शनिवार, 31 जुलाई 2010
शुक्रवार, 30 जुलाई 2010
600 वीं पोस्ट
सडक किनारे पडे बोल्डर दे रहे दुर्घटना को न्योता
यातायात प्रभारी से कार्यवाही की अपेक्षा
सद्भाव के डंपर्स ने उडा दिए सडकों के धुर्रे
कैसे गुजरें एक डेढ फिट के गड्ढों से
आईएसओ सर्टिफाईड होना चाहिए काम
(लिमटी खरे)
आईएसओ सर्टिफाईड होना चाहिए काम
(लिमटी खरे)
सिवनी। फोरलेन आएगी, फोरलेन बचेगी, फोरलेन जाएगी इसी उहापोह के बीच फोरलेन निर्माण करा रही निर्माण कंपनियों की मनमानियां जारी हैं, पर न तो जिला प्रशासन और न ही फोरलेन बचाने के लिए आगे आईं संस्थाएं ही इस दिशा में कोई पहल ही कर पा रही हैं। सिवनी से नागपुर मार्ग पर जगह जगह सडक पर बिखरी पडी बडी बडी बोल्डरनुमा चट्टाने सरेआम दुघटनाओं को न्याता दे रहीं हैं और सभी खामोशी से दुर्घटना घटने की बाट जोह रहे हैं।
एसा नहीं कि सिवनी जिले में नेतागिरी करने वाले नुमाईदे सिवनी से दक्षिणी दिशा में नागपुर जाने वाले मार्ग से न गुजरते हों। बावजूद इसके सडक पर जगह जगह सडाकों पर काले पत्थरों के ढेर उन्हें दिखाई न पडते हों। इसके साथ ही साथ सडकों पर मिट्टी के ढेर भी जहां तहां देखने को मिल जाते हैं। वस्तुतः ये आवागमन के दौरान दुर्घटनाओं के घटने का कारक बन सकते हैं।
गौरतलब होगा कि स्वर्णिम चतुर्भुज और इससे जुडे उत्तर दक्षिण और पूर्व पश्चिम गलियारे का निर्माण का काम भी गुणवत्ता के हिसाब से आईएसओ से प्रमाणित होना चाहिए। विडम्बना ही कही जाएगी कि बिना सुरक्षा नोटिस, निर्माण कार्य के दोनों ओर बिना दोरंगी पट्टी बांधे ही इसका काम नब्बे फीसदी करा दिया गया है, पर किसी के कान में जूं तक नहीं रेंगी। इस सारे मामले में नियम कायदों का सरेआम माखौल उडाकर इसका निर्माण करा रही कंपनियों ने अच्छी मलाई काटी है, इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है।
बीती ताहि बिसार दे की तर्ज पर भी अगर वर्तमान परिस्थितियों में देखा जाए तो सिवनी से नागपुर मार्ग पर जगह जगह पडे पत्थरों के ढेर से आवागमन प्रभावित हुए बिना नहीं है। पुलिस के आला दर्जे के सूत्रों का कहना है कि जिले में यातायात प्रभारी और जिला पुलिस अधीक्षक का कार्यक्षेत्र बराबर ही होता है। इस लिहाज से यातायात प्रभारी की नजरें भी इस पर इनायत न हो पाना आश्चर्य का ही विषय माना जा सकता है। परिवहन विभाग के अधिकारी तो लक्ष्मी के मद में इतने चूर हो चुके हैं कि उन्हें लोगों की सुख सुविधाओं की परवाह कतई ही नहीं है, पर संजीदा यातायात प्रभारी से तो अपेक्षा की जा सकती है कि वे इस दिशा में ठोस कदम उठाएंगे।
यहां एक बात और गौरतलब है कि सडक के जिस भाग का निर्माण कथित तौर पर माननीय न्यायालय द्वारा रोका बताया जा रहा है उस भाग के धुर्रे अगर उडे हैं तो वह सडक निर्माण में लगी इन दोनों ही कंपनियों सद्भाव कंस्ट्रक्शन कंपनी और मीनाक्षी कंस्ट्रक्शन कंपनी के ओवर लोडेड डंपर्स ने ही उडाए हैं। कहा जा रहा है कि इन कंपनियों में बडे कद के राजनेताओं की भागीदारी है अतः इन दोनों ही कंपनियों का कोई भी कुछ नहीं बिगाड सकता है।
आश्चर्य का विषय तो यह है कि जिला प्रशासन भले ही राजनेताओं के दबाव में आकर इन कंपननियों के खिलाफ कार्यवाही करने से भले ही कतरा रहा हो पर लोगों के हक की लडाई के लिए आगे आने वाले गैर सरकारी संगठनों की इस मामले में चुप्पी वाकई शोध का विषय ही कही जाएगी।
गुरुवार, 29 जुलाई 2010
बुधवार, 28 जुलाई 2010
सीबीएसई पर हावी शिक्षा माफिया (6)
सर्कस के बाजीगर ही जा सकते हैं वाहन से सेंट फ्रांसिस शाला
सिवनी। ज्यादा लाभ कमाने के चक्कर में पालकों को सीबीएसई का लोभ दिखाकर जिला मुख्यालय में संचालित निजी तौर पर संचालित होने वाली शालाओं द्वारा लूट सके तो लूट को मूल मंत्र अपनाया जा रहा है, और प्रशासन ध्रतराष्ट्र की भूमिका में ही दिख रहा है. जिला मुख्यालय में कितनी शालाओं के पास सीबीएसई की मान्यता है, यह बात कोई नहीं जानता है, बावजूद इसके जिला प्रशासन द्वारा इस संबंध में कोई कदम नहीं उठाया जाना आश्चर्यजनक की माना जा सकता है. शालाओं पर नियंत्रण के लिए जवाबदेह जिला शिक्षा अधिकारी ही जब अपने आप को इस मामले से दूर रखते हुए शाला संचालकों के पक्ष में परोक्ष तौर पर आकर खडे हो गए हों, तब विद्यार्थियों और पालकों का तो भगवान ही मालिक है.
मध्य प्रदेश के लिए सीबीएसई बोर्ड के क्षेत्रीय कार्यालय राजस्थान के अजमेर में स्थित है. वहां स्थित सूत्रों का कहना है कि मध्य प्रदेश के सिवनी जिले में अब तक किसी भी शाला को सीबीएसई से संबद्धता नहीं प्रदान की गई है, अलबत्ता सीबीएसई की मान्यता लेने की कार्यवाही अवश्य ही कुछ शालाओं द्वारा दी गई है. सूत्रों का कहना है कि जब तक सीबीएसई बोर्ड की मान्यता शाला को नहीं मिल जाती तब तक शाला के द्वारा अपने आप को सीबीएसई से संबद्ध होने की बात प्रसारित प्रचारित नहीं की जा सकती है.
बताया जाता है कि जिला मुख्यालय में संचालित होने वाली कुछ शालाओं द्वारा मीडिया में विज्ञापन, पंपलेट आदि साधनों के माध्यम से अपने आप को सीबीएसई बोर्ड से संबद्ध होना बताया जा रहा है. प्रशासन की निष्क्रियता के चलते इन शाला संचालकों का आलम यह है कि ये विद्यार्थियों को ढोने में प्रयुक्त होने वाले वाहनों में भी सीबीएसई बोर्ड से मान्यता प्राप्त का ठप्पा लगाकर चोरी और सीना जोरी कर रहे हैं. यहां उल्लेखनीय होगा कि जिन वाहनों में यह लिखा है, वे शाला के लिए निर्धारित किए गए पीले रंग के स्थान पर सफेद रंग से रंगे हुए हैं. इन वाहनों में निर्धारित से अधिक बच्चों को भी ढोया जा रहा है.
परिवहन कार्यालय में गौरतलब होगा कि निजी उपयोग के लिए पंजीबद्ध होने के बावजूद इन वाहनों का पूरी तरह से व्यवसायिक उपयोग किया जा रहा है, और यातायात पुलिस के साथ ही साथ क्षेत्रीय परिवहन अधिकारी का कार्यालय भी आंख बंद किए हुए बैठा है. इस तरह आपसी सांठ गांठ के चलते परिवहन विभाग को दिए जाने वाले करों के रूप में लाखों रूपए की सीधी सीधी क्षति पहुंचाई जा रही है. जिन वाहन संचालकों ने बाकायदा यात्रीकर या अन्य मदों में बाकायदा कर जमा किया है, उनमें रोष और असंतोष की स्थिति बनती जा रही है.
इसी क्रम में जिला मुख्यालय में कचहरी चौक में रिहाईशी इलाके में इसाई मिशनरी द्वारा संचालित होने वाले सेंट फ्रांसिस स्कूल द्वारा आनन फानन अपनी शाला को शहर से लगभग सात किलोमीटर दूर जबलपुर रोड पर स्थानांतरित कर दिया गया है. आधे अधूरे भवन में स्थानांतरित इस शाला को संभवतरू सीबीएसई बोर्ड के अधिकारियों के निरीक्षण के उददेश्य से स्थानांतरित किया गया है. बताया जाता है कि जुलाई माह में ही किसी दिन सीबीएसई बोर्ड के द्वारा पाबंद किए गए दो प्राचार्य आकर इसका निरीक्षण करेंगे कि शाला का संचालन सीबीएसई के मापदण्डों के मुताबिक किया जा रहा है, अथवा नहीं. अगर यह पाया गया कि उक्त शाला का संचालन सीबीएसई के मापदण्डों के हिसाब से नहीं किया जा रहा है तो वे अपने प्रतिवेदन में प्रतिकूल टिप्पणी अवश्य करेंगे, जिससे इस शाला का सीबीएसई से एफीलेशन खटाई में पड सकता है.
वर्तमान में बारिश के माह में शाला की स्थिति काफी दयनीय बताई जा रही है. बताया जाता है कि मुख्य मार्ग से शाला पहुंच मार्ग पूरी तरह से कीचड से सना हुआ है. इस मार्ग पर अगर कोई पालक, विद्यार्थी अथवा शिक्षक अपना वाहन लेकर शाला तक पहुंचता है तो रास्ते में अनेक बार उसका दुपहिया वाहन हिचकोले खाता रहता है. वाहन चालकों को डर बना रहता है कि कहीं वह फिसलकर दुर्घटना ग्रस्त न हो जाए. अनेक वाहन चालक इस मार्ग पर अपने वाहनों से गिर भी चुके बताए जा रहे हैं. पालकों, विद्यार्थियों या शिक्षकों की इस परेशानी से शाल प्रबंधन को कुछ लेना देना नहीं है, शोर शराबा होने पर शाला प्रबंधन द्वारा रस्म अदायगी के लिए रोलर आदि चलवाकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर ली जाती है. चर्चाओं के अनुसार इस मार्ग पर वाहन चलाना अब सिर्फ सर्कस के बाजीगरों के बस की ही बात रह गई है, क्योंकि सर्कस के बाजीगर ही अपना बेलेंस साधने में मास्टरी रखते हैं.
व्याप्त चर्चाओं के अनुसार इस शाला में पूर्व में सीबीएसई के निर्धारित मापदण्डों के हिसाब से चालीस छात्र प्रति कक्षा के बंधन को भी तोडा जा रहा है. मई और जून माह में प्रवेश पर बंदिश लगाने के बाद अब धडल्ले से इस शाला में प्रवेश देने का सिलसिला चल पडा है, जिससे लगने लगा है कि शाला प्रबंधन को अपने विद्यार्थियों को पढाई आदि की गुणवत्ता से ज्यादा चिंता किसी और चीज की है. इतना सब कुछ होने के बावजूद भी अगर सांसद, विधायक, जिला प्रशासन सहित सत्ताधारी भाजपा और विपक्ष में बैठी कांग्रेस चुप्पी साधे बैठी हो तो फिर शहर के बच्चों के भविष्य पर प्रश्रचिन्ह स्वयंमेव ही लग जाता है.
(क्रमशः जारी)
कामन वेल्थ गेम्स का रास्ता काटते मणिशंकर
किसे ‘‘शैतान‘‘ बताने की जहमत उठा रहे हैं अय्यर?
कांग्रेसी ही नहीं चाह रहे राष्ट्रमण्डल खेल की सफलता
अय्यर उवाच: शैतान ही पैसे की बरबादी का कर सकते समर्थन
रक्षात्मक मुद्रा में दिख रही कांग्रेस
(लिमटी खरे)
एक तरफ कांग्रेसनीत कंेद्र और कांग्रेस की ही दिल्ली सरकार द्वारा भारत की प्रतिष्ठा का प्रश्न बन चुके राष्ट्रमण्डल खेलों के लिए माकूल माहौल तैयार करने में दिन रात एक की जा रही है, वहीं दूसरी ओर कांग्रेस के ही वरिष्ठ नेता और पिछले दरवाजे (बरास्ता राज्य सभा) संसद में अपनी आमद देने वाले मणि शंकर अय्यर द्वारा ही यह कहा जा रहा है कि अगर कामन वेल्थ गेम्स सफल होते हैं तो इससे वे खुश नहीं होंगे।
आखिर एसा क्या हो गया है कि कामन वेल्थ गेम्स की मेजबानी लेने के पांच सालों के बाद कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री मणिशंकर अय्यर अचानक भडक पडे हैं। अमूमन वैसे तो माना यही जाता है कि नब्बे के दशक के उपरांत कांग्रेस का कोई भी वरिष्ठ नेता तब तक सार्वजनिक तौर पर बयानबाजी नहीं करता है जब तक कि कांग्रेस का आलाकमान उसे प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर एसा करने के लिए इशारा न कर दे।
राजनीति में एक दूसरे के कद को कम करने या यूं कहें कि साईज में लाने के उद्देश्य से वरिष्ठ नेताओं द्वारा इस तरह के खेल को अंजाम दिया जाता है। इस मामले को भी दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के बढते कद से जोडकर देखा जा रहा है। देश की राजनैतिक राजधानी दिल्ली जैसे प्रदेश में लगातार तीसरी बार सत्ता में बैठना कोई मामूली बात नहीं है। हो सकता है कि शीला के बढते कद ने कांग्रेस की दूसरी पंक्ति के नेताओं की नींद हराम कर दी हो और उन्होंने षणयंत्र के तहत कांग्रेस की राजमाता श्रीमति सोनिया गांधी के कान भरने आरंभ कर दिए हों।
बहरहाल कांग्रेस के राज्य सभा सदस्य चीख चीख कर इस बात को कह रहे हैं कि अक्टूबर में दिल्ली में होने वाले कामन वेल्थ गेम्स का आयोजन अगर सफल होता है तो उन्हें खुशी के बजाए दुख होगा। उन्होंने इस आयोजन को पैसों की बरबादी करार देते हुए कहा कि सिर्फ और सिर्फ ‘‘शैतान‘‘ ही इसका समर्थन कर सकते हैं। मणिशंकर अय्यर की इस बात को सही माना जा सकता है कि यह वाकई पैसे की बरबादी ही है, किन्तु उस वक्त मणिशंकर अय्यर कहां थे, जब इस आयोजन में भारत ने मेजबानी करने का प्रस्ताव रखा था, और भारत को मेजबानी प्रदान भी की गई थी।
इतना ही नहीं 2005 से अब तक जब कामन वेल्थ गेम्स के लिए बैठकें पर बैठकें होती रहीं, आयोजन के लिए स्टेडियम दुरूस्त होते रहे, करोडों अरबों रूपयों का आवंटन जारी किया गया, सडकों, चमचमाती विदेशी लुक वाली यात्री बस, चकाचक यात्री प्रतीक्षालय, विदेशियों की सुविधा के लिए आरामदेह विलासिता भरे मंहगे टायलेट आदि का निर्माण कराया जा रहा था, तब राज्य सभा सदस्य मणि शंकर अय्यर पता नहीं किस नींद में सो रहे थे। अचानक ही कामन वेल्थ गेम्स से तीन माह पूर्व ही उनकी तंद्रा टूटी है, और उन्होंने कामन वेल्थ गेम्स पर उलटबंसी बजाना आरंभ कर दिया है।
हमें तो देश के इलेक्ट्रानिक मीडिया की सोच पर भी तरस ही आता है। अपनी टीआरपी (टेलीवीजन रेटिंग प्वाईंट) बढाने के चक्कर में इस तरह की बेकार खबरों से सनसनी पैदा करने की नाकामयाब कोशिश में ही लगा रहता है इस तरह का मीडिया। मीडिया ने मणिशंकर के कामन वेल्थ गेम्स वाले बयान पर तो काफी सनसनी फैलाई पर किसी ने भी अय्यर से यह सवाल पूछने की जहमत नहीं उठाई कि आखिर पांच सालों तक जब यह पैसा पानी की तरह बहाया जा रहा था, तब वे चुप क्यों बैठे?
