क्या वाकई आजादी के साढ़े छः दशक बीत गए!
विमला वर्मा, नेहा सिंह, हरवंश सिंह जैसे कद्दावरों ने किया
प्रतिनिधित्व, सालों से जान हथेली पर लेकर चल रहे ग्रामीण
(इंजीनियर उदित कपूर)
सिवनी (साई)। भारत गणराज्य को आजाद हुए
साढ़े छः दशक होने को हैं। सरकारें चाहे कांग्रेस की रही हों या भाजपा की, या किसी भी दल की,, सभी ने विधानसभा क्षेत्र केवलारी में
छलावा ही किया है। आज भी यहां के अनेक गांवों के वाशिंदे सड़क के अभाव में बारिश के
माहों में रेल्वे की पटरी पर से ही आने जाने को मजबूर हैं। घर में चाहे कोई बीमार हो, बच्चों को स्कूल जाना हो, सा फसल को बेचने बाजार जाना हो, सभी रेल्वे की पटरी वाले पुल पर से जाने
को मजबूर हैं। रूह तो तब कांप उठती है जब इसी बीच अगर सामने से रेलगाड़ी आ जाए।
देखा जाए तो रेल्वे की पटरी पर चलना गैर
कानूनी है, पर मजबूर ग्रामीण क्या करें? उन्हें तो रोजमर्रा के काम निपटाने ही
हैं। सुश्री विमला वर्मा और नेहा सिंह के कार्यकाल में आधुनिक भारत ने गति पकड़ ली
थी, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है, किन्तु मीडिया में विकास पुरूष होने का
दावा करने वाले शालका पुरूष हरवंश सिंह ठाकुर ने चार बार यहां परचम लहराया और फिर
भी सड़क या पुल का ना बन पाना अपने आप में आश्चर्य जनक ही माना जा सकता है।
अगर आप केवलारी विधानसभा के कुछ गांवों
की सैर करें तो उन रास्ते पर, जहां हर कदम पर मौत अपने पंख फैलाए खड़ी
है। इस इंतजार में कि कब चलने वाले के कदम डगमगाएं और कब वो उसे अपने आगोश में
समेट ले। लोग दावा करते हैं कि इस रास्ते पर चलने की हिम्मत करना तो दूर, इसे देख कर ही आपकी रूह कांप जाएगी, लेकिन फिर भी लोग चलने को मजबूर हैं। ये
जानते हुए भी कि इस रास्ते पर उठने वाला हर क़दम मौत का कदम है।
सैकड़ों फीट की ऊंचाई पर रेल की पटरियों
के बीच मौत का खेल जारी है। हर क़दम के साथ दिल की धड़कन घटती-बढ़ती है। हर गुज़रती
ट्रेन के साथ ज़िंदगी की रेस जारी है। कोई साइकिल लिए, कोई खाली हाथ, तो कोई अपने बस्ते के साथ इस सफर पर है।
मध्य प्रदेश के सिवनी जिले में केवलारी
विधानसभा के कंडीपार गांव के लोगों की यही नियती है, यही तक़दीर है। बारिश का मौसम शुरू होते
ही इस गांव को पास के कस्बे से जोड़न वाली इकलौती कच्ची सड़क कीचड़ में कुछ ऐसे गुम
हो जाती है कि क्या गाड़ी और क्या पैदल, इस सड़क से गुज़रना ही नामुमकिन हो जाता
है। और बस इसी वजह से हर साल कंडीपार के लोग इसी तरह जान हथेली पर लेकर मौत का ये
पुल पार करते हैं।
कंडीपार के बाशिंदों को यहां एक नहीं, बल्कि रोज़ाना तीन-तीन ऐसे मौत के पुलों
से होकर गुज़रना होता है। इस इम्तेहान में वो पास हो गए तो ठीक, लेकिन फेल हुए तो सिर्फ़ और सिर्फ़ एक
ही नतीजा और वो है मौत। वैसे इस गांव के तमाम लोग पुलों के इम्तेहान को लेकर इतने
खुशकिस्मत भी नहीं हैं। कुछ ऐसे भी हैं, जो पुल के ऊपर से निकले तो थे मंज़िल की
तलाश में, लेकिन पीछे से आती ट्रेन ने उन्हें कहीं और पहुंचा दिया।
