तीन दिन में सिमटी
राष्ट्रभक्ति
(लिमटी खरे)
देशप्रेम का जज्बा
आज कम ही देखने को मिल रहा है। आजादी कैसे मिली, किस कीमत पर कितने
जतन के बाद मिली इस बारे में युवा पीढ़ी अनिभिज्ञ ही है। इसका सबसे बड़ा कारण यह है
कि युवाओं को दिशा देने वाला सबसे बड़ा माध्यम केंद्रीय मानव संसाधन विभाग राजनैतिक
दलों के छिपे हुए एजेंडों को लागू करने का साधन बन चुका है। दरअसल, शिक्षा के माध्यम
से ही आने वाली पीढ़ी को दिशा और दशा दी जा सकती है। विडम्बना ही कही जाएगी कि
अस्सी के दशक के जाते जाते केंद्रीय मानव संसाधन विभाग को प्रयोगशाला बना दिया गया
है। आलम यह है कि सालों से देशप्रेम के गाने महज गणतंत्र दिसव, स्वाधीनता दिवस और
गांधी जयंती पर ही सुनाई दे जाते हैं। आजादी के मतवालों को बीसवीं सदी के अंतिम
दशक और इक्कीसवीं सदी में होश संभालने वाली पीढ़ी ने भुला दिया है। युवा पीढ़ी को यह
भी नहीं मालूम होगा कि देश प्रेम की अलख जगाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, सुभद्रा कुमारी
चौहान और कवि प्रदीप जैसे कवि गायकों ने। अब तो देशभक्ति महज तीन दिनों में सिमटकर
रह गई है।
कितने जतन के बाद
भारत देश में 15 अगस्त 1947 को आजादी का
सूर्योदय हुआ था। देश को आजाद कराने, न जाने कितने मतवालों ने घरों घर जाकर देश
प्रेम का जज्बा जगाया था। सब कुछ अब बीते जमाने की बातें होती जा रहीं हैं। आजादी
के लिए जिम्मेदार देश देश के हर शहीद और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी की कुर्बानियां
अब जिन किताबों में दर्ज हैं, वे कहीं पडी धूल खा रही हैं। विडम्बना तो
देखिए आज देशप्रेम के ओतप्रोत गाने भी बलात अप्रसंगिक बना दिए गए हैं। महान
विभूतियों के छायाचित्रों का स्थान सचिन तेंदुलकर, अमिताभ बच्चन, अक्षय कुमार जैसे
आईकान्स ने ले लिया है। देश प्रेम के गाने महज 15 अगस्त, 26 जनवरी और गांधी
जयंती पर ही दिन भर और शहीद दिवस पर आधे दिन सुनने को मिला करते हैं।
गौरतलब होगा कि
आजादी के पहले देशप्रेम के जज्बे को गानों में लिपिबद्ध कर उन्हें स्वरों में
पिरोया गया था। इसके लिए आज की पीढी को हिन्दी सिनेमा का आभारी होना चाहिए, पर वस्तुतः एसा है
नहीं। आज की युवा पीढी इस सत्य को नहीं जानती है कि देश प्रेम की भावना को व्यक्त
करने वाले फिल्मी गीतों के रचियता एसे दौर से भी गुजरे हैं जब उन्हें ब्रितानी
सरकार के कोप का भाजन होना पडा था।
देखा जाए तो
देशप्रेम से ओतप्रोत गानों का लेखन 1940 के आसपास ही माना जाता है। उस दौर में बंधन, सिकंदर, किस्मत जैसे
दर्जनों चलचित्र बने थे, जिनमें देशभक्ति का जज्बा जगाने वाले गानों को खासा स्थान
दिया गया था। मशहूर निदेशक ज्ञान मुखर्जी द्वारा निर्देशित बंधन फिल्म संभवतः पहली
फिल्म थी जिसमें देशप्रेम की भावना को रूपहले पर्दे पर व्यक्त किया गया हो। इस
फिल्म में जाने माने गीतकार प्रदीप (रामचंद्र द्विवेदी) के द्वारा लिखे गए सारे
