सेना, सरकार, सूत्रधार और पत्रकार
(संजय तिवारी
इसे आप द ग्रेट इंडियन तमाशा भी कह सकते हैं. इस तमाशे का खामियाजा कितना बड़ा हो सकता है इसका अंदाज भले ही किसी को न हो लेकिन सेना, सरकार, सूत्रधार और पत्रकार की चौकड़ी जो खेल कर रही है उससे आपका लोकतंत्र कत्तई सुरक्षित नहीं है. सेना प्रमुख की उम्र विवाद से शुरू हुआ एक सामान्य विवाद पहले सेना और सरकार के बीच की लड़ाई बना दी गई और अब इसे सूत्रधारों और पत्रकारों ने बाकायदा जंग में तब्दील कर दिया है.
सेना प्रमुख और सरकार के बीच जो उम्र विवाद का मसला पैदा हुआ था उसके मूल में कुछ ऐसे सूत्रधार थे जो रक्षा सौदों में दलाली करते हैं. रक्षामंत्री एके एंटनी ईमानदार होते हुए भी हुक्म के गुलाम है. उनकी आका प्रधानमंत्री निवास में भले ही न बैठी हों लेकिन बड़े पैमाने पर होनेवाली रक्षा खरीद में आका के कमीशन की चिंता करना ही असल में रक्षा मंत्री एके एंटनी का असली काम है. आप नहीं जानते तो जान लीजिए, रक्षा सौदों में होनेवाली खरीद में दस जनपथ का आठ से दस प्रतिशत कमीशन पक्का होता है. यह किसी पार्टी फंड का कमीशन नहीं होता बल्कि सीधे सीधे सोनिया गांधी के रिश्तेदारों के खाते में यह रकम ट्रांसफर की जाती है. इसलिए अपने निजी जीवन में चार जोड़ी कपड़े में जीवन व्यतीत करनेवाले रक्षा मंत्री एके एंटनी एक चोर राजा के ईमानदार मंत्री से ज्यादा की हैसियत नहीं रखते हैं.
इसलिए, सेना प्रमुख का उम्र विवाद कहीं न कहीं बड़ी रक्षा खरीदारियों से जुड़ा हुआ था. सुप्रीम कोर्ट में भी उनकी उम्र वही मान ली गई जो सरकार ने सुझाया था, इसलिए अब उन्हें 31 मई को रिटायर हो जाना पड़ेगा. सरकार पहले ही भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे विक्रम सिंह को सेनाध्यक्ष बनाने की घोषणा कर चुकी है और पूरे विवाद के बीच दो महत्वपूर्ण वाकया हुआ है. एक, वित्त मंत्री ने रक्षा बजट में 17 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी कर दी है और दो, प्रधानमंत्री कार्यालय को लिखी गई सेनाध्यक्ष की चिट्ठी के जवाब में सरकार ने अफसोस जाहिर करने की बजाय खुशी की दीवाली मनाई है और कहा है कि वह आधुनिकीकरण के लिए बड़े पैमाने पर खरीदारी करेगी. अब आपको भी समझ में आ ही जाना चाहिए कि सरकार वर्तमान सेनाध्यक्ष को एक और साल इस पद पर बर्दाश्त नहीं कर सकती थी इसलिेए उम्र विवाद की आड़ में उन्हें जल्दी से जल्दी मुक्ति माना चाहती थी. यह तो जनरल थे, जिन्होंने जंग शुरू कर दी वरना देश की नौकरशाही का जो आलम है उसके आगे अच्छे से अच्छा जनरल भी पानी भरने लगता है.
लेकिन उम्र विवाद खत्म होने से मामला खत्म नहीं हुआ. जनरल ने जब जंग की शुरूआत एक इंटरव्यू से की तो सरकार की ओर से पीएमओ की चिट्ठी लीक कर दी गई जो सीधे सीधे जनरल सिंह को कटघरे में खड़ा करती है. जवाब में जनरल कुछ कहते कि चार अप्रैल को इंडियन एक्सप्रेस ने खबर छाप दी कि 16 जनवरी को सेना की दो टुकड़िया हिसार और आगरा से दिल्ली की ओर कूच कर चुकी थीं. यह वही दिन था जिस दिन सेना प्रमुख की याचिका सुनवाई के लिए सुप्रीम कोर्ट में आ रही थी. सेना और सरकार के बीच जारी जंग में यह खोजी पत्रकारिता का अहम योगदान है जिससे हमें यह पता चल रहा है कि सेना तख्तापलट करने के लिए दिल्ली आ रही थी.
