सोमवार, 25 फ़रवरी 2013

अधोसंरचना विकास में भी छला है आदिवासियों को थापर ने


0 रिजर्व फारेस्ट में कैसे बन रहा पावर प्लांट . . . 07

अधोसंरचना विकास में भी छला है आदिवासियों को थापर ने

(एस.के.खरे)

सिवनी (साई)। भगवान शिव का जिला माने जाने वाले मध्य प्रदेश के सिवनी जिले में थापर ग्रुप ऑफ कम्पनी के प्रतिष्ठान झाबुआ पावर लिमिटेड द्वारा आदिवासी बाहुल्य तहसील घंसौर के बरेला ग्राम में प्रस्तावित 1260 मेगावाट के पावर प्लांट के प्रस्ताव में क्षेत्र के अधोसंरचना विकास में भी घालमेल किया जा रहा है। कम्पनी द्वारा आदिवासियों के हितों पर सीधा डाका डालकर स्कूल, उद्यान, अस्पताल आदि की मद में भी कम व्यय किया जाना दर्शाया गया है।
गौरतलब होगा कि इस पावर प्रोजेक्ट में प्रतिदिन दस हजार टन कोयला जलाकर उससे बिजली का उत्पादन किया जाना प्रस्तावित है। झाबुआ पावर लिमिटेड की प्रोजेक्ट रिपोर्ट के अनुसार इसके लिए 300 लोगों को रोजगार दिया जाना प्रस्तावित है। इन तीन सौ लोगों में कितने लोग स्थानीय और कितने स्किल्ड और अनस्किल्ड होंगे इस मामले में कंपनी ने पूरी तरह मौन ही साध रखा है।
केन्द्रीय उर्जा मन्त्रालय के सूत्रों ने समाचार एजेंसी ऑफ इंडिया को बताया कि प्रसिद्ध उद्योगपति गौतम थापर के स्वामित्व वाले अवंथा समूह के सहयोगी प्रतिष्ठान झाबुआ पावर लिमिटेड के इस 1200 मेगावाट के पावर प्लांट के प्रथम चरण में 600 मेगावाट का पावर प्लांट लगाया जाना प्रस्तावित है। इस पावर प्लांट में निकलने वाली उर्जा के दुष्प्रभावों को किस प्रकार कम किया जाएगा इस बारे में कोई स्पष्ट बात नहीं कही गई है। इतना ही नहीं इस काम में इतना जबर्दस्त ध्वनि प्रदूषण होगा कि यहां काम करने वाले लोगों को इयर फोन आदि का प्रयोग करना ही होगा। इसके साथ ही साथ आसपास रहने वाले आदिवासी समुदाय के लोग इसके ताप को सहन कर पाएंगे कि नहीं इस बारे में कहा नहीं जा सकता है।
इस परियोजना के पूरा होने तक चार सालों में अधोसंरचना विकास हेतु महज एक करोड रूपए की राशि प्रस्तावित की गई है, जिसे बहुत ही कम आंका जा रहा है। घंसौर में स्थानीय स्तर पर हुई जनसुनवाई के उपरांत कंपनी ने कितनी रकम किस मद में व्यय की है इस बारे में वह पूरी तरह से मौन साधे बैठी है। वैसे यहां पावर प्लांट लगाने वाली कंपनी द्वारा अस्पताल, स्कूल, बाग बगीचे आदि के लिए बहुत कम राशि का प्रावधान किया गया है। जानकारों का कहना है कि इस मद में एक से पांच प्रतिशत तक की राशि का प्रावधान किया जाना चाहिए था, ताकि इस परियोजना से होने वाले दुष्प्रभावों को कम करने के मार्ग प्रशस्त किए जाकर आदिवासियों को कुछ मुआवजा ही मिल पाता।
मजे की बात तो यह है कि इस पावर प्रोजेक्ट की स्थापना हेतु मध्य प्रदेश सरकार को कितनी रायल्टी मिलने वाली है, इस बात का भी खुलासा नहीं किया गया है। गौरतलब है कि उस वक्त हिमाचल प्रदेश सरकार द्वारा उस राज्य में स्थापित होने वाले पावर प्रोजेक्ट पर जितनी रायल्टी वर्तमान में प्रस्तावित थी, उससे इतर बिजली उत्पादन होने की दशा में प्रोजेक्ट से एक फीसदी की दर से अतिरिक्त रायल्टी लेने का प्रावधान किया गया है, इस राशि से पावर प्रोजेक्ट की जद में आने वाली ग्राम पंचायतों को गुलजार किया जाना प्रस्तावित है।
विडम्बना यह है कि आदिवासी बाहुल्य तहसील घंसौर के ग्राम बरेला में लगने वाले इस पावर प्लांट की कुल लागत कितनी है, कंपनी को स्थानीय क्षेत्र या जद में आने वाले गावों के विकास के लिए कितने फीसदी राशि का प्रावधान किया जाना है, राज्य सरकार को कितनी रायल्टी मिलेगी या फिर बिजली उत्पादन होने पर अतिरिक्त रायल्टी कितनी मिलेगी और कब तक मिलती रहेगी, इस बारे में कोई ठोस जानकारी न तो सरकार के पास से ही मुहैया हो पा रही है, और न ही कंपनी द्वारा पारदर्शिता अपनाते हुए बताया जा रहा है।
2009 में आरंभ हुई इस परियोजना को आरंभ हुए साढ़े तीन साल बीत चुके हैं फिर भी अधोसंरचना विकास के नाम पर यहां सिर्फ कागजी घोड़े ही दौड़ाए जा रहे हैं। आरोपित है कि चार साल में एक फीसदी से भी कम राशि का किया प्रावधान कर आदिवासियों के हितों पर हो रहा कुठाराघात किया जा रहा है।
(क्रमशः जारी)

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