मीडिया के मेगा
इवेन्ट की अकाल मौत
(एस.राजन टोडरिया / विस्फोट डॉट काम)
नई दिल्ली (साई)।
भारतीय टीवी इतिहास के सबसे बड़े टीवी शो का जंतर मंतर पर आकस्मिक निधन हो गया।
न्यूज चौनलों के इतिहास के इस मेगा मीडिया इवेंट के अचानक यूं खत्म हो जाने के बाद
से इस पर प्रतिक्रियाओं का दौर जारी है। देश के सारे न्यूज चौनलों में इस इवेंट के
आकस्मिक निधन की खबरें और नाराजी छाई रही। देश में लगभग डेढ़ साल से चल रहे
भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की भस्म और अस्थियों से अन्ना हजारे ने एक नए दल के गठन
का ऐलान क्या किया कि सारे न्यूज चौनल सकते में आ गए। लगभग सभी चौनलों पर शोकधुनें
बजने लगीं। दुखी एंकरों के कंठ भरे हुए थे और उनकी आवाजों में एक मीडिया इवेंट की
अकाल मृत्यु से उपजी निराशा को पढ़ा जा सकता था।
अन्ना हजारे द्वारा
राजनीतिक दल बनाने के ऐलान के बाद विभिन्न तबकों पर जबरदस्त प्रतिक्रिया हो रही
है। सबसे दिलचस्प प्रतिक्रिया न्यूज चौनलों से हे। सारे के सारे चौनल अन्ना हजारे
के पीछे पड़ गए हैं जैसे अन्ना और उनकी टीम ने कुफ्र कह दिया हो। हमारे अन्ना हजारे
और उनकी राजनीति से मतभेद हो सकते हैं लेकिन राजनीति में आने के उनके नागरिक
अधिकार पर हम कैसे सवाल उठा सकते हैं। वो कैसी राजनीति करेंगे,सफल होंगे या विफल
होंगे, इस पर आज
फैसला कैसे सुनाया जा सकता है। दरअसल, इस देश के कारपोरेट मीडिया के लिए अन्ना का
आंदोलन महज एक इवेंट था जिसके जरिये वे चर्चायें करते रह सकते थे और भ्रष्टाचार से
तंग मध्यवर्ग में अपनी टीआरपी बढ़ा सकते थे। इस चर्चा के बीच विज्ञापनों का छौंक और
उससे भी कमाई। ऐसा इवेंट चलता रहे और कमाई होती रहे, इससे न्यूज चौनलों
का प्रसन्न होना स्वाभाविक था।
अन्ना का आंदोलन
भले ही इस देश के मीडिया का उत्पादन रहा हो लेकिन मीडिया को पहली बार यह पता चल
गया कि वह अपने न्यूज रुम में आंदोलन पैदा करने के बावजूद उसे अपने रिमोट से
नियंत्रित नहीं कर सकता। टीम अन्ना और मीडिया ने जमकर एक दूसरे का इस्तेमाल किया।
टीम अन्ना के सामने अपना राजनीतिक मकसद पहले ही दिन से स्पष्ट था। अन्यथा टीम
अन्ना सरकार के लोकपाल पर राजी हो जाती और उसके कामकाज की समीक्षा करने के बाद या
उससे आम लोगों का मोहभंग होने का इंतजार करती। लेकिन टीम अन्ना 2014 के लोकसभा चुनाव
को लक्ष्य मानकर अपने पत्ते खेल रही थी। कामनवेल्थ, दूरसंचार और आदर्श
घोटालों को उठा रहे मीडिया को भी सड़क पर एक दबाव समूह चाहिए था ताकि वह दो लगातार
चुनावी विजयों से अहंकार ग्रस्त कांग्रेस की नाक में नकेल डाल सके।
मीडिया और अन्ना की
टीम को अपने-अपने कारणों से एक दूसरे की जरुरत थी। इसलिए दोनों ने हाथ मिला लिया
और कैमरों और कई कॉलमों में फैली खबरों ने पूरे देश में एक बड़े जनांदोलन का भ्रम
खड़ा कर दिया। हालत यह हो गई कि भ्रष्टाचार विरोधी जुलूस अखबारों और चौनलों के
दफ्तरों की ओर मुड़ने लगे। भ्रष्टाचार विरोधी जुलूस 24 घंटे के कार्यक्रम
में बदल गए। टीवी चौनलों के उदय के बाद पिछले बीस सालों में यह सबसे विराट मीडिया
