अण्णा अनशन के अनछुए पहलू
(लिमटी खरे)
गांधीवादी किशन बाबूराव उर्फ अण्णा हजारे ने तेरहवें दिन अपना अनशन त्यागा, जिसे उन्होंने स्थगन की संज्ञा दी। अण्णा के समर्थन में समूचा देश एक सूत्र में पिरो दिया गया। बच्चे बूढ़े जवान सभी अण्णामय हो गए थे। चारों तरफ अण्णा ही अण्णा दिख रहे थे। कांग्रेस पहले तो आक्रमक रही फिर अचानक ही जनसैलाब की भावनाओं के सामने बैकफुट पर ही नजर आई। भाजपा ने भावनाएं समझीं और अण्णा का दामन थाम लिया। इन तेरह दिनों में देश ने बहुत कुछ खोया पाया। अण्णा ने अपना पूरा जीवन इन तेरह दिनों में जी लिया। उनके सहयोगी केजरीवाल थोड़े से राजनैतिक समझ में आए। अंत में उन्होंने जिस तरह से श्री श्री को महिमा मण्डित किया वह अनेकों के गले नहीं उतरा। आने वाले समय में किरण बेदी और अरविंद केजरीवाल चुनाव लड़ लें तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। कांग्रेस ने किरण बेदी को दिल्ली का पुलिस आयुक्त नहीं बनाया सो उन्होंने भी अपने इस अपमान का बदला ले ही लिया। रामलीला मैदान पर दूसरी बार कांग्रेस औंधे मुंह ही गिरी है। इस बार राहुल गांधी के सपनों का युवा भारत उनसे बेहद दूर हो गया है। सिब्बल और चिदम्बरम ने भरोसा खो दिया है तो बयानवीर राजा दिग्विजय सिंह इस बार आश्चर्यजनक तरीके से मौन ही साधे रहे।
15 अगस्त का दिन प्रोढ़ और वृद्ध हो चली पीढ़ी के लिए काफी महत्वपूर्ण है। वृद्ध जनों ने इस दिन देश की आजादी का जश्न देखा था तो प्रोढ़ हो चली पीढ़ी ने कोर्स की किताबों, चलचित्रों और कहानियों के माध्यम से स्वतंत्रता दिवस के बारे में ज्ञान हासिल किया। सत्तर के दशक के उपरांत कांग्रेस की सरकार द्वारा आजादी की कहानियों को हाशिए पर लाने का जतन आरंभ हो गया। कहा जाता है कि मानव संसाधन विकास मंत्रालय ही देश की भावी पीढ़ी को दिशा देने का काम करता है। अस्सी के दशक के आरंभ से ही मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने अपने अपने दलों के निहित स्वार्थों के आगे देश की आन बान और शान को गौड़ कर दिया। कभी शिक्षा का कांग्रेसीकरण हुआ तो कभी भगवाकरण। देश में आजादी के परवाने महात्मा गांधी के जन्म दिवस को लोग ड्राई डे (मदिरा की दुकाने बंद होने का दिन) के तौर पर पहचानने लगे। इसी पर व्यंग्य करती हुई बात संजय दत्त अभिनीत ‘लगे रहो मुन्ना भाई‘ में भी कही गई थी। इसके बाद भी सरकार नहीं चेती।
अगस्त का माह आने वाली पीढ़ी के लिए अब प्रासंगिक हो चला है। 15 अगस्त के बाद अब 16 से 28 अगस्त तक गांधीवादी समाज सेवी अण्णा हजारे के अनशन को युवा उसी तरह याद रख पाएंगे जिस तरह आज की प्रोढ़ हो चली पीढ़ी स्काईलेब को याद रख पाती है। कल जब कानून का रूप धारण कर लेगा जनलोकपाल तब यही पीढ़ी डेढ़ दो दशकों के बाद गर्व से कह सकेगी कि इस आंदोलन में उसने भी बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया था। इस दौर के किस्से कहानियां वे अपनी आने वाली पीढ़ी को बड़े ही चाव से बताएंगे। फर्क महज इतना ही होगा कि हमें गोरे ब्रितानियों के जुल्म की दास्तान सुनाई जाती थी और आने वाली पीढ़ी अपने ही देश के जालिम शासकों की बातें सुनाएंगे।
