राम चंद्र कह गए सिया से, एसा कलयुग आएगा!
हंस चुगेगा दाना रे भईया, कौआ मोती खाएगा!!
(लिमटी खरे)
दिल्ली में चलती बस में चालीस मिनिट नर
पिशाचों ने एक अबोध बाला के शरीर को नोंचा खसोटा, दिल्ली की गद्दी और केंद्र की गद्दी में
बैठी सत्ता की मलाई चखने वाली कांग्रेस की तंद्रा नहीं टूटी। जब सारे देश ने एक
साथ चिंघाड़ ने हाकिमों की नींद हराम की तब जाकर सरकार कुछ हिली। प्रधानमंत्री ने
अपना ‘ठीक है‘ का भाषण दिया तो राष्ट्रपति को भी मजबूरी में जनता के सामने आना ही पड़ा।
ममला यहीं खत्म नहीं होता है। जब ममला संगीन हुआ तब सराकर ने कुछ जांच जैसे कुछ
लालीपाप थमा दिए। इसी बीच दिल्ली पुलिस के एक कांस्टेबल की मौत से आंदोलन को झटका
लगा। आरोप प्रत्यारोप के बीच ज्ञात हुआ कि उक्त आरक्षक को भीड़ ने नहीं मारा। हद तो
उस वक्त हो जाती है जब लगभग आधा दर्जन पुलिस अधिकारियों की मौजूदगी में एक
न्यायधीश द्वारा पीडिता के बयान लिए जाते हैं उसमें दिल्ली पुलिस दबंगई दिखाकर
न्यायधीश को पुलिस के हिसाब से बयान लेने पर मजबूर करती है।
लगता है भारत गणराज्य को किसी की नजर
लगी है। देश पर पहले मुगलों का हमला हुआ फिर देश को गोरे ब्रितानियों ने लूटा
खसोटा। जैसे तैसे आजादी मिली पर आजादी के बाद भी लगातार देश को लूटने का सिलसिला
चलता ही रहा। आजादी के उपरांत एक के बाद एक घपले घोटाले सामने आते रहे पर नैतिकता
की दुहाई देने वाले नेताओं ने अपने भाषणों में नैतिकता को अहम स्थान देकर जनता को
छलना नहीं छोड़ा। देश के भोले भाले गरीब गुरबे लुटते पिटते रहे। अनाचार, दुराचार, भ्रष्टाचार, बलात्कार मानो स्टेटस सिंबाल बन चुका
है। साफ सुथरी राजनीतिक व्यवस्था का दावा करने वाले सभी दलों में इनका बोलबाला है।
इतना ही नहीं मसल पावर और धनबल से चुनाव जीतकर ये व्यवस्था को नाक चिढ़ाते हैं पर
किसी को इसकी परवाह ही नहीं दिखती।
दिल्ली में सरेराह बलात्कार होना आम बात
है। 16 दिसंबर की रात जो हुआ वह उसी सड़ी जंग लगी, बदबूदार सड़ांध मारती व्यवस्था का हिस्सा
था। देश में युवाओं का आक्रोश फूटा वैसे ही हाकिमों की पतलून गीली होना चालू हुई।
हाकिम इस बात से खौफजदा थे कि यह आंदोलन किसी की अगुआई के बिना आखिर कैसे इस कदर
भड़का। हाकिमों ने अपनी कुटिल चालें चलीं और आंदोलन की हवा निकालनी आरंभ की। इसी
बीच विस्फोट डॉट काम ने हाकिमों की इस गंदी मानसिकता को एक आलेख के जरिए उजागर
किया जिसमें बताया गया कि किस तरह से हाकिमों ने इस आंदोलन को रौंद दिया।
इसके उपरांत देश भर में सुलगी आग को
शांत करने के लिए वजीरे आजम डॉ.मनमोहन सिंह ने देश को संबोधित किया और अंत में ठीक
है का पुछल्ला समूचे देश ने सुना। इस मामले में सूचना प्रसारण मंत्रालय ने
कार्यवाही कर गरीब निचले कर्मचारियों पर कार्यवाही कर दी। सूचना प्रसारण मंत्रालय
यह भूल जाता है कि किसी भी प्रसारण की जिम्मेवारी केमरामेन नहीं वरन समाचार संपादक
की होती है!
