मच्छर, मलेरिया और जिम्मेदार अफसरान!
(शरद खरे)
जिला मुख्यालय सिवनी में जहां देखो वहां पानी के डबरे, पोखर भरे पड़े हैं। लोगों के घरों में भी पानी रूका हुआ है।
कहा जाता है कि ठहरा हुआ पानी जानलेवा मलेरिया के लिए जिम्मेदार मच्छरों के लिए
उपजाऊ माहौल तैयार करता है। जिला चिकित्सालय में पानी के डबरे निश्चित तौर पर इनके
लिए संजीवनी का काम ही कर रहे हैं।
कम ही लोग जानते होंगे कि भारत की आजादी वाले साल यानी 1947 में मलेरिया जैसी घातक जानलेवा बीमारी ने देश में दस लाख से
ज्यादा लोगों की इहलीला समाप्त कर दी थी। तब से 2006 तक लगभग आठ लाख 12 हजार लोग इसकी
चपेट में आकर जान गंवा चुके हैं। चाहे महानगर हो या छोटा सा कस्बा लोग आज भी इसके
आगोश में हैं।
दरअसल मादा एनाफिलीस मच्छर जब इंसान को काटती है, तब वह एक विशेष तरह का वायरस मनुष्य के अंदर प्रविष्ठ करा देती
है। यही वायरस मलेरिया को जन्म देता है। इस मादा मच्छर के पास इंसानी त्वचा को
भेदने के लिए एक विशेष तरह का हथियार होता है। शोध बताता है कि इसके पास पतले डंक
के अंत में सुईनुमा जुड़वा अस्त्र होता है।
यह मादा इंसान के शरीर में इसे प्रविष्ठ कराकर रक्त वाहनियों की तलाश करती
है। नहीं मिलने पर यह क्रम जारी रखती है। नस मिलने पर यह मादा इंसान का कुछ रक्त
चूस लेती है, और फिर डंक को बाहर निकालने के पहले
इसमें एक विशेष तरह का एंजाईम उसमें छोड़ देती है। शोधकर्ताओं की मानें तो यह मादा
मच्छर दो दिन में ही 30 से 150 तक अंडे देती है। इन अंडों को सेने के लिए उसे मानव रक्त की
आवश्यक्ता होती है।
मलेरिया का स्वरूप विश्व भर में इतना विकराल हो गया है कि इसे दुनिया की
तीसरे नंबर की सबसे बड़ी महामारी का दर्जा मिल गया है। कहा जाता है कि एड्स से 15 सालों में जितनी जानें जाती हैं, उतनी जान मलेरिया रोग के कारण महज एक साल में ही चली जाती
हैं। मलेरिया का सबसे अधिक प्रकोप पांच साल से कम के बच्चों पर होता है। औसतन हर
साल दुनिया भर में 25 लाख से अधिक लोग
इस भयानक बीमारी से अपने प्राण गंवा देते हैं।
विश्व हेल्थ आर्गनाईजेशन (डब्लूएचओ) का प्रतिवेदन साफ तौर पर बताता है कि
मलेरिया के मरीजों की वृद्धि की दर हर साल 16 फीसदी आंकी गई
है। यह तथ्य निश्चित रूप से चिंता का विषय कहा जा सकता है। मलेरिया कितनी गंभीर
बीमारी है यह इस बात से ही साफ हो जाता है कि हर साल विश्व भर में 2 अरब डालर से ज्यादा इस पर खर्च कर दिया जाता है। इतना ही
नहीं मलेरिया को लेकर होने वाले शोधों पर हर साल 580 लाख डालर खर्च किया जाता है।
भारत सरकार इस रोग को लेकर कितनी संजीदा है, यह इस बात से साफ हो जाता है कि देश के स्वास्थ्य बजट का 25 फीसदी हिस्सा मलेरिया की रोकथाम के लिए सुरक्षित रखा जाता
है। भारत सरकार के स्वास्थ्य महकमे द्वारा नब्बे के दशक के उत्तरार्ध तक राष्ट्रीय
मलेरिया नियंत्रण कार्यक्रम को प्रथक से चलाया जाता था। इसके तहत देश के हर जिले
मंे मलेरिया नियंत्रण की एक पृथक यूनिट हुआ करती थी।
शनैःशनैः मलेरिया की इकाईयों में कार्यरत सरकारी कर्मियों को शिक्षकों की
तरह ही जनसंख्या, पल्स पोलियो आदि के काम में बेगार के
तौर पर उपयोग किया जाने लगा। इसके चलते देश भर में एक बार फिर मलेरिया बुरी तरह
पैर पसारने लगा है। सरकार द्वारा चलाए जा रहे समग्र स्वच्छता अभियान में भी
भ्रष्टाचार का दीमक पूरी तरह लग चुका है। मलेरिया फैलने की मुख्य वजह अज्ञानता
मानी जा सकती है। अज्ञानता के चलते साफ सफाई न रख पाने तथा छोटे छोटे पानी के
स्त्रोतों के कारण मच्छरों को प्रजनन का उपजाऊ माहौल मिल जाता है।
अब तक मलेरिया के लिए टीकाकरण की कोई वेक्सीन इजाद नहीं की जा सकी है।
वैसे हाल ही में हुए शोध ने वैज्ञानिकों को खासा उत्साहित कर रखा है। वैज्ञानिकों
का मानना है कि चिंपाजी का वायरस मलेरिया वेक्सीन की खोज में अहम भूमिका
निभाएगा। ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के
वैज्ञानिक चिंपाजी वायरस की खोज मंे तेजी से जुटे हैं, जिससे मलेरिया की वेक्सीन इजाद की जा सकेगी।
इन वैज्ञानिकों की माने तो आने वाले पांच सालों में दुनिया में मलेरिया से
निपटने की वेक्सीन हमारे हाथ होगी। वैज्ञानिकों का दल चिंपाजी के एक खास तरह के
वायरस जिसे अडेनोवायरस का नाम दिया गया है, के साथ मलेरिया
जीन को जोड़कर पैरासाईट (एक खास तरह का वायरस जो मलेरिया का प्रमुख कारक है) को
नष्ट करने का प्रयास कर रहा है। वैज्ञानिकों का मानना है कि अगर यह शोध कामयाब रहा
तो यह पैरासाईट एनाफिलीस के मानव शरीर में डंक प्रवेश के समय ही मर जाएगा।
बहरहाल, युवा एवं उत्साही जिला कलेक्टर भरत
यादव से अपेक्षा है कि वे जिला मलेरिया अधिकारी, नगर पालिका परिषद सहित समस्त जिम्मेदार आला अफसरान को यह
ताकीद करें कि रूके हुए पानी को निकालने की व्यवस्था की जाए और अगर किसी के घर यह
पाया जाए तो उसके खिलाफ चालान काटकर कार्यवाही की जाए, ताकि जानलेवा मलेरिया से लोगों का बचाव हो सके।
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