गाने लोकप्रिय हुए थे। कवि प्रदीप का देशप्रेम के गानों में जो योगदान था, उसे भुलाया नहीं जा
सकता है।
इसके एक गीत ‘‘चल चल रे नौजवान‘‘ ने तो धूम मचा दी
थी। इसके उपरांत रूपहले पर्दे पर देशप्रेम जगाने का सिलसिला आरंभ हो गया था। 1943 में बनी किस्मत
फिल्म के प्रदीप के गीत ‘‘आज हिमालय की चोटी से फिर हमने ललकारा है, दूर हटो ए दुनिया
वालों हिन्दुस्तान हमारा है‘‘ ने देशवासियों के मानस पटल पर देशप्रेम
जबर्दस्त तरीके से जगाया था। लोगों के पागलपन का यह आलम था कि लोग इस फिल्म में यह
गीत बारंबार सुनने की फरमाईश किया करते थे।
आलम यह था कि यह
गीत फिल्म में दो बार सुनाया जाता था। उधर प्रदीप के क्रांतिकारी विचारों से
भयाक्रांत ब्रितानी सरकार ने प्रदीप के खिलाफ गिरफ्तारी वारंट जारी कर दिया, जिससे प्रदीप को
कुछ दिनों तक भूमिगत तक होना पडा था। पचास से साठ के दशक में आजादी के उपरांत
रूपहले पर्दे पर देशप्रेम जमकर बिका। उस वक्त इस तरह के चलचित्र बनाने में किसी को
पकडे जाने का डर नहीं था, सो निर्माता निर्देशकों ने इस भावनाओं का जमकर दोहन किया।
दस दौर में फणी
मजूमदार, चेतन आनन्द, सोहराब मोदी, ख्वाजा अहमद अब्बास
जैसे नामी गिरमी निर्माता निर्देशकों ने आनन्द मठ, लीजर, सिकंदरे आजम, जागृति जैसी
फिल्मों का निर्माण किया जिसमें देशप्रेम से भरे गीतों को जबर्दस्त तरीके से उडेला
गया था।
1962 में जब भारत और चीन युद्ध अपने चरम पर था, उस समय कवि प्रदीप
द्वारा मेजर शैतान सिंह के अदम्य साहस, बहादुरी और बलिदान से प्रभावित हो एक गीत की
रचना में व्यस्त थे,
उस समय उनका लिखा गीत ‘‘ए मेरे वतन के लोगों, जरा आंख मंे भर लो
पानी . . .‘‘ जब
संगीतकार ए.रामचंद्रन के निर्देशन में एक प्रोग्राम में स्वर कोकिला लता मंगेशकर
ने सुनाया तो तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू भी अपने आंसू नहीं रोक
सके थे।
इसी दौर में बनी
हकीकत में कैफी आजमी के गानों ने कमाल कर दिया था। इसके गीत कर चले हम फिदा जाने
तन साथियो को आज भी प्रोढ हो चुकी पीढी जब तब गुनगुनाती दिखती है। सत्तर से अस्सी
के दशक में प्रेम पुजारी, ललकार, पुकार, देशप्रेमी, कर्मा, हिन्दुस्तान की कसम, वतन के रखवाले, फरिश्ते, प्रेम पुजारी, मेरी आवाज सुनो, क्रांति जैसी
फिल्में बनीं जो देशप्रेम पर ही केंदित थीं।
वालीवुड में प्रेम
धवन का नाम भी देशप्रेम को जगाने वाले गीतकारों में सुनहरे अक्षरों में दर्ज है।
उनके लिखे गीत काबुली वाला के ए मेरे प्यारे वतन, शहीद का ए वतन, ए वतन तुझको मेरी
कसम, मेरा रंग
दे बसंती चोला, हम
हिन्दुस्तानी का मशहूर गाना छोडो कल की बातें कल की बात पुरानी,
महान गायक मोहम्मद
रफी ने देशप्रेम के अनेक गीतों में अपना स्वर दिया है। नया दौर के ये देश है वीर
जवानों का, लीडर के
वतन पर जो फिदा होगा, अमर वो नौजवां होगा, अपनी आजादी को हम हरगिज मिटा सकते नहीं . .
