कहां जाती हैं पकड़ी गई गायें!
(लिमटी खरे)
गाय को भारत गणराज्य में माता का दर्जा दिया गया है। सनातन पंथी अनेक धर्मावलंबी लोग आज भी गाय की रोटी (गौ ग्रास) निकालकर ही भोजन ग्रहण करते हैं। गाय से दूध मिलता है जिसके अनेक उत्पाद हमारे जीवन में उपयोगी हैं, वहीं गाय का गोबर भी अनेक कामों में आ जाता है। आदि अनादि काल से पूज्यनीय इस गौ माता को आक्सीटोन नामक जहर की नजर लग गई है। किसानों की कामधेनू अब वाकई उसके लिए धनोपार्जन का साधन बन चुकी है। कत्लखाने जाने वाली गायों को पुलिस पकड़ लेती है किन्तु ये गायें उसके बाद अब जाती कहां हैं, यह शोध का विषय ही है। सरकारों द्वारा दी जाने वाली इमदाद के बावजूद भी गौशालाओं की स्थिति बद से बदतर हो चुकी है। गोवंश के नाम पर राजनीति करने वाली भाजपा शासित राज्यों में भी गायों की दुर्दशा दिल दहलाने वाली है।
आदि अनादि काल से गाय का हमारे समाज और दैनिक जीवन में महत्वपूर्ण रोल रहा है। ऋषि मुनियों के आश्रम से लेकर आज तक के ग्रामीण अंचलों में गाय का रंभाना हमारे दिल के तार हिला देता है। भगवान श्री कृष्ण की लीलाएं भी गाय बिना अधूरी ही लगती है। ग्वाला समुदाय का प्रतिनिधित्व किया था उन्होंने। अभी ज्यादा दिन नहीं बीते जब महानगरों को छोड़कर शेष शहरों, कस्बों, मजरों और टोलों में अलह सुब्बह ‘अम्मा, दूध ले लो‘ की पुकार कमोबेश हर घर में सुनाई दे जाती थी। शहरों के उपनगरीय इलाकों, मजरों टोलो और साथ लगे गांव से दूध वाले सुबह शहरों की ओर रूख करते दूध देते फिर सूरज चढ़ते ही बाजार से सौदा (किराना और अन्य जरूरत का सामान) लेकर गांव की ओर कूच कर जाते।
गाय का दान करने के बारे में कुरीतियां भी बहुत हैं। मुंशी प्रेमचंद द्वारा ‘गोदान‘ नामक उपन्यास लिखा गया जिसने तहलका मचा दिया था। सनातन पंथियों के अनेक संस्कारों में गोदान का बड़ा ही महत्व माना गया है। गाय का दूध बहुत ही पोष्टिक माना गया है। गाय की सेवा पुण्य का काम है। राह चलते लोग गाय के पैर पड़ते दिख जाया करते हैं। हिन्दुस्तान में गायों को एक ओर पूजा जाता है तो दूसरी ओर गाय का मांस भी खाया जाता है।
शहरों में आवार मवेशियों की धर पकड़ के लिए स्थानीय निकाय ही पाबंद हुआ करते थे। नगर पंचायत, नगर पालिका, नगर निगमों और ग्राम पंचायतों के कर्मचारी आवारा घूमते मवेशियों को पकड़कर उन्हें एक स्थान विशेष जिसे ‘कांजी हाउस‘ कहा जाता था, में बंद कर दिया करते थे। बाद में जुर्माना अदा करने पर पशु मालिक अपने जानवर को छुड़ाकर ले जाता था। नई पीढ़ी को तो इस कांजी हाउस के बारे में जानकारी ही नहीं होगी क्योंकि शहरों के कांजी हाउस पर तो कब का अतिक्रमण या बेजा कब्जा हो चुका है। हां इसमें पशुओं के लिए खुराक की व्यवस्था आज भी हो रही है।
कत्लखानों में गाय या बैल के मांस को लेकर जब तब राजनैतिक दलों और समुदायों में टकराव के उपरांत कानून व्यवस्था की स्थिति निर्मित हो जाती है। गायों के परिवहन के दौरान पुलिस द्वारा गायों को पकड़ा जाता है बाद में इन पकड़ी गई गायों का क्या होता है, इसकी सुध लेने वाला कोई नहीं होता है। न गाय के परिवहन की गुप्त सूचना देने वाले और न ही गाय के नाम पर राजनीति करने वाले गैर सरकारी या राजनैतिक संगठन। इन गायों को पकड़ने के बाद इन्हें गोशालाओं में दे दिया जाता है। उसके बाद गोशालाओं में इन गायों के साथ क्या सलूक होता है, इस बारे में कोई कुछ भी नहीं जानता।
