शनिवार, 25 अगस्त 2012

टूट गये तीन मिथक


टूट गये तीन मिथक

(सुतुनु गुरू/विस्फोट डॉट काम)

नई दिल्ली (साई)। राजनीतिक पंडितों और नए दौर की मीडिया ने टीम अन्ना और उसके राजनीति में आने के फैसले के बारे में काफी लिख दिया है। अधिकतर कांग्रेसी नेता खींसे निपोरते हुए अगले घोटाले की तरफ चल पड़े हैं जबकि सारे सनकी सीना पीट-पीट कर चिल्ला रहे हैं मैंने तो तुमसे पहले ही कहा था। इसलिए टीम अन्ना के नए फैसले की तार्किक विसंगति के बारे में सिद्धांवादी बाते करके आपका समय बर्बाद नहीं करूंगा। मैं तो बस कुछ तथ्यों की मदद से मिथक तोड़ने तक अपनी बात को सीमित रखूंगा।
जहां तक भारतीय मध्यवर्ग के बदलाव लाने की क्षमता और इच्छा की बात है तो टीम अन्ना भ्रम का जबरदस्त शिकार हो गई है। वे सोचते हैं की मध्यवर्ग नैतिक, राष्ट्रभक्त, मूल्यों को मानने वाला और इन मामलों को आगे ले जाने वाला है तो 2014 में उन्हें जोरदार झटका लगेगा और उनकी उम्मीदों पर पानी फिर जाएगा। अगर एचडीआई यानी मानव विकास सूचकांक की तर्ज पर लोकतंत्र के साथ मध्यवर्ग के रिश्तों का कोई सूचकांक होता तो भारत एचडीआई वाले 132वें या 133वें पायदान से भी नीचे होता। चूंकि अरविंद केजरीवाल और किरण बेदी मध्यवर्ग से ही संबंध रखते हैं इसलिए उन्हें विश्वास है कि भारतीय मध्यवर्ग का गुस्सा (और मीडिया में दीवानगी की हद तक उसकी कवरेज) स्वतः ही बदलाव ले आएगा। क्या वे दिवास्वप्न देख रहे हैं? मेरी नजर में अन्ना आंदोलन से इस मायावी मध्य वर्ग से जुड़े तीन मिथक टूट गये हैं।
पहला मिथकः भारत और भारत का मध्यवर्ग हमेशा मिलकर काम करते हैं।
यह एकदम बकवास बात है। कुछ लोगों को खूब याद होगा कि 1974 के जेपी आंदोलन के समय लोगों में कितना जबरदस्त उत्साह व ऊर्जा थी और व्यवस्था के खिलाफ कितना गुस्सा था। यहां तक कि इंदिरा गांधी द्वारा घोषित आपातकाल (जिसमें कांग्रेसी नेताओं और कई मीडिया पंडितों को इस बात का एहसास हुआ कि वे दुनिया से सबसे बड़े वाले चापलूस हैं), जयप्रकाश नारायण की गिरफ्तारी और आपातकाल का विरोध करने वाला हर शापित भारतीय भी बदलाव की भूख को बदल नहीं सका। जब इंदिरा गांधी ने चुनाव कराके लोकतंत्र में ऐतिहासिक योगदान दिया तब गुस्साए मतदाताओं ने उन्हें और उनकी इंदिरा ही इंडिया है और इंडिया ही इंदिरा है वाली पार्टी को धूल चटा दी। मगर ऐसा पूरे भारत में हुआ था? सच तो यह है कि 1977 में भी देश के दक्षिणी राय्जों ने इंदिरा अम्मा के लिए बड़ी संख्या में वोट दिए थे। या उन्हें लोकतंत्र के मुकाबले तानाशाही ज्यादा पसंद थी? यह तो बस एक उदाहरण है कि राष्ट्रीय स्तर पर बदलाव की ऊंची-ऊंची लहरों की ऊंची-ऊंची बाते कैसे बिल्कुल बेमतलब हैं।