मौत का ये रास्ता आखिर खत्म कहां होता
है? ये रास्ता जहां ख़त्म होता है वहां पहुंच कर डर ख़त्म नहीं होता बल्कि
और बढ़ जाता है, क्योंकि इस रास्ते के ख़ात्मे के साथ ही शुरू हो जाता है मौत का इससे भी
ख़तरनाक खेल। हादसे का शिकार नौजवान गोविंद सूर्या ने कहा, ‘‘मैं पुल से गुज़र रहा था। ट्रेन आ गई।
हड़बड़ाहट में नीचे गिर गया। रीढ़ की हड्डी टूट गई।‘‘
वहीं, दूसरी ओर कंडीपार की निवासी शीलावती का
कहना है कि साहब, धड़-धड़ होवत है, जब तक बच्चा नहीं आवत। कंडीपार की निवासी स्कूल में पढ़ने वाली श्रद्धा
इनावती के अनुसार, ट्रेन आती है, तो दौड़ कर निकल जाती हूं।
मुश्किल एक, दर्द अलग-अलग
ये दर्द है उस नौजवान का जो ज़िंदगी और
मौत की रेस में अपनी बाज़ी हार गया। खुशकिस्मती से ज़िंदगी तो बच गई, लेकिन ज़िंदगी जीने लायक भी नहीं रही। एक
डर है उस मां का, जो हर रोज़ हज़ार मन्नतों के बाद अपने कलेजे के टुकड़ों को तैयार कर स्कूल
तो भेजती है, लेकिन जब तक बच्चे लौट कर घर नहीं आते, तब तक निगाहें दरवाज़े से हटती नहीं है।
एक यह तकलीफ़ है उस नन्हीं गुड़िया की, जिसे हर रोज़ स्कूल जाने के लिए ज़िंदगी
और मौत से पकड़म-पकड़ाई खेलनी पड़ती है।
क़दम पटरी पर, जान हथेली पर
मध्य प्रदेश के सिवनी ज़िले के इस गांव
कंडीपार के बाशिंदों के पास दूसरा कोई चारा भी नहीं है। एक बार बारिश हुई नहीं कि
गांव से बाहर जानेवाली इकलौती कच्ची सड़क चलने के काबिल नहीं रह जाती और तब पूरे
गांव को हर काम के लिए बस इसी तरह तीन-तीन रेलवे पुलों के ऊपर से होकर गुज़रना पड़ता
है, जान हथेली पर लेकर। मगर, धड़धड़ाती रेल गाड़ियों के बीच रोज़ाना मौत
से दो-दो हाथ करते ये भोले-भाले गांववाले हर रोज़ खुशकिस्मत नहीं होते। एक बार जो
इस इम्तेहान में फेल हो जाता है, समझ लीजिए कि उसकी ज़िंदगी ही उससे
हमेशा-हमेशा के लिए रूठ जाती है।
यूं रूठ गई गोविंद की क़िस्मत
अब नौजवान गोविंद सूर्या को ही लीजिए।
आज से कोई आठ साल पहले गोविंद इसी तरह रेलवे पुलिस के ऊपर से स्कूल जा रहा था।
लेकिन बीच रास्ते में जो कुछ हुआ, वो गोविंद के लिए कभी ख़त्म होने वाला
दर्द बन कर रह गया। पीठ में बस्ता टांगे मासूम गोविंद अभी पुल के बीचों-बीच पहुंचा
ही था कि अचानक सामने से ट्रेन के आ गई। अब ना तो वो पीछे लौट सकता था और ना ही
आगे बढ़ सकता था। कुछ देर के लिए तो गोविंद की सांसें ही थम गई और अगले ही पल वो डर
के मारे पुल के ऊपर से सीधे नीचे जा गिरा। गोविंद के रीढ़ की हड्डी टूट गई और वो
नदी के बीच ही बेहोश हो गया।
पटरी मौत, पटरी पर ज़िंदगी
गोविंद की ज़िंदगी तो बच गई, लेकिन उसके जिस्म के तमाम हिस्से अब भी
ठीक से काम नहीं करते। पढ़ाई छूट गई और वो ज़िंदगी खुद पर बोझ बन गई। ये कहानी अकेले
गोविंद की नहीं है, गोविंद के अलावा और भी बदकिस्मत हैं, जो इन पुलों का शिकार हो चुके हैं। इस
गांव की एक बुजुर्ग महिला तो ट्रेन की टक्कर के बाद अपनी जान से ही चली गई, जबकि एक गर्भवती महिला ने दहशत के मारे
पटरी के बगल में ही अपने बच्चे को जन्म दिया।