13 दिन तक लगातार रामलीला मैदान अण्णा के अनशन का साक्षी रहा है। अण्णा के इस अनशन को हर दृष्टिकोण से मीडिया ने जनता के समक्ष रखा। हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं कि मीडिया ने ही अण्णा के इस आंदोलन में आहुतियां डालीं और आग को तेज किया। लोग जब अलह सुब्बह समाचार पत्र पढ़ते तो उनका मन जोश से भर उठता फिर जब वे समाचार चेनल्स पर देश भर में जुनून देखते तो उनकी बाहों की मछलियां अपने आप ही फड़कने लगतीं। फिर क्या, निकल पड़ते दो चार छः के झुंड में युवा सड़कों पर।
इन युवाओं का जोश देखकर हम अंदाजा ही लगा सकते हैं कि आजादी के पहले देश में क्या होता होगा। उस दौर में इसी तरह दो चार आठ के झंुड में जवान ‘इंकलाब जिंदाबाद‘ के नारे लगाते होंगे और पुलिस के आते ही गलियों में छिप जाते होंगे। जिस तरह आजादी विषय पर आधारित सिनेमा में दिखाया जाता रहा है कमोबेश वही नजारा आज के युग के हिसाब से दिखाई दे रहा था समूचे भारत का अण्णा के आव्हान पर।
अण्णा को जब 16 अगस्त को घर से गिरफ्तार किया गया था, उस समय लोग इस मामले में ज्यादा संजीदा नहीं थे। दोपहर ढ़लते ही भ्रष्टाचार का विरोध उग्र होने लगा। सरकार ने अपने ‘जासूसों‘ के माध्यम से सारी जानकारी लेना आरंभ किया। जब देखा कि जनसमर्थन जबर्दस्त तरीके से अण्णा के साथ है तो ‘फिलहाल इसे टालो‘ की नीति अपनाकर अण्णा को रिहा कर दिया गया। अण्णा सीधे रामलीला मैदान गए और वहां जाकर उन्होंने मांगे पूरी न होने तक अनशन स्थल न छोड़ने की हुंकार भर दी। सरकार को अण्णा की यह बात गीदड़ भभकी ही लगी।
अण्णा के समर्थन में हुजूम देखकर खुद अण्णा अचंभित ही नजर आ रहे थे। उनके सहयोगी अरविंद केजरीवाल ने माईक संभाल रखा था। बीच में किरण बेदी कुछ बोलतीं किन्तु कानूनविद प्रशांत भूषण पूरी तरह खामोश ही रहते। सरकार और अण्णा के बीच बातचीत बमुश्किल आरंभ हुई। इसी के साथ स्वामी अग्निवेश का फोन टेप सामने आया और उनके चेहरे से नकाब उठ गया। अण्णा के समर्थन में न जाने कितने लोग आए पर आमिर खान को छोड़कर किसी को भी अण्णा ने मंच पर स्थान नहीं दिया।
कपिल सिब्बल और पलनिअप्पम चिदम्बरम ने बाबा रामदेव को अपनी रणनीति में फंसाकर चारों खाने चित्त कर दिया था। बाबा रामदेव के असफल होने का इकलौता कारण उनके मानस पटल पर कुलाचंे मारती राजनैतिक महात्वाकांक्षाएं ही थीं। दस साल पहले सायकल पर चलने वाले रामकिशन यादव ने आज ग्यारह सौ करोड़ का साम्राज्य स्थापित कर लिया है। सरकार के हाथ में बाबा की यह दुखती रग थी, इसलिए बाबा रामदेव को ‘रणछोड़दास‘ बनना पड़ा।
