गैस घरेलू, उपयोग व्यवसायिक!
(शरद खरे)
एक समय था जब रसोई में जंगल से काटी गई
लकड़ियां, उसका बुरादा और कोयला भोजन आदि को पकाने के लिए उपयोग में लाया जाता था।
आजाद भारत गणराज्य में जब वनों की सुरक्षा के उपाय आरंभ हुए और वनों के संरक्षण के
मद्देनजर द्रव रूप में गैस को सिलेंडर में भरना आरंभ किया गया तब जंगल से लकड़ी
काटने को हतोत्साहित किया गया। उस समय रूढ़ीवादी पीढ़ी ने रसोई गैस को अंगीकार नहीं
किया। मजबूरी में सरकार ने रसाई गैस को प्रोत्साहित करने के लिए इस पर सब्सिडी
लागू की ताकि लोग इसकी ओर आकर्षित हो सकें।
कालांतर में रसोई गैस की मांग तेजी से
बढ़ी। इसका कारण यह था कि इसका प्रयोग बेहद आसान था। आसानी के साथ लोग बिना धुंए, राख के भोजन आदि को पकाने का काम करने
लगे। सुरसा की तरह बढ़ रही मंहगाई के मौसम में जलाऊ लकड़ी की दरें भी आसमान छूने
लगीं। इस दौर में सब्सिडाईज्ड रसोई गैस सभी को आकर्षित कर रही थी। लोगों के घरों
के कच्चे चूल्हे का स्थान रसोई गैस वाले चूल्हों ने ले लिया।
इसी दौर में गोबर गैस से खाना पकाने को
भी प्रोत्साहित किया जा रहा था। गोबर गैस के अनेक संयंत्र देश भर में संस्थापित
किए गए। गोबर गैस से पकाए गए खाने में कुछ अजीब सी गंध आती थी, अतः यह प्रयोग बहुत ज्यादा सफल नहीं हो
पाया। देश की राजधानी दिल्ली में अनेक कालोनियों के घरों में गोबर गैस की पाईप
लाईन आज भी घरों घर में डली हैं जिनमें निर्धारित अवधि में रोजाना गैस प्रदाय की
जाती है।
रसोई गैस अब कमोबेश देश के सत्तर फीसदी
घरों में भोजन पकाने के उपयोग में आ रही है। कुछ सालों पहले तक रसोई गैस कनेक्शन
लेना आसान बात नहीं थी। इस समय संसद सदस्य के पास सालाना लगभग सौ गैस कनेक्शन देने
का अधिकार होता था। रसोई गैस कनेक्शन में सांसद का कूपन व्हीव्हीआईपी होने का
संकेत माना जाता था। इस दौर में अनेक गैस एजेंसी संचालकों ने सांसदों के ‘कूपन खरीदकर‘ सांसदों को लखपति तो खुद को भी काफी
अमीर बना लिया।
आज रसोई गैस का कनेक्शन लेना बहुत कठिन
काम नहीं है। आज के समय में रसोई गैस का व्यवसायिक उपयोग जमकर हो रहा है। होटल, ढाबे, चाय पान के ठेलों सहित मेले ठेले, शादी ब्याह, जन्मोत्सव आदि में भी रसोई गैस के
सिलेन्डर का धड़ल्ले से व्यवसायिक उपयोग हो रहा है। होटलों में हाथी के दिखाने के
दांत के मानिंद एक नीला सिलेंडर काउंटर के करीब रख दिया जाता है पर रसोई में लाल
रंग वाले सब्सिडी युक्त सिलेंडर का प्रयोग हो रहा है।
और तो और अब तो पेट्रोल से चलने वाले दो
और चार पहिया वाहनों को सीएनजी से चलाया जाने लगा है। सीएनजी किट डलवाकर लोग
सीएनजी के टैंक में सब्सिडाईज्ड रसोई गैस के सिलेन्डर पलटवा रहे हैं। एलपीजी जबसे
ईंधन के रूप में प्रयुक्त होने लगी है तबसे वाहन संचालकों की बांछे खिल गई हैं।
पेट्रोल से चलने वाले वाहन जहां चार रूपए प्रति किलोमीटर की दर पर पेट्रोल से चलते
हैं वहीं रसोई गैस जो ब्लेक में भी खरीदे तो उसका वाहन महज एक रूपए पचास पैसे
प्रतिकिलोमीटर की दर से चलता है।
सालों से घरेलू गैस का दुरूपयोग धड़ल्ले
से हो रहा है, पर इसकी रोकथाम में खाद्य विभाग और जिला प्रशासन पूरी तरह नाकाम ही रहा
है। हां, चतुर सुजान खाद्य विभाग द्वारा कुछ माहों के अंतराल में एक विशेष अभियान
चलाया जाकर जांच की रस्म अदायगी कर ली जाती है। इस रस्म अदायगी में जनसंपर्क विभाग
के माध्यम से खाद्य विभाग द्वारा विज्ञप्ति भी जारी कर दी जाती है जिसमें जिला
कलेक्टर को ‘‘गदगद‘‘ करने की गरज से ‘जिला कलेक्टर के निर्देशानुसार या
आदेशानुसार‘ उक्त अभियान को संचालित करने की बात कह दी जाती है।
ना जाने कितने डीजल से संचालित होने
वाले वाहन नीले करोसीन से संचालित हो रहे हैं। शहर में अनेक स्थानों पर रसोई गैस
के सिलेन्डर को सीएनजी के टेंक में पलटाने का बेहद खतरनाक काम घनी आबादी वाले
क्षेत्रों में संचालित किया जा रहा है। रसोई गैस को सीएनजी टैंक में दो तरह से
डाला जाता है एक पंप मेन्युअल तौर पर आपरेट होता है जिसमें पांव के हवा भरने वाले
पंप जैसा काम करना होता है, तो दूसरा बिजली से चलने वाली मशीन होती
है जो महज दस मिनिट में ही साढ़े चौदह किलो गैस को सीएनजी टैंक में रसोई गैस के
सिलेंडर से भर देती है।
क्या खाद्य विभाग, परिवहन विभाग या जिला प्रशासन अथवा
पुलिस प्रशासन ने जिले में सीएनजी से चल रहे वाहनों के संचालकों से यह पूछा है कि
वे सीएनजी कहां से भरवा रहे हैं, जबकि सिवनी में सीएनजी फिलिंग स्टेशन है
ही नहीं! अगर नागपुर जबलपुर से भरवाकर आ रहे हैं तो आने जाने में कितनी गैस की खपत
हुई है। क्या कभी सीएनजी गैस के कैश मैमो और लाग बुक देखा है जिम्मेदार लोगों ने!
जाहिर है नहीं, मलतब साफ है कि किसी को भी अपने कर्तव्यों का बोध नहीं है। सभी बस मोटा
माल काटने की जुगत में ही हैं।
मारा मारी के इस युग में आम जनता को
रसोई गैस का एक सिलेन्डर भरवाने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगाना होता है, वहीं, ब्लेक में इन होटल, ढाबा संचालकों के साथ ही साथ वाहन
चालकों को पता नहीं आसानी से कैसे रसोई गैस का सिलेन्डर मिल जाता है। रसोई गैस का
धड़ल्ले से व्यवसायिक उपयोग हो रहा है और जिला प्रशासन ने अपने लिए धृतराष्ट्र की
भूमिका चुन रखी है. . .।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें