यम की बहन को यमलोक पहुंचाती शीला
कामन वेल्थ गेम्स बीत गए पर टेम्स नहीं बन पाई यमुना
(लिमटी खरे)
कभी देश की राजनैतिक राजधानी दिल्ली की शान हुआ करने वाली कल कल बहने वाली यमुना नदी पिछले दो तीन दशकों से गंदे और बदबूदार नाले मंे तब्दील होकर रह गई है। विडम्बना यह है कि दिल्ली में केंद्र और राज्य सरकार की नाक के नीचे सारी वर्जनाएं तोड़ने वाले प्रदूषण ने यम की बहन समझी जाने वाली यमुना नदी का गला घोंटकर रख दिया है। देश में न्यायपालिका के स्पष्ट निर्देशों का माखौल उड़ाना कोई कांग्रेस से सीखे तभी तो कांग्रेस नीत केंद्र और राज्य सरकर इस मामले में मौन साधे बैठी है।
यमनोत्री से छोटी सी धारा के रूप में प्रकट हुई यमुना नदी इलाहाबाद के संगम तक 1375 किलोमीटर का लंबा सफर तय करती है। दिल्ली आने के पहले स्वच्छ और निर्मल जल को अपने दामन में समेटने वाली जीवनदायनी पुण्य सलिला यमुना दिल्ली के बाद बुरी तरह प्रदूषित हो जाती है। यमुना के प्रदूषण में दिल्ली की भागीदारी अससी फीसदी से अधिक है। वजीराबाद से औखला बैराज तक का महज 22 किलोमीटर का सफर करने के दरम्यान यमुना सबसे अधिक गंदी हो जाती है।
यमुना नदी के साथ सनातन धर्मावलंबियों की अगाध श्रृद्धा जगजाहिर है। भगवान श्री कृष्ण की लीलाएं और कथाएं यमुना के वर्णन के बिना अधूरी ही प्रतीत होती हैं। यमुना का नाम लेते ही भगवान श्री कृष्ण और कालिया नाग की कथा का प्रसंग जीवंत हो उठता है। कहते हैं कि कालिया मर्दन के उपरांत ही कालिया नाग के जहर के चलते मथुरा के बाद यमुना नदी ने श्याम वर्ण ओढ़ लिया था। यद्यपि भगवान कन्हैया की की लीलाओं के चलते यह जहर किसी के लिए प्राणधातक नहीं बन सका था। वहीं दूसरी ओर राजधानी दिल्ली में राजनैतिक संरक्षण प्राप्त कालिया नागों (औद्योगिक और अन्य प्रदूषण) से जीवनदायनी पुण्य सलिला दिल्ली से ही जहरीली होकर श्याम के बजाए काला रूप धारण कर आगे बढ़ रही है।
कभी यमुना नदी दिल्ली की जीवन रेखा के तौर पर देखी जाती थी। समय बदला, विकास के पैमाने बदले, लोगों के निहित स्वार्थों के आगे सारी बातें गौढ़ हो गईं और परिणामस्वरूप कालांतर में यमुना का गला घोंट दिया गया। पिछले डेढ़ दशकों में यमुना सिर्फ और सिर्फ बारिश के मौसम में बहा करती है। शेष समय यह राजधानी के जहरीले रसायनों, गंदगी और प्रदूषित सामग्री की संवाहक बनकर रह गई है।
यमुना में मुर्दों के अवशेष, कल कारखानों का जहरीला विष्ट, अपशिष्ट, जल मल निकासी का गंदा पानी और हर साल लगभग तीन हजार प्रतिमाओं का विसर्जन किया जाता है। एक अनुमान के मुताबिक हर साल इस नदी में तकरीबन बीस हजार लिटर रंग घुल जाता है।
देश में पानी की संवाहक बड़ी नदियों में शामिल चंबल तक में यमुना का कचरा और जहर जाकर मिलने से पर्यावरणविदों की पेशानी पर पसीने की बूंदे छलक आई हैं। 2008 में चंबल में विलुप्त प्रजाति के आठ दर्जन से अधिक घडियालों के मरने के पीछे भी यमुना को ही परोक्ष तौर पर जिम्मेवार ठहराया गया था।
केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के राष्ट्रीय नदी संरक्षण निदेशालय (एनआरसीडी) और दिल्ली स्थित सेंअर फॉर साईंस एण्ड एनवारयरमेंट का प्रतिवेदन विरोधाभासी ही है। एनआसीडी का कहना है कि 160 शहरों से होकर गुजरने वाली 34 नदियां साफ हो चुकी हैं, पर प्रतिवेदन कहता है कि नदियां पहले से ज्यादा प्रदूषित हो चुकी हैं। एनआरसीपी ने यमुना कार्य योजना 1993 मंे आरंभ की थी। 2009 में इसकी सफाई का बजट रखा था 1356 करोड़ रूपए। यमुना के वर्तमान हालात देखकर यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि यह पैसा भी गंदे नाले में ही बह गया है।