आज अचानक किस बोधी वृक्ष के नीचे बैठने से उन्हें इस सत्य का भान हुआ कि पैसा पानी की तरह बहाया जा रहा है, और शैतान ही इसका समर्थन कर सकता है। चूंकि इस खेल का समर्थन कांग्रेस की राजमात श्रीमति सोनिया गांधी, युवराज राहुल गांधी और दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित सहित कंेद्र की कांग्रेसनीत संप्रग और दिल्ली की कांग्रेस सरकार कर रही हैं तो क्या राज्य सभा सदस्य मणिशंकर अय्यर खुद मंत्री न बन पाने के चलते अपनी ही पार्टी की अध्यक्ष श्रीमति सोनिया गांधी, कांग्रेस की नजर में भविष्य के प्रधानमंत्री राहुल गांधी और दिल्ली की गद्दी पर तीसरी मर्तबा बैठने वाली शीला दीक्षित सहित समूची सरकार को ही ‘‘शैतान‘‘ की संज्ञा दे रहे हैं।
वैसे मणिशंकर अय्यर का यह कथन सही ठहराया जा सकता है कि इसकी तैयारियों में बहाए गए 35 हजार करोड रूपयों का उपयोग देश के गरीबों और बच्चों की बेहतरी में करना मुनासिब होता। सच है देश की दो तिहाई आबादी को आज दो जून की रोटी तक मुहैया नहीं है और सरकार 35 हजार करोड रूपए दिखावे में खर्च कर रही है। यह राशि आई कहां से है? भारतीय रिजर्व बैंक ने कहीं से नोट तो नहीं छापे हैं, जाहिर है यह समूचा धन देश के गरीब गुरबों के द्वारा हर कदम पर दिए जाने वाले कर से ही जुटाई गई है।
एक तरफ जहां मणिशंकर अय्यर द्वारा इस आयोजन को लेकर सरकार को कोसा जा रहा है, वहीं उसी वक्त देश के खेल मंत्री एम.एस.गिल द्वारा 19वंे राष्ट्रमण्डल खेलों के लिए सज रहे स्टेडियम का जायजा लिया जा रहा था। खेल मंत्री इस आयोजन को भारत की इज्जत का सवाल भी निरूपित कर रहे हैं। गिल ने नेहरू स्टेडियम को देखकर यह कहा कि उन्हें खुशी हो रही है कि यह स्टेडियम आखिरकार पूरा हो गया है।
इधर भारत गणराज्य के खेल मंत्री एम.एस.गिल इस आयोजन पर पैसे की कथित तौर पर बरबादी में अपनी ओर से खुशी जता रहे हैं, वहीं दूसरी ओर कांग्रेस के ही राज्य सभा सदस्य मणि शंकर अय्यर द्वारा इस तरह की खुशी वही जाहिर कर सकता है जो ‘‘शैतान‘‘ हो। अब फैसला जनता करे या मणिशंकर अय्यर अथवा देश पर आध्शी सदी से ज्यादा राज करने वाली कांग्रेस कि मणि शंकर अय्यर आखिर ‘‘शैतान‘‘ की उपाधि किसे देना चाह रहे हैं।
सरकार को लग सकती है एक हजार करोड की चपत
सद्भाव, मीनाक्षी की पांचों उंगलियां घी में सर कडाही में
दोनों कंपनियां 18 दिसंबर 2008 से जबर्दस्त मुआवजा लेने की जुगत में
किसी की नजर नहीं है कंपनियों के हिडन एजेंडे पर
(लिमटी खरे)
सिवनी। सिवनी जिले में उत्तर दक्षिण गलियारे का निर्माण करा रही मूल अथवा पेटी कांटेक्टर कंपनियां सद्भाव कंस्ट्रक्शन कंपनी और मीनाक्षी कंस्ट्रक्शन कंपनी की हर हाल में चांदी ही चांदी है। 18 दिसंबर 2008 को जिला कलेक्टर सिवनी के आदेश क्रमांक 3266 /फो.ले. / 2008 से मोहगांव से लेकर खवासा तक का सडक निर्माण का काम रोक दिया गया है। इसका निर्माण सद्भाव कंस्ट्रक्शन कंपनी द्वारा कराया जा रहा है। इसी तरह जबलपुर रोड पर बंजारी माता के आगे से गनेशगंज के कुछ पहले तक काम भी रोका गया है, यह किसके आदेश से कब रोका गया है, यह बात अभी तक स्पष्ट नहीं हो सकी है। इसका निर्माण मीनाक्षी कंस्ट्रक्शन कंपनी द्वारा करवाया जा रहा है।
एनएचएआई के उच्च पदस्थ सूत्रों का कहना है कि एनएचएआई के निर्माण की निविदा में इस बात का साफ तौर पर उल्लेख किया गया था कि निर्धारित समय सीमा के बाद जिसके द्वारा भी विलंब किया जाएगा वह पेनाल्टी देने का अधिकारी होगा। चूंकि यह केंद्र सरकार की महात्वाकांक्षी परियोजनाओं में अग्रणी थी अतः इसमें जुर्माना भी भारी भरकम ही आहूत किया गया था। उदहारण के लिए अगर निर्माण करा रहा ठेकेदार निर्धारित समय सीमा में काम पूरा नहीं कर पाता है तो शासन को उससे जुर्माना वसूलने का पूरा अधिकार होगा। और अगर सरकार द्वारा सडक निर्माण के लिए उपजाउ माहौल नहीं दिया जाता है तो ठेकेदार द्वारा सरकार से जुर्माने की रकम वसूल की जाएगी।
सूत्रों ने कहा कि सद्भाव कंस्ट्रक्शन कंपनी की पांचों उंगलियां घी में, सर क
डाही में और पूरे के पूरे पैर धड सहित थाली में पडे हुए हैं, क्योंकि 18 दिसंबर 2008 के उपरांत सद्भाव कंस्ट्रक्शन कंपनी ने सडक निर्माण का काम रोक दिया है, वह भी तत्कालीन जिला कलेक्टर पिरकीपण्डला नरहरि के 18 दिसंबर 2008 के आदेश के तहत। इस हिसाब से 18 दिसंबर 2008 के बाद से अगले आदेश तक के लिए सद्भाव कंस्ट्रक्शन कंपनी का मीटर जुर्माने के लिए डाउन हो चुका है। हालात देखकर यह कहा नहीं जा सकता है कि आगामी आदेश कब आएगा, और जब तक आगामी आदेश नहीं आता तब तक जुर्माना बढता ही जाएगा।
कमोबेश यही आलम मीनाक्षी कंस्ट्रक्शन कंपनी का है। मीनाक्षी को भी बंजारी के पास का काम नहीं करने दिया जा रहा है। इस मामले में जिला प्रशासन सहित फोरलेन बचाने मेें लगे सारे गैर राजनैतिक, गैर सामाजिक और राजनैतिक संगठन चुप्पी ही साधे हुए हैं, जो कि आश्चर्यजनक ही माना जाएगा। बहरहाल इस निर्माण कार्य को जिस दिन से रोका गया है, उसी दिन से मीनाक्षी कंस्ट्रक्शन कंपनी का मीटर भी जुर्माने के लिए डाउन हो चुका है।
प्राप्त जानकारी के अनुसार दोनों ही कंपनियों ने अपने कर्मचारियांे और संसाधनों की फौज को सिवनी से अन्य निर्माणाधीन साईट्स पर स्थानांतरित कर दिया गया है, किन्तु कागजों पर आज भी उनकी तैनाती सिवनी के बेस केम्प में ही दर्शाई जा रही है, ताकि मुआवजे और हर्जाने की राशि को बढाया जा सके। जिला कलेक्टर द्वारा काम रोके जाने के 19 माह बीत चुके हैं, इस लिहाज से प्रतिदिन का ही अगर मुआवजा और हर्जाना जोडा जाए तो राशि करोडों रूपयों में आती है।
इन कंपनियों द्वारा अपने अपने पास लगाए गए डंपर्स को ही एक एक लाख रूपए प्रतिमाह की दर से भुगतान किया जा रहा था, जिससे इन डंपर्स की संख्या और अब तक हुए 19 माह में कितनी राशि का नुकसान और हर्जा खर्चा की देनदारी सरकार पर बन चुकी है, यह बात न तो सरकार के भूतल परिवहन मंत्रालय को ही समझ में आ रही है और न ही सिवनी में फोरलेन की लडाई प्रत्यक्ष और परोक्ष तौर पर लडने वालों को।
चर्चाओं के अनुसार एक ओर तो भूतल परिवहन मंत्रालय द्वारा एलीवेटेड हाईवे के लिए लगभग नौ सौ करोड रूपए की लागत देने से इंकार किया जा रहा है, वहीं दूसरी ओर मंत्रालय द्वारा इन कंस्ट्रक्शन कंपनियों को बिना काम के हाथ पर हाथ रखे बैठे रहने के लिए करोडों रूपए मुआवजे और हर्जाने के तौर पर देना कहां की समझदारी है? कहा तो यहां तक भी जा रहा है कि सद्भाव और मीनाक्षी कंस्ट्रक्शन कंपनी द्वारा इस तरह का माहौल बनाने में मदद की जा रही है कि मामला चाहे किसी न्यायालय के माध्यम से जितना लंबित करवाया जा सके करवाया जाए, ताकि उनको मिलने वाली राशि में गुणोत्तकर वृद्धि हो सके। सिवनी में फोरलेन बचाने वाले जाने अनजाने अगर कंपनियों के हिडन एजेंडे का अंग बन रहे हों तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
मंगलवार, 27 जुलाई 2010
भारत में धूम मचाने के बाद अब है तैयारी विश्व भ्रमण की
लो अपना प्यारा मोगली अब चला हॉलीवुड की ओर!