तभी दिल्ली पुलिस के आरक्षक की मौत का
मामला सामने आया। खबर आई कि आम आदमी पार्टी पर हवलदार की हत्या का आरोप मढ़ दिया
गया है। आरोपों का क्या है? बचपन में एक सिनेमाघर के बाहर की पान की
दुकान पर टंगा एक जुमला जेहन में घूम गया जिसकी इबारत थी -
अफवाहों से बचिए, इनके पर नहीं होते!
ये वो शैतान उड़ाते हैं जिनके घर नहीं
होते!!
अरक्षक की मौत के बारे में कहा जाने लगा
कि भीड़ ने उस आरक्षक को घायल किया और अस्पताल में जाकर उसने दम तोड़ दिया। दिल्ली
पुलिस को मौका मिला और उसने अपनी तलवार की धार तेज कर दी। यह तो भला हो सोशल
नेटवर्किंग वेब साईट का कि एक बार फिर उसने अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई और लोगों को
बताया कि घायल आरक्षक जो दिल का मरीज था, की मदद भीड़ ने ही की। अब दिल्ली पुलिस
पर प्रश्न चिन्ह लग रहा है कि आखिर एक कार्डियक मरीज को उसने इस तरह के भभ्भड़ वाले
आंदोलन में कर्तव्य पर क्यों भेजा?
अखबारों में यह बात जोर शोर से उठाई गई
कि पीडिता का बयान लेने जब एक न्यायिक दण्डाधिकारी ने जब पीडिता का बयान लेना चाहा
तो पुलिस ने उसमें हस्ताक्षेप किया। पुलिस की हिमाकत तो देखिए न्यायिक दण्डाधिकारी
को ही पुलिस की निर्धारित प्रश्नावली के तहत प्रश्न पूछने के लिए विवश किया गया और
नहीं मानने पर उस न्यायिक दण्डाधिकारी से दुर्व्यवहार किया गया। यह तो निश्चित तौर
पर इंतेहा है। एसा प्रतीत होता है मानो प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री या किसी व्हीव्हीआईपी के
मीडिया के साक्षात्कार के लिए क्वेश्चनायर दिया गया हो।
इस बात को किसी ओर ने नहीं वरन् दिल्ली
की निजाम ने अपने पत्र में लिखकर केंद्रीय गृह मंत्री को भेजा है। केंद्रीय गृह
मंत्री को लिखा शीला दीक्षित का पत्र लीक कैसे हो गया इसकी जांच की मांग अवश्य की
जा रही है, पर पुलिस द्वारा पीडिता और उसकी मां के द्वारा केमरे के सामने बयान देने
से रोकने, दण्डाधिकारी से दुर्व्यवहार की जांच की मांग कोई नहीं कर रहा है।
क्या हो गया है भारत गणराज्य को? क्या यही स्वराज है महात्मा गांधी के
सपनों का? क्या यही है आजादी के मायने? क्या देश को नोचने खसोटने को ही
प्रजातंत्र कहते हैं? क्या पुलिस की बलात लाठियां निर्दोषों पर बरसें और बलात्कार के आरोपी
जनसेवक बन जाएं इसे ही लोकतंत्र का आधार कहें? क्या सांसद विधायक जनता के गाढ़े पसीने
से संचित धन पर एश करें यही भारत गणराज्य की स्थापना का उद्देश्य रहा है? ये ही नहीं आज आजाद भारत के नागरिकों के
जेहन में और ना जाने कितने प्रश्न घुमड़ रहे हैं जिनका उत्तर आज भी उन्हें नहीं
मिला है। कलयुग की परिकल्पना पर आधारित कथित किंवदतीं ही अचानक जेहन में आती है -
राम चंद्र कह गए सिया से!
एसा कलजुग आएगा!!
हंस चुगेगा दाना रे भईया!!!
कौआ मोती खाएगा!!!!
(साई फीचर्स)
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