लोकतंत्र के चौथे खंभे की खोजी पत्रकारिता के कारण सेना और सरकार के बीच जारी जंग सुलझने के बजाय और उलझती जा रही है. अपने देश के मीडिया में मानों यह नियत होता जा रहा है कि जहां हमारी पत्रकार बिरादरी का टिड्डी दल खोजी पत्रकारिता करने लगता है वहां बंटाधार होने से भगवान भी नहीं बचा सकते. सेना और सरकार के बीच भी यही हो रहा है. खोजी पत्रकारिता के नाम पर बहुत सी ऐसी संवेदनशील सूचनाएं सार्वजनिक की जा रही हैं जो न सिर्फ सेना के मन में गुस्सा भरेंगी बल्कि लोकतंत्र का दामन भी दागदार कर रही हैं.
लेकिन सेना, सरकार और पत्रकार के बीच एक तीसरे एलीमेन्ट को अगर हम नजरअंदाज कर दें तो पिक्चर कभी साफ दिखाई नहीं देगी. वह तीसरा एलीमेन्ट है- सूत्रधार. वह तत्व जो सारा केमिकल लोचा कर रहा है. इसे दिल्ली की भाषा में दलाल कहा जाता है. यही वह दलाल समुदाय है जो रक्षा सौदों का सबसे बड़ा सूत्रधार होता है और फायदा कमाता है. अपने मुनाफे के लिए आज वह किसी जनरल की जान ले सकता है तो कल जरूरी हुआ तो सरकार भी गिराने में उसे संकोच नहीं होगा. इन सूत्रधारों के लिए सबसे बड़ा हथियार होता है मीडिया. क्योंकि इन सूत्रधारों के पास सब तरह की सूचनाएं होती हैं इसलिए वे उन सूचनाओं में से अपने फायदे की जरूरी सूचनाएं मीडिया के खोजी पत्रकारों तक पहुंचाते हैं जैसे चाहते हैं वैसे डेमोक्रेसी को डांस करवा देते हैं.
ताजा मामले में भी मीडिया का इस्तेमाल करके यही सूत्रधार सारा नाटक रच रहे हैं. अगर इंडियन एक्सप्रेस ने यह दावा किया कि सेना दिल्ली की ओर कूच कर रही थी तो अब संडे गार्जियन ने खुलासा कर दिया है कि यह खबर एक सूत्रधार ने ही छपवाई थी ताकि जनरल को राजनीतिक वर्ग में मिल रही सद्भावना नफरत में बदल जाए. जिसका मतलब है कि सूत्रधार अपनी सुविधा के अनुसार पत्रकार का इस्तेमाल कर रहा है. मीडिया दावा कर सकता है कि उसकी खोजी पत्रकारिता के बदौलत रक्षा सौदों में होनेवाली गड़बड़िया का अंदाज आम आदमी को लग रहा है लेकिन क्या वही पत्रकार उस सूत्रधार के असली कर्म के बारे में ईमानदारी से हमें बताता है जिसकी दी गई खबरों पर खेल रहा होता है? कभी नहीं, क्योंकि यह उसका धंधा है. सेना और सरकार के बीच जारी जंग के बीच अगर मीडिया हमें यह बताता कि सारा मामला दलालों के नफे नुकसान का है तो हम निश्चित तौर पर आभारी रहते. लेकिन ऐसा है नहीं.
जो भी हो, सेना, सरकार, पत्रकार और सूत्रधारों की यह चौकड़ी जिस तरह के विवाद में जिस तरह से उलझी हुई है उससे किसी और का कोई नुकसान हो न हो लोकतंत्र का बेड़ा गर्क जरूर हो जाएगा.
(लेखक विस्फोट डॉट काम के संपादक हैं)
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