दूसरा मिथकः मध्यवर्ग सचमुच ठोस काम के लिए व्याकुल है और उसके लिए वह कुछ भी करने को तैयार है।
अच्छा इसकी सच्चाई जानने के लिए हमें आपातकाल के काले दिनों से फास्ट फॉरवर्ड करते हुए 26/11 तक आना होगा। सभी को याद होगा कि मुंबई में आयोजित टीवी शो में लोगों ने खुलकर यह कह डाला था कि वे आयकर अदा नहीं करेंगे क्योंकि उन्हें सिस्टम पर भरोसा नहीं था। मुझे पूरा विश्वास है कि गेटवे ऑफ इंडिया के पास निकाली गई वे सारी मोमबत्तियां रैलियां आप सभी को याद होगा कि लोग नेताओं और सिस्टम से कितना नाराज थे?  मीरा सयाल नाम की पढ़ी-लिखी महिला, जो बैंकर थी, को लगा कि मध्यवर्ग बदलाव लाने के लिए उतावला है और इसलिए मीरा ने लोकसभा चुनाव लड़ने का फैसला किया। मुझे पूरा विश्वास है कि आपको वे तमाम वेबसाइटे भी याद होंगी जो मध्यवर्गीय मुंबइकर को बदलाव के लिए वोट करने के प्रति जागरूक करने में जुट गई थी और हुआ क्या?  2009 में मतदान वाले दिन दक्षिण मुंबई में महज 40 फीसद मतदान हुआ। तो अगर टीम अन्ना को सचमुच यह लगता है कि यह मध्यवर्ग बदलाव लाने का फैसला कर चुका है तो मैं टीम अन्ना को शुभकामनाएं ही दे सकता हूं।
तीसरा और अंतिम मिथकः मतदाना हमेशा नेताओं को उनके भ्रष्ट और आपराधिक बर्ताव की सजा देते हैं।
इस पर तो मै दो-तीन बार कहूंगा क्या सच में? जब हिसार में ताल्तुक रखने वाले टीम अन्ना के सदस्य अरविंद केजरीवाल ने घोषणा की कि टीम अन्ना लोकसभा उप-चुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी का विरोध करेगी तो हर तरफ बिगुल बजने लगे। दरअसल एक प्रबल नैतिक शक्ति के रूप में टीम अन्ना के अंत की शुरूआत वहीं से हुई थी। हिसार में हर मतदाता जानता था कि कांग्रेस प्रत्याशी की हार तो पहले से ही तय है। तो फिर इतना ड्रामा क्यों किया गया और जब केजरीवाल एसयूवी में सवार होकर हिसार में निकले तब भी दर्जनों तथाकथित आपराधिक छवि वाले नेता चुनाव जीतते चले गए। बाद में देश के दूसरे प्रदेशों में भी ऐसे ही लोग जीतते गए। बेशक भारतीय लोग भ्रष्टाचार से तंग आ चुके हैं। मगर यह सोचना बिल्कुल अजीब है कि मध्यम वर्गीय भारतीय पूरे देश को बदल डालेंगे। मौका मिले तो मध्यवर्गीय भारत यातायात नियम तोड़ता है, पुलिसवाले को रिश्वत देता है, स्कूल या कॉलेज में दाखिला पाने के लिए किसी दलाल को भी पैसा दे सकता है। (भले ही इससे किसी गरीब बच्चे का हक छिन जाए) अपने मकान पर एक या दो मंजिल और बनाने के लिए स्थानीय अधिकारियों को पैसा खिलाता है, बेशर्मी से दहेज मांगता है और पूरे महीने में अगर काम वाली बाई कोई छुट्टी कर लेती है तो उसके पैसे भी काट लेता है। ऐसे दोस्तों के होते हुए क्या अरविंद केजरीवाल और किरण बेदी को दुश्मनों की जरूरत है?

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