कांग्रेस के इन शातिर प्रबंधकों ने यही दांव किशन बाबूराव यानी अण्णा हजारे पर चलाना चाहा। अण्णा हजारे के तो आगे पीछे कोई है नहीं। उन्होंने कोई संपत्ति नहीं जोड़ी है। सादगी की मिसाल अण्णा हजारे पर सिब्बल, चिदम्बरम के अलावा कांग्रेस के प्रवक्ता मनीष तिवारी ने व्यक्तिगत हमले किए वह भी सीमाओं को लांघते हुए। अण्णा हजारे इससे कतई विचलित नहीं हुए। सबसे आश्चर्य तो तब हुआ जब इन छिछले दर्जे के हमलों के बाद भी अण्णा के समर्थकों ने अपने आंदोलन को अहिंसक ही रखा। मनीष तिवारी के खिलाफ कोई गंदा बयान नहीं दिया। इस पूरे मामले में इक्कीसवीं सदी में कांग्रेस के अघोषित चाणक्य बन चुके राजा दिग्विजय सिंह की खामोशी इस वक्त शोध का विषय बनी हुई है।
अण्णा चूंकि महाराष्ट्र के हैं अतः उन्होंने विलासराव देशमुख पर भरोसा जताया और विलासराव ने ही अंत में प्रधानमंत्री का पत्र लाकर दिया तब जाकर अण्णा ने अपना अनशन स्थगित किया। अण्णा के इस अनशन में एक बात तारीफेकाबिल है कि देश में शातिर, घाघ, विषैले लोगों के होते हुए भी अण्णा के इस अनशन में देश भर में मिले व्यापक जनसमर्थन का तरीका पूरी तरह अहिंसक था। कहीं भी किसी ने भी राष्ट्रीय संपत्ति को निशाना बनाकर उसका नुकसान नहीं किया।
अण्णा विरोधियों ने तरह तरह की चाल चलकर अण्णा के अनशन को समाप्त करवाने का प्रयास किया किन्तु वे सफल नहीं हो पाए। बीच में मायावती ने अण्णा की मुखालफत कर डाली। उस वक्त यह बयार चल पड़ी कि अण्णा देश के संविधान निर्माता बाबा साहेब अंबेडकर के कानून को बदलना चाह रहे हैं। यह चाल शायद इसलिए चली गई थी ताकि दलितों के मन में अण्णा के खिलाफ विषवमन किया जा सके। मीडिया ने साफ कर दिया कि अण्णा तो बाबा साहेब अंबेडकर के कानून का पालन ही सुनिश्चित करवाना चाह रहे हैं, तब जाकर मामला शांत हुआ।
इस आंदोलन में नेहरू गांधी परिवार की राजनैतिक तौर पर सक्रिय पांचवी पीढ़ी में राहुल गांधी बुरी तरह पिछड़ गए। राहुल गांधी अपने पिता की ही तरह युवाओं का भारत देखने की कथित तौर पर अभिलाषा रखते हैं। वे हमेशा युवाओं को आगे लाने की बात कहा करते हैं। युवाओं को कांग्रेस से जोड़ने के लिए उन्होंने बेहद जतन भी किए हैं। अण्णा के अनशन में युवाओं की जबर्दस्त भागीदारी देखकर राहुल के काकाजात भाई वरूण गांधी ने तो नब्ज पहचानी और अनशन स्थल पर जाकर अण्णा समर्थकों के बीच बैठ जाने को मीडिया ने जमकर हाईलाईट किया। राहुल गांधी के अनशन स्थल न जाने को लेकर युवा राहुल से खफा नजर आ रहे है।
राहुल गांधी का घर घेरने गए अण्णा समर्थकों को रामलीला मैदान में कोल्ड ड्रिंक और समोसे भिजवाने की अच्छी प्रतिक्रिया सामने नहीं आ रही है। युवाओं का कहना है कि राहुल चाहते तो अनशस्थल पर समोसे के साथ चाय, दूध या लस्सी भिजवा सकते थे किन्तु विदेशी मानसिकता के गुलाम राहुल ने वहां विदेशी शीतल पेय भिजवाया जिसके खिलाफ बाबा रामदेव ने जेहाद छेड़ रखी है। मतलब साफ है कि राहुल के सलाहकार यह चाह रहे थे कि अनशन स्थल पर यह मैसेज भी चला जाए कि राहुल का विरोध करने वालों को राहुल गांधीगिरी से मना सकते हैं और वहां योग गुरू बाबा रामदेव को भी दूर रखा जाए।