देश के हृदय प्रदेश के सिवनी सूबे का है मोगली
देश के मोगली की महत्ता भारत के बजाए पहले जापान ने समझी
(लिमटी खरे)
भारत गणराज्य के लोगों की स्मृति से अभी विस्मृत्र नहीं हुआ होगा कि नब्बे के दशक में धूम मचाने वाला दूरदर्शन पर हर रविवार को सुबह सवेरे ‘‘जंगल जंगल पता चला है, चड्डी पहन के फूल खिला है . . .‘‘ वाले टाईटल सांग का सीरियल ‘‘द जंगल बुक‘‘ का हीरो भेडिया बालक मोगली देश भर के हर वर्ग, हर आयु के लोगों की पहली पसंद बन गया था। यही मोगली अब तैयारी में है कि वह भारत से निकलकर अब हॉलीवुड में जाकर धूम मचाने की। जी हां, आने वाले सितम्बर माह में मोगली पर आधारित फिल्म का प्रोडक्शन आरंभ हो जाएगा।
गौरतलब है कि ब्रितानी शासनकाल में भारत के हृदय प्रदेश के सिवनी जिले के जंगलों में एक बालक जो जंगली जानवरों विशेषकर भेडियों के बीच पला था के अस्तित्व में होने की किंवदंती आज भी फिजाओं में है। माना जाता है कि एक बालक जो जंगलों की वादियों में पला बढा था, वह भेडियों की सोहबत में रहने के कारण अपनी आदतें भेडियों की तरह ही कर बैठा था, ने लंबा समय जंगलों में बिताया था।
ब्रितानी शासन में इंग्लेण्ड के मशहूर लेखक और कवि रूडयार्ड किपलिंग ने मोगली के जीवन को कागज पर उतारा था। क्पिलिंग का जन्म भारत गणराज्य की आर्थिक राजधानी मुंबई में उस वक्त हुआ था जब देश पर ब्रितानी शासक हुकूमत किया करते थे। किपलिंग के माता पिता मुंबई में ही रहा करते थे।
कवि रूडयार्ड किपलिंग ने महज 13 साल की आयु से ही कविताएं लिखना आरंभ कर दिया था। कहते हैं कि पूत के पांव पालने में ही दिख जाते हैं, उसी तर्ज पर किपलिंग की कविताएं तब काफी लोकप्रिय हो गईं थीं। कहा जाता है कि किपलिंग को एक बार भारत की सुरम्य वादियों के बीच देश के जंगलों की अनमोल वादियों में सैर का मौका मिला।
उसी दौरान एक फारेस्ट रेंजर गिसबॉर्न ने रूडयार्ड किपलिंग को एक बालक के शिकार करने की क्षमताओं के बारे में सविस्तार बताया। जंगली जानवारों के बीच लालन पालन होने के कारण उस बालक में यह गुण विकसित हुआ था। यहीं से किपलिंग को जंगली खूंखार जानवरों के बीच रहने वाले उस अद्भुत बालक के बारे में लिखने की प्रेरणा मिली। किपलिंग ने जंगल बुक नामक किताब में इस अनोखे बालक के जीवन को बडे ही करीने से उकेरा है। बाद में यही बालक सबका रा दुलारा ‘मोगली‘ बन गया।
किपलिंग की इस किताब में मोगली के सहयोगी मित्रों और बुजुर्गों के तौर पर चमेली, भालू, का, अकडू पकडू, खूंखार शेरखान आदि को भी बखूबी स्थान दिया गया है। विडम्बना यह है कि भारत के जंगलों में पाए जाने वाले इस मोगली के बारे में उसकी खासियतें पहचानी तो एक ब्रितानी लेखक ने।
इतना ही नहीं ब्रितानी लेखक के इस नायाब अनुभवों या काल्पनिक काम को सूत्र में पिरोकर फिल्माने का काम किया जापान ने। जापान में सिवनी के इस बालक के कारनामोें के बारे में 1989 में एक 52 एपीसोड वाला सीरियल तैयार किया गया था। ‘‘द जंगल बुक शिओन मोगली‘‘ नाम से बनाए गए इस एनीमेटिड टीवी सीरियल को जब प्रसारित किया गया तो जापान का हर आदमी मोगली का दीवाना बन गया था।
जब भारत को यह पता चला कि उसके देश की इस नायाब कला को जापान में सराहा जा रहा है, तो भारत में इसके प्रसारण का मन बनाया गया। एक साल बाद 1990 में इसी जापानी सीरियल द जंगल बुक ऑफ शिओन मोगली को हिन्दी में डब करावाया गया और फिर इस कार्टून सीरियल ‘द जंगल बुक‘ को दूरदर्शन पर प्रसारित किया गया। जैसे ही रविवार को इसका प्रसारण आरंभ किया गया, वैसे ही इस सीरियल की लोकप्रियता ने सारे रिकार्ड ध्वस्त कर दिए। इस मोगली सीरियल का टायटल सांग ‘जंगल जंगल बात चली है, पता चला, चड्डी पहन कर फूल खिला है . . .‘ को लिखा था मशहूर गीतकार गुलजार ने और इसे संगीत दिया था विशाल भारद्वाज ने।
आल लगभग बीस साल के उपरांत यह मोगली एक बार फिर अपनी लोकप्रियता के सारे पैमाने ध्वस्त करने की तैयारी में है। यह कार्टून सीरियल एक बार फिर निर्माण हेतु तैयार है। और इसके उपरांत यह दुनिया भर में धूम मचाएगा। मोगली पर फिल्म निर्माण की जवाबदारी अब विज्जुअल इफेक्ट कंपनी डीक्यू एंटरटेनमेंट अपने कांधों पर ली है जो इस पर अंतर्राष्ट्रीय स्तर की फिल्म बनाने जा रही है। द जंगल बुक के नाम से आने वाले समय में थ्री डायमेंशनल फिल्म बनाई जाने वाली है, जो दुनिया भर में रिलीज की जाएगी।
लगभग एक सौ बीस करोड रूपए लागत से बनने वाली इस फिल्म का प्रोडक्शन इसी साल सितम्बर से आरंभ होने वाला है। भारत के हेदराबाद की एनीमेशन, गेमिंग और इंटरटेनमेंट कंपनी डीक्यू एंटरटेनमेंट द्वारा बनने वाली यह थ्री डी फिल्म 2011 में यह रिलीज को तैयार हो जाएगी एसा माना जा रहा है।
मूलतः रूडयार्ड किपलिंग की किताब द जंगल बुक पर आधारित यह चलचित्र ‘इन द रूख‘, ‘टाईगर‘, ‘लेटिंग इन द जंगल‘ आदि कहानियों का निचोड होगा जिसमें मोगली के अपने माता पिता से बिछुडने, जंगल में खूंखार जानवरों के बीच पलने बढने, उसके साहसिक कारनामों और फिर मानव जाति और सभ्यता में वापसी पर आधारित होगी।
एनएचएआई भी कर रही है सिवनी के साथ पक्षपात
सद्भाव और मीनाक्षी बच रहे हैं अपनी जवाबदारियों से
(लिमटी खरे)
सिवनी। उत्तर दक्षिण गलियारा सिवनी से होकर जाएगा या नहीं इस प्रश्न के जवाब में सभी उलझ गए हैं, इसका लाभ इस मार्ग का निर्माण करा रही सद्भाव कंस्ट्रक्शन कंपनी और मीनाक्षी कंस्ट्रक्शन कंपनी द्वारा सीधे सीधे उठाया जा रहा है। जिस मार्ग का निर्माण रूका हुआ है, उसका रख रखाव करने से भी ये कंपनियां बच रहीं हैं, और सिवनी में प्रशासन के साथ ही साथ जनसेवक भी अपनी जवाबदारियों से अपने आप को बचाकर रखे हुए हैं।
एनएचएआई के उच्च पदस्थ सूत्रों का दावा है कि वर्तमान में जिस मार्ग का निर्माण नहीं हुआ है, और जहां जहां से इन कंपनियों ने बायपास बनाकर आरंभ करवा दिया है, अथवा आरंभ होना शेष है, वहां शहरी बसाहट से होकर गुजरने वाले मार्ग के रखरखाव की जवाबदारी भी निर्माण करा रही कंपनियों की है। विडम्बना है कि लगातार दूसरे साल में भी इन मार्गों के धुर्रे उड गए हैं, जिसका खामियाजा यहां से होकर गुजरने वाले वाहनों को भुगतना पड रहा है।
सूत्रों ने कहा कि एनएचएआई के सिवनी में पदस्थ अधिकारियों द्वारा भी इस दिशा में कठोर कार्यवाही न कर परोक्ष तौर पर मार्ग निर्माण में लगी कंपनियों को लाभ पहुंचाया जा रहा है। ये कंपनियां इन मार्ग का रख रखाव न कर सीधे सीधे अपना आर्थिक हित साधने में लगी हुई हैं। इन कंपनियों द्वारा इन मार्गों के पेंच रिपेयर न कराकर मेटेरियल, लेबर, तेल आदि को बचाकर आर्थिक लाभ अर्जित किया जा रहा है।
गौरतलब होगा कि तत्कालीन जिला कलेक्टर पिरकीपण्डला नरहरि के 18 दिसंबर 2008 के आदेश के उपरांत सद्भाव कंस्ट्रक्शन कंपनी और मीनाक्षी कंस्ट्रक्शन कंपनी ने अपना काम मंथर गति से आरंभ कर कालांतर में काम को लगभग रोक ही दिया है। यही कारण है कि जिला मुख्यालय सिवनी के पश्चिमी और से गुजरने वाले प्रस्तावित बायपास का काम भी पूरा नहीं किया जा सका है। आज आलम यह है कि नगझर के आगे जबलपुर मार्ग पर फोरलेन के बायपास से बरास्ता सिवनी मुख्यालय होते हुए सीलादेही तक के मार्ग, जबलपुर रोड पर बंजारी माता के आगे का मार्ग और मोहगांव के आगे से खवासा तक का मार्ग बुरी तरह जर्जर हो चुका है। एसा नहीं कि इस मार्ग से प्रशासन के आला अधिकारी और जनसेवक न गुजरते हों पर किसी का ध्यान भी इस ओर न जाना आश्चर्यजनक ही माना जा रहा है।
आज आवश्यक्ता इस बात की है कि सिवनी वासी इस बारे में जवाब तलब करें। यह सवाल जवाब सिवनी में चल रही परियोजना के परियोजना निदेशक विवेक जायस्वाल से किया जाना आवश्यक होगा। बताया जाता है कि भारतीय राजमार्ग विकास प्राधिकरण (एनएचएआई) द्वारा परियोजना निदेशक का मुख्यालय सिवनी से उठाकर चुपचाप ही जबलपुर स्थानांतरित कर दिया गया है। प्रोजेक्ट डायरेक्टर विवेक जायस्वाल भी अब सप्ताह में एकाध दिन ही सिवनी में अपनी आमद देते हैं, शेष समय वे जबलपुर में ही गुजारते हैं।
पीडी विवेक जायस्वाल से मांगना होगा सिवनी वासियों को जवाब
सोमवार, 26 जुलाई 2010
कांग्रेस भी है बेचलर पावर के सहारे
ये है दिल्ली मेरी जान
(लिमटी खरे)
अभी और दिखेगा राहुल का बेचलर पावर!
(लिमटी खरे)
अभी और दिखेगा राहुल का बेचलर पावर!
कांग्रेस की नजर में देश के युवराज और भविष्य के प्रधानमंत्री राहुल गांधी बहुत जल्द परिणय सूत्र में आबद्ध नहीं हो पाएंगे, यह कहना है देश के प्रख्यात ज्योतिषियों का। देश के हृदय प्रदेश की राजधानी भोपाल में बीते दिनों हुए शैक्षणिक ज्योतिष सम्मेलन में देश भर से आए ज्योतिष के प्रकांड विद्वानों ने एक राय से इस बात को कहा
कि राहुल गांधी के विवाह का योग 49 वर्ष की अवस्था में ही बन रहा है। राहुल गांधी की कुंडली में चल रहीं ग्रह दशाओं के अनुसार अनेक ग्रह राहुल गांधी को शादी के मण्डप से दूर रखे हुए हैं। कुछ ज्योतिष इस बात पर अडिग रहे कि राहुल गांधी का विवाह लगभग डेढ वर्ष तक तो कतई संभव नहीं है। इसके उपरांत के साढे सात साल फिर राहुल गांधी शादी के मण्डप से दूर ही रहेंगे। ज्योतिषियों की मानें तो राहुल बाबा की कुंडली में बनने वाले ‘‘पात करकरी योग‘‘ के चलते कांग्रेस की नजर में देश के प्रधानमंत्री की शादी में विलंब प्रतीत हो रहा है। अगर ज्योतिषाचार्य सही फरमा रहे हैं, और वे प्रधानमंत्री बनते हैं तो कांग्रेस के युवराज पहले कांग्रेसी प्रधानमंत्री होंगे जो अविवाहित अवस्था में वजीरे आजम बने हों। वैसे अटल बिहारी बाजपेयी भी अविवाहित ही प्रधानमंत्री बनने का गौरव पा चुके हैं।
7 रेसकोर्स की ओर बढते दिग्विजयी कदम
अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सबसे ताकतवर महासचिव दिग्विजय सिंह ने एक बार फिर परोक्ष तौर पर इशारा करने का प्रयास किया है कि उनकी दिलचस्पी अब देश के हृदय प्रदेश अर्थात मध्य प्रदेश में राजनीति में लौटने की नहीं है, वे अब 7 रेसकोर्स रोड (प्रधानमंत्री का सरकारी आवास) को अपना आशियाना बनाने में ज्यादा दिलचस्पी रखते हैं। मध्य प्रदेश में दस साल लगातार राज करने वाले राजा दिग्विजय सिंह का कहना है कि वे अब प्रदेश के बजाए केंद्र की राजनीति में ज्यादा इच्छुक हैं। बकौल दिग्गी राजा वे 2013 में होने वाले मध्य प्रदेश के विधानसभा चुनावों के बजाए 2014 में होने वाले आम चुनावों में किस्मत आजमाने में ज्यादा दिलचस्पी रख रहे हैं। गौरतलब है कि 2003 में सत्ता के गलियारे से बाहर फंेक दिए जाने के पूर्व उन्होंने कौल लिया था कि अगर कांग्रेस मध्य प्रदेश में सत्ता में नही आई तो वे दस साल तक के लिए सक्रिय राजनीति से सन्यास ले लेंगे। उनका कौल 2013 में पूरा होने वाला है। अब तक नपे तुले सधे कदमों से चलने वाले राजा दिग्विजय सिंह ने कांग्र्रेस के सत्ता और शक्ति के शीर्ष केंद्र 10, जनपथ और राहुल गांधी के दरबार में दमदार भूमिका बना ली है।
आखिर ममता के बचाव में क्यों आगे आए प्रणव?
डॉ.मनमोहन सिंह की दूसरी पारी का एक साल पूरा हो चुका है। इस बार रेल विभाग का दारोमदार स्वयंभू प्रबंधन गुरू लालू प्रसाद यादव के बजाए त्रणमूल की सुप्रीमो ममता बनर्जी के कांधों पर है। ममता बनर्जी का पूरा ध्यान रेल के बजाए पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनावों पर है। सारा देश चीख चीख कर इस ओर इशारा कर रहा है, पर देश पर आधी सदी से ज्यादा राज करने वाली कांग्रेस है कि आंखों पर पट्टी बांधे बैठी है। ममता के कार्यकाल में रेल गाडियां आपस में इस कदर टकरा रहीं हैं, मानो किसी सिनेमा में दुर्घटनाओं को फिल्माया जा रहा हो। हाल ही में पश्चिम बंगाल के सैंथिया में हुई रेल दुर्घटना के बाद कांग्रेस के तारणहार समझे जाने वाले पश्चिम बंगाल मूल के केंद्रीय वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने ममता के पक्ष में बयान देकर सभी को चौंका दिया। लोग हतप्रभ इसलिए हैं, क्योंकि पश्चिम बंगाल पर कांग्रेस भी निशाना साधे बैठी है। प्रणव दा ने इस बात को सिरे से नकार दिया कि देश को एक पूर्णकालिक रेल मंत्री की दरकार है। माना जा रहा है कि कांग्रेस पश्चिम बंगाल के चुनावों तक त्रणमूल सुप्रीमो ममता को छेडने के मूड में नहीं दिख रही है।
काम न आई पीएम की लंच डिप्लोमेसी
भारत गणराज्य की राजनीति में लंच या डिनर डिप्लोमेसी का अपना महत्व है। अपने प्रतिद्वंदी दलों के सदस्यों को लंच या डिनर पर बुलाकर उनके कान फूंककर काम निकालने के अनेक उदहारण मौजूद हैं, पर लगता है कि भारतीय जनता पार्टी द्वारा कांग्रेसनीत संप्रग सरकार के प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह के दोपहर के भोज को ठुकराकर नई इबारत लिखी है। भारत गणराज्य के इतिहास में एसे उदहारण कम ही होंगे जब देश के वजीरेआजम को अपना दोपहर का भोज मेहमानों के न आने के चलते निरस्त करना पडा हो। गुजरात के गृह राज्य मंत्री अतिम शाह के मामले में केंद्र सरकार पर सीबीआई के दुरूपयोग के आरोप लगाती आ रही है भाजपा। कांग्रेस इस बात को भली भांति समझ भी रही है। मानसून सत्र के पहले प्रधानमंत्री ने भाजपा के तीन नेताओं एल.के.आडवाणी, सुषमा स्वराज और अरूण जेतली को दोपहर के भोज पर बुलवाया। शीर्ष स्तर के तीनों भाजपाई नेताओं ने पीएम के बुलावे का बहिष्कार कर दिया और फिर क्या था, मेजबान मनमोहन सिंह को भोज निरस्त कर अकेले ही भोजन करना पडा।
क्या गुल खिलाएगा अर्जुन का जहर बुझा तीर
बीसवीं सदी के अंतिम दशकों में कांग्रेस के चाणक्य की अघोषित उपाधि से नवाजे गए कुंवर अर्जुन सिंह के दुर्दिन अब शायद छटने वाले ही हैं। प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह ने उन्हें अपनी दूसरी पारी में मंत्रीमण्डल से बाहर का रास्ता दिखाया है। सदा चर्चा में रहने वाले अर्जुन सिंह एक साल से अधिक समय से राजनैतिक वनवास भोग रहे हैं। उनके प्रबल भाग्य ने एक बार फिर जोर मारा और उनके हाथ भोपाल गैस कांड में तुरूप का इक्का लग गया। जब यह कांड हुआ तब वे मुख्यमंत्री थे और राजीव गांधी की सरकार के कथित इशारे या आदेश के चलते यूनियन कार्बाईड प्रमुख एण्डरसन को पूरी शानो शौकत से देश से विदा कर दिया गया था। राज्य सभा में अर्जुन के बयान का इंतजार सभी को है। राजीव गांधी के समय मंत्रीमण्डल सदस्य रहे प्रणव मुखर्जी और राजीव गांधी के बीच बाद में संबंधों में जबर्दस्त खटास आ गई थी। यह अलहदा बात है कि वर्तमान में प्रणव दा कांग्रेस के तारणहार की भूमिका में हैं। प्रणव दा और अर्जुन सिंह के बीच चर्चा के दौर हो चुके हैं, पर कहा जा रहा है कि राजीव गांधी से खार खाए प्रणव मुखर्जी ने अर्जुन सिंह को राजीव गांधी सरकार को बचाने के लिए कुछ भी गुजारिश नहीं की है।
तीन साल में ले लो न्याय!
