28 साल पुराना है कांवर यात्रा का इतिहास
(आंचल झा)
रायपुर (साई)।
छत्तीसगढ़ के बैजनाथ धाम की यात्रा से प्रेरणा लेकर 16 उत्साही कांवरियों
ने श्वेत गंगा बम्हनी से सिरपुर के लिए 28 वर्ष पूर्व कांवर यात्रा की शुरूआत की थी।
तब से यह सिलसिला अनवरत जारी है। 16 कांवर यात्रियों के रोपे गए पौधे ने अब
विशाल वट वृक्ष का रूप ले लिया है। अब तो हजारों कांवरियों का जत्था सिरपुर के लिए
निकल पड़ता है। बोल बम के नारों से अपरिचित अंचल श्रावण माह में बोल बम के नारों से
ही गुंजित होने लगता है। प्रारंभ करने वाले कांवरियों के मन में एक सपना था कि
सिरपुर को मिनी बैद्यनाथ धाम बनाना है, वह अब साकार हो गया है।
अब यहां सोमवार ही
नहीं अन्य दिनों में भी कांवरिए जल चढ़ाने पहुंच रहे है। इस वर्ष अब तक 6 हजार से अधिक
कांवर यात्री सिरपुर स्थित गंधेश्वर महादेव में जल अर्पण कर चुके है जबकि बोल बम
का माहौल गुरूवार से ही शहर में बनने लग गया है। सभी ओर से कांवरिए जलाभिषेक के
लिए पहुंच रहे है। अनुमान है कि सावन माह के तीसरे सोमवार 23 जुलाई को 8 से 10 हजार कांवरिए
जलाभिषेक के लिए सिरपुर पहुंचेंगे।
देखते ही बनता है
भगवा काफिलाकांवर यात्रा के दौरान कांवरियों को काफी कठोर नियमों का पालन करना
होता है। सत्य वचन,
ब्रम्हचर्य, धर्य और संयम ऐसे व्रत है जो कांवर यात्रा
के दौरान कांवरिए को नर से नारायण का स्वरूप प्रदान करते है। बोल बम का उच्चरण और
भगवे वस्त्र में रंगे कांवरियों का काफिला देखते ही बनता है। कांवरियों की सेवा
में जगह-जगह सेवाभावी लोग जलपान की व्यवस्था करते है। अलबत्ता बम्हनी से लेकर
सिरपुर तक कांवरियों की सेवा में लगे लोग सुख का अनुभव करते है। कांवरिओं को कभी
भी अपना धर्य और संयम नहीं खोना चाहिए।
समाचार एजेंसी ऑफ
इंडिया को मिली जानकारी के अनुसार श्वेतगंगा बम्हनी से जल लेकर कांवरिओं का जत्था
सिरपुर के लिए प्रस्थान करता है। इस दौरान उन्हें 42 किमी की दूरी नंगे
पांव तय करनी पड़ती है। प्रथम कांवर यात्रा बम्हनी से सिरपुर के लिए २९ जुलाई 1984 को रवाना हुई थी।
जिसमें जीवनलाल गांधी, विट्टलदास चांडक, उमेश शर्मा, लालाराम साहू, बोधराज बजाज, जमीर सिंह, चोवासिंह ठाकुर, बाबूलाल पटेल
रामाधर ताम्रकार, शारदा
तिवारी दोनों धमधा से, गजानंद मिश्रा ने हिस्सा लिया।
बताते हैं कि प्रथम
कांवर यात्रा 29 जुलाई 1984 को प्रारंभ हुई
थी। उसके पहले बस स्टैंड में जीवन लाल गांधी, उमेश शर्मा, गजानंद मिश्रा, रामाधार ताम्रकार, विट्ठलदास चांडक, हरिशचंद्र माटे
बैठे थे। बाबा बैद्यनाथ यात्रा की चर्चा की जा रही थी। उसी वक्त एक विचार उत्पन्न
आया कि हमारे पास बम्हनी में श्वेतगंगा है और सिरपुर में गंधेश्वर नाथ विराजमान
है। क्यों न बैद्यनाथ धाम यात्रा की तरह यहां भी कांवर यात्रा आयोजित की जाए। फिर
क्या था १६ कांवर यात्रियों का जत्था तैयार हो गया और प्रथम टोली रवाना हुई। इस
प्रथम टोली के यात्रियों को जितना कष्ट मार्ग में उठाना पड़ा वह यात्रा में शामिल
लोगों के लिए एक चिर स्थाई याद है। जिसे भुलाया नहीं जा सकता।
यात्रियों का जत्था
बम्हनी से ही काफी विलंब से रवाना हुआ था। महासमुंद पहुंचने और स्वागत सत्कार में