इतना होने के बावजूद आज़ादी से लेकर अब
तक ना तो गांववालों को एक अदद पक्की सड़क मिली और ना ही उनकी किस्मत खुली। पांच
किलोमीटर की एक सड़क बनाने में कितने दिन लगते हैं? एक महीना दो महीना या साल दो साल? लेकिन हमारे देश में इतनी ही लंबाई की
एक सड़क ऐसी है, जो पिछले 66 सालों में नहीं बन सकी। लिहाज़ा जिन्हें इस सड़क से होकर
गुज़रना था, वो रोज़ सिर पर कफ़न बांध कर सफ़र करते हैं।
पांच किलोमीटर, 66 साल
पांच किलोमीटर का ये एक ऐसा फ़ासला है
जिसे पिछले 66 सालों में भी हम पाट ना पाए। देश के तमाम नेता, नौकरशाह, खुदमुख्तार और बयान बहादुर मिलकर भी
पिछले 66 सालों में फकत पांच किलोमीटर का रास्ता भी इस गांव को नहीं दे पाए। वो
रास्ता जिसपर जिसपर जिंदगी बेखौफ अपने कदम बढ़ाती। और बस इसी एक कमी की वजह से इस
गांव के लोग हर साल पूरे चार महीने इसी तरह जान हथेली पर लेकर मौत के रास्ते हो कर
गुज़रने को मजबूर हैं।
अगर इस गांव को उनका पांच किलोमीटर लंबा
रास्ता मिल जाता तो ना तो बारिश में ये सड़क यूं कीचड़ में गुम हो जाती और ना ही ना
ही इस सड़क से बचने के लिए यहां के बाशिंदों को मौत को छू कर निकलना पड़ता। मगर, अफ़सोस। कंडीपार गांव का यही सच है।
खाली गई गांववालों की हर कोशिश
ऐसा भी नहीं है कि इस गांव के लोगों ने
इस पांच किलोमीटर को फासले को पूरा करने की कोशिश ना की हो। लेकिन हर बार उनकी
कोशिश नेताओं के झूठे वादों और सरकारी दफ्तरों की फ़ाइलों में गुम होती रही। एक बार
तो इस इलाके के दिवंगत कांग्रेसी विधायक ने यहां तक कह दिया कि चूंकि उनके गांव के
लोगों ने उन्हें वोट नहीं देकर निराश कर दिया, इसलिए अब वे गांववालों को सड़क नहीं बना
कर निराश करेंगे।
ये तो रही विधायक की बात, दूसरे नेता भी गांववालों को गोली देने
में पीछे नहीं रहे। जब आज तक ने इस सिलसिले में कांग्रेस से बात की, तो उन्होंने सारा कसूर बीजेपी के सिर मढ़
दिया। एमपीसीसी के सदस्य राजकुमार खुराना ने कहा दस सालों से बीजेपी का शासन है।
उन्हें ध्यान देना चाहिए। जबकि बीजेपी के पास इस गांव की बदकिस्मती को लेकर अलग ही
दलील है।
वहीं, प्रदेश में सत्तारूढ़ भाजपा के
जिलाध्यक्ष नरेश दिवाकर ने कहा कि ये काम ग्राम पंचायत स्तर पर ही होना चाहिए था।
वैसे कसूर सिर्फ़ सियासतदानों का ही नहीं है, नौकऱशाहों को भी जैसे कंडीपार की किस्मत
बदलने के लिए किसी बड़े हादसे का इंतज़ार है।
इस संबंध में सिवनी के जिलाधिकारी भरत
यादव कहते हैं, ‘‘पीएमएसवाई के तहत अगले साल बन जाएगी सड़क।‘‘
. . . बातें हैं, बातों का क्या?
यहां जिला कलेक्टर अगले साल का दिलासा
तो ज़रूर दे रहे हैं, लेकिन पिछले 66 सालों से गांववालों का तर्जुबा तो यही कहता है कि ये
दिलासे, ये वादे और ये दावे दिल बहलाने के हथकंडे के सिवा कुछ भी नहीं। अब तो बस
कंडीपार को दुआओं की दरकार है, जिससे किसी हादसे से पहले पांच किलोमीटर
की पक्की सड़क की सूरत में लोगों को ज़िंदगी की गारंटी मिल जाए।
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