भारत गणराज्य में न्याय के नाम पर मुवक्किल के हिस्से में कोर्ट कचहरी की चौखट को ही घिसना आता है। साल दर साल चलने वाले मुकदमों से देश की जनता आजिज आ चुकी है। वालीवुड के अनेक चलचित्रों में तारीख पर तारीख के डायलाग भी चीख चीख कर सुनाए गए पर शासकों के कान में जूं तक नहीं रेंगी। अब भारत के कानून मंत्री वीरप्पा माईली ने कहा है कि आने वाले 11 सालांे में अर्थात 2021 तक देश में एक हजार अतिरिक्त अदालतों का गठन किया जाना प्रस्तावित है, इसके लिए पंद्रह हजार करोड रूपयों का अतिरिक्त भार आने का अनुमान लगाया गया है। यह अतिरिक्त भार आज के हिसाब से जोडा गया है। ग्यारह साल की अवधि के साथ ही यह कितने गुना बढ जाएगा इसका अनुमान वर्तमान में लगाना बहुत ही दुष्कर है। विडम्बना तो इस बात की है कि न्यायालयों के समय को बढाने के बाद भी तारीख पर तारीख का आलम आज भी बदस्तूर जारी है। पहले सरकार ने ठेके पर न्यायधीशों को रखने की बात कही थी। आज आवश्यक्ता इस बात की है कि न्याय व्यवस्था में अमूल चूल परिवर्तन लाया जाए ताकि लोगों को त्वरित न्याय मिल सके।
गौर निकले काबिले गौर!
मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और वर्तमान नगरीय प्रशासन और विकास मंत्री बाबू लाल गौर एक अनूठे मंत्री हैं, यह बात पिछले दिनों ही सामने आई है। गौर को डायरी लिखने का बहुत शौक है। वे अपने दैनिक कार्यों में मुलाकात करने वालों के नाम और उनसे हुई चर्चा को भी अपनी डायरी में स्थान देते हैं। पोखरण विस्फोट की बात उजागर करते हुए गौर ने मीडिया में खुलासा किया था कि पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंहराव ने तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी को एक पुर्जा थमाया था जिसमें लिखा था कि वे अर्थात नरसिंहराव तो विस्फोट नहीं कर सके, तुम अर्थात अटल पोखरण में विस्फोट अवश्य करना। भाजपा में उमा भारती की पुर्नवापसी के घुर विरोधी क्यों बने गौर? इस बात का खुलासा भी इसी तरह होता है कि 2003 के चुनावों में उमा भारती के विरोध के चलते गौर की टिकिट संकट में पड गई थी। बाद में अटल बिहारी बाजपेयी के हस्ताक्षेप से उनकी टिकिट वापस उन्हें मिल सकी।
विकास के पैसों का खेल
भारत में सुबह उठकर रात के सोने तक देश का प्रत्येक नागरिक हर एक बात के लिए प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर कर देता है। यह कर की राशि से ही देश में राज काज चलता है। इसी टेक्स से देश में विकास की योजनाएं संचालित होती हैं। करों से प्राप्त होने वाले राजस्व को विभिन्न मदों में बांटकर केंद्र सरकार खुद के लिए और राज्यों को आवंटित करती है। दिल्ली की कांग्रेस की सरकार ने विकास के लिए आए पैसे को कामन वेल्थ गेम्स की मद में खर्च कर नया चमत्कार किया है। अनुसूचित जाति की मद में आई लगभग आठ सौ करोड रूपए की राशि को राष्ट्रमण्डल खेलों के लिए निकाल कर खर्च कर दिया है, शीला दीक्षित के नेतृत्व वाली सरकार ने। केंद्र सरकार द्वारा कामन वेल्थ गेम्स के लिए पर्याप्त मात्रा में धनराशि देने के बावजूद भी शीला दीक्षित को पता नहीं कौन सी जरूरत आन पडी कि उन्होंने इस मद के लिए अतिरिक्त राशि वह भी अनुसूचित जाति के मद से आहरित कर ली।
फर्जी शस्त्र लाईसेंस का गढ बना हिमाचल
देश भर में हथियारों के प्रयोग का चलन तेजी से बढा है। हथियार अवैध हैं या वैध यह कहा नहीं जा सकता है। अवैध हथियारों के जखीरों को जब तब बरामद किया जाता रहा है। अवैध हथियार का लाईसेंस भी बन जाता है, यह है भारत गणराज्य की आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था। भारत गणराज्य के हिमाचल प्रदेश को देवभूमि के नाम से जाना जाता है। हिमाचल प्रदेश में फर्जी शस्त्र लाईसेंस बनाने का भाण्डाफोड किया है हरियाणा पुलिस ने। फरीदाबाद पुलिस ने हिमाचल प्रदेश से फर्जी शस्त्र लाईसेंस लाकर बनाकर बेचने का मामला पकडा है। इस मामले में तफ्तीश जारी है। एक संदिग्ध आरोपी के पास से हिमाचल के धर्मशाला की सील लगा लाईसेंस पकडा है। इस तरह के अनेक मामले हरियाणा पुलिस अगर पकड ले तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। देश की राजनैतिक राजधानी दिल्ली से सटे फरीदाबाद और हरियाणा के अन्य कस्बों में इन दिनों शस्त्रों का चलन काफी हद तक अधिक बताया जा रहा है।
पांच करोड रूपए में लगा एक उद्योग
देश के हृदय प्रदेश में मुख्यमंत्री बार बार मध्य प्रदेश के नागरिकों के गाढे खून पसीने की कमाई को हवा में उडाते जा रहे हैं, और उसका लाभ न तो प्रदेश की जनता को ही मिल पा रहा है, और न ही उस राशि का सही उपयोग हो पा रहा है। यह बात कोई और नहीं मध्य प्रदेश के उद्योग मंत्री तथा मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के घुर विरोधी कैलाश विजयवर्गीय कह रहे हैं। विजयवर्गीय ने कांग्रेस के विधायक डॉ.गोविंद सिंह के एक प्रश्न के जवाब में साफ किया है कि मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री बाबू लाल गौर और शिवराज सिंह चौहान ने मई 2005 से जून 2010 तक अमेरिका, संयुक्त अरब अमीरात, सिंगापुर, मलेशिया, बेल्जियम, हालेंड, इटली, जर्मनी आदि देशों का दौरा किया है। इस पर लगभग पांच करोड रूपए स्वाहा हो चुके हैं। विदेशों के ये दौरे वहां के निवेशकों को आकर्षित करने की गरज से किए गए थे, किन्तु 20 एमओयू हस्ताक्षरित होने के बाद अमल में आए महज पांच ही। मजे की बात तो यह है कि इनमें से इकलौता उद्योग पीथमपुर में कापरो इंजीनियरिंग इंडिया के नाम से ही स्थापित हो सका है।
फिर निकला फोरलेन का जिन्न
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी के कार्यकाल की महात्वाकांक्षी योजना स्वर्णिम चतुर्भुज के अंग उत्तर दक्षिण गलियारे में मध्य प्रदेश के सिवनी जिले के साथ अन्याय होने की बात यहां की जनता चीख चीख कर कह रही है। केंद्रीय भूतल परिवहन मंत्री कमल नाथ और वन एवं पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश के बीच छिडी रार के चलते इसका काम रूका हुआ बताया जा रहा है। पिछले साल 21 अगस्त को सिवनी जिले की जनता ने एतिहासिक जनता कर्फ्यू लगाया था। इस दौरान कमल नाथ की न केवल सांकेतिक शवयात्रा निकाली गई थी, वरन उनके पुतले भी बडी तादाद में जलाए गए थे। सिवनी के साथ अन्याय का सिलसिला जारी है। पहले बिना किसी प्रस्ताव के सिवनी लोकसभा को विलोपित कर दिया गया। इसके उपरांत अब स्वीकृत और निर्माणाधीन उत्तर दक्षिण गलियारे के नक्शे से सिवनी का नाम विलोपित करने का कुत्सित प्रयास किया जा रहा है। सिवनी जिले से सटा है कमल नाथ का संसदीय क्षेत्र छिंदवाडा। माना जा रहा है कि अपने आशियाने अर्थात संसदीय क्षेत्र को हर तरह से संपन्न बनाने की गरज से कमल नाथ द्वारा सिवनी के मुंह से निवाला छीना जा रहा है।
पुच्छल तारा
मानसून की फुहार के साथ ही साथ दिल्ली में अघोषित बिजली कटौती पर एसएमएस की बौछार सी होने लगी है। दिल्ली के लक्ष्मी नगर इलाके से विनोद कुमार एसएमएस भेजते हैं कि दिल्ली में पावर कट ने लोगों का जीना मुहाल कर रखा है। एक सरदार जी का परिवार इसी पावर कट के चलते 48 घंटे तक फसा रहा, क्यांेकि वह एस्केलेटर (बिजली द्वारा स्वचलित सीढियां) पर से उपर चढ रहा था। पावर कट से एस्केलेटर बंद हो गया और बेचारे वे दो दिन तक लाईट आने का इंतजार करते रह गए।
सीबीएसई पर हावी शिक्षा माफिया (5)
पालक खुद सोच समझकर शाला में प्रवेश दिलाएं, किसी शाला के लिए हमारी कोई जवाबदेही नहीं: पटले
सिवनी। किस शाला में प्रवेश दिलाना है कौन सी शाला बच्चों के लिए अच्छा और स्वच्छ वातावरण देने में सक्षम है, कौन सी शाला सीबीएसई या मध्य प्रदेश माध्यमिक शिक्षा मण्डल बोर्ड की मान्यता लिए है या लेने वाली है, या इसका प्रलोभन दे रही है?, इस बारे में हम क्या कर सकते हैं, यह सोचना पालकों का अपने विवेक का काम है. उक्ताशय के गैरजिम्मेदाराना कथन नवागत जिला शिक्षा अधिकारी श्री पटले ने मीडिया से चर्चा के दौरान कहे.
गौरतलब है कि पिछले दो तीन सालों से सिवनी जिले में कुकरमुत्ते की तरह चलने वाले निजी शिक्षण संस्थानों द्वारा मध्य प्रदेश माध्यमिक शिक्षा मण्डल के स्थान पर केंद्रीय शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) का प्रलोभन सरेआम दिया जा रहा है. चूंकि सीबीएसई बोर्ड की पढाई एमपी बोर्ड से लाख दर्जे उच्च स्तर की होती है, एवं इनके प्रोडक्टस को आगे आने वाले समय में उच्च शिक्षा में काफी हद तक लाभ मिल सकता है. इसी के चलते पालकों का आकर्षण सीबीएसई स्कूलों की तरफ होना स्वाभाविक ही है. नगर में संचालित होने वाली शालाओं में मुख्यत सेंट फ्रांसिस स्कूल, अरूणाचल पब्लिक स्कूल (पूर्व में टाईनी टाटस), मार्डन नर्सरी, मिशन इंगलिश स्कूल आदि का प्रबंधन चाह रहा है कि उन्हें सीबीएसई की मान्यता मिल जाए.
इन शालाओं में से टाईनी टाटस स्कूल ने अपने विद्यार्थियों से केपीटेशन फीस (बिल्डिंग फंड, एवं अन्य मदों में ली जाने वाली राशि) के बलबूते बरघाट नाके पर अपना शाला भवन तैयार कर लिया, इसी तरह सेंट फ्रांसिस स्कूल ने जबलपुर रोड पर अपना शाला भवन बनाना आरंभ किया है. शहर में व्याप्त चर्चाओं के अनुसार इन शालाओं में प्रवेश लेने के उपरांत जब पालकों को वास्तविकता का पता चला तो उनके पास पछताने के अलावा कुछ और नहीं बचा.
इस संबंध में जब जिला शिक्षा अधिकारी श्री पटले से संपर्क साधा गया तो उन्होंने मोबाईल पर चर्चा के दौरान कहा कि नई नीति के अनुसार कोई भी शाला नवमी कक्षा में तब तक प्रवेश नहीं आरंभ करवा सकती है, जब तक कि उसे मध्य प्रदेश माध्यमिक शिक्षा बोर्ड या केंद्रीय शिक्षा बोर्ड द्वारा मान्यता न दी जाए. जिला शिक्षा अधिकारी श्री पटले ने आगे यह भी कहा कि किस शाल में प्रवेश दिलाना है किसमें नहीं यह फैसला नितांत तौर पर विद्यार्थी के पालक का ही होता है, किन्तु जब उनसे यह पूछा गया कि अगर सीबीएसई का दिखावा करने वाली शालाओं के पास सीबीएसई की मान्यता न हो तब पालकों को इस छल से बचाने की जवाबदेही किस पर आती है? इस प्रश्र के जवाब में जिला शिक्षा अधिकारी श्री पटले ने कहा कि इस मामले में जिला शिक्षा अधिकारी भला क्या कर सकता? समूचा मामला पालक और शिक्षण संस्थाओं के संचालकों के बीच का है, इसमें हस्ताक्षेप करने वाला जिला शिक्षा अधिकारी कौन होता है?
जहां तक रही शाला के द्वारा विद्यार्थियों को आवागमन के साधन, स्वच्छ हवादार वातावरण, खेल का अच्छा मैदान, भौतिक रसायन, रसायन शास्त्र, प्राणी विज्ञान की प्रयोगशालाओं, कम्पयूटर लेब, शौचालय, पुस्तकालय आदि की बात, तो इस मामले में जिला शिक्षा अधिकारी श्री पटले का कहना है कि व्यक्ति को चुना जाएगा, फिर उसे लिखित में निरीक्षण करने का निर्देश जारी किया जाएगा, उसके उपरांत वह व्यक्ति जाकर इन शालाओं का निरीक्षण करने की तिथि निर्धारित करेगा, जब उसे समय मिलेगा तब वह जाकर उसका निरीक्षण कर अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत करेगा. जिला शिक्षा अधिकारी श्री पटले के अनुसार कागजी कार्यवाही में समय लगता है, सो समय का इंतजार करने के अलावा और क्या किया जा सकता है.
मीडिया द्वारा जिला शिक्षा अधिकारी श्री पटले से जब यह जानना चाहा कि जब तक सीबीएसई बोर्ड द्वारा मान्यता नहीं दी जाती है, तब तक के समय अर्थात ट्रांजिट टाईम में शाला किसके नियंत्रण में रहेगी? इस प्रश्र के जवाब में जिला शिक्षा अधिकारी श्री पटले अपनी बात पर ही अडिग रहे कि नए नियमों के हिसाब से जब तक सीबीएसई बोर्ड की मान्यता नहीं मिल जाती है, तब तक वह शाला नवमीं या ग्यारहवीं कक्षा में प्रवेश नहीं दे सकती है.