इवेंट था जिसे जनसंचार के महारथियों ने
बेहद बारीकी से बुना था। मीडिया के इस अभूतपूर्व दबाव ने कांग्रेस नेतृत्व के विवेक
को भी हर लिया। अहंकार ग्रस्त कांग्रेस का नेतृत्व इस दबाव में बिखर गया। वह अचानक
इतनी कंन्फ्यूज्ड और बौखलाई हुई दिखने लगी कि लगा ही नहीं कि यह वही पार्टी है
जिसने अपने सवा सौ साल के इतिहास में पता नहीं कितनी बार इससे बड़ी चुनौतियों का
सामना किया। हालत यह हो गई कि उसके मंत्रियों ने पहले टीम अन्ना के सामने घुटने
टेके और फिर सारी यूपीए सरकार ने। पूरी सरकार अपराधबोध में डूबी हुई नजर आने लगी।
हाल के वर्षों मे
यह असाधारण राजनीतिक कामयाबी थी। इसी से देश में अन्ना का वो आभामंडल तैयार हुआ
जिसने देश की राजनीति में आए खालीपन को एक झटके में भर दिया। लोगों को लगा कि
निर्द्वंद यूपीए को सड़क की राजनीति के जरिये भी हराया जा सकता है। कांग्रेस की
राजनीतिक अपरिपक्वता और भाजपा से लेकर कम्युनिस्टों तक विपक्ष के अति उत्साही
समर्थन ने टीम अन्ना की ऐसी करिश्माई अजेय छवि बना दी कि देश के लोगों को लगा कि
टीम अन्ना के पास ही वह जादुई छड़ी है जिससे उन्हे रोजमर्रा के भ्रष्टाचार से
छुटकारा मिल सकता है। पिछले बीस सालों में पहले,दूसरे और तीसरे
मोर्चे की सरकारों की विफलता से जनता के बीच नेताओं की साख पहले रसातल में जा चुकी
थी। ऐसी नाउम्मीदी में टीम अन्ना ने जब नेताओं को डकैत से लेकर उन्हे बेईमान,चोर बताया तो लोगों
को लगा कि जैसे टीम अन्ना उनके भीतर जमा हुए गुस्से को आवाज दे रही हो। आम लागों
की नफरत को आवाज देने का यह करिश्मा इससे पहले कांशीराम कर चुके थे। उन्होने जब
तिलक,तराजू वाला
नारा दिया था तब भी दलितों को लगा था कि कोई हिम्मत कर सदियों से जमा हुए उनके
गुस्से को चौराहों पर आवाज दे रहा है।
लेकिन आज वही
मीडिया टीम अन्ना के फैसले से सर्वाधिक खफा है। सर्वाधिक सवाल उसी मीडिया द्वारा
उठाए जा रहे हैं जिसने भ्रष्टाचार विरोधी
जनभावना को अन्ना की व्यक्तिपूजा के आंदोलन में बदल दिया था। जिसने आंदोलन के भीतर
जनतंत्र पैदा ही नहीं होने दिया बल्कि टीवी कैमरों और अलौकिक महिमामंडन के जरिये
बदलाव की इच्छा को लेकर आए लोगों को भेड़ों के ऐसे रेवड़ में बदल दिया जिसके एकमात्र
गडरिया अन्ना हजारे थे और भेड़ों के इस झुंड को हांकने में मदद करने वाली कुछ
स्वयंभू सहायक ही थे। मीडिया किस तरह से जनांदोलनों से तार्किकता गायब कर उन्हे
व्यक्तिपूजकों के झुंड में बदल देता है,यह आंदोलन इसका शानदार उदाहरण है। जिंदा
लोगों को भेड़ों में बदलने वाली लोककथाओं की रहस्यमयी जादूगरनियां आज के इसी मीडिया
की ही पुरुखिने रही होंगी। देश के कारपोरेट मीडिया का दुख है कि हर साल खबरिया
चौनलों की टीआरपी को आसमान पर पहुंचाने वाले एक इवेंट का आकस्मिक निधन जंतर मंतर
पर हो गया। टीम अन्ना भ्रष्टाचार विरोधी इस आंदोलन की अस्थियां और एशेज लेकर
चुनावी मैदान में उतरेगी लेकिन मीडिया फिर से ऐसी इवेंट पैदा नहीं कर पाएगा।
मीडिया को डबल घाटा हुआ है। एक तो टीआरपी बढ़ाने वाली उसकी इवेंट काल कवलित हो गई