गोशालाओं का संचालन बहुत ही पुण्य का काम है। गौशाला संचालकों द्वारा शहरों की शाकाहारी होटलों का बचा हुआ जूठन, सब्जी मण्डी का बेकार माल आदि ले जाकर इन गायों को खिलाया जाता है। समाज सेवी बढ़ चढ़कर इनके संचालन में आर्थिक सहयोग दिया करते हैं। इतना ही नहीं सरकार द्वारा भी गौशालाओं को अनुदान दिया जाता है। हालात देखकर लगने लगा है मानो गौशाला का संचालन अब पुण्य के काम के स्थान पर कमाई का जरिया बन चुका है।
गौवंश के नाम पर राजनीति करने वाली भारतीय जनता पार्टी द्वारा शासित नगर निगम दिल्ली का ही उदहारण लिया जाए तो अनेक चौंकाने वाले तथ्य सामने आ सकते हैं। दिल्ली नगर निगम ने जितनी गाय पकड़ी हैं, उनमें से नब्बे फीसदी गाय काल का ग्रास बनी हैं। यह आलम तब है जब दिल्ली नगर निगम द्वारा गौशालाओं के संचालन के लिए छः करोड़ रूपए सालाना से अधिक का अनुदान देता है।
दिल्ली मेें आवारा पशुओं विशेषकर गोवंश को लेकर बहुत ही बड़ा खेल खेला जाता है। दिल्ली में आवारा घूमते मवेशी विशेषकर गाय के लिए गौ सदन बने हैं जिनमें हरेवली का गोपाल गौसदन, सुल्तानपुर डबास का श्रीकिसन गौसदन, सुरहेड़ा का डाबर हरे किसन गौ सदन, रेवला खानपुर का मानव गौसदन, घुम्मनहेड़ा का आचार्य सुशील गौ सदन आदि प्रमुख हैं। आंकड़ों पर अगर गौर फरमाया जाए तो वर्ष 2008 में मई से अक्टूबर तक छः माह की अवधि में इन गोशालाओं में 11 हजार 26 गाय पकड़कर भेजी गई थी, जिनमें से 10 हजार 716 गाय असमय ही काल के गाल में समा गईं।
इसी तरह वर्ष 2007 के आंकड़े दिल दहला देने वाले हैं। इस साल कुल 10574 गायों को पकड़ा गया था। इस साल कुल 10793 गाय मर गईं थीं। है न हैरानी वाली बात। इसका तात्पर्य यही हुआ कि इस साल पकड़ी एक भी गाय जीवित नहीं बची और तो और पिछले साल पकड़ी गई गायों में से भी 119 गाय मर गईं। इस मामले में दिल्ली की अतिरिक्त जिला सत्र न्यायधीश कामिनी ला ने 2004 में इस गोशालाओं का निरीक्षण कर रिपोर्ट तैयार की थी, पर सरकार ने इस मामले में कोई कदम नहीं उठाया है।
दिल्ली में सरकार द्वारा गोशालाओं को प्रत्येक गाय के लिए बीस रूपए प्रति गाय प्रति दिन के हिसाब से अनुदान दिया जाता है। वर्ष 2007 - 2008 और 2008 - 2009 में दिए गए अनुदान के हिसाब से गोपाल गौसदन को एक करोड़ तेईस लाख और सत्यासी लाख, श्री किसन गोसदन के लिए एक करोउ़ तीस लाख और एक करोड़ उन्नीस लाख रूपए, डाबर हरे किसन गोसदन को एक करोड़ 22 लाख और 86 लाख, मानव गोसदन को 70 और 28 लाख, आचार्य सुशील गोसदन को 96 और 73 लाख रूपए अनुदान दिया गया था।
सरकारी इमदाद और जनकल्याणकारी लोक कल्याणकारी पुण्य का काम करने वाले लोगों के द्वारा गायों को अगर बचाया नहीं जा पा रहा है तो यह निश्चित तौर पर चिंता का विषय ही कहा जाएगा। इस मामले में गैर सरकारी संगठनों के अलावा नगर निगम के अफसरों और गोशाला संचालकों की भूमिका संदिग्ध ही मानी जा सकती है।
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