतलबंद पानी की कीमत पंद्रह रूपए तो ठंडे किए गए बोतलबंद पानी की कीमत सत्रह से बीस रूपए है। प्लेटफार्म पर चलने वाले नलों की हड़ताली स्थिति को देखकर यात्रियों को मंहगा बोतल बंद पानी पीने मजबूर होना पड़ता है।
वातानुकूलित श्रेणियों में मिलने वाले बिस्तर अर्थात बेड रोल का भी अलग मजा है। सालों साल इसमें मिलने वाले कंबल न धोए जाते हैं और न ही ड्राई क्लीन किए जाते हैं। अगर शिकायत करने जाईए तो कोच अटेंडेंट मरा सा चेहरा लेकर आपके सामने आकर खड़ा हो जाता है -‘‘साहेब क्यों गरीब के पेट पर लात मारते हैं, ठेकेदार भगा देना फिर कैसे पाला जाएगा परिवार का पेट?‘‘ अब बताईए इन परिस्थितियों में भारतीय रेल का यात्री आखिर करे तो क्या?
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