लिपिक हड़ताल से हिल गया आम आदमी
(शरद खरे)
लिपिक वर्गीय हड़ताल लगातार जारी है। इस हड़ताल से आम आदमी बुरी तरह मुहाल
हो गया है। राजस्व विभाग में सबसे बुरे हालात पैदा हो चुके हैं। दूर दूर से आने
वाले मुवक्किलों को ना तो करीने से पेशी ही मिल पा रही है और ना ही उनकी समस्याओं
का ही कोई हल सामने आ पा रहा है।
शासन ने इस हड़ताल पर अपना अड़ियल रवैया अपनाया हुआ है। शासन की ओर से कोई
वैकल्पिक व्यवस्था भी इसके लिए नहीं किया जाना आश्चर्यजनक ही है। देखा जाए तो शासन
का यह दायित्व है कि अगर उसके कर्मचारी हड़ताल पर हैं तो इस हड़ताल से आम आदमी
प्रभावित ना हो।
वैसे भी यह चुनावी साल है। लगभग लगभग चुनावी घंटी बज चुकी है। चुनाव सर पर
ही माने जा सकते हैं। चुनावों को करीब आता देख कर्मचारी संगठनों का भी लामबंद होना
स्वाभाविक ही माना जा रहा है। वे भी अपनी बातें मनवाने के लिए सरकार पर दबाव बना
रहे हैं। उनके हिसाब से यही उचित समय है जबकि वे शासन को घुटनों पर खड़ा कर सकते
हैं।
प्रदेश सरकार की ओर से भी इस हड़ताल के बारे में कोई वक्तव्य नहीं दिया गया
है। ना ही काम पर वापस लौटने की पुरजोर अपील ही की गई है। उधर विपक्ष में बैठी
कांग्रेस को भी मानों सांप सूंघ गया है। कांग्रेस ने भी इस मसले में अपना मुंह सिल
रखा है। कर्मचारी निराश हैं। आखिर उच्च न्यायालय के पुराने फैसले को लागू करने में
सरकार को क्या दिक्कत है यह समझ से ही परे बात है! अगर सरकार को कोई आपत्ति है तो
कोर्ट का रास्ता उसके लिए खुला है पर वह कोर्ट जाने का जतन भी करती नहीं दिख रही
है।
12 जुलाई 2011 में उच्च न्यायालय द्वारा यह व्यवस्था दी गई थी, जिसे लागू करवाने के लिए लिपिक लामबंद हुए हैं। शिवराज सिंह
चौहान द्वारा उच्च न्यायालय के फैसले का सम्मान किया जाना चाहिए। यह समस्या 1981 से उपजी है। शिवराज सिंह चौहान के खबरिए उन्हें गलत जमीनी
हकीकत से रूबरू करवा रहे हैं। वास्तविकता यह है कि इस हड़ताल में सरकार के रवैए से
प्रदेश के सत्तर हजार से अधिक लिपिकों और उनके परिवारों के साथ ही साथ इस हड़ताल से
प्रभावित होने वाले लोग और उनके परिवार भी भाजपा के खिलाफ होते जा रहे हैं।
दरअसल, सरकार के समक्ष यह मामला चुनौती से
कम नहीं है। अगर वह लिपिकों के सामने हथियार डालती है तो वैसे ही खाली पड़े खजाने
पर अतिरिक्त वित्तीय भार पड़ेगा जिसे उठाने में वह सक्षम नहीं दिख रही है। वरिष्ठ
अधिकारियों और नेताओं, विधायकों के वेतन
भत्ते और सुविधांए बढ़ाते समय सरकार ने जरा सा भी नहीं सोचा। पर लिपिक चूंकि अदना
सा सरकारी कर्मचारी है अतः उसकी मांग पर ध्यान देना वह शायद अपनी शान के खिलाफ ही
समझ रही है।
शासन को यह भी शायद बताया गया है कि सरकारी योजनाओं पर इस हड़ताल का सीधा
असर नहीं पड़ रहा है। पर यह बात भी आईने की तरह ही साफ है कि इस हड़ताल से सरकारी
सिस्टम डगमगा गया है। चारों ओर हाहाकार की स्थिति निर्मित हो चुकी है। ग्रामीण
अंचलों से अपने मुकदमे, काम आदि करवाने
आने वाले लोगों की नस्तियां कहां हैं, इस बारे में
अफसरान नहीं लिपिक ही जानते हैं। लिपिकों की अनुपस्थिति बताकर मुवक्किलों और जिनके
काम हैं उन्हें घर वापस भेज दिया जा रहा है।
इन परिस्थितियों में ग्रामीणों को हर कदम पर परेशानी का सामना ही करना पड़
रहा है। ग्रामीणों की इन परेशानियों से शायद किसी को भी लेना देना नहीं है।
ग्रामीणों के अंदर इस हड़ताल को लेकर रोष और असंतोष पनपता जा रहा है। ग्रामीणों को
लगने लगा है कि सियासी दल चाहे कांग्रेस हो या भाजपा, दोनों ही एक ही थैली के चट्टे बट्टे हैं और दोनों ही को
ग्रामीणों से कोई लेना देना नही है।
सरकार की ओर से इस हड़ताल को रोकने या समाप्त करने की दिशा में कोई प्रयास
अब तक आरंभ नहीं हुए है, जिससे लग रहा है
कि सरकार इस हड़ताल को लेकर संजीदा नहीं है। आज ग्यारहवें दिन भी हड़ताल जारी रही।
दस दिनों तक अगर किसी कार्यालय में नस्तियां ना सरकें तो वहां क्या स्थिति होगी
इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है।
अक्सर यही होता है कि कोई भी संघ हड़ताल करता है तो उसमें यही माना जाता है
कि उसका शीर्ष नेतृत्व अपने निजी हित साधकर मौन हो जाता है। इस बार कुछ और ही
नजारा दिख रहा है। 11 दिन में मामला
नहीं सुलटा, ना सरकार झुकी ना ही लिपिक। अब तो
लगता है मानो लिपिक आर पार की लड़ाई के मूड में हैं। अगर यह हड़ताल एकाध सप्ताह और
चल गई तो आम आदमी की तो बैंड ही बज जाएगी।
सिवनी जिले के विधायकों से अपेक्षा करना बेमानी ही होगा कि वे लिपिकों की
इस हड़ताल की जमीनी हकीकत से सरकार और भाजपा संगठन को अवगत करवाएं, क्योंकि सिवनी जिले के विकास या समस्याओं में उनकी दिलचस्पी
ही नजर नहीं आती है। अब कोई बीच का रास्ता ही नजर नहीं आता है। या तो सरकार को
झुकना होगा या फिर लिपिक संघ को। विजय किसकी होगी यह बात तो भविष्य के गर्भ में ही
छिपी नजर आ रही है।
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