हिंसा प्रतिहिंसा
की आग में झुलसता बिहार
पटना (साई)।
ब्रह्मेश्वर मुखिया की हत्या के बाद अचानक कई सवाल हवा में तैरने लगे हैं। क्या
बिहार फिर से हिंसा-प्रतिहिंसा के दौर में लौटेगा, अगर हां, तो उसके आधार क्या
हैं, वह कितना
टिकाऊ व वास्तविक होगा। सिर्फ दस-पंद्रह
साल पहले रणवीर सेना व नक्सलवादियों के बीच एक का बदला दस से लेने की लड़ाई
चल रही थी। सैकड़ों लोग मारे गये। दोनों पक्षों को भारी आर्थिक नुकसान उठाना पड़ा।
और सबसे बड़ी बात यह है कि तब राज्य मशीनरी लकवाग्रस्त थी। लोगों को कहीं से न्याय
की उम्मीद नहीं थी। वह स्थिति हिंसा -प्रतिहिंसा के लिए तर्क मुहैया कराती
थी। बिहार ने बड़ी कीमत चुकाने के बाद समझा
कि हिंसा किसी सवाल का जवाब नहीं देती, उल्टे वह नये सवाल खड़ा कर देती है।
इस बीच दलितों व
सवर्णाे दोनों की स्थिति व समझ में बदलाव आया। अब न तो किसी दलित को कुरसी पर
बैठने से रोका जाता है, न ही किसी सवर्ण की जमीन पर दिन-दहाड़े कोई लाल झंडा गाड़ने को
उतावला है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की राजनीति भी इसी दौर में आगे बढ़ी व कल तक दो
विपरीत ध्रुवों पर खड़े महादलितों व सवर्णाे के बीच समन्वय बना, लेकिन इसे अंतिम
तौर पर स्थायी मान लेना भूल होगी। अब अगर फिर से हिंसा की राजनीति हुई, तो उसका वास्तविक
भौतिक आधार कमजोर होगा, लेकिन बिहार की
राजनीति ऊपर से भले ही स्थिर हो, थोड़ा नीचे जाने पर उसमें गति दिखती है। इसीलिए नया ध्रुवीकरण पैदा
करने की कोशिश हो सकती है। यहां यह समझ लेना चाहिए कि आज पूरे देश की राजनीति बदल
चुकी है। आज विकास एजेंडा है। उधर, जिस तरह केंद्र की
नीतियां विकास दर को नीचे ले जा रही है, उससे गरीब प्रदेशों को सबसे अधिक नुकसान
होगा। इस दौर को आप आर्थिक मुक्ति का दौर भी कह सकते हैं। बिहार में लाखों लोगों
को रोजगार देना है। इस सबके लिए विकास के
एजेंडे पर टिके रहना बेहद जरूरी है, जिसके
लिए शांति पहली शर्त है।
यह संतोष की बात है
कि आज बिहार की राजनीति विकास के एजेंडे
पर आगे बढ़ रही है। इस एजेंडे से बिहार भटका व जातीय गोलबंदी की राजनीति हुई, तो सबका नुकसान
होगा। इससे बचने के लिए समाज व सरकार
दोनों को आगे आना पड़ेगा। समाज के किसी हिस्से को यह नहीं लगे कि उन्हें व्यवस्था
में न्याय पाने के मौके नहीं हैं । सरकार को हस्तक्षेप करना होगा। चाहे वह बथानी
टोले के हत्यारों को सजा दिलाने की बात हो या ब्रह्मेश्वर मुखिया के हत्यारों को
सलाखों के पीछे डालना हो। समाज के प्रबुद्ध लोगों को भी तुरंत सक्रिय हो कर
हस्तक्षेप करना होगा। बताना होगा कि शांति व बातचीत ही किसी समस्या का हल है।
अंततरू गांधी का रास्ता ही सर्वश्रेष्ठ रास्ता है।
ब्रह्मेश्वर मुखिया
की हत्या के बाद रणवीर सेना एक बार फिर चर्चा में आ गयी है। बिहार में जातीय
सेनाओं के इतिहास में रणवीर सेना लंबे समय तक न केवल वजूद में रही, बल्कि इसने क्रूर
तरीके से लोगों की हत्याएं भी कीं। रणवीर सेना का गठन भोजपुर में भाकपा माले
(लिबरेशन) की अगुआई में 80 के दशक में शुरू हुई भूमि और मजदूरी के सवाल पर संघर्ष की
प्रतिक्रिया की उपज था। तब माले भी भूमिगत नक्सली संगठन था। सहार, संदेश और एकवारी
इलाके में भूमिहीन मजदूरों और छोटे किसानों को गोलबंद कर माले ने सवर्ण समुदाय के
बड़े किसानों के खिलाफ लड़ाई शुरू की थी। उन पर आर्थिक नाकेबंदी लगायी गयी थी और इस
कारण करीब पांच हजार एकड़ भूमि परती थी। इसकी प्रतिक्रिया में बड़े जोतदार गोलबंद
होने लगे। जातीय तनाव भी चरम पर था।
0 ब्रह्मेश्वर मुखिया
ब्रह्मेश्वर 17 वर्षाे तक खोपिरा
पंचायत के निर्विरोध मुखिया रहे। भोजपुर जिले के संदेश के खोपिरा गांव के रहने
वाले ब्रह्मेश्वर मुखिया का परिवार किसान
रहा है। खुद शिक्षक थे। 26 कांडों के आरोपित रहे ब्रह्मेश्वर जेल से रिहाई के बाद अहिंसा और शांति की बात
करने लगे थे। उन्होंने पांच मई को अखिल भारतीय राष्ट्रवादी किसान महासंघ का गठन
किया था।
0 बेलाउर में गठित हुई थी रणवीर सेना
भोजपुर जिले के
बेलाउर गांव में एक सिगरेट को लेकर विवाद ने तूल पकड़ा। माले समर्थक बीरबल यादव की
गांव के ही एक व्यकित से झड़प हो गयी। चूंकि बेलाउर व आसपास के गांवों में पहले से
जमीन और मजदूरी को लेकर संघर्ष चल रहा था, ऐसे में इस घटना ने आग में घी का काम किया।
बेलाउर गांव के एक स्कूल में सितंबर1994 में किसानों की बैठक हुई, जिसमें खोपिरा के
ब्रह्मेश्वर मुखिया और बेलाउर के वकील चौधरी समेत कई अन्य लोग मौजूद थे।
(प्रभात खबर से साभार)
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