., आखें का उस
मुल्क की सरहद को कोई छू नहीं सकता. . ., ललकार का आज गा लो मुस्करा लो, महफिलें सजा लो, देश प्रेमी का आपस
में प्रेम करो मेरे देशप्रेमियों, आदि में रफी साहब ने लोगों के मन में आजादी
के सही मायने भरने का प्रयास किया था।
गुजरे जमाने के मशहूर
अभिनेता मनोज कुमार का नाम आते ही देशप्रेम अपने आप जेहन में आ जाता है। मनोज
कुमार को भारत कुमार के नाम से ही पहचाना जाने लगा था। मनोज कुमार की कमोबेश हर
फिल्म में देशप्रेम की भावना से ओतप्रोत गाने हुआ करते थे। शहीद, उपकार, पूरब और पश्चिम, क्रांति जैसी फिल्में
मनोज कुमार ने ही दी हैं।
अस्सी के दशक के
उपरांत रूपहले पर्दे पर शिक्षा प्रद और देशप्रेम की भावनाओं से बनी फिल्मों का
बाजार ठंडा होता गया। आज फूहडता और नग्नता प्रधान फिल्में ही वालीवुड की झोली से
निकलकर आ रही हैं। आज की युवा पीढी और देशप्रेम या आजादी के मतवालों की
प्रासंगिकता पर गहरा कटाक्ष कर बनी थी, लगे रहो मुन्ना भाई, इस फिल्म में 2 अक्टूबर को गांधी
जयंती के बजाए शुष्क दिवस (इस दिन शराब बंदी होती है) के रूप में अधिक पहचाना जाता
है। विडम्बना यह है कि इसके बावजूद भी न देश की सरकार चेती और न ही प्रदेशों की।
हमें यह कहने में
कोई संकोच नहीं कि भारत सरकार और राज्यों की सरकारें भी आजादी के सही मायनों को आम
जनता के मानस पटल से विस्मृत करने के मार्ग प्रशस्त कर रहीं हैं। देशप्रेम के गाने
26 जनवरी, 15 अगस्त के साथ ही 2 अक्टूबर को आधे
दिन तक ही बजा करते हैं। कुल मिलाकर आज की युवा पीढी तो यह समझने का प्रयास ही
नहीं कर रही है कि आजादी के मायने क्या हैं, दुख का विषय तो यह है कि देश के नीति
निर्धारक भी उन्हें याद दिलाने का प्रयास नहीं कर रहे हैं।
दरअसल, शिक्षा की दशा और
दिशा निर्धारित करने का जिम्मा केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय का है। याद
पड़ता है कि जब कुंवर अर्जुन सिंह ने एचआरडी मिनिस्ट्री का कामकाज संभाला तब एक
पत्रवार्ता में उन्होंने कहा था कि शिक्षा में व्याप्त हिंसा को समाप्त करना होगा।
इसके बाद कभी शिक्षा के भगवाकरण के आरोप लगे तो कभी शिक्षा को प्रयोगशाला बनाने
के। अधिवक्ता मित्र पंकज शर्मा ने एक बार एक घटना का उल्लेख किया। उन्होंने बताया
कि वे एक मर्तबा उत्तर प्रदेश के किसी शहर से गुजर रहे थे वहां उन्हें केप्टन हमीद
का स्टेचू देखने को मिला।
केप्टन हमीद का
स्टेचू? सारे के
सारे युवा चौंक गए,
कौन है यह शख्सियत! तब उन्होने बताया कि कि यही वह बहादुर था
जिसके कारण पाकिस्तान के अभैद्य पेटन टेंक भारत के कब्जे में हैं। इस उदहारण को
बताने का तातपर्य महज इतना है कि आजाद भारत गणराज्य के आज के युवा को भारत का
विशेषकर आजादी का इतिहास ही नहीं पता है। वह तो बस पंडित जवाहर लाल नेहरू से लेकर
सोनिया और राहुल गांधी तक के नेताओ को जान रहा है। जाने भी क्यों ना, आधी सदी से ज्यादा
देश पर कांग्रेस ने राज जो किया है, और अपने राज में उसने वास्तविक भारत को
विस्मृत करने की पुरजोर कोशिश के साथ ही इंडिया को जो जिंदा कर दिया है, युवाओं के मानस पटल
पर! (साई फीचर्स)
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