और दूसरा यूपीए को अन्ना का डर दिखाकर उससे वसूली करने का धंधा भी टीम अन्ना ने
चौपट कर दिया।
दूसरी ओर भाजपा के
लिए भी टीम अन्ना का राजनीतिक दल बनाना घाटे का सौदा है। भाजपा अभी तक यही सोच रही
थी कि टीम अन्ना अपने भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से उसके लिए वोटों की फसल बो रही
है। टीम अन्ना के आंदोलन अभिकेंद्र उत्तरी भारत के वे राज्य हैं जिनमें भाजपा का
कांग्रेस से सीधा चुनावी मुकाबला होना है। भाजपा का आकलन था कि अन्ना के आंदोलन की
तीव्रता जितनी बढ़ेगी भाजपा की सीटों की तादाद उसी तेजी से बढ़ जाएगी। टीम अन्ना का
गैर राजनीतिक बने रहने से सर्वाधिक लाभ भाजपा को ही होना था। राज्यसभा में लोकपाल
के खिलाफ वोटिंग कर भाजपा ने साफ भी कर दिया था कि वह आगामी लोकसभा चुनाव तक लोकपाल
को लटकाये रखेगी ताकि टीम अन्ना सन् 2014 तक आंदोलन जारी रखे। जेपी आंदोलन का भी
सबसे ज्यादा लाभ तत्कालीन जनसंघ ने ही उठाया था। क्योंकि उसके पास जमीनी स्तर पर
लाभ उठाने वाला आरएसएस का कार्यकर्ता तंत्र मौजूद है। इसीलिए भाजपा ने टीम अन्ना
द्वारा किए जा रहे हमलों के बावजूद संयम बरते रखा। हालांकि आरएसएस को यह भान पहले
ही हो गया था कि अन्ना का इरादा जेपी बनना नहीं बल्कि एक राजनीतिक पार्टी खड़ा करना
है।
इसीलिए पिछले साल
के आंदोलन के बाद आरएसएस ने अन्ना हजारे के आंदोलन में भीड़ बढ़ाने के लिए अपने
कार्यकर्ता भेजने बंद कर दिए। आरएसएस ने टीम अन्ना के आंदोलन को फीका करने के लिए
रामदेव को खुला समर्थन देना शुरु कर दिया। आरएसएस ने ऐसा इसलिए भी किया क्योंकि
अन्ना हजारे के आंदोलन में एक धड़ा चरम वामपंथियों का भी है। अन्ना हजारे द्वारा
राजनीतिक दल बनाने के ऐलान से भाजपा की निराशा को समझा जा सकता है। क्योंकि टीम
अन्ना का मूलाधार भी वही नाराज मध्यवर्ग है जो कांग्रेस से खफा होकर कभी भाजपा के
पाले में तो कभी भाजपा से नाराज होकर कांग्रेस के पाले में चला जाता है। अभी तक
भाजपा यह सोचकर खुश थी कि अन्ना हजारे उसके लिए आम का पेड़ लगा रहे हैं। उसेयकीन था
कि पेड़ तो अन्ना पालेंगे और फल भाजपा खाएगी। लेकिन अन्ना ने रणनीति पलट दी। उनका
कहना है कि पेड़ मैं लगाऊंगा तो आम आडवाणी या मोदी क्यों खायें?
अरविंद और प्रशांत
भूषण क्यों न खायें। अब जो आम का पेड़ लगाएगा फल भी वही खाएगा। इस झटके के बाद अब
टीम अन्ना पर भाजपा के हमले तेज होने वाले हैं। टीम अन्ना को इस बात का श्रेय दिया
जाना चाहिए कि उसने राजनीतिक कौशल के साथ अपने पत्ते खेले और उसे कठपुतली बनाने का
सपना देख रहे मीडिया और भाजपा दोनों को उसने एक ही तुरुप के पत्ते से चित कर दिया।
टीम अन्ना ने पूरी चालाकी के साथ इस बार ऐसे मुद्दों पर अनशन किया जिनका हल तो दूर
उन पर बातचीत करना भी यूपीए के लिए आत्मघात करने जैसा था। तमाम प्रयासों के बावजूद
मीडिया पिछले साल की तरह इसे मेगा मीडिया इवेंट तो नहीं बना पाया। मीडिया की इस
नाकामी में टीम अन्ना के लिए भी भविष्य के संकेत छुपे हुए हैं।
(पूर्व संपादक, दैनिक भास्कर, हिमाचल प्रदेश)
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