लूट मची है मनरेगा के कामों में . . . 5
अपने लक्ष्य से कोसों दूर है मनरेगा
पांच सालों में भी नहीं हो पाया सौ दिन के रोजगार का लक्ष्य
(लिमटी खरे)
नई दिल्ली। कांग्रेसनीत संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार की महत्वाकांक्षी योजना महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण गारंटी योजना (मनरेगा) आधा दशक बीतने के बाद भी अपने लक्ष्य से कोसों दूर ही खड़ी नजर आ रही है। पिछले वित्तीय वर्ष में योजना के तहत ग्रामीण परिवारों को औसतन महज 54 दिन का ही काम मिला, जो योजना के शुरूआती साल 2006 - 2007 के औसत 45 के मुकाबले महज बीस फीसदी ही ज्यादा है।
इतना ही नहीं केंद्र सरकार की इस अतिमहत्वाकांक्षी योजना में कम से कम रोजगार के दिनों का औसत भी 15 तक जा पहुंचा है। इसमें मजदूरी के लिहाज से भी खास बढोत्तरी दर्ज नहीं की गई है। पिछले साल देश भर में रोजगार की औसत मजदूरी सौ रूपए प्रतिदिन से कम ही रही जो मंहगाई के लिहाज से उंट के मुंह में जीरा ही साबित हो रही है। इस योजना के आरंभ होने से लग रहा था कि इससे मजदूरों का पलायन रूक जाएगा किन्तु जमीनी हकीकत यह है कि आज भी रोजगार की तलाश में मजदूर दूर दूर तक जा रहे हैं।
केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय के सूत्रों का दावा है कि वर्ष 2010 - 2011 के दौरान मनरेगा के तहत देश भर के सभी 625 जिलों में फरवरी तक पांच करोड़ परिवारों को रोजगार मुहैया करवाया गया। इसमें प्रति परिवार 54 दिन का औसत काम मिला। देखा जाए तो रोजगार गारंटी योजना के तहत प्रत्येक परिवार को कम से कम 100 दिन का रोजगा मुहैया करवाने का लक्ष्य रखा गया था।
यहां उल्लेखनीय होगा कि वर्ष 2009 - 2010 में भी प्रति परिवार औसत 54 दिन का ही निकला था। जिससे साफ जाहिर है कि एक साल में औसत काम के दिनों में एक इंच भी उन्नति नहीं हो पाई है। इसके आरंभ के वर्ष 2006 - 2007 में जहां प्रति परिवार औसत 45 था, वहीं अब इसमें महज बीस फीसदी की ही बढोत्तरी होना संतोषजनक नहीं माना जा सकता है। केंद्र सरकार की इस अभिनव योजना की मानीटरिंग जिला स्तर पर नहीं किए जाने से जनता के गाढ़े पसीने से संचित धन का दुरूपयोग तबियत से किया जा रहा है।
1 टिप्पणी:
सार्थक प्रस्तुति, आभार.
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