शहर में सीबीएसई के लिए कतारबद्ध खडी शालाओं के प्रबंधन के सूत्रों का कहना है कि उन सिवनी में अभी तक किसी भी शाला को सीबीएसई से मान्यता नहीं मिली है. इस मामले में सीबीएसई बोर्ड के क्षेत्रीय कार्यालय अजमेर के सूत्रों का कहना है कि मध्य प्रदेश के सिवनी जिले में किसी भी शाला को सीबीएसई ने अब तक मान्यता नहीं दी है. शाला प्रबंधन नवमी में विद्यार्थियों को अगर प्रवेश देने की प्रक्रिया कर रहा है, तो यह वह शाला अपनी जवाबदारी पर कर रही है. अगर मान्यता शैक्षणिक सत्र २०१० - २०११ में नहीं दी जाती है तो फिर इन बच्चों को सीबीएसई में एनरोल ही नहीं किया जाएगा. गौरतलब है कि सीबीएसई में नामांकन कक्षा नवमी में ही किया जाता है. बाद में बच्चे को कक्षा दसवीं में सीबीएसई बोर्ड की परीक्षा देने की पात्रता होगी. अगर मान्यता का काम अधर में रोक दिया जाता है तो अगले साल दसवीं में प्रवेश पाने वाले बच्चों का भविष्य अंधकार में भी लटक सकता है.
(क्रमशः जारी)
खेल बने नेताओं की जागीर
खेल बन गए हैं खिलवाड़
दबदबे के चक्कर में राजनेता नहीं छोडना चाहते कुर्सी
सरकार भी बोनी नजर आती है राजनेताओं के आगे
नेताओं की मनमानी से खेल जा रहे रसातल की ओर
बीमारी या निधन ही छुडवा सके हैं कुर्सी
(लिमटी खरे)
भारत गणराज्य विश्व का अनूठा देश होगा जहां खेल संघों की कुर्सी छुडवाना आसान बात नहीं है। रसूख का पर्याय बन चुकी खेल संघों की कुर्सी पर राजनेता बरसों बरस चिपके ही रहते हैं, और सरकार है कि इन राजनेताओं की मनमानी के आगे घुटने टेककर बेबस ही नजर आती है। राजनेताओं, नौकरशाहों, उद्योगपतियों को खेल संघों की कुर्सी से हटाना सरकार के बस की बात नहीं दिखती। नेता हैं कि दिशा निर्देशांे को भी ठेंगा दिखाने से बाज नहीं आते हैं।
खेल मंत्री की लाख कोशिशें भी परवान न चढ पाना इसका साफ उदहारण माना जा सकता है। खेल मंत्रालय ने इन नेताओं को कुर्सी से दूर रखने के लिए नए दिशा निर्देश (गाईड लाईन) तय कर दिए हैं, पर नेता हैं कि मानने को तैयार नहीं है। भारत में बचपन में खिलवाड शब्द का प्रयोग बहुतायत में किया जाता है। आज के खेल संघों को देखकर यह कहा जा सकता है कि देश में खेल अब खिलवाड बन गए हैं। नए दिशा निर्देशों के अनुसार कोई भी अध्यक्ष अधिकतम तीन और पदाधिकारी दो कार्यकाल ही पूरा कर सकता है।
महाराष्ट्र प्रदेश के पुणे से सांसद सुरेश कलमाडी पिछले 14 सालों से भारतीय ओलंपिक संघ के अध्यक्ष बने हुए हैं। वर्ष 2000 से एशियाई एथलेटिक्स संघ के अध्यक्ष का पद भी कलमाडी के पास ही है। कांग्रेस की राजमाता श्रीमति सोनिया गांधी भी कलमाडी पर खासी मेहरबान नजर आती हैं, यही कारण है कि वे संसद की रक्षा मामलों की स्थाई समिति के सदस्य भी हैं। इसी तरह विवादों से गहरा नाता रखने वाले जगदीश टाईटलर भारतीय जूडो फेडरेशन के अध्यक्ष पद पर बीस साल से काबिज हैं। वे भारतीय आलंपिक संघ के उपाध्यक्ष का ताज भी अपने ही सर पर रखे हुए हैं। कांग्रेस के इन वरिष्ठ नेता के सर पर जूडो की दिशा और दशा सुधारने की महती जवाबदारी है, पर आज भारतीय जूडो किस मुकाम पर है यह बात किसी से छिपी नहीं है।
अखिल भारतीय फुटबाल संघ के वरिष्ठ उपाध्यक्ष और केंद्रीय उड्डयन मंत्री प्रफुल्ल पटेल अब इस संघ के अध्यक्ष की कुर्सी पर विराजमान हैं। इसी तरह भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता यशवंत सिन्हा दस सालों से अखिल भारतीय टेनिस संघ के अध्यक्ष हैं। भारतीय ओलंपिक संघ के वरिष्ठ उपाध्यक्ष विजय कुमार मलहोत्रा ने तो सारे रिकार्ड ध्वस्त कर दिए हैं, वे 1973 से भारतीय तीरंदाज संघ के अध्यक्ष पद पर जमे हुए हैं।
भारतीय बेडमिन्टन संघ के अध्यक्ष वी.के.वर्मा चौथी बार इसके अध्यक्ष बने हैं। वर्मा इसके अलावा एशियन बेडमिन्टन कनफडरेशन के सचिव और विश्व बेडमिन्टन फेडरेशन के उपाध्यक्ष भी हैं। हरियाणा के विधायक अजय सिंह चौटाला हरियाणा टेबिल टेनिस संघ पर अपना कब्जा 1987 से बनाए हुए हैं, वे सन 2000 से अखिल भारतीय टेबिल टेनिस संघ में अपनी जोरदार उपस्थिति भी दर्ज कराए हुए हैं। इसी तरह अभय सिंह चौटाला पिछले नौ सालों से भारतीय बाक्सिंग संघ पर अपनी दावेदारी बनाए हुए हैं। इन नियम कायदों को धता बताते हुए नानावटी ने भारतीय तैराकी संघ के सचिव की कुर्सी छटवीं बार संभाली है, वे 1984 से इस संघ में हैं।
कभी भारत गणराज्य की आन बान और शान का प्रतीक मानी जाने वाली भारतीय हाकी की स्थिति किसी से छिपी नहीं है। अनेकानेक वर्षों से मठाधीशों के कब्जे से मुक्ति के लिए छटपटाती हाकी दम तोड चुकी है। आलम यह है कि अब लोगों के मानस पटल में इस महत्वपूर्ण राष्ट्रीय खेल के प्रति भावनाएं नगण्य ही मानी जा सकती हैं। 1994 में जब के.पी.एस.गिल ने भारतीय हाकी की बागडोर संभाली थी, जब से अब तक भारतीय हाकी टीम में एक दर्जन से ज्यादा कोच आकर चले गए पर हाकी का स्तर जस का तस ही बना हुआ है।
भारतीय हाकी की दुर्दशा इस कदर हो चुकी है कि सेड्रिक डिसूजा से लेकर वासुदेव भास्करन तक को उनके नाकाम रहने के लिए कटघरे में खडा न कर सका भारतीय हाकी संघ। इनमें एम.के.कौशिक ही सौभाग्यशाली माने जा सकते हैं, जिन्होंने 1998 में भारतीय हाकी को एशियन गेम्स में स्वर्ण पदक दिलाया था, विडम्बना यह कि भारतीय हाकी पर कब्जा जमाए मठाधीशों ने उन्हें भी बर्खास्त कर दिया। भारतीय हाकी संघ इस बात से भी विचलित नहीं हुआ कि जर्मन कोच गेहार्ड रेच ने 2005 में भारतीय हाकी के कोच का पद यह कहकर त्याग दिया था कि हाकी संघ एक पागलखाना है।
जब भी फुटबाल की बात की जाती है तो वर्ल्ड कप के शोकीन रातों की नींद गवां देते हैं, यह कहीं और नहीं वरन भारत में ही होता है। बावजूद इसके भारत में फुटबाल का स्तर काफी नीचे ही माना जा सकता है। इस संघ पर भाई भतीजावाद के आरोप नए नहीं हैं। संघ के सचिव अल्वर्टो कोलाको ने आर्मोडो कोलाको की पुत्री जेनेविव को इस संघ में शामिल करने के साथ ही उसे नेशनल टीम का कोआर्डिनेटर तक बना दिया, जबकि जेनेविव का कहना है कि वे इस पद के लिए अभी अपरिपक्व ही हैं। संघ में यह चर्चा आम हो चुकी है कि कोलाको अब तानाशाह बनकर सामने आ रहे हैं।
इसी तरह भारतीय टेनिस संघ खन्ना बंधुओं के चंगुल से मुक्त होने छटपटा रहा है। खन्ना परिवार का टेनिस संघ पर कब्जा 1988 से बरकरार है। 1988 से 1993 तक राजकुमार खन्ना टेनिस संघ के सचिव तो 2000 तक इसके अध्यक्ष रहे। इसके बाद राजकुमार खन्ना ने अपनी विरासत अपने पुत्र अनिल खन्ना को सौंप दी जो आज तक सचिव पद पर कायम हैं। पुरूष एकल में शीर्ष एक सौ की सूची में एक भी भारतीय का न होना क्या टेनिस संघ की नाकामी को दर्शाने के लिए काफी नहीं है। पर्याप्त धन होने के बाद भी अगर सालों में सानिया मिर्जा आगे आएं वह भी तीन दशक बाद तो इसे क्या कहा जाएगा? महेश भूपति, लियंडर पेस और सोमदेव बर्मन ही टेनिस के आकाश में चमकते सितारे हैं।
निशानेबाजी के मामले में कभी अव्वल रहने वाला भारत आज इस क्षेत्र में दुर्दशा के आंसू बहाने पर मजबूर है। मशहूर निशानेबाज अभिनव बिंद्रा कई बार देश के खेल ढांचे पर न केवल बरसे हैं, वरन उन्होंने बीजिंग ओलंपिक में स्वर्ण पदक जीतने का श्रेय भारतीय रायफल संघ को नहीं दिया। इस साल भी बिंद्रा और संघ के बीच काफी तकरार हुई इसका कारण यह था कि बिंद्रा नहीं चाहते थे कि उन्हंे ट्रायल के लिए बार बार हिन्दुस्तान न आना पडे।
इसी तरह निशाने बाजी के मसले पर एथेंस ओलंपिक में रजत पदक जीतने वाले राजवर्धन राठौर, और विश्व विजेता रोंजन सोढी पहले ही संघ की दादागिरी का शिकार हो चुके हैं। इन दोनों को कामनवेल्थ प्रतियोगिता से महज इसलिए बाहर का रास्ता दिखा दिया गया था, क्योंकि दोनों ने पटियाला में ट्रायल का बहिष्कार इसलिए कर दिया था क्योंकि शाटगन रेंज तैयार नहीं थी।
जब भी फुटबाल की बात की जाती है तो वर्ल्ड कप के शोकीन रातों की नींद गवां देते हैं, यह कहीं और नहीं वरन भारत में ही होता है। बावजूद इसके भारत में फुटबाल का स्तर काफी नीचे ही माना जा सकता है। इस संघ पर भाई भतीजावाद के आरोप नए नहीं हैं। संघ के सचिव अल्वर्टो कोलाको ने आर्मोडो कोलाको की पुत्री जेनेविव को इस संघ में शामिल करने के साथ ही उसे नेशनल टीम का कोआर्डिनेटर तक बना दिया, जबकि जेनेविव का कहना है कि वे इस पद के लिए अभी अपरिपक्व ही हैं। संघ में यह चर्चा आम हो चुकी है कि कोलाको अब तानाशाह बनकर सामने आ रहे हैं।
इसी तरह भारतीय टेनिस संघ खन्ना बंधुओं के चंगुल से मुक्त होने छटपटा रहा है। खन्ना परिवार का टेनिस संघ पर कब्जा 1988 से बरकरार है। 1988 से 1993 तक राजकुमार खन्ना टेनिस संघ के सचिव तो 2000 तक इसके अध्यक्ष रहे। इसके बाद राजकुमार खन्ना ने अपनी विरासत अपने पुत्र अनिल खन्ना को सौंप दी जो आज तक सचिव पद पर कायम हैं। पुरूष एकल में शीर्ष एक सौ की सूची में एक भी भारतीय का न होना क्या टेनिस संघ की नाकामी को दर्शाने के लिए काफी नहीं है। पर्याप्त धन होने के बाद भी अगर सालों में सानिया मिर्जा आगे आएं वह भी तीन दशक बाद तो इसे क्या कहा जाएगा? महेश भूपति, लियंडर पेस और सोमदेव बर्मन ही टेनिस के आकाश में चमकते सितारे हैं।
निशानेबाजी के मामले में कभी अव्वल रहने वाला भारत आज इस क्षेत्र में दुर्दशा के आंसू बहाने पर मजबूर है। मशहूर निशानेबाज अभिनव बिंद्रा कई बार देश के खेल ढांचे पर न केवल बरसे हैं, वरन उन्होंने बीजिंग ओलंपिक में स्वर्ण पदक जीतने का श्रेय भारतीय रायफल संघ को नहीं दिया। इस साल भी बिंद्रा और संघ के बीच काफी तकरार हुई इसका कारण यह था कि बिंद्रा नहीं चाहते थे कि उन्हंे ट्रायल के लिए बार बार हिन्दुस्तान न आना पडे।
इसी तरह निशाने बाजी के मसले पर एथेंस ओलंपिक में रजत पदक जीतने वाले राजवर्धन राठौर, और विश्व विजेता रोंजन सोढी पहले ही संघ की दादागिरी का शिकार हो चुके हैं। इन दोनों को कामनवेल्थ प्रतियोगिता से महज इसलिए बाहर का रास्ता दिखा दिया गया था, क्योंकि दोनों ने पटियाला में ट्रायल का बहिष्कार इसलिए कर दिया था क्योंकि शाटगन रेंज तैयार नहीं थी।
एथलेटिक्स का जब भी नाम आता है तो हर किसी को स्कूली दिनों की याद आना स्वाभाविक है। स्कूली दिनों में हर कोई एथलेटिक्स का लुत्फ जरूर उठाता है। भले ही वह इस खेल में हिस्सेदार न बने पर दर्शक की भूमिका में जरूर ही रहता है। भारतीय एथलेटिक्स संघ के अध्यक्ष सुरेश कलमाडी के कार्यकाल में 90 के दशक में एथलेटिक्स संघ ने कुछ परचम लहराए पर अनेक एथलीट्स ने देश को शर्मसार किया है।
2000 में हरियाणा की डिस्क थ्रो खिलाडी सीमा अंतिल ने वर्ल्ड जूनियर चेंपियनशिप में स्वर्ण पदक जीता किन्तु डोप टेस्ट में पाजिटिव पाए जाने पर उन्हें बाद में अपना पदक लौटाना भी पडा था। बुसान एशियन गेम्स में सुनीता रानी का प्रकरण काफी चर्चित रहा। सुनीता रानी को डोप टेस्ट और लंबी जांच में पाजिटिव पाए जाने पर अपना पदक लौटाना पडा था। इसी तरह 2005 में हेलसिंकी में हुई विश्व प्रतियोगिता में नीलम जसवंत सिंह डोप टेस्ट में पाजिटिव पाई गईं और भारत का सर शर्म से झुक गया था।
भारत में खेल संघ एक दशक से पूरी तरह से राजनेता, नौकरशाह और उद्योगपतियों के घरों की लौंडी बनकर रह गए हैं। शानो शौकत और स्टेटस सिंबाल का प्रतीक बने खेल संघों से इन मोटी चमडी वालों को हटाना अब आसान बात नहीं रह गई है। लंबी असाध्य बीमारी और निधन के चलते ही ये लोग संघ से विदा होते हैं।
पूर्व केंद्रीय मंत्री प्रियरंजन दासमुंशी 1986 से भारतीय फुटबाल संघ के अध्यक्ष थे। जब वे 2008 में गंभीर रूप से बीमार हुए तब जाकर उनके स्थान पर संघ के ही उपाध्यक्ष एवं केंद्रीय उड्डयन मंत्री प्रफुल्ल पटेल को अध्यक्ष बनाया गया। इसी तरह पूर्व केंद्रीय मंत्री दिग्विजय सिंह जिनका निधन पिछले ही माह हुआ है, वे भी 1999 से नेशनल रायफल संघ के अध्यक्ष रहे हैं। कुल मिलाकर स्थिति परिस्थिति को देखकर यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि भारत गणराज्य में खेल अब खिलवाड बनकर रह गए हैं।
2000 में हरियाणा की डिस्क थ्रो खिलाडी सीमा अंतिल ने वर्ल्ड जूनियर चेंपियनशिप में स्वर्ण पदक जीता किन्तु डोप टेस्ट में पाजिटिव पाए जाने पर उन्हें बाद में अपना पदक लौटाना भी पडा था। बुसान एशियन गेम्स में सुनीता रानी का प्रकरण काफी चर्चित रहा। सुनीता रानी को डोप टेस्ट और लंबी जांच में पाजिटिव पाए जाने पर अपना पदक लौटाना पडा था। इसी तरह 2005 में हेलसिंकी में हुई विश्व प्रतियोगिता में नीलम जसवंत सिंह डोप टेस्ट में पाजिटिव पाई गईं और भारत का सर शर्म से झुक गया था।
भारत में खेल संघ एक दशक से पूरी तरह से राजनेता, नौकरशाह और उद्योगपतियों के घरों की लौंडी बनकर रह गए हैं। शानो शौकत और स्टेटस सिंबाल का प्रतीक बने खेल संघों से इन मोटी चमडी वालों को हटाना अब आसान बात नहीं रह गई है। लंबी असाध्य बीमारी और निधन के चलते ही ये लोग संघ से विदा होते हैं।
पूर्व केंद्रीय मंत्री प्रियरंजन दासमुंशी 1986 से भारतीय फुटबाल संघ के अध्यक्ष थे। जब वे 2008 में गंभीर रूप से बीमार हुए तब जाकर उनके स्थान पर संघ के ही उपाध्यक्ष एवं केंद्रीय उड्डयन मंत्री प्रफुल्ल पटेल को अध्यक्ष बनाया गया। इसी तरह पूर्व केंद्रीय मंत्री दिग्विजय सिंह जिनका निधन पिछले ही माह हुआ है, वे भी 1999 से नेशनल रायफल संघ के अध्यक्ष रहे हैं। कुल मिलाकर स्थिति परिस्थिति को देखकर यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि भारत गणराज्य में खेल अब खिलवाड बनकर रह गए हैं।
अनबोला चल रहा है शिवराज और विधायकों में
शिवराज और भाजपा विधायकों के बीच संवेदनहीनता की स्थिति निर्मित!