इलाहाबाद के संगम से डेढ़ माह पहले आरंभ हुई यात्रा भी दिल्ली पहुंच गई है। साधु संतों के साथ ही साथ जागरूक लोगों ने इसमें बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया है। इनकी मांग है कि यमुना नदी को राष्ट्रीय नदी घोषित किया जाए, इसे प्रदूषण से मुक्त रखने और यमुना बेसिन प्राधिकरण का गठन किया जाए। डर तो इस बात का है कि इन लोगों की यह अच्छी मुहिम कहीं निरंकुश तानाशाह शासकों के दरबार में नक्कारखाने में तूती की आवाज साबित न हो जाए।
उधर दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने 2009 में कहा था कि यमुना एक्शन प्लाए एक और दो के तहत 2800 करोड़ रूपए खर्च हो चुके हैं किन्तु ठोस तकनीक के न होने से वांछित परिणाम सामने नहीं आ सके हैं। हम शीला दीक्षित को स्मरण दिलाना चाहते हैं कि जो कुछ हुआ है वह खर्च उन्हीं के शासनकाल में हुआ है। शीला दीक्षित को क्या हक बनता है कि वे बिना किसी परिणाम मूलक काम और ठोस तकनीक के जनता के गाढ़े पसीने की कमाई को पानी में बहा दें। इस कदर पैसे के अपव्यय करने वालों के खिलाफ जनता के धन के आपराधिक दुरूपयोग का मामला चलाया जाना चाहिए।
राष्ट्र मण्डल खेलों के पहले शीला दीक्षित ने कहा था कि खेलों के आयोजन के पूर्व यमुना के स्वरूप को निखारा जाएगा। खेल हुए सात माह का समय बीत चुका है पर यमुना अपने असली बदबूदार सड़ांध मारते स्वरूप में ही है। शीला दीक्षित ने कहा था कि यमुना को टेम्स नहीं बनाया जा सकता है। निश्चित तौर पर गोरे ब्रितानियों के लिए लंदन की टेम्स नदी गर्व का विषय हो सकती है, किन्तु जून 2009 में हमने यही लिखा था कि ‘‘यमुना को टेम्स नहीं यमुना ही बने रहने दीजिए शीला जी।‘‘
पिछले दिनों पर्यावरण के कथित तौर पर हिमायती और पायोनियर बने वन एवं पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने कहा था कि जमीनी हालातों के मद्देनजर 2015 तक यमुना को प्रदूषण मुक्त नहीं किया जा सकता है। जब एक केंद्र मंे मंत्री जैसे जिम्मेदार ओहदे पर बैठे किसी जनसेवक का यह मानना हो तब तो यह माना जा सकता है कि आने वाले दशकों में भी यमुना का पुर्नुरूद्धार संभव नहीं है।
लंदन की टेम्स नदी के इतिहास पर अगर नजर डाली जाए तो उसकी हालत भी सालों पहले दिल्ली की यमुना के मानिंद ही थी। हालात इतने गंभीर थे कि इससे उठती दुर्गंध के चलते टेम्स तीरे स्थापित संसद को अन्यत्र स्थानांतरित करना पड़ा था। कालांतर में जनभागीदारी से आज टेम्स नदी लंदन के लोगों के लिए गर्व का विषय बन चुकी है।
सवाल यह है कि दिल्लीवासियों को आखिर कब तक इस तरह के संकटों से दो चार होना पड़ेगा। जब भी यमुना को पार किया जाता है तब बरबस ही दिल्ली वासी नाक पर रूमाल रखने पर मजबूर हो जाते हैं। ये हालात दो तीन दशकों में ही बने हैं, इसके पहले तो यमुना नदी का स्वरूप कुछ अलग ही था। इठलाती बलखाती यमुना सभी की प्यास बुझाया करती थी। दिल्ली वासियों की ओर से हम दिल्ली की निजाम शीला दीक्षित से यही गुजारिश करना चाहते हैं कि यमुना को टेम्स बनाने की कोशिश बेकार है, इसे अपने पुराना साफ सुथरे स्वरूप में ही ले आया जाए तो वह दिल्ली सहित देश पर शीला दीक्षित का एक बड़ा उपकार होगा।
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