भी काफी विलंब हुआ। सावन माह के बावजूद बारिश नहीं था सूर्य की तेज किरणों में
कांवरयात्री काफी व्याकुल हो गए थे। कौंआझर से सिरपुर के लिए जब जत्था रवाना हुआ
तो तीन बजे चुके थे। और १७ किमी का सफर तय करना बाकी था। रास्ते में ही अंधेरे ने
एक तरह से चक्का जाम की स्थिति पैदा कर दी। सिरपुर से एक किमी पहले सेनकपाट नामक
गांव पड़ता है।
वहां
पहुंचते-पहुंचते रात के ९ बज चुके थे। उसी वक्त तेज हवाओं के साथ जमकर बारिश होने
लगी। शरीर कांप रहे थे कांवर यात्रियों के दल टुकड़ियों में बंट गए थे। कोई आगे चल
रहा था कोई, कोई बहुत
पीदे। मार्ग न भटके इसलिए कांवरियों ने टार्च भी रखा था और दूर वाले कांवरिकों को
बम के संबोधन से बुला रहे थे। तो साथ चलनेवाले कांवरिए बोल बम का उच्चरण कर रहे
थे। चूंकि कांवरियों के मध्य फासला काफी बढ़ चला था। इसलिए टोह लेने के अंदाज में
बोल बम का उच्चरण जोर-शोर से करते चले जा रहे थे। सेनकपाट गांव आने पर यही प्रकिया
जारी थी। इधर गांव में हलचल होनी शुरू हो गई। ग्रामीण समझे कि गांव में डाकूओं के
गिरोह ने हमला कर दिया है और सभी बम से लैस होकर आए है। फिर क्या था ग्रामीण भी
हथियारों से लैस होकर कांवरिए निहत्थे थे और सिरपुर की यात्रा में थे। जब बात समझ
में आई तो ग्रामीण क्षमायाचना करते हुए वापस लौट गए।
भूत भावन आशुतोष की
अर्चना और अभ्यर्थना का महापर्व है श्रावण मास। कहते है भगवान भालेनाथ एक लोटा
पवित्र जल से ही प्रसन्न हो जाते हैं और भक्तों की मुरादें पूर्ण करते है, इसी से जलाभिषेक की
पंरपरा जुड़ी हुई है। शिव पर जल अर्पण करने की प्रचलित मान्यताओं के बारे में ऐसा
कहा जाता है कि समुद्र मंथन के दौरान समुद्र से विष निकला था। जग कल्याण के लिए
देवों के देव महादेव ने उसे अपने कंठ में धारण कर लिया और नीलकंठ कहलाए। गरल की
जलन को शांत करने के लिए ही शिव पर जल अर्पण करने की प्रथा के बारे में कहा जाता है।
गले में सर्प धारण करने को भी इन्हीं अर्थाे में लिया जा सकता है क्योंकि सर्प का
शरीर ठंडा होता है,
स्पर्श करने से ये बातें स्पष्ट हो जाती है। वैसे जल अर्पण
करने की और भी मान्यताएं है जिनमें उनके भोले रूवरूप को लेकर कहा जाता है कि वे
इतने भोले भाले है कि केवल एक लोटे पवित्र जल भक्ति भाव से अर्पण करने से ही
प्रसन्न हो जाते है और इच्छित कामनाएं पूर्ण होती है। इन्हीं कारणों से शिवालयों
में जलाभिषेक का आयोजन किया जाता है। श्रावण मास के आते ही भक्तगण कांवर में
गंगाजल लेकर गंगाधारी को रिझाने नंगे पाव निकल पड़ते है और अपने वांछित शिवलिंग में
जल अर्पण कर अपनी यात्रा समाप्त करते हैं। कांवर में जल लेकर कांवर यात्रा की
प्रथा तो अब अनेक स्थानों पर प्रारंभ हो चुकी है किंतु सर्वाधिक कांवर यात्री बाबा
बैजनाथ धाम की यात्रा करते है। यहां पूरे श्रावण माह मेला लगा रहता है। अनुमान के
मुताबित प्रतिदिन डेढ़ लाख कांवरियों द्वारा राणवेश्वर बैजनाथ का जलाभिषेक किया
जाता है। कांवर यात्री सुल्तानगंज के उत्तर वाहिनी गंगा से जल लेकर अपनी यात्रा
प्रारंभ करते है और करीब १क्५ किलोमीटर की पदयात्रा नंगे पाव करते हैं
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