सौ साल की हो गई बेदिल वालों की दिल्ली
(एडविन अमान)
नई दिल्ली। आज दिल्ली वासी यह बात कह सकते हैं कि दिल्ली दिल वालों की है या बेदिल वालों की यह बात खोजते खोजते उन्हें एक सदी बीत गई है। दिल्ली को राजधानी बने सौ साल हो गए। इन सौ सालों में यहां का इतिहास बदला, भूगोल बदला, संस्कृति बदली, लोग बदले, स्वाद बदला, समाज बदला, साधन बदले और अब भी बदलती जा रही है दिल्ली। दिल्ली की एक बात नहीं बदली और वह है दिल्ली की बदहाली। राजधानी बनने से आज तक दिल्ली बुरी तरह बदहाल नजर आती रही है।
जब जार्ज पंचम ने एक निहायत ही बेनाम सी जगह बुराड़ी में दरबार सजाकर कोलकाता की जगह दिल्ली को देश की राजधानी बनाने की घोषणा की थी तो उस समय यह शहर शाही अंदाज में डूबा था। तब यहां की आबादी पांच लाख से भी कम थी और आज सौ साल के बाद इस महानगर की आबादी एक करोड़ सढ़सठ लाख से ज्यादा है। यहां की जनसंख्या में हर साल पांच लाख का इजाफा हो रहा है।
वैसे तो दिल्ली राजधानी 1911 में ही बन गई थी लेकिन 1930 के बाद जब नए ढंग से सज-संवर कर तैयार हुई तो लाहौर, कलकत्ता और मुंबई की तरह इसने भी नई दुनिया में अपनी पहचान बनाई। सत्ता का गढ़ तो था ही, कारोबार के लिहाज से भी दिल्ली खास हो गई। इतनी खास कि हर कोई यहां आने को तैयार था। शहर में पश्चिमी जीवनशैली का रंग घुलने लगा। मनोरंजन के नए अड्डे बने। अंग्रेज अधिकारी और उनके कारिंदे अपने साथ अंग्रेजी खानों का जायका लेकर दिल्ली आए।
पुरानी दिल्ली के चांदनी चौक के चटपटे और मीठे स्वाद से अलग कनॉट प्लेस के इलाके में वेंगर्स और गेलॉर्ड जैसे रेस्तरांओं ने यहां के स्वाद को भी बदला। 1947 में विभाजन के बाद हजारों की संख्या में यहां आए विस्थापितों के साथ एक बार दिल्ली पर पंजाबियत का रंग चढ़ा।
पुरानी दिल्ली के स्वाद की गलियों में? मालदार दिल्ली में नेताओं के बंगले में? संसद में बनते नियमों में? रोजगार की तलाश में यहां आए लोगों के सपनों में? डिस्को में बन चुके मनोरंजन के नए मुहावरों में? सरकारी दफ्तरों के बाबुओं के आश्वासनों में? बस के इंतजार में खड़े लोगों के गुस्से में? या फिर किसी के सपनों की कीमत लगते दलालों में? कभी दिल्ली सात शहर हुआ करती थी। अब इसके कई रंग हैं। हर रंग की अपनी अलग कहानी है। क्योंकि इस शहर ने 100 सालों में जो भोगा है और जो देखा है वह कम नहीं।
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