कहते हैं कि कथित एक अध्यात्म गुरू ने वरूण गांधी और अण्णा की बात करवाई। अण्णा ने वरूण को अनशन मे आने न्योत दिया, किन्तु वे अपने कौल में बंधे थे कि किसी भी नेता को वे मंच पर स्थान नहीं देंगे, सो वरूण ने जनभावनाओं को भांपते हुए अनशनकारियों के बीच बैठना ही उचित समझा।
किरण बेदी देश की पहली महिला आईपीएस अधिकारी हैं। जब वे दिल्ली में पुलिस आयुक्त के लिए एलीजिबिल हुईं तब उनके स्थान पर किसी और को आयुक्त बना दिया गया। तब चिदंबरम ने उन्हें बुलाया और चिदंबरम से बात के बाद भी किरण बदेी ने खुद को दिल्ली के सीपी की दौड़ से बाहर किया था। उस वक्त तो किरण बेदी खामोश रह गईं किन्तु अब वे मन ही मन खुश जरूर होंगी क्योंकि अब सरकार उनके सामने घुटनों पर खड़ी दिख रही है।
अण्णा के चिकित्सक डॉ.नरेश त्रेहान को मुनाफे में ही पब्लिसिटी मिल गई है। अण्णा अपनी लड़ाई आम आदमी के लिए लड़ रहे हैं और आम आदमी की पहुंच से मीलों दूर हैं डॉ.त्रेहान। डॉ.त्रेहान को अमीरों और संपन्न वर्ग का चिकित्सक यानी राज वैद्य माना जाता है। अण्णा का उनसे इलाज करवाना उन पर भरोसा जताना आम आदमी को गवारा नहीं उतरा है। एक आम आदमी सरकारी अस्पताल के चिकित्सकों के भरोेसे ही है।
अण्णा ने भी आम सरकारी चिकित्सक के बजाए डॉ.त्रेहान से इलाज करवाकर उन्हें बार बार मंच पर बुलवाकर, बाद में उनके अस्पताल में दाखिल होकर साबित कर दिया कि सरकारी चिकित्सकों पर उन्हें उसी तरह भरोसा नहीं है जिस तरह पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी के घुटने के बदले जाते समय उन्हें नहीं था, जिस तरह कांग्रेस की राजमाता श्रीमति सोनिया गांधी को देश के बजाए अमेरिका में जाकर इलाज और ऑपरेशन करवाते वक्त नहीं था।
अण्णा से नाराजगी रखने वालों में पश्चिम बंगाल की निजाम ममता बनर्जी का नाम कांग्रेस के बाद दूसरे नंबर पर है। मीडिया में ‘अण्णा ही अण्णा‘ देखकर उनकी बोलती बंद थी। कहते हैं कि ममता चाह रही थीं कि वे अपनी कोलकता दक्षिण लोकसभा सीट छोड़ने के पहले संसद में एक जोरदार भाषण दें जिसे लोग सालों साल याद रखें। ममता खुद भी एक जनआंदोलन के माध्यम से ही सत्ता की मलाई चख पा रही हैं। ममता का यह सपना सपना ही बनकर रह गया।
अण्णा के इस आंदोलन में नुकसान में सिर्फ और सिर्फ कांग्रेस ही रही है। कांग्रेस में भी सबसे ज्यादा डैमेज राहुल गांधी का हुआ है। युवाओं का राहुल से मोह भंग हुआ है। पहले रामलीला मैदान में बाबा रामदेव के मामले में राहुल गांधी खामोश रहे फिर अण्णा के मामले में तो उन्होंने हद ही कर दी। एक बार भी झूटे मंुह ही सार्वजनिक तौर पर अण्णा के हाल चाल नहीं जाने। कांग्रेस ने डैमेज कंट्रोल के बतौर संसद में राहुल का शानदार भाषण तैयार कर उनसे पढ़वाया। नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज ने इस भाषण को राहुल का राष्ट्र के नाम संदेश बताकर इसकी हवा निकाल दी। यह सच है कि अण्णा हजारे का अनशन तुड़वाने में कांग्रेसनीत सरकार से ज्यादा विपक्ष की भूमिका रही है। सोनिया गांधी लौटेंगी तब इसकी समीक्षा होगी और फिर अगली बिसात बिछाई जाएगी।
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