फोरलेन मामले में ग्यारह माह में नहीं हो सका विधायक सीएम संवाद
परांपरागत वोटर्स तक की परवाह नहीं भाजपा को
(लिमटी खरे)
फोरलेन मामले में ग्यारह माह में नहीं हो सका विधायक सीएम संवाद
परांपरागत वोटर्स तक की परवाह नहीं भाजपा को
(लिमटी खरे)
सिवनी। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी के कार्यकाल की महात्वाकांक्षी स्वर्णिम चतुभुर्ज सडक परियोजना के अंग बने उत्तर दक्षिण और पूर्व पश्चिम गलियारे में से एक नार्थ साउथ कारीडोर के सिवनी से होकर गुजरने के मामले में चल रहे विवादों के बारे में पिछले साल 22 अगस्त को भाजपा विधायकों के एक प्रतिनिधिमण्डल को आश्वासन देने के उपरांत आज तक मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने पलटकर विधायकों की ओर नहीं देखा है।
गौरतलब होगा कि पिछले साल 21 अगस्त को भगवान शिव के नाम पर बसे सिवनी जिले की भोली भाली जनता ने उत्तर दक्षिण गलियारे की फोरलेन के यहां से गुजरने को लेकर आशंकाओं कुशंकाओं के प्रकाश में आने के उपरांत अपना रोद्र रूप दिखाया था, और 21 अगस्त 2009 को सिवनी जिले के नागरिकों ने एतिहासिक जनता कर्फयू का आगाज किया था।
जनता का आक्रमक चेहरा देखकर भाजपा के विधायक श्रीमति नीता पटेरिया, कमल मस्कोले, श्रीमति शशि ठाकुर और सांसद के.डी.देशमुख सहित कांग्रेस के सांसद सदस्य बसोरी मसराम और विधायक ठाकुर हरवंश सिंह घबरा गए। भाजपा विधायकों ने अगले ही दिन मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को सिवनी वासियों की भावनाओं से आवगत कराया था।
इसके उपरांत भारतीय जनता पार्टी की सिवनी इकाई के माध्यम से एक पत्र विज्ञप्ति सिवनी की मीडिया की फिजां में तैर गई थी जिसमें उल्लेख किया गया था कि विधायकों ने सिवनी वासियों की भावनाओं से मुख्यमंत्री को आवगत कराया गया है, मुख्यमंत्री ने विधायकों की बात सुनकर सिवनी वासियों की भावनाओं का सम्मान करते हुए मध्य प्रदेश शासन की ओर से माननीय सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन इस प्रकरण के बारे में एक अधिवक्ता खडा करने और सिवनी वासियों का पक्ष रखने का आश्वासन दिया था।
अगस्त 2009 के उपरांत जुलाई 2010 तक फोरलेन विवाद के मसले में भारतीय जनता पार्टी के विधायकों ने पूरी तरह खामोशी अख्तियार कर रखी है। लगभग एक साल तक अगर मध्य प्रदेश में सत्ताधारी भाजपा के विधायक व्यक्तिगत तौर पर अगर अपने ही मुख्यमंत्री से सिवनी के हितों की बातों के बारे में चर्चा न कर पाएं हों तो इसे यही माना जा सकता है कि मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान और उनके दल के विधायकों के बीच संवादहीनता की स्थिति बन चुकी है।
सिवनी जिले के जागरूक विधायकों ने इस बारे में विधानसभा में भी प्रश्न लगाना उचित नहीं समझा है। सिवनी जिले की जनता को आज भी इस बात की जानकारी नहीं है कि फोरलेन विवाद के मसले में मध्य प्रदेश की सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी द्वारा देश के हृदय प्रदेश के सिवनी जिले के लोगों की भावनाओं के अनुरूप किस वकील को माननीय सर्वोच्च न्यायलय मंे खडा किया है, और उसने क्या कार्यवाही की है। यह प्रसंग साबित करता है कि सिवनी में सालों से भाजपा का परचम लहराने वाली भारतीय जनता पार्टी को उसके परंपरागत वोटर्स की कितनी फिकर है।
शुक्रवार, 23 जुलाई 2010
बडबोलों के सामने असहाय सोनिया
सोनिया के हाथों से फिसलती कांग्रेस की सत्ता
बडबोले कांग्रेसजन बढा रहे आलाकमान की मुसीबत
बार बार रोकने के बाद भी नहीं रूक रही अनर्गल बयानबाजी
कांग्रेसी नेताओं के मुंह में नहीं लग पा रहा ढक्कन
(लिमटी खरे)
बडबोले कांग्रेसजन बढा रहे आलाकमान की मुसीबत
बार बार रोकने के बाद भी नहीं रूक रही अनर्गल बयानबाजी
कांग्रेसी नेताओं के मुंह में नहीं लग पा रहा ढक्कन
(लिमटी खरे)
अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का इतिहास बहुत ही वृहद और गौरवशाली है। भारत गणराज्य की कल्पना कांग्रेस के बिना किया जाना बेमानी ही होगा। देश की आजादी में महती भूमिका निभाने वाली कांग्रेस यह दंभ भरती है कि वह इकलौती एसी राजनैतिक पार्टी है, जिसका इतिहास सवा सौ साल पुराना है। इसके साथ ही साथ कांग्रेस ने भारत गणराज्य में आजादी के उपरांत आधी सदी से अधिक राज किया है। पिछले एक दशक से अधिक समय हो गया है, जबकि कांग्रेस की बागडोर नेहरू गांधी परिवार की इटली मूल की श्रीमति सोनिया गांधी के हाथों में सौंपी गई थी।
पहले पहल तो लगा मानो श्रीमति सोनिया गांधी गूंगी गुडिया हों, पर समय के साथ उनके तेवर देखकर लोग उनकी तुलना पूर्व प्रधानमंत्री स्व.श्रीमति इंदिरा गांधी से करने लगे। इक्कसवीं सदी में प्रवेश के साथ ही कांग्रेस में अनुशासनहीनता, उच्चश्रंखलता और मनमानी हावी होने लगी। आज तो आलम यह हो गया है कि क्या कांग्रेस का अदना सा कार्यकर्ता और क्या भारत गणराज्य का जिम्मेदार मंत्री, हर कोई एक दूसरे पर कीचड उछालकर एक दूसरे के दामन को गंदा करने का प्रयास कर रहा है। वस्तुतः एसा करके वे अपने प्रतिद्वंदी या विरोधी के दामन को नहीं वरन् कांग्रेस के दामन को ही दागदार करने पर आमदा हैं।
कांग्रेस में बडबोलेपन की संस्कृति को आगे बढाया है, मनमोहन सरकार के दूसरे कार्यकाल में कांग्रेस की राजमाता श्रीमति सोनिया गांधी के चहेते विदेश राज्य मंत्री शशि थरूर ने। राजनयिक से जनसेवक बने शशि थरूर ने इंटरनेट की सोशल नेटवर्किंग वेव साईट पर भारत सरकार की धज्जियां जमकर उडाईं, और प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह सहित कांग्रेस सुप्रीमो श्रीमति सोनिया गांधी चुपचाप सब कुछ देखती सुनतीं रहीं।
पानी जब सर के उपर आया तब कांग्रेस चेती और आईपीएल विवादों के चलते शशि थरूर को बाहर का रास्ता दिखाया गया, किन्तु तब तक भारत गणराज्य में केंद्र सरकार की जितनी भद्द पिटनी थी, पिट चुकी थी। कांग्रेस में मंत्रियों के बीच जमकर रार छिडी हुई है। भूतल परिवहन मंत्री कमल नाथ जब पिछली मर्तबा वाणिज्य उद्योग मंत्री थे, उस वक्त वन एवं पर्यावरण मंत्री का दायित्व संभालने वाले वर्तमान मंत्री जयराम रमेश उनके मातहत राज्य मंत्री हुआ करते थे। उस दौरान कमल नाथ और रमेश के बीच रिश्ते बहुत अच्छे नहीं बताए जाते थे।
आज कमल नाथ और रमेश आमने सामने हैं। कमल नाथ के भूतल परिवहन मंत्रालय की परियोजनाओं को सीधे सीधे लाल झंडी दिखा रहे हैं, जयराम रमेश। संभवतः जयराम रमेश इस मुगालते मंे हैं कि कमल नाथ के संसदीय क्षेत्र मध्य प्रदेश के छिंदवाडा से होकर गुजर रहा है अटल बिहारी बाजपेयी सरकार की महात्वाकांक्षी स्वर्णिम चतुर्भुज योजना का अंग उत्तर दक्षिण गलियारा। यही कारण है कि इस मार्ग में पेंच नेशलन पार्क का मामला फदका दिया गया है। वास्तविकता यह है कि यह सडक छिंदवाडा के बजाए सिवनी से होकर गुजर रही है जो परिसीमन में समाप्त हुई लोकसभा सीट थी, और वर्तमान में मण्डला एवं बालाघाट संसदीय क्षेत्र में समाहित हो चुकी है।
इसके अलावा योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया और भूतल परिवहन मंत्री कमल नाथ आपस में उलझे हैं। एक का कहना है कि सडकें बनाने वाले सरकार नहीं चलाते तो दूसरा उन पर कटाक्ष करने से नहीं चूक रहा है। वन मंत्री जयराम रमेश ने कोयला मंत्री श्रीप्रकाश जयस्वाल के खिलाफ मोर्चा खोल रखा है। मंत्रियों के आपस में उलझे होने का लाभ नितिन गडकरी के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी भी उठाने में सक्षम नहीं दिखाई दे रही है। भारत गणराज्य में जब शीर्ष स्तर पर अराजकता का माहौल है, और प्रजातंत्र के सारे स्तंभ गहन निंद्रा में हैं तो भारत में आवाम ए हिन्द का उपर वाला ही मालिक है।
गौरतलब होगा कि पिछले कई माहों से बटाला हाउस गोलीकाण्ड, नक्सलवाद, अलगाववाद, आतंकवाद, बीटी बैगन, भोपाल गैस त्रासदी, परमाणु दायित्व विधेयक, मंहगाई, किसानों की आत्महत्याओं आदि जैसे संवेदनशील विषयों पर गृह मंत्री पलनिअप्पम चिदम्बरम, कांग्रेस के सबसे ताकतवर महासचिव राजा दिग्विजय सिंह, केंद्रीय भूतल परिवहन मंत्री कमल नाथ, वन मंत्री जयराम रमेश, शशि थरूर, पृथ्वीराज चव्हाण, मणिशंकर अय्यर आदि की विरोधाभासी बयानबाजी ने कांग्रेस आलाकमान की पेशानी पर पसीने की बूंदे छलका दी हैं।
हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं कि आज कांग्रेस में अनुशासन के चिथडे बुरी तरह उड चुके हैं। हालात देखकर लगने लगा है कि पचास साल से ज्यादा देश पर राज करने वाली कांग्रेस की दस साल से ज्यादा समय से अध्यक्ष की कुर्सी पर काबिज अध्यक्ष श्रीमति सोनिया गांधी के हाथ से सत्ता फिसलती जा रही है। सवा सौ साल के स्वर्णिम इतिहास को अपने दामन में संजोने वाली कांग्रेस के लिए इससे ज्यादा शर्म की बात और क्या हो सकती है भारत गणराज्य के जिम्मेदार प्रधानमंत्री की कुर्सी पर काबिज डॉ.मनमोहन सिंह कई मर्तबा साफ साफ तौर पर मंत्रियों को अनर्गल बयानबाजी रोकने के लिए निर्देशित कर चुके हैं फिर भी मंत्री हैं कि मानने को तैयार नहीं हैं।
जब पानी सर के उपर आया तब एक बार फिर कांग्रेस की राजमाता को जागना पडा। अब कांग्रेस के महासचिव जनार्दन द्विवेदी ने मीडिया विभाग के अध्यक्ष की हैसियत से कांग्रेस के पदाधिकारियों को मशविरा दिया है कि वे मीडिया से मुखातिब होते वक्त इस बात का विशेष ध्यान रखें कि वे जो भी बयान दें वह उनसे संबंधित विषय ही हो। अब देखना यह है कि बडबोले कांग्रेस के पदाधिकारी और मंत्री अपने अध्यक्ष के इस परोक्ष फरमान का कितना सम्मान कर पाते हैं।
