बाधित बीएसएनएल, परेशान उपभोक्ता
(शरद खरे)
सिवनी जिले में भारत संचार निगम लिमिटेड
की सेवाएं बुरी तरह लड़खड़ा चुकी हैं, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है।
बीएसएनएल उपभोक्ताओं के टेलीफोन के डिब्बे शोभा की सुपारी बनते जा रहे हैं पर इनकी
ओर ध्यान देने की किसी को फुर्सत नहीं है। बीएसएनएल सरकारी उपक्रम है इस लिहाज से
लोगों का भरोसा इस पर कायम है, पर अब भरोसा तेजी से उठता जा रहा है। वह
तो फिक्स लाईन वायर्ड सेवाओं में निजी कंपनी सिवनी में उतरी नहीं है, वरना बीएसएनएल का कार्यालय भी तेंदूपत्ते
के गोदाम में तब्दील हो जाता।
मूलतः फिक्स लाईन, डब्लूएलएल, ब्रॉडबेंड, फिक्स लाईन और मोबाईल पर सेवाएं प्रदान
कर रहा है बीएसएनएल। बीएसएनएल के उपभोक्ताओं से पूछिए उनके दिलों पर क्या बीत रही
है। आज मजबूरी में सिवनी के निवासी बीएसएनएल की सेवाएं ले रहे हैं। प्रतिस्पर्धा
के इस युग में लोगों को उम्मीद थी कि फिक्स लाईन में भी निजी कंपनियां दिलचस्पी
दिखाएंगी और सिवनी में उन्हें बेहतर सेवाएं मिल सकेंगी।
इक्कीसवीं सदी के पहले दशक में इस तरह
का कुछ होता भी दिखा। बीएसएनएल के आलावा निजी सेवा प्रदाताओं ने सिवनी में दिलचस्पी
दिखाई। 2007 के उपरांत एकाएक वोडा फोन, डोकोमो, आईडिया आदि जैसे निजी सेवा प्रदाताओं ने
सिवनी में धड़ाधड़ मोबाईल टॉवर खड़े करना आरंभ कर दिया। सिवनी वासी बहुत अचरज भरी
खुशी में थे, कि आखिर सिवनी जैसे अविकसित जिले में इन निजी सेवा प्रदाताओं को कितना
बिजनिस मिल पाएगा जो एक के बाद एक मोबाईल टॉवर खड़े करती जा रही हैं, एक के बाद एक सिवनी में पदार्पण करने
वाली निजी मोबाईल सेवा प्रदाता कंपनियां!
कम ही लोग जानते होंगे कि सिवनी का यह
सौभाग्य था, कि सिवनी को अटल बिहारी बाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व काल के स्वर्णिम
चतुर्भुज परियोजना के अंग उत्तर दक्षिण कॉरीडोर के नक्शे से अनेक षणयंत्रों के बाद
हटाया नहीं जा सका था। बड़ी और निजी मोबाईल सेवा प्रदाता कंपनियों की मजबूरी थी कि
उन्हें स्वर्णिम चतुर्भुज और उत्तर दक्षिण तथा पूर्व पश्चिम सड़क कॉरीडोर में अपने
उपभोक्ताओं को निर्बाध रूप से मोबाईल कनेक्टविटी देना था।
संभवतः यही कारण था कि सिवनी में एक के
बाद एक मोबाईल टॉवर धड़ाधड़ खड़े कर दिए गए। इसके बाद 2008 में अचानक ही फोरलेन पर
सियासी षणयंत्र का ग्रहण लगा और फोरलेन का काम बाधित हो गया। मामला सर्वोच्च
न्यायालय पहुंचा। महाकौशल के एक शक्तिशाली क्षत्रप को इसके लिए पुरानी फिल्मों का ‘शत्रुध्न सिन्हा‘ और ‘प्रेम चौपड़ा‘ जैसा विलेन बना दिया गया। निजी कंपनियों
को लगने लगा था कि यह षणयंत्र इतनी जल्दी और आसानी से निपटने वाला नहीं। कंपनियों
ने अपनी दिलचस्पी सिवनी में एकाएक कम कर दी। उसके बाद निजी मोबाईल सेवा प्रदाता
कंपनियों ने सिवनी से अपना बोरिया बिस्तर उठा ही लिया। अब निजी तौर पर सेवा
प्रदाता कंपनियों का नेटवर्क भी घिसट घिसट कर ही चल रहा है।
सिवनी में बीएसएनएल का भी यही आलम है।
केंद्र सरकार का छटवां वेतनमान लेने वाले सरकारी नुमाईंदों को इस बात की परवाह
नहीं रह गई है कि जिस राजस्व से वे वेतन पा रहे हैं वह राजस्व इन्हीं उपभोक्ताओं
से ही वसूला जा रहा है। हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि दस से पांच
(कार्यालयीन समय सुबह दस से शाम पांच बजे तक) की नौकरी करने वाले बीएसएनएल के
कर्मचारियों अधिकारियों को उपभोक्ताओं की परेशानी से कुछ लेना देना नहीं रह गया
है।
आज भी शहर में अनेक स्थान ऐसे हैं जहां
बीएसएनएल का नेटवर्क ही नहीं मिलता है। फिक्स लाईन अगर खराब हो गई तो उसे सुधरवाने
में आपकी चप्पलें घिस जाएंगी। अगर आप प्रभावशाली हैं तो आपका काम एकाध दिन में हो
जाएगा, शेष हैरान परेशान ही घूमते नजर आते हैं। ऐसा नहीं कि सिवनी में बीएसएनएल
में पदस्थ सारे कर्मचारी अधिकारी मक्कार हैं। इनमें कुछ कर्मचारी और अधिकारी ऐसे
भी हैं जो शॉक एब्जार्वर का काम करते हैं। अगर इस तरह के कुशल कर्मचारी न हों तो
बीएसएनएल में रोजाना ही जूते चप्पल चलते नजर आएंगे।
दरअसल, बीएसएनएल में लाईनमेन की जबर्दस्त कमी
है। जो लाईनमेन सेवानिवृत हो चुके हैं उनके स्थान पर नई भर्ती नहीं की जा रही है।
यही कारण है कि व्यवस्था पूरी तरह गड़बड़ा चुकी है। किसी का काम कोई और कर रहा है।
बीएसएनएल के एसडीओ कार्यालय में खराब बिगड़े पड़े डब्बों का अंबार लगा हुआ है, पर उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं है।
अधिकारी चाहें तो डब्बों की मरम्मत का काम आउट सोर्स करवा सकते हैं पर वे भी अपनी
कुर्सियों पर पैर पसारे, आंखें मूंदे, आराम फरमा रहे हैं।
यह केेंद्र सरकार का मामला है। सिवनी के
सियासी षणयंत्रकारियों के कारण अब इसके पास एक के बजाए दो-दो सांसद हैं। दोनों
सांसद भी कुंभकर्णीय निंद्रा में ही हैं। दोनों को इस बात की परवाह नहीं है कि
उन्हें सिवनी की जनता ने भी जनादेश देकर देश की सबसे बड़ी पंचायत में पहुंचाया है।
उनका भी कम से कम इतना फर्ज तो बनता है कि वे जनता के जनादेश का कुछ तो सम्मान
करें। विडम्बना ही है कि जनादेश लेकर एक बार दिल्ली गए सांसदों ने सिवनी की ओर
मुड़कर देखना मुनासिब नहीं समझा। अब सिवनी के निवासियों की पीड़ा को समझे तो समझे
कौन. . .।
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