कमल नाथ की खामोशी का राज
सडक निर्माण के लिए कटिबद्ध कमल नाथ सिवनी के नाम पर क्यों रहते हैं खामोश
विवाद से परे रहने का दावा करने वाले नाथ सिवनी के मामले में क्यों नहीं देते बयान
(लिमटी खरे)
सिवनी 23 जुलाई। वाकई कमल नाथ एक एसी शक्सियत का नाम है, जो अपने आपको हर स्थिति, परिस्थिति, वातावरण आदि में ढालकर शिखर पर ही रहने का आदी है। वे चाहे वन एवं पर्यावरण मंत्री रहे हों, वस्त्र अथवा वाणिज्य और उद्योग, कमल नाथ की सकारात्मक सोच के चलते भारत गणराज्य के नागरिक इन विभागों की कार्यप्रणाली से परिचित हो सके हैं, वरना तो ये विभाग गुमनामी के अंधेरे में ही रहे हैं। वर्तमान में केंद्र में भूतल परिवहन मंत्रालय (इतिहास में पहली बार इस विभाग से जहाजरानी को प्रथक किया गया है) की महती जवाबदारी कमल नाथ ने सडकों के निर्माण के प्रति अपनी कटिबद्धता जाहिर कर अपने स्वभाव के अनुरूप ही काम किया है।
मीडिया को जब तब दिए साक्षात्कार में कमल नाथ ने साफ किया है कि वे किसी तरह के विवाद में पडना नहीं चाहते। वे मध्य प्रदेश के छिंदवाडा जिले का प्रतिनिधित्व करते हैं, सो उनकी पहली प्राथमिकता प्रदेश के विकास की है। उन्हें इस बात से कोेई लेना देना नहीं है कि मध्य प्रदेश में भाजपा की सरकार है या किसी अन्य पार्टी की। कमल नाथ की विकास की इस सोच के आगे तो हर कोेई नतमस्तक ही हो जाए।
राजनैतिक वीथिकाओं में यह प्रश्न रह रह कर घुमड रहा है कि इसके पहले जब कमल नाथ केंद्र में वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय का प्रभार संभाले हुए थे, तब भी मध्य प्रदेश में भाजपा सरकार रही है। कमल नाथ की किचिन केबनेट से छन छन कर बाहर आ रही खबरों के अनुसार तत्कालीन मुख्यमंत्री उमा भारती, बाबू लाल गौर और वर्तमान निजाम शिवराज सिंह चौहान भी कमल नाथ के घर ‘‘डिनर पालीटिक्स‘‘ में शिरकत कर चुके हैं। एसी परिस्थिति में उद्योग धंधों के मामलों में मध्य प्रदेश विशेषकर महाकौशल में आने वाला उनका संसदीय क्षेत्र छिंदवाडा जिला क्यों पिछडा है।
बहरहाल कमल नाथ ने मध्य प्रदेश में सडकों के निर्माण, रखरखाव आदि के लिए केंद्र से खजाना खोल दिया है। कमल नाथ महाकौशल के नेता माने जाते हैं सो महाकौशल क्षेत्र में नरसिंहपुर से बरास्ता छिंदवाडा, नागपुर मार्ग मण्डला से छत्तीसगढ जाने वाले मार्ग के साथ ही साथ बालाघाट जिले के लिए 125.90 किलोमीटर सडक के चौडीकरण और सुदृढीकरण के लिए सौ करोड सोलह लाख का आवंटन गत वर्ष जारी किया है, साथ ही 140 करोड रूपए लागत से दो सडकों का निर्माण भी प्रस्तावित है।
यह तो हुई माईनस सिवनी महाकौशल में सडकों का जाल बिछाने की बात। सिवनी की जनता भी कमल नाथ से यह पूछना चाह रही है कि क्या महाकौशल के नक्शे से कमल नाथ ने सिवनी जिले को बाहर कर दिया है? अगर नहीं तो फिर क्या कारण है कि कमल नाथ ने रमेश जैन, हरवंश सिंह, स्व.रणधीर सिंह, राजकुमार खुराना, प्रसन्न चंद मालू के चुनावों में अपनी लुभावनी घोषणाअें के दरम्यान अपनी गोद में बिठाए सिवनी के साथ आज तक सौतेला व्यवहार क्यों किया जा रहा है? क्या कमल नाथ या उनके समर्थकों के पास इसका जवाब है कि आज तक सिवनी जिले के लिए कमल नाथ ने क्या दिया है? जाहिर है उत्तर नकारात्मक ही आएगा।
बहरहाल जहां तक रही कमल नाथ के नेतृत्व वाले भूतल परिवहन मंत्रालय की बात तो जब माननीय सर्वोच्च न्यायालय में लखनादौन के पूर्व नगर पंचायत अध्यक्ष दिनेश राय के सामने ही माननीय न्यायधीशों द्वारा यह कह दिया गया है न तो न्यायालय ने इस मार्ग को रोकने का कोई आदेश दिया है और न ही इसे बनाने में उसे कोई आपत्ति है, तब कमल नाथ निर्माण एजेंसी एनएचएआई और ठेकेदार सद्भाव और मीनाक्षी कंस्ट्रक्शन को काम चालू करने दवाब क्यों नहीं बना रहे हैं।
मीडिया में आकर कमल नाथ यह साबित करने का प्रयास अवश्य ही कर रहे हों कि वे मध्य प्रदेश के विकास के प्रति संजीदा हैं, और मध्य प्रदेश में सडकों का जाल बिछ जाए यह उनकी पहली प्राथमिकता है, किन्तु अगर कमल नाथ अपने दिल पर हाथ रखकर इस बात को सोचें तो कारण चाहे जो भी हो पर निश्चित तौर पर वे पाएंगे कि उनके हर कदम के चलते अन्याय सिर्फ और सिर्फ सिवनी की जनता के साथ ही हो रहा है।
सीबीएसई पर हावी शिक्षा माफिया (4)
स्कूलों के मामले में आखिर प्रशासन क्यों है मूकदर्शक?
सिवनी। जिला मुख्यालय सिवनी में सेंट्रल बोर्ड ऑफ स्कूल एजूकेशन (सीबीएसई बोर्ड) का झुनझुना बजाकर निजी तौर पर संचालित होने वाले विद्यालयों द्वारा विद्यार्थियों के पालकों को जमकर लूटा जा रहा है और सांसद, विधायक सहित जिला प्रशासन मूक दर्शक बना बैठा है. स्थानीय विधायक श्रीमति नीता पटेरिया से जब इस संबंध में पूछा गया तो उन्होंने दो टूक शब्दों में यह कहा कि यह निजी तौर पर संचालित होने वाली शाला है, इसमें जनप्रतिनिधि भला क्या कर सकता है?
गौरतलब है कि इस साल के शैक्षणिक सत्र के आरंभ होते ही जिला मुख्यालय में सीबीएसई बोर्ड के एफीलेशन के बारे में तरह तरह के पर्चे पंपलेट बांटकर बच्चों के पालकों को आकर्षित करने का प्रयास किया गया है. जो जिसे खींच सका उसने अपनी ताकत इसमें झोंक दी. बाद में बच्चों ने शालाओं में प्रवेश लिया तो अपने आप को ठगा सा महसूस किया. आधे अधूरे शाला भवन, आवागमन के साधनों का अभाव, जबर्दस्त शिक्षण शुल्क, केपीटेशन फीस, दुकान विशेष या विद्यालय से ही गणवेश या कापी किताबों का क्रय किया जाना आदि के चलते पालकों की तो बन आई है.
सीबीएसई के लालच में निजी शाला के संचालकों द्वारा अहर्ताएं पूरी किए बिना ही विद्यार्थियों को लालच दिया जाकर उनके पालकों की जेब तराशी की जा रही है. सीबीएसई के निरीक्षणकर्ता अधिकारी भी न जाने क्या देखकर इन शालाओं को मान्यता देने की अनुशंसा भी कर देते हैं. व्याप्त चर्चाओं के अनुसार जबर्दस्त चढावे के बोझ के तले ये अधिकारी दबे होते हैं.
यहां उल्लेखनीय होगा कि जब तक ये शालाएं सीबीएसई बोर्ड से मान्यता नहीं ले लेती तब तक ये मध्य प्रदेश के माध्यमिक शिक्षा मण्डल के अधीन ही काम करती हैं. मध्य प्रदेश सरकार का एक मुलाजिम जिसे हर जिले में जिला शिक्षा अधिकारी कहा जाता है, उसके शासकीय दायित्वों में इन शालाओं का निरीक्षण और मशिम के अनुकूल अर्हातांएं होना सुनिश्चित कराना आता है. विडम्बना ही कही जाएगी कि जिला शिक्षा अधिकारी द्वारा सालों से इन शालाओं का निरीक्षण नहीं किया गया है. बताया जाता है कि बच्चों को सीबीएसई के भुलावे में रखने गरज से सीबीएसई की तर्ज पर इन शालाओं ने सीबीएसई की मान्यता न मिलने के बावजूद भी सेकंड सटर्डे अर्थात द्वितीय शनिवार का अवकाश मनमर्जी से घोषित कर दिया गया है. अब तक महज केंद्रीय विद्यालय में ही द्वितीय शनिवार को अवकाश घोषित होता है.
इस संबंध में जब परिसीमन के उपरांत समाप्त हुई सिवनी लोकसभा की अंतिम सांसद और जिला मुख्यालय सिवनी को अपने आप में समेटने वाली सिवनी की विधायक श्रीमति नीता पटेरिया से इस प्रतिनिधि ने चर्चा की तो उन्होंने छूटते ही कहा कि चूंकि ये सारे मामले निजी तौर पर संचालित होने वाली शालाओं के हैं, अतरू इस बारे में वे कुछ भी नहीं कर सकतीं हैं, जब उनसे यह पूछा गया कि अंत्तोगत्वा परेशानी तो उनकी विधानसभा क्षेत्र में आने वाले उनके वोटर्स पालकों के बच्चों को ही हो रही हो, वह चाहे निजी शाला में अध्ययन करे या फिर सरकारी शाला में, तो वे चुप्पी साध गईं. इस प्रतिनिधि से चर्चा के दौरान श्रीमति पटेरिया ने कहा कि यह मामला जिला प्रशासन को ही देखना चाहिए, अगर प्रशासन इस मामले में चुप है, इसका तातपर्य है सब कुछ ठीक ठाक ही है. वस्तुतरू सीबीएसई की मान्यता की अपेक्षा में जो शालाएं वर्तमान में माध्यमिक शिक्षा मण्डल भोपाल के तहत संचालित हो रही हैं, उनकी स्थिति बद से बदतर ही है. जिला प्रशासन द्वारा शिक्षा विभाग की कमान एक उप जिलाध्यक्ष को आफीसर इंचार्ज बनाकर दी है, पर लगता है वे भी आला अधिकारियों के इशारों की प्रतीक्षा ही कर रहे हैं. हालत देखकर यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि शिक्षा के मामले में इस जिले का कोई धनी धोरी ही नहीं बचा है.
इस संबंध में जब जिला शिक्षा अधिकारी श्री पटले से चर्चा की गई तो उन्होंने कहा कि उक्त शालाएं सीबीएसई से संबद्ध हैं और सीबीएसई के अधिकारी ही इसका निरीक्षण करते हैं, जब उनसे यह कहा गया कि जब तक सीबीएसई से संबद्धता नहीं हो जाती तब तक तो ये शालाएं प्रदेश शासन के अंतर्गत काम कर रहीं हैं, राज्य शासन के मुलाजिम चाहें तो इनकी मुश्कें कस सकते हैं, इस प्रश्र पर श्री पटले ने भी मौन साध लिया.
केंद्र शासन द्वारा शिक्षा का अधिकार अधिनियम २००९ लागू किया है, वहीं मध्य प्रदेश में जनशिक्षा अधिनियम २००१ लागू है, जिसके तहत राज्यों की सरकारों को यह सुनिश्चित करना है कि स्कूल न जाने वाले बच्चों का दाखिला सरकारी स्कूलों में करवाया जाए. (देखिए खबर पेज तीन पर). स्कूल शिक्षा विभाग द्वारा वर्ष २००९ में कराए गए सर्वे में मध्य प्रदेश के लाखों बच्चे स्कूल जाने से वंचित ही पाए गए थे. सिवनी जिले में कितने बच्चे स्कूल जाने से वंचित हैं, इसकी जानकारी जिला शिक्षा अधिकारी कार्यालय में उपलब्ध ही नहीं हो सकी है. सांसद, विधायक सहित जिला प्रशासन से पुनरू जनहित में अपेक्षा है कि देश के भविष्य बनने वाले नौनिहालों के हित में कम से कम कुछ सार्थक पहल अवश्य ही करें.
(क्रमशः जारी)
गुरुवार, 22 जुलाई 2010
गरीब गुरबे आज भी वंचित हैं स्कूल जाने से
सपने दिखाना बंद करिए सोनिया जी!
शिक्षा का अधिकार कानून है देश भर में बेअसर
कानून बनाने के पहले उसका पालन सुनिश्चित करे सरकार
कानून की सरेआम उडती धज्जियां और बेबस शासक
(लिमटी खरे)
अशिक्षा आज भारत गणराज्य में नासूर बन चुकी है, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है। देश पर आधी सदी से ज्यादा राज करने वाली सवा सौ साल पुरानी अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेताओं ने अपने आप को आजादी के उपरांत खासा समृद्ध कर लिया है, पर आवाम ए हिन्द (भारत गणराज्य की जनता) का अधिक हिस्सा आज भी भुखमरी के आलम में अशिक्षित ही घूम रहा है। देश में सुरसा की तरह बढती मंहगाई पर से जनता जनार्दन का ध्यान भटकाने के लिए सरकारों द्वारा नए नए छुर्रे छोडे जाते हैं। इसी तारतम्य में कुछ दिनों पूर्व देश में शिक्षा का अधिकार कानून लागू किया गया।
अप्रेल फूल यानी एक अप्रेल के दिन से भारत गणराज्य में लागू हुए शिक्षा के अधिकार कानून में भारत में छः से 14 साल तक के बच्चे को निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा के अधिकार कानून मे यह प्रावधान किया गया था कि शाला प्रबंधन इस बात को सुनिश्चित करे कि आर्थिक तौर पर कमजोर बच्चों को शाला की क्षमता के 25 फीसदी स्थान इन बच्चों को दिए जाएं। कमोबेश यही कानून चिकित्सा के क्षेत्र में चल रहे फाईव स्टार निजी अस्पतालों के लिए लागू किए गए थे। विडम्बना यह है कि देश में कानून तो बना दिए जाते हैं पर उनके पालन की सुध किसी को भी नहीं रहती है। राजधानी दिल्ली में ही सरकार से तमाम सुविधाएं लेने वाले फोर्टिस अस्पताल द्वारा पिछले पांच सालों में महज पांच गरीबों का ही निशुल्क इलाज किया। यह बात हम नहीं दिल्ली सरकार की स्वास्थ्य मंत्री किरण वालिया कह रहीं हैं वह भी विधानसभा पटल पर जानकारी रखते हुए। इसके उपरांत आज भी फोर्टिस अस्पताल सीना तानकर अमीरों और धनाड्यों की जेब तराशी कर रहा है, वह भी सरकारी सुविधाओं और सहायता को प्राप्त करने के साथ। ब देश के नीति निर्धारकों की जमात के स्थल पर ही इस तरह की व्यवस्थाएं फल फूल रही हों तब बाकी की कौन कहे। अभी से शिक्षा के कानून का यह आलम है तो आने वाले दिनों में अनिवार्य शिक्षा कानून की धज्जियां अगर उडती दिख जाएं तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी।
शिक्षा के अधिकार कानून की धारा 13 साफ तौर पर इस ओर इशारा करती है कि स्कूलों में अनिवार्य तौर पर 25 फीसदी सीट उन बच्चों के लिए आरक्षित रखी जाएं जो कमजोर वर्ग के हों। कानून की इस धारा का पहली मर्तबा उल्लंघन करने पर 25 हजार रूपए एवं उसके उपरांत हर बार पचास हजार रूपए के जुर्माने का प्रावधान है। शिक्षा के अधिकार का कानून तो लागू हो चुका है देश के गरीब गुरबों को कांग्रेस की राजमाता श्रीमति सोनिया गांधी, वजीरे आजम डॉ.एम.एम.सिंह और मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने एक सपना दिखा दिया है कि गरीबों के बच्चे भी अब कुलीन लोगों के बच्चों, धनाडयों, नौकरशाहों, जनसेवकों के साहेबजादों, के साथ अच्छी स्तरीय शिक्षा ले सकते हैं।
शिक्षा आदि अनादिकाल से ही एक बुनियादी जरूरत समझी जाती रही है। पहले गुरूकुलों में बच्चों को व्यवहारिक शिक्षा देने की व्यवस्था थी, जो कालांतर में अव्यवहारिक शिक्षा प्रणाली में तब्दील हो गई। आजाद भारत में शासकों ने अपनी मर्जी से शिक्षा के क्षेत्र में प्रयोग करना आरंभ कर दिया। अब शिक्षा जरूरत के हिसाब से नहीं वरन् सत्ताधारी पार्टी के एजेंडे के हिसाब से तय की जाती है। कभी शिक्षा का भगवाकरण किया जाता है, तो कभी सामंती मानसिकता की छटा इसमें झलकने लगती है।
वर्तमान में अनिवार्य शिक्षा के कानून में 6 से 14 साल के बच्चे को अनिवार्य शिक्षा प्रवेश, पहली से आठवीं कक्षा तक अनुर्तीण करने पर प्रतिबंध, शारीरिक और मानसिक दण्ड पर प्रतिबंध, शिक्षकों को जनगणना, आपदा प्रबंधन और चुनाव को छोडकर अन्य बेगार के कामों में न उलझाने की शर्त, निजी शालाओं में केपीटेशन फीस पर प्रतिबंध, गैर अनुदान प्राप्त शालाओं के लिए अपने पडोस के मोहल्लों के न्यूनतम 25 फीसदी बच्चों को अनिवार्य तौर पर निःशुल्क शिक्षा का प्रावधान किया गया है।
जिस तरह लोगों को आज इतने समय बाद भी रोजगार गारंटी कानून के बारे में जानकारी पूरी नहीं हो सकी है, उसी तरह आने वाले दिनों में अनिवार्य शिक्षा कानून टॉय टॉय फिस्स हो जाए तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। इस नए कानून से किसी को राहत मिली हो या न मिली हो कम से कम गुरूजन तो मिठाई बांट ही रहे होंगे क्योंकि उन्हें शिक्षा से इतर बेगार के कामों में जो उलझाया जाता था, उससे उन्हें निजात मिल ही जाएगी। अब वे धूप में परिवार कल्याण और पल्स पोलियो जैसे अभियानों में चप्पल चटकाने से बच सकते हैं।
लगता है अनिवार्य शिक्षा कानून का मसौदा केंद्र में बैठे मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने देश की राजनैतिक राजधानी दिल्ली सहित अन्य महानगरों और बडे शहरों को ध्यान में रखकर बनाया है। इसमें शाला की क्षमता के न्यूनतम 25 फीसदी उन छात्रों को निशुल्क शिक्षा देने की बात कही गई है, जो गरीब हैं।
अगर देखा जाए तो मानक आधार पर कमोबेश हर शाला भले ही वह सरकारी हो या निजी क्षेत्र की उसमें बुनियादी सुविधाएं तो पहले दिन से ही और न्यूनतम अधोसंरचना विकास का काम तीन साल में उलब्ध कराना आवश्यक होता है। इसके अलावा पुरूष और महिला शिक्षक के लिए टीचर्स रूम, अलग अलग शौचालय, साफ पेयजल, खेल का मैदान, पुस्तकालय, प्रयोगशाला, बाउंड्रीवाल और फंेसिंग, किचन शेड, स्वच्छ और हवादार वातावरण होना आवश्यक ही होता है।
छात्रों के साथ शिक्षकों के अनुपात में अगर देखा जाए तो सीबीएसई के नियमों के हिसाब से एक कक्षा में चालीस से अधिक विद्याथियों को बिठाना गलत है, फिर भी सीबीएसई से एफीलेटिड शालाओं में सरेआम इन नियमों को तोडा जा रहा है। शिक्षकों के अनुपात मे मामले में अमूमन साठ तक दो, नब्बे तक तीन, 120 तक चार, 200 तक पांच शिक्षकों की आवश्यक्ता होती है।
अपने वेतन भत्ते और सुविधाओं में जनता के गाढे पसीने की कमाई खर्च कर सरकारी खजाना खाली करने वाले देश के जनसेवकों ने अब देश का भविष्य गढने की नई तकनीक इजाद की है। अब किराए के शिक्षक देश का भविष्य तय कर रहे हैं। कल तक पूर्णकालिक शिक्षकों का स्थान अब अंशकालीन और तदर्थ शिक्षकों ने ले लिया है। निजी स्कूल तो शिक्षकों का सरेआम शोषण कर रहे हैं। अनेक शालाएं एसी भी हैं, जहां शिक्षकों को महज 500 रूपए की पगार पाकर 2500 रूपए पर दस्तखत कर रहे हैं।
दुर्भाग्य तो यह है कि केंद्र की कांग्रेस नीत संप्रग सरकार द्वारा साठ के दशक के पहले राजकपूर अभिनीत चलचित्र सपनों के सौदागर की तरह सपने ही बचने पर आमदा है। इन सपनों को हकीकत में बदलने का उपक्रम कोई नहीं कर रहा है। दो वक्त की रोटी न मिल पाने के चलते फाका मस्ती में दिन गुजारने वाला आम हिन्दुस्तानी आज नजरें उठाकर अपने शासकों की तरफ देखने को मजबूर है। शासक हैं कि वे भारत गणराज्य की जनता को भुलावे में रखकर रोज नया सपना दिखा रहे हैं। आलम यह है कि भारत में आज किसी के तन पर कपडा नहीं है किसी के सर पर जमीन नहीं तो कोई रोटी के निवाले को तरह रहा है। इस सबसे शासकों और जनसेवकों को क्या लेना देना। जनसेवक तो अपनी मौज मस्ती में व्यस्त हैं, उनके वेतन भत्ते और सुख सुविधाओं में कहीं से कहीं तक कोई कमी नहीं है।
हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं कि कांग्रेस की राजमाता श्रीमति सोनिया गांधी को शिक्षा का अधिकार का मशविरा देने वालों ने उन्हें देश की भयावह जमीनी हकीकत नहीं दिखाई होगी। आज भी देश में वर्ग और वर्णभेद उसी तरह हिलोरे मार रहा है जैसा कि आजादी के पहले था। आज अमीर का मित्र अमीर ही है, अमीर गरीब के बीच का फासला बहुत ही ज्यादा बढ चुका है। अमीर और अधिक अमीर होता जा रहा है तथा गरीब गुरबे की कमर टूटती ही जा रही है।
क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि कोई उद्योगपति, नौकरशाह, सांसद, विधायक, जनसेवक आदि यह बर्दाश्त कर सकता है कि उसके घर झाडू फटका करने या बर्तन मांझने वाले का कुलदीपक बाजू में बैठकर उसी शाला में पढे? जवाब नकारात्मक ही होगा। तब क्या नामी गिरामी दून, मेयो, मार्डन, डीपीएस आदि स्कूल में पढने वाले ‘‘बाबा साहब‘‘ अर्थात साहब बहादुरों के बच्चों को यह गवारा होगा कि उसके बाजू में बैठकर एक गरीब शिक्षा ग्रहण करे? ये सारी बातें फिल्मों में ही शोभा देती हैं जिसमंे अमीरी गरीबी को सगी बहनें जतलाकर इनके बीच के भेद को अंत में मिटा दिया जाता है।
शिक्षा के अधिकार कानून में अमीरी गरीबी के बीच की खाई के कारण होने वाली दिक्कत को अब मानव संसाधन विभाग द्वारा ‘‘व्यवहारिक कठिनाई‘‘ की संज्ञा देने की तैयारी की जा रही है। इस कानून के पालन में शालाओं विशेषकर निजी तौर पर शिक्षा माफियाआंे द्वारा संचालित शालाओं के संचालकों को बहुत ही अधिक ‘‘व्यवहारिक कठिनाई‘‘ का सामना करना पड रहा है। अनेक शिक्षण संस्थाओं के संचालकों ने इस ‘‘व्यवहारिक कठिनाई‘‘ के चलते अपनी शिकायत से मानव संसाधन विकास मंत्रलय को आवगत करा दिया गया है।
गौरतलब है कि सरकारी तौर पर संचालित होने वाले नवोदय विद्यालय समिति द्वारा शिक्षा की गुणवत्ता की दुहाई देते हुए शिक्षा के अधिकार कानून में छूट देने की मांग तक कर डाली है। इस समिति ने इस कानून को धता बताते हुए छटवीं कक्षा में नामांकन के लिए प्रतियोगी परीक्षा आहूत की थी। इस मामले में इस कानून का पालन सुनिश्चित करने वाली राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग संस्था ने इसे नोटिस भी जारी किया था। इस मामले में आगे नतीजा ढाक के तीन पात ही आने वाला है।
आरटीई की धारा 13 (1) में साफ किया गया है कि काई भी शाला या उसका प्रबंधन किसी भी विद्यार्थी से प्रवेश के दौरान या बाद में केपीटेशन फीस या प्रतियोगिता फीस की वसूली नहीं कर सकता है। बावजूद इसके देश भर में सुदूर अंचलों यहां तक कि जिला मुख्यालयों में संचालित होने वाली शालाएं न केवल केपीटेशन फीस ही वसूल कर रही हैं वरन् शिक्षा माफिया तो किसी दुकान विशेष से गणवेश, जूते, किताबें खरीदने के लिए बच्चों को बाध्य करने नहीं चूक रहे हैं।
शिक्षा का अधिकार कानून लागू होने के बाद भी आज देश में न जाने कितने लाख बच्चे शिक्षा के अधिकार से वंचित हैं। मंहगाई के इस दौर मंे पालकों पर फीस, यूनीफार्म, किताबों के बोझ के अलावा फिर केपीटेशन फीस का बोझ डाला जा रहा है। अमीरजादों के लिए यह सब करना आसान है, पर मरण तो गरीब गुरबों की ही है, जिनको ध्यान में रखकर इस कानून की नींव डाली गई थी। हमारा कहना महज इतना ही है कि सवा सौ साल राज कर लिया कांग्रेस ने, भारत गणराज्य के लोगों को जितना नारकीय जीवन भोगने पर मजबूर करना था कर लिया अब तो कम से कम इक्कसीवीं सदी में भारतीयों को आजाद कर दिया जाए। लोग तो यहां तक कह रहे हैं कि इस परोक्ष गुलामी से बेहतर तो ब्रितानियों की गुलामी थी। कम से कम कर देने पर सुविधाएं तो मिल जाती थीं। शिक्षा का अधिकार कानून अस्तित्व में है पर किस काम का जब गरीब का बच्चा शिक्षा ही प्राप्त न कर सके। तो बेहतर होगा सोनिया गांधी जी आप भी जमीनी हकीकत से रूबरू हों और भारत गणराज्य की सवा करोड जनता को सपने न दिखाएं। कम से कम वे सपने जिन्हें देखने के बाद जब वे टूटें तो आम आदमी में जीने की ललक ही समाप्त हो जाए।
बहरहाल सरकार को चाहिए कि इस अनिवार्य शिक्षा कानून में संशोधन करे। इसमें भारतीय रेल, दिल्ली परिवहन निगम और महाराष्ट्र राज्य सडक परिवहन की तर्ज पर पैसेंजर फाल्ट सिस्टम लागू किया जाना चाहिए। जिस तरह इनमें सफर करने पर टिकिट लेने की जवाबदारी यात्री की ही होती है। चेकिंग के दौरान अगर टिकिट नहीं पाया गया तो यात्री पर भारी जुर्माना किया जाता है। उसी तर्ज पर हर बच्चे के अभिभावक की यह जवाबदारी सुनिश्चत की जाए कि उसका बच्चा स्कूल जाए यह उसकी जवाबदारी है। निरीक्षण के दौरान अगर पाया गया कि कोई बच्चा स्कूल नहीं जाता है तो उसके अभिभावक पर भारी पेनाल्टी लगाई जानी चाहिए।
सरकार द्वारा सर्वशिक्षा अभियान, स्कूल चलें हम, मध्यान भोजन आदि योजनाओं पर अरबों खरबों रूपए व्यय किए जा चुके हैं, पर नतीजा सिफर ही है। निजाम अगर वाकई चाहते हैं कि उनकी रियाया पढी लिखी और समझदार हो तो इसके लिए उन्हें वातानुकूलित कमरों से अपने आप को निकालकर गांव की धूल में सनना होगा तभी अतुल्य भारत की असली तस्वीर से वे रूबरू हो सकेंगे। इसके लिए सरकार को कडे और अप्रिय फैसले लेने से भी नहीं हिचकना चाहिए। भव्य अट्टालिकाओं वाले निजी स्कूल में यह अवश्यक कर दिया जाए कि वे अपनी कुल क्षमता का पच्चीस फीसदी हिस्सा अनिवार्य तौर पर गरीब गुरबों के लिए न केवल सुरक्षित रखे वरन ढूंढ ढूंढ कर उन स्थानों को भरने के बाद अपने सूचना पटल पर अलग से इन लोगों की सूची भी चस्पा करे। अप्रिय और कडे कहने का तातपर्य यह है कि अधिकांश बडे स्कूल किसी ने किसी राजनेता के ही हैं या उनमें इनकी भागीदारी है। एसा करने से एक ओर जहां देश की आने वाली पीढी शिक्षित हो सकेगी वहीं दूसरी ओर जनसेवा का ढोंग करने वाले राजनेताओं के चेहरों से नकाब भी उतर सकेगा।
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